उत्तराखंड के औली पर्यटन स्थल में एक शादी का भव्य आयोजन होने जा रहा है, जिससे सवाल उठ रहे हैं कि क्या हिमालयी क्षेत्र में ऐसे आयोजन होने चाहिए।
त्रिलोचन भट्ट/वर्षा सिंह
उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में हाल के दिनों में हुई दो घटनाओं ने पर्यावरणविदों का ध्यान आकर्षित किया है। इनमें एक घटना यहां के चार धाम में उमड़ने वाले बेशुमार यात्रियों को लेकर है और दूसरी औली में आयोजित होने वाले एक विवाह समारोह को लेकर। इन दोनों मामलों को लेकर लोगों की अपनी-अपनी राय है। लेकिन इस बहाने यह बहस जरूरी खड़ी हो गई है कि उच्च हिमालयी क्षेत्रों में मानवीय गतिविधियां किस हद तक होनी चाहिए? हिमालयी पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली गतिविधियों को रोकने के लिए सरकारों को क्या उपाय करने चाहिए, ताकि रोजगार के अवसरों को नुकसान पहुंचाये बिना ऐसी गतिविधियों को नियंत्रित किया जा सके।
उत्तराखंड की चारधाम यात्रा की बात करें तो यह इस बार पूरी तरह से अनियंत्रित है। पिछले एक सप्ताह से चारों धामों को जाने वाले मोटर मार्गों पर लंबा जाम है। प्लास्टिक बोतलों से सभी यात्रा मार्ग अटे हुए हैं। धामों में रहने-खाने की उचित व्यवस्था नहीं हो पा रही है। बद्री केदार मंदिर समिति द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार 17 जून की शाम तक बद्रीनाथ और केदारनाथ में कुल 13 लाख, 61 हजार, 558 यात्री पहुंच चुके थे। गंगोत्री और यमुनोत्री जाने वालों की संख्या इससे अलग है। यह संख्या अब तक का रिकॉर्ड है।
दूसरा मामला औली में एक विवाह समारोह का है। औली जोशीमठ के पास करीब 3000 फीट की ऊंचाई पर स्थित एक उच्च हिमालयी ढलान है। राज्य सरकार ने एक प्रवासी भारतीय परिवार को यहां अपने दो बेटों की शादी करने की इजाजत दी है। जब पता चला कि इस शादी में 200 करोड़ रुपये खर्च किये जा रहे हैं और मेहमानों को हेलीकॉप्टरों से लाया जाएगा तो पर्यावरणविदों का माथा ठनका। इस मामले में हाईकोर्ट में एक याचिका भी दायर की गई। हाईकोर्ट ने विवाह समारोह पर तो यह कहकर रोक नहीं लगाई कि एक सप्ताह पहले यह मामला आ जाता तो रोक लगाने पर विचार किया जा सकता था, लेकिन पर्यावरण को नुकसान पहुंचने की संभावना के मद्देनजर 3 करोड़ रुपये जमा करवाने का आदेश देने के साथ ही हेलीकॉप्टरों की उड़ान पर रोक लगा दी।
इन दोनों मामलों के बाद यह बात बहस के केन्द्र में आ गई है कि उच्च हिमालयी क्षेत्रों में मानव हस्तक्षेप किस हद तक होना चाहिए? राज्य सरकार और पर्यटन गतिविधियों से जुड़े लोग इसे रोजगार से जुड़ा मुद्दा मानते हैं। उनका कहना है कि ऐसी गतिविधियों से पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा। ज्यादा से ज्यादा पर्यटक इन क्षेत्रों में आएंगे और स्थानीय लोगों को रोजगार और सरकार को राजस्व मिलेगा। लेकिन पर्यावरणविद् आर्थिक लाभ के लिए इस तरह की अंधाधुंध गतिविधियों को भविष्य के लिए बड़ा खतरा मानते हैं।
