24 नवम्बर को वन संरक्षक माथुर के बुलावे पर राजा बहुगुणा, विश्वनाथ पांडे, प्रकाश बुघानी और मैं उनसे मिलने गये। वे एक ईमानदार अधिकारी थे। मगर उन्होंने हमारे सामने प्रस्ताव रखा कि हम नीलामी होने दें और उसके बदले हमें सहकारी समिति के माध्यम से कोई जंगल आंबटित कर दिया जायेगा। या हम चाहें तो अपनी पसन्द के लौट चुन लें। उन लौटों को नीलाम सूची से हटा लिया जायेगा। ऐसी सौदेबाजी हम पहली बार देख रहे थे। हम उन्हें खरी-खोटी सुना कर लौट आये।
नैनीताल में 6 अक्तूबर 1977 के लिये निर्धारित जंगलों की नीलामी स्थगित हुई (देखें नैनीताल समाचार, 1 से 14 अक्टूबर 2016) तो उत्तर प्रदेश सरकार ने इसे जनता का संगठित प्रतिरोध न मान कर प्रशासन की ढिलाई समझा। उसका विचार था कि यदि नीलामी सख्त पहरे में होती तो शायद स्थगित न करनी पड़ती।
इस बीच गढ़वाल, जहाँ 1973 से वनों के कटान के विरुद्ध आंदोलन शुरू हो चुके थे, को नैनीताल के नीलामी स्थगन से ऊर्जा मिली। सुंदर लाल बहुगुणा ने नरेन्द्र नगर में 13 अक्तूबर को होने वाली टिहरी वृत्त के वनों की नीलामी का विरोध करने का आह्वान किया। मगर वहाँ नैनीताल जैसी तैयारी या भागीदारी नहीं हो सकी। नीलामी आरंभ होते ही सुंदर लाल जी हाॅल में घुस गये। उन्होंने सर्वोदयी पंरपरा के अनुकूल पर्चे बाँटे और ठेकेदारों से जंगल न खरीदने की अपील की। पर्चे में बताया गया था कि वनों के कटान से बाढ़ और भूस्खलन आते हैं और पर्वतवासियों की कठिनाइयाँ बढ़ती हैं, इसलिए जंगलों की नीलामी नहीं होनी चाहिये। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और नीलामी निर्विरोध चलती रही। बहुगुणा जी का प्रतीकात्मक विरोध दर्ज हो चुका था। उत्तराखंड में ऐसे विरोध 1973 व 74 में भी हो चुके थे। आपात्काल लगे होने से 1975-76 में ऐसे विरोध नहीं हुए।
यहाँ पर वन आन्दोलन की दो धाराओं का जिक्र कर देना समीचीन होगा। बहुगुणा जी के सर्वोदयी आंदोलन में रोजगार की बात नहीं थी। जबकि नैनीताल में हुए आंदोलन में उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी का यही मुख्य मुद्दा था। यह धारा वनों के विदोहन में ठेकेदारी प्रथा का विरोध करती थी। इसका मानना था कि वन अंधाधंुध व्यापारिक तरीके से नहीं, बल्कि सही वैज्ञानिक विधि से कटें और वनों से स्थानीय लोगों को रोजगार मिले। यह दिशा दरअसल सुंदरलाल बहुगुणा और चंडीप्रसाद भट्ट से ही मिली थी, क्योंकि प्रारंभ में दोनों ही वनों से रोजगार के पक्ष में थे। चंडीप्रसाद भट्ट वनौपज से स्थानीय रोजगार का एक माॅडल तैयार कर रहे थे और सुंदर लाल बहुगुणा ने सहकारी समितियों के रूप में श्रमिकों को वनों से सीधे रोजगार दिलाने का प्रयोग किया था। दोनों ही व्यक्ति उ.