पिछले कुछ दिनों से उत्तराखंड के अलग-अलग हिस्सों में आ रही प्राकृतिक आपदाएं जैसे कुछ बहुत बड़े अनिष्ट की चेतावनी दे रही थीं। यह शायद हमारे दौर के सबसे बड़े गृहस्थ संत सुंदरलाल बहुगुणा का देहावसान की पूर्व सूचना थी । चार मई को अस्वस्थ होने पर उन्हें ऋषिकेश के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती कराया गया। तब से उनकी हालत कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ था और अंततः 21 मई 2021 को हिमालय का यह महान सपूत ऋषिकेश में ही गंगा नदी के तट पर अनंत ऊर्जा में विलीन हो गया।
सुंदरलाल बहुगुणा का व्यक्तित्व उत्तराखंड की प्रकृति के सान्निध्य में विकसित हुआ था और प्रकृति ने ही उन्हें प्रकृति से प्यार करना, प्रकृति को आत्मसात करना और प्रकृति को विश्व के अस्तित्व की सबसे बड़ी सजीव धरोहर के रूप में देख सकने की दृष्टि प्रदान की। बचपन से ही वे अन्याय के विरोध में मुखर रहते थे और अपनी किशोरावस्था में ही उन्होंने टिहरी की राजशाही का विरोध आरंभ कर दिया था। पिता के राज दरबार में महत्वपूर्ण पद पर रहते हुए भी सुंदरलाल बहुगुणा कभी दरबार की कृपा के याचक नहीं रहे। राजशाही की हर बुराई का, हर अन्याय का उन्होंने यथासंभव विरोध अपने स्कूल के दिनों में ही करना आरंभ कर दिया था। इस कारण उन्हें अनेक कष्ट भी झेलने पड़े, लेकिन उन्होंने चुप हो जाना मंजूर नहीं किया। 1956 में प्रसिद्ध कथाकार विद्यासागर नौटियाल की बहन विमला जी के साथ विवाह के बंधन में बंधने के बाद उन्होंने दलगत राजनीति से तौबा कर ली।
सर्वोदय से उनके जुड़ाव ने उन्हें अनेक तरह के रचनात्मक कार्यों में सक्रिय किया। टिहरी में एक सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर उनकी अलग पहचान बन गई। छुआछूत, सामाजिक भेदभाव और समाज में व्याप्त शराब आदि बुराइयों के खिलाफ उन्होंने आवाज भी उठाई और अनेक का खात्मा भी किया। टिहरी जिले के बूढ़ाकेदार क्षेत्र में दलित जागरण और उनकी सामाजिक बराबरी के लिए उन्होंने बहुत काम किया। उन्होंने अपने साथ युवाओं की एक टीम को भी विकसित किया जिसमे कुंवर प्रसून, प्रताप शिखर, विजय जड़धारी, धूम सिंह नेगी आदि ने अपने अपने क्षेत्र में काफी काम किया। वह जमीनी कार्यकर्ता के रूप में तो सक्रिय रहते ही थे, एक पत्रकार के रूप में भी उन्होंने उत्तराखंड के तमाम सवालों को अभिव्यक्ति दी। स्कूली छात्र के रूप में ही उन्होंने राजशाही के दमन के खिलाफ ख़बरें लिखना आरम्भ कर दिया था और टिहरी बाँध के विरुद्ध अपने संघर्ष के आखिरी दौर तक वे एक पत्रकार के रूप में अनेक अखबारों ,पत्रिकाओं और न्यूज एजेंसियों के लिए लिखते रहे। वे बसों में सफर करते हुए भी पोस्टकार्डों में खबर लिख लेते थे और उनकी पत्रकारिता उनकी रचनात्मकता तथा आंदोलनों को मजबूती देने के लिए ही होती थी। ‘नैनीताल समाचार’ से उनको बहुत प्रेम था। समाचार की शुरुआत से ही वे इसके मददगार बन गए थे और अनेक लेखकों व रचनाकारों को उन्होंने नैनीताल समाचार से जोड़ा था।अपनी बेटी मधु के पर्वतारोहण प्रशिक्षण के संस्मरण उन्होंने स्वयं नैनीताल समाचार को दिए थे, जो अनेक युवतियों को पर्वतारोहण के क्षेत्र में आने की प्रेरणा बने थे। वन आंदोलन के दौर में दिनमान जैसी पत्रिकाओं से लेकर अंग्रेजी के बड़े अखबारों तक को उनकी टिप्पणियों का इन्तजार रहता था।
मुझे अपने कालेज के दिनों में उत्तरकाशी की 1978 विनाशकारी बाढ़ के दौरान पहली बार उनके साथ कुछ समय बिताने का अवसर मिला था। उत्तरकाशी से हम कुछ छात्र सुन्दर लाल जी के साथ भटवाड़ी से ऊपर के इलाकों में गांव के लोगों के लिए नमक लेकर निकले थे। तब बाढ़ और वर्षा के कारण सड़क जगह-जगह टूट गयीं थी। हमें बहुत ही दुर्गम रास्तों में घास पकड़-पकड़ कर चढ़ना-उतरना होता था। कई जगह बारिश से भीगी मिटटी इतनी चिकनी थी कि पैर जमाना भी मुश्किल होता था, ऊपर से पीठ पर लगभग 25 किलो से अधिक वजन भी था। मगर सुंदरलाल जी स्निग्ध मुस्कान के साथ हर समय हमारा हौसला बढ़ाते रहते थे। रात को जब किसी गाँव में पहुंचकर हम रुकते तो थक कर चूर-चूर हो चुके होते थे, मगर उनके चेहरे पर एकदम ताजगी दिखती थी। यों तो उनका चेहरा बेहद सौम्य था और वे थे भी अति विनम्र लेकिन उनकी आंखों में एक ऐसा निगरानी वाला भाव भी हमें दिखता था, जो हमें बराबर सचेत करता रहता था। बाद में अपने शोध के दौरान उनसे कई बार मिलना हुआ और अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावजूद स्नेह उलीचने में वे कोई कसर नहीं छोड़ते थे। टिहरी बाँध के विरोध में उनके 25 साल से लम्बे संघर्ष के दिनों में एक पत्रकार के रूप में भी जब जब उनसे मिलना हुआ, उनकी आत्मीयता में मुझे कभी कोई कमी नहीं दिखी।