जीबी पंत नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन इनवायरमेंट एंड सस्टेनबल डेवलपमेंट के निदेशक डॉक्टर आरएस रावल का कहना है कि मौजूदा समय में उत्तराखंड में ये मानक ही तय नहीं हैं कि पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील किसी जगह की कैरिंग कैपेसिटी यानी वहन करने की क्षमता कितनी है। औली, चमोली के जोशीमठ तहसील में स्थित है। डॉ रावल कहते हैं कि हमें ये ही नहीं पता कि जोशीमठ की क्षमता के लिहाज से एक समय में कितने लोग मौजूद रह सकते हैं या वहां कितने होटल हो सकते हैं, वहां मकानों के निर्माण की क्षमता कितनी है, वहां गाड़ियों की मौजूदगी की क्षमता कितनी है।
रावल कहते हैं कि ऐसे हिमालयी क्षेत्रों की कैरिंग कैपेसिटी के आंकलन की जरूरत बढ़ गई है। हालांकि इसके लिए एनजीटी ने पहल भी की है। हिमाचल में पर्यटकों की स्थिति पर अपने एक आदेश में एनजीटी ने पर्यावरण मंत्रालय को हिमालयी क्षेत्रों की कैरिंग कैपेसिटी असेसमेंट के लिए कार्रवाई करने को कहा है। इसके लिए समिति भी बनाई गई है।
रावल बताते हैं कि जीबी पंत इंस्टीट्यूट का कुल्लू में स्टेशन है। वहां इंस्टीट्यूट ने मनाली से रोहतांग पास के बीच गर्मियों के मौसम में पर्यटकों की भीड़ बढ़ने के समय पर्यावरणीय प्रभाव का आंकलन किया। उस सूचना से पता चला कि गाड़ियों से होने वाले प्रदूषण के चलते रोहतांग पास में ग्लेशियर्स का स्नो कवर कम हो जाता है। जीबी पंत और अन्य एजेंसियों के डाटा के आधार पर एनजीटी ने रोहतांग में एक समय में 300 गाड़ियों का एक मानक तय कर दिया। वे कहते हैं कि यदि उत्तराखंड में भी हमारे पास इस तरह की जानकारी हो, इस तरह का डाटा तैयार किया जाए, तो हम एक मानक तय कर सकते हैं।
हिमालयी क्षेत्रों में पर्यावरण संरक्षण के लिए कार्य करने वाली देहरादून स्थित संस्था गति फाउंडेशन के अध्यक्ष अनूप नौटियाल का मानना है कि उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पर्यटन को बढ़ावा देना गलत नहीं है, लेकिन इसके लिए एक नीति बनाई जानी चाहिए। इस नीति में स्थानीय पारिस्थितिकी का ध्यान रखने के साथ ही स्थानीय जनसमुदाय की भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए। बात वेडिंग डेस्टिनेशन की हो या फिर धार्मिक यात्रा अथवा पर्यटन की, संबंधित क्षेत्र की धारिता क्षमता का जरूर ध्यान रखा जाना चाहिए।
हिमालयी ग्लेशियरों पर कई शोध पत्र लिख चुके उत्तराखंड वानिकी एवं औद्यानिकी विश्वविद्यालय के पर्यावरण विभाग के प्रोफेसर डाॅ. एसपी सती उच्च हिमालयी क्षेत्रों में धार्मिक यात्रा अथवा वेडिंग के नाम पर एक साथ होने वाली अंधाधुंध मानवीय गतिविधियों को खतरनाक मानते हैं। उनका कहना है कि हिमालयी ढाल अत्यधिक भंगुर प्रकृति के हैं। इन ढालों की जैव विविधता भी इंडमिक टाइप हैं। यानी यहां कई ऐसी वनस्पतियां उगती