प्र. वन निगम के प्रबंध मंडल में रह चुके थे और निगम की दोषपूर्ण कार्यप्रणाली के कारण इसे छोड़ चुके थे। सुंदरलाल बहुगुणा न्यूजीलैंड के संेट बार्बे बेकर में आकर वनों के कटान पूर्ण बंद करने और पर्यावरण संरक्षण की दिशा पकड़ चुके थे। सर्वोदयी धारा की राष्ट्रीय स्तर पर पहचान थी। सरकारी स्तर पर सर्वोदयियों का सम्मान था। इसके उलट उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी में छात्रों, युवाओं व आम जनता की भागीदारी थी। सरकार इन लोगों से बात करना भी पसन्द नहीं करती थी, जबकि सर्वोदयी सरकार के तनाव को कम करने के लिये ‘सेफ्टी वाॅल्व’ की तरह कार्य करते थे। इस कारण वाहिनी को अंत तक भेदभाव झेलना पड़ा।
6 अक्टूबर को स्थगित हुई नीलामी को पुनः किये जाने की अधिसूचना जारी हो गयी। इस हठधर्मिता से संघर्ष वाहिनी निराश हुई। उसे आशा थी कि सरकार तवाघाट आंदोलन की तरह बातचीत का रास्ता अपनायेगी। वाहिनी ने तो वनों के कटान के लिये वैकल्पिक रास्ते ढूँढने शुरू कर दिये थे। मनान (अल्मोड़ा) में चन्द्र शेखर भट्ट चंडी प्रसाद भट्ट के दशौली ग्राम स्वराज्य मंडल की तरह श्रमिक संविदा समिति बना रहे थे। सरकार आंशिक रूप से वन विदोहन का काम इन समितियों के माध्यम से करवाने को सहमत हो गयी थी। पंजीकृत वन श्रमिक सहकारी समितियों को जंगल आबंटित भी किये जाने लगे। परन्तु सरकार ने अपने चहेते ठेकेदारों को पिछले दरवाजे से जंगल बेचने और कटान में जन भागीदारी के माॅडल को भ्रष्ट करने के लिये फर्जी सहकारी श्रम समितियांे को पंजीकृत करवाना शुरू कर दिया। वाहिनी चाहती थी कि वन श्रमिक उसी को माना जाये, जो अपनी आजीविका के लिए पूरी तरह वन विदोहन पर ही आश्रित हो। सरकार यह परिभाषा मानने को तैयार नहीं थी।
संशोधित कार्यक्रम के अनुसार कुमाऊँ वृत्त के जंगलों की नीलामी के लिये 28, 29 और 30 नवम्बर 1977 की तिथियाँ घोषित की गईं। इस समय तक रैणी की घटना को घटे तीन साल से अधिक हो गया था। मगर उसका कोई जिक्र नहीं होता था। वन आंदोलन ‘चिपको’ नहीं बना था और उसके लिये प्रतिष्ठा या ईनाम नहीं मिलते थे। सरकार की दृष्टि में यह आन्दोलन विद्रोह था, जिसका सिर्फ दमन ही किया जा सकता था। ऐसे विपरीत माहौल में आंदोलन को चलाना उन युवकों के लिए तो बेहद खतरनाक था, जो अभी अपनी आजीविका ढूँढने जा रहे थे और पुलिस-कचहरी से दूर ही रहना चाहते थे। पर तवाघाट के लोगों को न्याय दिलवा पाने और 6 अक्टूबर की नीलामी स्थगित करवा ले जाने की सफलता उनके भीतर हिलारें भी ले रही थी। पिछली नीलामी में परास्त हो जाने के बावजूद सरकार की दृष्टि में उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के ये नौजवान महत्वहीन थे, क्योंकि जाहिरा तौर न तो कोई राजनैतिक दल या प्रमुख संगठन इस आन्दोलन के पीछे था और न ही कुमाऊँ विश्वविद्यालय