वे एक तरह से जन्मजात आंदोलनकारी थे।किशोरावस्था में राजशाही के खिलाफ, युवावस्था में पराधीनता और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ, प्रौढ़ावस्था में प्रकृति संरक्षण व पर्यावरण जागरूकता के लिए और वृद्धावस्था में बड़े बांधों के विरोध में वे हमेशा ही संघर्षरत रहे। 1981 से 1983 के बीच करीब 5,000 किलोमीटर के ट्रांस हिमालयन मार्च के जरिये उन्होंने पर्यावरण चेतना को जगाने का महत्वपूर्ण काम किया। बाद में टिहरी बाँध के खिलाफ 45 दिन और 74 दिन लम्बे दो अनशनों के द्वारा टिहरी बाँध से होने वाले खतरों के प्रति दुनिया का ध्यान आकृष्ट करवाया। वे कहते थे कि “टिहरी बाँध विनाश का प्रतीक है।” टिहरी में भागीरथी के किनारे बनी उनकी कुटिया में लिखा नारा “टिहरी बाँध नहीं चाहिए, टिहरी बाँध पहाड़ का विनाश है” बाँध निर्माण में लगी बड़ी-बड़ी मशीनों को चेतावनी देता रहता था। मगर अंततः बाँध समर्थक लॉबी की जीत हुई और 31 जुलाई 2001 को उन्हें बलपूर्वक धरना स्थल से उठा लिया गया और बाँध के भरते जाने के साथ-साथ उनका सत्याग्रह भी व्यवस्था के हथकंडों के कारण बेआवाज होता चला गया। हालांकि उसकी अनुगूँज उत्तराखंड की हर प्राकृतिक आपदा के बाद सुनाई देती रहती है।
सुन्दरलाल बहुगुणा के आंदोलनकारी जीवन में कुछ अन्तर्विरोध भी दिखते हैं। जून 1973 में फाटा के जंगल कटान के विरोध में चंडीप्रसाद भट्ट के अनुरोध के बावजूद उनका शामिल न होना, १९७८ में नैनीताल ने जंगलों की नीलामी के विरोध में हुए नैनीताल क्लब काण्ड से खुद को अलग कर लेना और उनके खिलाफ टिहरी में ही एक युवा द्वारा “सिल्यारा के संत का असली चेहरा” जैसी पुस्तिका का प्रकाशन आदि कुछ ऐसे मामले हैं जिन पर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन उनके विराट व्यक्तित्व और सुदीर्घ सामाजिक जीवन की उपलब्धियां इन सवालों को निरुत्तर कर देती हैं।
सुन्दरलाल बहुगुणा का देहावसान शोक करने का मौका नहीं है। वे अपनी जिंदगी जिए और बखूबी जिए। आखिरी दिनों तक उनकी शारीरिक और मानसिक सक्रियता बनी हुई थी। उनकी बनायी राह अभी भी उत्तराखंड और समूचे हिमालयी क्षेत्र के लिए मार्गदर्शक बन सकती है, बशर्ते उनके प्रति सम्मान रखने वाले उनका अनुसरण करने वाले और उनके विचारों को समझने वाले सभी लोग पर्यावरण, पारिस्थितिकी तथा प्रकृति के साथ सामंजस्य वाले विकास की जरुरत को स्वीकार करने की कोशिश करने लगें। उनके पुत्र राजीवनयन बहुगुणा ने उनके जीवन के अंतिम क्षणों में लिखा था,
” एक नदी अपने निष्पत्ति एवं विसर्जन बिंदु पर समान रूप से रवां दवां रहती है । अजल और अबद का सुकूत लगभग एक जैसा होता है । अपने उद्गम पर पर नदी जितनी शांत होती है, विसर्जन विंदु पर भी उसी तरह निःशब्द हो जाती है । वह ऋषिकेश के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में बगैर किसी हाय तौबा के निश्चेष्ट हैं।
हमने नियति को अपने अभिलेख की पूर्णाहुति के इंगित दे दिए हैं । उर्वर मिट्टी बनने हेतु महा वृक्ष का स्वाभाविक पतन हमेशा अवश्यम्भावी रहा है ।
हम प्रकृति के पुजारी उसके विधान की अवज्ञा कैसे कर सकते हैं।कामये दुःख तप्तानाम , प्राणिनां आर्त नाशनम।।। ”
बहुगुणा जी के देहावसान को इसी भावना से लिया जाना चाहिए। जो उर्वर मिटटी वो छोड़ गए हैं वह अनेक सुन्दर लाल बहुगुणाओं को विकसित करे, अनेक को जन्म दे। आज उत्तराखंड को ऐसे लड़कों की जरुरत है जो महज बहुगुणा जी के सर पर बंधे गमछे का ही अनुसरण न करते दिखें, बल्कि उनके बनाये रास्ते पर चलने का जोखिम उठाने को भी तैयार हों। पुरस्कारों और पद्म सम्मानों की अंधी दौड़ में भागने वाले कभी भी सुंदरलाल बहुगुणा की विरासत को आगे बढ़ने वाले नहीं हो सकते और उन्होंने तो अपने काम से हर सम्मान को बहुत बौना बना दिया था।
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