हैं, जो अन्यत्र कहीं नहीं उगती। वे कहते हैं कि नंदादेवी बायोस्फेयर में स्थानीय लोगों को किसी पेड़ की एक टहनी तक काटने की इजाजत नहीं है, फूलों की घाटी में जहां गडरिये पूरी गर्मी और बरसात में अपने पशुओं को चराते थे, वहां पशुओं को ले जाने पर पाबंदी लगा दी गई है, दूसरी तरफ तीर्थयात्रा के नाम पर एक साथ लाखों की संख्या में लोगों को जाने की इजाजत देना और औली जैसे ढाल पर बड़े समारोह करवाना उचित नहीं है। वे कहते हैं इस तरह के अंधाधुंध गतिविधियों से इन हिमालयी ढालों को मिलने वाले घाव चिरस्थाई होंगे और जिन वनस्पतियों को नुकसान होगा, उन्हें फिर से उगने में बीसियों वर्ष लगेंगे, क्योंकि इस क्षेत्र की वनस्पतियां स्लो ग्रोविंग हैं। वे पर्यटन, पर्यावरण और विकास में सामंजस्य स्थापित करने को आवश्यक बताते हैं।
वरिष्ठ पत्रकार और पर्यावरण कार्यकर्ता राजीव नयन बहुगुणा कहते हैं कि हिमालयी क्षेत्रों में जाना बुरा नहीं है, लेकिन इन क्षेत्रों में जाने के कुछ अनकहे नियम होते हैं। हमारे पूर्वज इन क्षेत्रों में जोर-जोर से बातचीत करने और सीटी बजाने तक के लिए मना करते थे। कहा जाता था कि इससे यहां रहने वाले देवता नाराज होते हैं। यह उन लोगों की पर्यावरण के प्रति चेतना थी। चिपको आंदोलन के नेता चंडीप्रसाद भट्ट का कहना है कि हिमालयी क्षेत्रों में एक साथ बहुत ज्यादा लोगों का जाना और बड़े समारोह करना किसी भी दशा में ठीक नहीं है। हिमालयी ग्लेशियरों पर कई डॉक्यूमेंट्री बना चुके टीवी पत्रकार सुशील बहुगुणा का मानना है कि वेडिंग डेस्टिशन के लिए सरकार को हर तरह की सुविधाएं खुद उपलब्ध करवानी चाहिए, ताकि लोग आएं, शादी करें और चले जाएं। वेडिंग डेस्टिनेशन के नाम पर एक प्राकृतिक ढाल पर मनमानी करने की छूट देना, वहां अस्थाई रूप से तम्बू का शहर बनाना, पारिस्थितिकी के लिए ठीक नहीं। इससे पर्यटन का कोई विकास नहीं होने वाला। पर्यटन के नाम पर यह सिर्फ एक स्ट्रॉयड का इंजेक्शन है, जिसका असर खत्म होने के साथ स्थितियां और गंभीर रूप से सामने आएंगी।
जोशीमठ के क्षेत्र पंचायत अध्यक्ष प्रकाश रावत कहते हैं कि सवाल यह उठता है कि इतने बड़े आयोजन के लिए आनन-फानन के इजाजत कैसे मिल गई। स्थानीय युवकों को छोटे-छोटी ट्रेकिंग करने तक के लिए इजाजत नहीं मिलती। स्थानीय लोगों की आजीवका बनती रही यारसा गम्बू (कीड़ाजड़ी) के दोहन पर इसलिए रोक लगा दी गई कि इससे पर्यावरण को नुकसान हो रहा है। बेशक शादियां करवाओ या अंधाधुंध पर्यटक-तीर्थयात्री बुलवाओ, लेकिन पर्यावरण के नाम पर स्थानीय लोगों के रोजगार को मत छीनो।
राज्य सरकार की डेस्टिनेशन वेडिंग योजना भी अभी मौखिक तौर पर ही है। नैनीताल हाईकोर्ट में याचिका दाखिल करने वाले अधिवक्ता रक्षित जोशी ने बताया कि जब अदालत ने सरकार से डेस्टिनेशन वेडिंग पॉलिसी दिखाने को कहा तो उनके पास कोई जवाब नहीं था।
‘डाउन टू अर्थ’ पत्रिका के इंटरनेट अंक से साभार