का छात्रसंघ, जिसके अध्यक्ष उस वक्त भगीरथलाल चैधरी थे। नैनीताल के जिलाधिकारी बृजमोहन वोहरा को जनता के असंतोष का एहसास था और वे नीलामी कराने को कतई उत्सुक नहीं थे। मगर तत्कालीन वन मंत्री श्री चंद, जो नैनीताल के एक प्रतिष्ठित वकील व ईमानदार व्यक्ति थे, जिद पर अड़े थे। उनके अपने शहर में वनों की नीलामी नहीं हो पा रही थी। उन्होंने नीलामी को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया। सरकार के स्पष्ट आदेश थे कि समाजविरोधी तत्वों से कड़ाई से निबटा जाना चाहिये और इस बार की नीलामी हर हालत में होनी चाहिये।
संघर्ष वाहिनी के नौजवानों ने अपनी रणनीति बनाई। प्रत्यक्ष संपर्क व पोस्टरों, जिनमें पहाड़ से कच्चे माल के बाहर जाने के सापेक्ष युवकों को बेरोजगारी के कारण मैदानों में बर्तन माँजने का जिक्र होता था, से अपनी बातें आम जनता तक पहुँचायी गईं। जनता में इस बात का इतना सकारात्मक प्रभाव गया कि अनेक लोग पोस्टर बनाने के लिए मुफ्त का कागज और स्याही देने लगे। मेघदूत होटल संघर्ष वाहिनी का संपर्क केन्द्र और सेवाॅय होटल सभाओं केन्द्र होता था। इन सभाओं में छात्रों से लेकर बुजुर्ग तक तमाम लोग आते थे, नहीं आते थे तो छात्रसंघ के पदाधिकारी। डी.एस.बी. कालेज के छात्रसंघ को समझाना कठिन था, इसलिए निचले विद्यालयों के बच्चों को जुटाना अधिक उपयुक्त माना गया। सी.आर.एस.टी. के हैड बाॅय शकील थे। नारायण सिंह जंतवाल वहीं कक्षा 11 के छात्र थे और एक ओजस्वी वक्ता के रूप में विकसित हो रहे थे। जी.आई.सी. में कमल नारंग जनरल सेक्रेटरी चुने गये थे। राजा बहुगुणा व मुझे इन लोगों को तैयार करने की जिम्मेदारी दी गई। लंघम छात्रावास में रहने वाले प्रदीप टम्टा और निर्मल जोशी को डी.एस.बी. काॅलेज और छात्रावासों के छात्रों को जोड़ने का काम सौंपा गया।
24 नवम्बर को वन संरक्षक माथुर के बुलावे पर राजा बहुगुणा, विश्वनाथ पांडे, प्रकाश बुघानी और मैं उनसे मिलने गये। वे एक ईमानदार अधिकारी थे। मगर उन्होंने हमारे सामने प्रस्ताव रखा कि हम नीलामी होने दें और उसके बदले हमें सहकारी समिति के माध्यम से कोई जंगल आंबटित कर दिया जायेगा। या हम चाहें तो अपनी पसन्द के लौट चुन लें। उन लौटों को नीलाम सूची से हटा लिया जायेगा। ऐसी सौदेबाजी हम पहली बार देख रहे थे। हम उन्हें खरी-खोटी सुना कर लौट आये। 26 नवम्बर को शहर में ‘शान्ति व्यवस्था बनाने’ के लिए जिलाधिकारी द्वारा बुलाई गई सभा में तथाकथित गणमान्य लोगों के माध्यम से हमें समझाने का प्रयास भी असफल रहा।
