सुशील उपाध्याय
सुबह घर में भगदड़ जैसी स्थिति है। पत्नी को ऑनलाइन क्लास लेनी है, बेटे के फोन में सिगनल्स पुअर है और बेटी इस बात को लेकर चिंतित है कि उसके ऑनलाइन एग्जाम के दौरान कहीं नेट कनेक्टिविटी परेशान ना करने लगे। यह केवल किसी एक घर का नहीं, बल्कि प्रायः सभी घरों का चित्र है, जो इन दिनों देखने को मिल रहा है। यकीनन तकनीक ने बहुत सारी चीजें आसान की हैं, लेकिन जिस तरह से तकनीक आम जिंदगी की सामान्य चीजों को प्रतिस्थापित करने के बड़े टूल के रूप में देखी जा रही है, वह चिंताजनक लग रहा है।
कोरोना संक्रमण के बीते 10 महीनों में तकनीक का फैलाव आम घरों और आम लोगों तक व्यापक रूप से हुआ है, लेकिन इससे उनकी जिंदगी बेहतर हुई हो इसका कोई प्रामाणिक रिकॉर्ड अभी उपलब्ध नहीं है। बच्चों के मामले में इस तकनीक ने ऐसे तमाम खतरे पैदा किए हैं, जिनसे हर जागरुक व्यक्ति वाकिफ है। मेरा बेटा इस बार दसवीं का इम्तिहान देगा। कुछ दिन पहले मैंने उससे कहा कि किसी सब्जेक्ट में जरूरत हो तो ऑनलाइन ट्यूशन या ऑनलाइन कोचिंग ले लो। उसने बहुत तीखे ढंग से मना किया और कहा कि वह ऑनलाइन पढ़ने से थक गया है। अब किसी भी सूरत में स्कूल जाना चाहता है।
ठीक यही बात मैंने अपने कॉलेज के स्टूडेंट्स के संदर्भ में भी महसूस की। हमारे शिक्षकों ने कुछ महीने पहले एक सर्वे कराया जिसमें 1200 छात्रों ने ऑनलाइन पढ़ाई से सम्बंधित 20 सवालों के जवाब दिए। इस सर्वे में यह निकल कर आया कि जब तक कोई विकल्प न हो तब तक ऑनलाइन पढ़ाई कराई जा सकती है, लेकिन यह पढ़ाई फेस टू फेस क्लास का स्थान ले लेगी, छात्र ऐसा नहीं मानते। लगभग यही राय शिक्षकों की भी है।
विगत अप्रैल में शिक्षक जिस उत्साह के साथ ऑनलाइन पढ़ा रहे थे, वह उत्साह अब नवंबर आते-आते खत्म हो गया है। ऑनलाइन कक्षाओं में छात्र-छात्राओं की उपस्थिति एक तिहाई तक घट गई है, जबकि इस अवधि में गरीब परिवारों ने भी जैसे-तैसे अपने बच्चों के लिए स्मार्टफोन या गैजेट्स उपलब्ध कराएं हैं। इस लिहाज से कक्षाओं में संख्या बढ़नी चाहिए थी।
शिक्षकों ने अभी हाल ही में एक और सर्वे कराया गया, जिसमें 700 छात्र-छात्राओं ने जवाब दिए। इससे पता लगा कि 6 महीने पुराने सर्वे की तुलना में ऑनलाइन पढ़ने के इच्छुक छात्र-छात्राओं की संख्या में कमी आ गई। चूंकि, मेरा महाविद्यालय संख्या के लिहाज से अपेक्षाकृत छोटा है, केवल 2000 छात्र-छात्राएं हैं और स्टाफ काफी बड़ा है इसलिए हमने एमए, एमएससी और एमकॉम के छात्र-छात्राओं को कम संख्या में फेस टू फेस क्लास की सुविधा उपलब्ध कराई है। इसमें भी एक बात देखने में आ रही है कि स्टूडेंट्स की क्लास-हैबिट पर भी नकारात्मक
प्रभाव पड़ा है।
