दिनेश जुयाल
क्या किसी राज्य का सीएस यानी चीफ सेक्रेटरी सुप्रीम कोर्ट से बड़ा हो सकता है? अगर किसी सरकार की जिद हिमालय से भी ऊंची हो जाय तो ऐसा एकदम मुमकिन है। जी हां वह सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित सरकार का काम परखने वाली हाई पॉवर कमेटी को भी निर्देशित कर सकता है। नज़ीर हाज़िर है-
अपनी दिल्ली सरकार की खातिर और शायद अपनी खातिर भी हिमालय तक से लड़ने को तैयार उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के परम प्रिय अफसर और इनके सीएस ओम प्रकाश वो सक्षम अधिकारी हैं जो ऐसा कर सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने एक हाई पॉवर कमेटी बनायी थी जिसे ये देखना था कि चार धाम सड़क के नाम पर हिमालय के साथ अत्याचार तो नहीं हो रहा और इसके सही मानक क्या होने चाहिए? पर्यावरण विद रवि चोपड़ा को चैयरमैन कोर्ट ने खुद नियुक्त किया था। जाहिर है इस पूरे प्रकरण में सड़क बनाने वाली सरकार एक पक्ष है इसलिए इसे सरकार के दबाव से बाहर रहना था लेकिन यहां तो सीएस कमेटी के मेंबर सेक्रेटरी को निर्देश दे रहे हैं कि बैठक करो! जल्दी करो ,दो दिन में करो! चेयरमैन की आपत्ति के बाबजूद बैठक हो भी जाती है।
सुप्रीम कोर्ट में अपनी हार से सरकार और उसके अफसर इतने गुस्से में हैं उनकी नज़र में चेयरमैन और उन तीन सदस्यों का कोई वजूद ही नहीं जिन्होंने कोर्ट के निर्देशों का शब्दशः पालन करते हुए, कई दिन दौड़ भाग कर एक रिपोर्ट तैयार की। जिनके निष्कर्ष डेढ़ दर्जन से ज्यादा अफसरों की एक सूत्री जिद और तिकडमों पर भारी पड़े।
रिपोर्ट तो चार सौ पेज से ज्यादा की है। इसमें हिमालय पर लग रहे जख्मों का जिक्र है, हिमालय में रहने वालों के भविष्य की फिक्र है। विनम्र आग्रह है कि हे सरकार! सड़क जरूर बनाइये। इतनी चौड़ी की जिस पर दो भारी वाहन अगल- बगल गुजर सकें। सेना को भी दिक्कत न हो। समझ लीजिए जिस राजपथ पर गणतंत्र दिवस की परेड होती है लगभग उतनी चौड़ी सड़क पर किसी को आपत्ति नहीं। यह भी निवेदन किया कि जो नियम सरकार ने खुद बनाया और जिसका 2018 में नोटिफिकेशन भी हो चुका उसी हिसाब से बनाइये। यानी 5.5 मीटर। किनारे मिलाकर करीब सात मीटर। मोड़ों पर दस मीटर तक। अब 60 हजार पेड़ों की वाली दे ही दी। ऊपर नीचे 24 मीटर से ज्यादा खोद कर मलबे के पहाड़ पानी के धारों, नदी, खेत और जंगल में डाल दिये उसका असर क्या होगा हम वह रिपोर्ट में बता रहे हैं । जो हुआ सो हुआ लेकिन अब जो काम बचा है कमसे कम उसमें नियमों का पालन करें। हमारे नए नियम कुछ नहीं अपने बनाये नियमों का ही पालन करें। सुप्रीम कोर्ट ने कहा एकदम सही बात है जहां ज्यादा खोद दिया वहां कम से कम पेड़ तो लगा दें।
अब सरकार का मूड खराब है कि दो वैज्ञानिकों के आगे अफसरों की फौज कैसे फेल हो गई! हो जाये हिमालय और यहां के पहाड़ी तबाह, आ जाये कोई त्रासदी हमें तो फोर लेन चाहिए बस… सड़क बनाने वाली एक कंपनी की 53 कंपनियों से कमिटमेंट है कि 12 हज़ार करोड़ की तय रकम क्या उससे भी ऊपर लगाएंगे। तय समय तो बीत गया। ऐसे मामलों में कॉस्ट तो बढ़ती ही है। फोर लेन ही बनेगी और फिर करार के मुताबिक टोल भी वसूलेंगे।