27 नवम्बर को खबर मिली कि हमें गिरफ्तार करने की निश्चित तैयारी है। हम तल्लीताल बाजार में मटरू सब्जी वाले के दोमंजिले में, अपने नये अड्डे में छिपे बैठे थे, तो हमने ‘जनता में विश्वास पैदा करने के लिए’ नगर में पी.ए.सी. की एक सशस्त्र टुकड़ी को ‘फ्लैग मार्च’ करते देखा। प्रशासन के अनुसार ‘उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी’ नामक गैरकानूनी संगठन के समाज विरोधी तत्वों द्वारा वनों की नीलामी में गड़बड़ी फैलाने की कोशिश को रोकने के लिये मुस्तैदी बरती जा रही थी। उस रोज भूमिगत रहते हुए हम लोगों ने एक पर्चा लिखा ताकि नैनीताल के निवासियों को हमारे उद्देश्यों के बारे में कोई गलतफहमी न रहे और उनका समर्थन हमें मिलता रहे। मेरे बड़े भाई विश्वनाथ पांडे ने जैसे-तैसे इसे छपवाया। अगले रोज यह पर्चा बहुत काम आया और लोगों ने वर्षों तक इसे सम्हाल कर रखा। उसके बाद छिप-छिपा कर हम टेलीफोन एक्सचेंज के पास रहने वाले अपने एक मित्र गजेन्द्र के पास रात काटने पहुँचे। नीलामी स्थल शैले हाॅल के नजदीक होने के कारण यह जगह उपयुक्त थी। हम मना रहे थे कि हमारे अन्य साथियों को भी सम्भावित गिरफ्तारी की सूचना मिल गई होगी और वे सुरक्षित स्थानों पर पहुँच गये होंगे।
28 नवम्बर की सुबह हम लोग शैले हाॅल पहुँचे तो देखा कि चारों ओर से खम्बे गाड़ कर व रस्सों से उसे अभेद्य किला जैसा बना दिया है। चारों ओर भारी संख्या में पी.ए.सी. थी। मगर वहाँ पर आश्चर्यजनक रूप से राजीव लोचन साह, गिरीश तिवाड़ी, जो आज के बाद ‘गिर्दा’ बन जाने वाले थे और शेखर पाठक आदि मौजूद थे। इन लोगों की 6 अक्टूबर की नीलामी तक वन आन्दोलन में कोई भूमिका नहीं थी। पता चला कि सम्भावित गिरफ्तारी से बचने के लिये ये लोग पिछली रात ब्रुकहिल हाॅल हाॅस्टल में छिपे थे और गिर्दा ने आज के विरोध के लिये एक गीत रचा है। गिर्दा ने हुड़का निकाला और वह गीत गाना शुरू कर दिया, ‘‘आज हिमाल तुमन कैं धत्यूँछौ, जागौ जागौ हो म्यारा लाल।’’ इस गीत को सुन कर कई और लोग भी हमारे साथ आ जुड़े और गीत में भाग लगाने लगे। बीच-बीच में नारे लग रहे थे। पुलिस-प्रशासन सकते में था कि इस खांटी सांस्कृतिक विरोध का क्या करे। अन्ततः एक घंटे की ऊहापोह के बात हमें बताया गया कि हमें गिरफ्तार कर लिया गया है। तभी हमें खबर मिली कि तल्लीताल में प्रदीप टम्टा, निर्मल जोशी, विश्वम्भर नाथ साह ‘सखा’, हरीश चंदोला, जीवन त्रिपाठी, प्रकाश फुलारा और महेन्द्र बिष्ट को गिरफ्तार कर भवाली की तरफ ले जाया गया है और शमशेर सिंह बिष्ट तथा चंद्रशेखर भट्ट नैनीताल पहुँचने वाले हैं।
पुलिस एक घेरे के भीतर रख कर हम लोगों को मल्लीताल बाजार के रास्ते मालरोड को ले गई। गिर्दा ने मौके का फायदा उठा कर इसे एक सांस्कृतिक जलूस बना दिया और वनों की पीड़ा को व्यक्त करने वाले ‘आज हिमाल’ ने नैनीताल की जनता को झकझोर दिया। जिस वक्त मल्लीताल रिक्शा स्टैंड के पास हम दस लोगों को घसीट कर पी.ए.सी. के ट्रक में डाला गया, लोग आक्रोश में झुलसने लगे थे। कई लोग ट्रकों के आगे लेट गये, जिन्हें समझाना हम लोगों के लिये मुश्किल हो गया।