गांव का महाविद्यालय होने के चलते हम लोग अपने कैंपस में, जब तक बहुत अनिवार्य ना हो, स्मार्टफोन या गैजेट्स के प्रयोग को प्रमोट नहीं करते थे, लेकिन अब स्थितियां उलट गई हैं। ऐसे में यह पता करना मुश्किल है कि कौन-सा छात्र किस गैजेट को पढ़ने के लिए इस्तेमाल कर रहा है और कौन-सा छात्र कैंपस में बैठकर ही अपने गेजेट पर मनोरंजन की चीजें ढूंढ रहा है। जिस भी तरफ देखिये, चाहे कर्मचारी हो, शिक्षक हो या छात्र हो, वह फोन में घुसा दिखता है।
मैं इस समस्या का सरलीकरण नहीं कर रहा हूं, लेकिन मेट्रो सिटीज में रहने वाले छात्र-छात्राओं और हम जैसे ग्रामीण इलाकों की संस्थाओं के छात्र-छात्राओं की परवरिश, उनकी बुनियादी समझ और परिस्थितियां पूरी तरह अलग हैं। इसलिए इन दोनों प्रकार के समूहों पर तकनीक का असर भी अलग-अलग तरह देखने को मिल रहा है।
जहां तक इसके प्रभावों की बात है, इसे एक व्यक्तिगत अनुभव में मैंने महसूस किया। अखबार पढ़ते हुए एक फोटो ठीक ढंग से नहीं दिख रहा था। अचानक मैंने उस फोटो को उसी तरह से एनलार्ज करने की कोशिश की जैसे कि स्मार्ट फोन की स्क्रीन पर करते हैं। जब वह फोटो एनलार्ज नहीं हुई, तब एहसास हुआ कि यह स्मार्टफोन नहीं अखबार है। संभव है, नई पीढ़ी इस नई तकनीक को अलग तरह से इस्तेमाल करती हो, लेकिन हम जैसे अधेड़ अवस्था की तरफ बढ़ लोग जिन्होंने इस तकनीक को बहुत मुश्किल से सीखा और इस्तेमाल करना शुरू किया है, वे भी इसकी गिरफ्त में हैं।
इस तकनीक का घेरा अब इतना कसता हुआ दिख रहा है कि यदि हर 15-20 मिनट में एक बार फोन चेक ना करो तो लगता है कि कुछ छूट गया है। कोई ऐसी सूचना, कोई मैसेज या कोई खबर, जो हम तक नहीं पहुंची है, उसे देखने के लालच में कभी व्हाट्सएप, कभी फेसबुक, कभी न्यूज़ साइट और कभी मैसेज बॉक्स देखने की आदत का फैलाव बहुत व्यापक रूप से हुआ है। इसका एक मोटा दृश्य सार्वजनिक जगहों और बसों आदि में भी देखने को मिलता है।
मेरे कुछ शिक्षकों ने भी अपना एक अनुभव शेयर किया। उन्होंने बताया कि वह यदि अपना फोन लिए बिना क्लास में चले जाएं तो बार-बार लगता रहता है कि फोन पर कोई जरूरी सूचना आई होगी। जबकि ऐसा अनिवार्य नहीं है की 50 मिनट की उस क्लास के दौरान कोई अनिवार्य सूचना आ ही गई हो। मुझे व्यक्तिगत रुप से इस नई तकनीक से खिन्नता का एहसास उस वक्त भी हुआ जब स्वयं पोर्टल पर एक ऑनलाइन कोर्स के कुछ व्याख्यान सुनने के बाद मैंने उस कोर्स को अधूरा छोड़ दिया क्योंकि क्लास में सुने जाने वाले व्याख्यान या सार्वजनिक बौद्धिक व्याख्यानों की तुलना में ऑनलाइन व्याख्यान बेहद नीरस, तथ्यों से ठूंसे हुए और निर्जीव किस्म के लगते हैं।
विगत 10 महीने में कोरोना ने नई पीढ़ी को जिस तरह की आदतों का शिकार, तकनीक के मामले में बनाया है, उनके असर भविष्य में कैसे होंगे, इसका अनुमान लगाना अभी आसान नहीं है। इतना जरूर है कि एक रेडिकल शिफ्ट हर जगह दिख रहा है और उसी रेडिकल शिफ्ट का एक छोटा नमूना वह है, जो मैंने सुबह अपने घर में देखा।
पुनश्चः
खुद में कोई तकनीक अच्छी या बुरी नहीं होती। उसका अच्छा या बुरा होना उसके प्रयोग और परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है।