दरअसल ये दो वैज्ञानिक इसी हिमालय के बेटे हैं। डॉ नवीन ने तो करीब 40 साल हिमालय की मिट्टी और चट्टानों के अध्ययन में ही लगाए हैं। डॉ हेमंत ने भी उन्हीं की तरह सघन भ्रमण और अध्ययन कर हिमालय का मर्म जाना है। चेयरमैन रवि चोपड़ा की काबिलियत सुप्रीम कोर्ट जानता है । समस्या ये है कि कहां तो एक किलोमीटर सड़क 7-8 करोड़ में बन रही थी और ये वैज्ञानिक ज्ञान दे रहे हैं कि डेढ़ करोड़ में बन जाएगी। इन पहाड़ी वैज्ञानिकों को इस बात की चिंता क्यों करनी चाहिए कि टोल रोड बनने के बाद हिमालय के लोग अपने घर में भी पर्यटकों की तरह रहेंगे।आना, जाना ,खाना सब उनके लिए महंगा हो जाने वाला है। कि उनके पानी के स्रोत सूख गए, भूस्खलन के नए जोन बन गए.. कि नदी दब गई… कई चैप्टर में हिमालय की पीड़ा का बखान है साहबों को इस पर आपत्ति नहीं। रोने गाने से इन्हें कहाँ फर्क पड़ता है। आपत्ति उस चैप्टर पर है जहां सड़क की चौड़ाई कम करने की बात है। कमेटी की बैठकों में बस यही लगातार विवाद का विषय रहा। बार बार कहा गया, सड़क की चौड़ाई पर चर्चा नहीं होगी।
चेयरमैन ने प्रारंभिक रिपोर्ट में वैज्ञानिकों के अल्पमत को जगह दी तो पहले मेंबर सेक्रेटरी रहे ह्यांकी साहब ने बिना सोचे पांच पेज की आपत्ति भेज दी। उस पर डॉ हेमंत का दस पेज का जवाब पाकर उन पर जाने क्या बीती होगी। ये पढ़ने लायक और आंख खोलने वाला जवाब है।
बहुमत देखकर इन दो वैज्ञानिकों ने हिमालयन ब्लंडर के नाम से जो अपना नजरिया दिया वह भी आंख खोलने वाला है। बीआरओ के बॉस जान बूझ 2018 का नोटिफिकेशन दबाए रहे। जिसमें हिमालय में इंटर मीडिएट रोड ही बनाने की बात है। डॉ हेमंत ने जब पेश किया तो सब बौखला गए। बहुमत बनाने के लिए को ऑप्ट मेंबर बढ़ाने की तरतीब निकाली … अजब खेल हुए। कमेटी के जो लोग इस सड़क को हिमालय की हत्या कह रहे थे उनके दिल बदले गए… खैर..
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद काम सही होना चाहिए था लेकिन तब से चेयरमैन किनारे हैं। कमेटी को सड़क पूरी होने तक निगरानी करनी है लेकिन कोई पूछ नहीं रहा। नए मेंबर सेक्रेटरी का मामला सरकार लटकाए रही। नए साहब ज्यूँ ही आये तो उन्हें सीएस का निर्देश मिला दो दिन में बैठक करें। किस अधिकार से भाई!! माना कि सरकार आप से ही है लेकिन ये अमनमणि को लॉक डाउन में बद्रीनाथ घुमाने जितना सरल भी नहीं। ये सुप्रीम कोर्ट की कमेटी है भाई साहब। सीएस के बारे में अक्सर बताया जाता कि वे कई काम यह कर करवा लेते हैं कि सीएम ऐसा चाहते हैं लेकिन ये काम तो ऐसी चाहना के बाद भी आपके दायरे से बाहर है।
त्रिवेंद्र जी ने कोर्ट के फैसले के बाद कहा था कि सेना के लिहाज से सड़क चौड़ी होना जरूरी है । तो क्या उसी लिहाज में ये बैठक बुलाई! सच तो कोई बता नहीं सकता कि असल में किसका लिहाज हो रहा है।
मेरे पास जन. विपिन रावत का एक वीडियो है जिसमें वे कह रहे हैं कि बहुत चौड़ी रोड सेना के लिए जरूरी नहीं। तोप टैंक तो हेलीकॉप्टर से भी पहुंचाए जा सकते हैं। तो फिर सेना का नाम क्यों इस्तेमाल किया जा रहा है? वैसे तो तोप टैंक डबल लेन पर जा सकते हैं। अब मीडिया के लोगों को कभी चीन सीमा का हवाला देकर तो कभी राष्ट्रहित के नाम पर सरकार के बिचौलिए घुट्टी पिला रहे हैं। कल इस घटनाक्रम पर कुछ पत्रकार मित्रों से बात हुई। तकलीफ तब हुई जब एक साथी को समिति की वैज्ञानिक सोच के पीछे विदेशी हाथ नज़र आ गया।
ओम प्रकाश को हिमालय से कोई लेना देना नहीं होगा लेकिन त्रिवेंद्र सिंह हिमालय द्रोही कैसे हो सकते हैं? ये एक उत्तराखंडी का सवाल है साहब! यह भी सवाल है कि क्या सीएम साहब इसी हिमालय की गोद में पैदा हुए? क्या सिर्फ दिल्ली को खुश रखने के लिए ये दुस्साहस हो रहा है? और उसके लिए सुप्रीम कोर्ट की अनदेखी भी जायज है ! देश का बच्चा बच्चा जानता है कि बड़े विकास कार्य बड़े लोग ही करते हैं। यह भी कि बड़ा काम हो तो ऊपर से नीचे तक कमीशन भी मोटी होती है। पी डब्ल्यू डी वाले बखूबी जानते हैं। सीएम और सीएस दोनों का प्रिय विभाग है। आरोप नहीं लगा रहे पर पूछ तो सकते हैं कि कहीं असल लिहाज़ ये तो नहीं!!!!!
अगर ऐसा वैसा कुछ नहीं तो ये जिद क्यों??? आपको, हमको और हिमालय को कहां ले जाएगी ये जिद!!!