नैनीताल में भड़क रहे आक्रोश को देखते हुए हमें ट्रक से हल्द्वानी कोतवाली पहुँचा दिया गया। वहाँ से हम जेल जाने की प्रतीक्षा कर ही रहे थे कि हमें बताया गया कि नैनीताल में नीलामी रद्द हो गई है और हम लोगों को रिहा कर दिया गया है। हम अपनी सफलता पर प्रफुल्लित हो ही रहे थे कि हमें दूसरी खबर मिली कि नैनीताल में आज गोलियाँ चली हैं, अनेक व्यक्ति मारे गये हैं और नैनीताल क्लब को फूँक दिया गया है। शहर में कफ्र्यू लगा है। हम भौंचक्के रहे गये। सबसे पहले गिर्दा के मुँह से फूटा, ‘‘यार, अब किस मुँह से नैनीताल जायें ?’’ मगर इस खबर की पुष्टि के लिये जब हम ‘उत्तर उजाला’ के कार्यालय गये तो मालूम पड़ा कि गोलियाँ तो चलीं, मगर केवल एक आदमी घायल हुआ है। अलबत्ता नैनीताल क्लब के जलने की खबर सही है। हमें कुछ राहत मिली। रात काटने के लिये हम कांग्रेस के कार्यालय ‘स्वराज आश्रम’ चले गये। सुबह हमने थाने में हंगामा काटा कि जिस तरह नैनीताल से लाये हो, उसी तरह वापस भी पहुँचाओ। अंततः प्रशासन ने हमें टैक्सियों से नैनीताल पहुँचाया। बाद में पता चला कि नैनीताल में प्रशासन का नियंत्रण पूरी तरह खत्म हो चुका था और हमें रिहा करने के अतिरिक्त उसके पास कोई चारा नहीं था।
नैनीताल में उस रोज जो विरोध हुआ, वह पहली नजर में भले ही स्वतःस्फूर्त लगे, परन्तु वास्तव में वह एक पूरी तैयारी के कारण सम्भव हुआ था। नैनीताल का छात्रसंघ उन दिनों भले ही ‘कुलपति हटाओ’, ‘कुलपति बचाओ’ से आगे नहीं जा पाता था, मगर अल्मोड़ा में 1972 में शमशेर सिंह बिष्ट के छात्रसंघ अध्यक्ष बनने के बाद वहाँ छात्र राजनीति में क्रांतिकारी परिवर्तन आ गया था। अब तो बिष्ट उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के संयोजक थे और 1974 की अस्कोट-आराकोट यात्रा के बाद संवेदनशील नौजवान पहाड़ की समस्याओं को भली भाँति समझने लगे थे। पहाड़ की अस्मिता और पहाड़ की लूट को लेकर उनका दिमाग काफी स्पष्ट था और तवाघाट आन्दोलन की सफलता से उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के भीतर एक आत्मविश्वास भी पैदा हो चुका था। अतः नैनीताल के छात्र संघ की अरुचि को देखते हुए वाहिनी ने आम जनता को जोड़ने की रणनीति बनाई। वहीं प्रशासन था जो उसे नैनीताल के फैशनेबल छात्रों का जैसा आन्दोलन समझने की गलती कर रहा था।
28 नवम्बर को 10 बजे काॅलेज शुरू होते ही जी.आई.सी. के छात्रों ने कमल नारंग के नेतृत्व में हड़ताल कर जुलूस के रूप में मल्लीताल के लिए कूच कर दिया। सी.आर.एस.टी. में शकील और नारायण सिंह जंतवाल के नेतृत्व में हड़ताल की तैयारी कर रहे छात्रों को काॅलेज प्रशासन रोक रहा था। इस कशमकश में संघर्ष वाहिनी के कुछ समर्थक काॅलेज में घुस गये और उनकी मदद से हड़ताल हो गयी। जैसे ही छात्र जुलूस बना कर मालरोड में पहुँचे, उनके सामने आन्दोलनकारी गिरफ्तार कर हल्द्वानी भेज दिये गये। इसी मुद्दे पर छात्रों और पुलिस में तकरार हुई तो छात्रों के जुलूस को नैनीताल क्लब की ओर जाने से रोकने के लिए पुलिस ने छात्रों पर पानी की बौछार कर दी। इस कार्यवाही ने छात्रों को भड़का दिया। उन्होंने अनियंत्रित होकर पुलिस पर पथराव कर दिया। तब तक तल्लीताल से जी.आई.सी. का जुलूस भी पहुँच चुका था। उस पर पुलिस ने लाठीचार्ज किया। तब तक शमशेर सिंह बिष्ट भी नैनीताल पहुँच गये थे। पुलिस ने उन्हें रोका तो वे मल्लीताल रिक्शा स्टैंड पर स्थित सार्वजनिक शौचालय की छत पर खड़े हो कर जनता को संबोधित करने लगे। पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर मल्लीताल थाने में डाल दिया। इस बीच उत्तेजित छात्रों ने सरकारी दफ्तरों को बंद करवा दिया। पूरा शहर आंदोलित हो गया तो अपनी लाज बचाने के लिये डी.एस.बी. छात्र संघ ने भी काॅलेज में हड़ताल कर शैले हाॅल को कूच कर दिया। नैनीताल की जनता कभी भी इस तरह आंदोलित नहीं हुई थी। बढ़ते तनाव के बीच नैनीताल की सभी बाजारें बंद हो गयीं। प्रशासन को शैले हाॅल से पुलिस हटा कर शहर के अन्य हिस्सों में लगानी पड़ी। प्रशासन की हर कोशिश जनता को और अधिक भड़का रही थी। सारी जनता शैले हाॅल की ओर भाग रही थी। पुलिस कम पड़ गयी थी। तभी शैले हाॅल से लगे नैनीताल क्लब की अधिकांश इमारतों से आग की लपटें निकलती दिखाई दीं। यह आग नियंत्रित नहीं की जा सकी और सभी भवन जल कर खाक हो गये। प्रशासन हर तरह से असफल हो गया था। बौखलायी पुलिस ने जहाँ पर भीड़ देखी, वहाँ आँसू गैस छोड़नी शुरू की। कुछ स्थानों पर गोली भी चलाई गई। इस तनाव के बीच जिलाधिकारी बृजमोहन बोहरा, जो नैनीताल में खासे लोकप्रिय थे, सारी औपचारिकताओं और सावधानियों को दरकिनार कर जनता के बीच शांति की अपील करने पहुँच गये। उन्होंने जंगल की नीलामी स्थगित करने और आन्दोलनकारियों को रिहा करने की जनता की सारी माँगें मान लीं। नैनीताल के लगातार खराब होते जा रहे हालात सामान्य हुए।
पी.ए.सी. और पुलिस को बैरकों में चले जाने के कारण 29 नवम्बर को नैनीताल में तनाव नहीं था। प्रशासन से इजाजत लिये बिना, धारा 144 तोड़ कर उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी ने रामलीला स्टेज में एक आम सभा की। शहर में लाऊडस्पीकर से इस सभा की मुनादी की गई। पुलिस प्रशासन ने कोई अवरोध नहीं डाला। शमशेर सिंह बिष्ट की अध्यक्षता में हुई आम सभा को गिर्दा, राजा बहुगुणा, प्रदीप टम्टा, निर्मल जोशी, विनोद पांडे, भगीरथ लाल चैधरी आदि ने संबोधित किया। राजनीतिक दलों से जुड़े किसी भी व्यक्ति को सभा में नहीं बोलने दिया गया।
यह इमरजेंसी के बाद दूसरी आजादी के तहत आयी नयी जनता सरकार से मोहभंग का सबसे बड़ा आंदोलन था। शमशेर सिंह बिष्ट उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के सर्वमान्य नेता थे। मगर आन्दोलन इतना ऊपर चला जायेगा, इसकी न तो उन्हें उम्मीद थी और न ही वे इतने बड़े आंदोलन को सँभालने के लिये उस वक्त तक परिपक्व हो सके थे। वन विभाग उस समय प्रदेश को सबसे ज्यादा राजस्व देने वाला विभाग था और आकार में भी बहुत बड़ा था। उत्तराखंड की राजनीति में जंगल के कारोबारियों का जबर्दस्त हस्तक्षेप था। इसीलिये सरकार इतने तक तो सहमत थी कि आन्दोलनकारी वन श्रमिक सहकारी समिति बना कर खुद छोटे-मोटे ठेकेदार हो जायें। मगर वनों की व्यवस्था को लेकर कोई बड़ा बदलाव करने की उसकी कोई इच्छा नहीं थी।
28 नवम्बर की घटना से सब कुछ बदल डाला। वन आंदोलन का विरोध करने वाले उत्तराखण्ड के सबसे कद्दावर नेता हेमवतीनंदन बहुगुणा, जो उस समय केन्द्र सरकार में पेट्रोलियम और रसायन मंत्री थे, ने तुरंत वक्तव्य दिया कि पहाड़ों में 10 से 15 सालों तक वनों के कटान पर पूर्ण प्रतिबंध लगा देना चाहिये। चंडी प्रसाद भट्ट उस वक्त तक उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी से जुड़े थे। चमोली जिले के भीतर जंगल के कटान के विरुद्ध अनेक आन्दोलन कर चुकने के बावजूद इलाके के बाहर उनकी पहचान अभी बननी शुरू ही हुई थी। वे तत्काल संघर्ष वाहिनी के साथ अपनी एकजुटता दिखाने के लिए नैनीताल पहुँच गये। उनका यह बयान बहुत महत्वपूर्ण था कि क्योंकि वे उसवा से जुड़े हैं इसलिए नैनीताल में जो कुछ भी हुआ वे उसके लिए स्वयं को भी उत्तरदायी मानते हैं। ठीक उसी वक्त सुन्दर लाल बहुगुणा ने दिल्ली में अपने परिचितों से कहा कि नैनीताल के वनांदोलनकारियों से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है। जबकि वास्तविकता में अस्कोट-आराकोट यात्रा से लेकर नैनीताल-अल्मोड़ा को होने वाले उनके निरन्तर दौरे यहाँ के नौजवानों के लिये प्रेरक कारण थे। इस वक्त तक सरकार वाहिनी के सदस्यों के रिकार्ड खँगाल चुकी थी तथा उसे वामपंथी संगठन मान कर उस पर पुलिस और आई.बी. से निगरानी करवाने लगी थी।
इस घटना के बाद उत्तराखंड के वन आंदोलन में तेजी आयी और साथ-साथ इसका श्रेय लपकने के लिये प्रतिस्पद्र्धा भी शुरू हो गयी। लेकिन यह आश्चर्यजनक है कि वन आन्दालन के तमाम इतिहासकारों और व्याख्याताओं ने नैनीताल में हुई 6 अक्टूबर और 28 नवम्बर की घटनाओं को अनदेखा करना ही उचित समझा।
बहरहाल, वास्तविकता यह है कि 28 नवम्बर से वन आन्दोलन तत्कालीन वन व्यवस्था के खिलाफ एक प्रतीकात्मक विरोध न रह कर जन आन्दोलन बन गया। इस सिलसिले की दास्तान आगे भी जारी रहेगी।