चेतना जोशी
ये एक बड़ा घर है. पहाड़ों के हिसाब से तो बहुत ही बड़ा. तिमंजिला. लकड़ी के पट्टों से बना हुआ. इसके सामने के लम्बे संकरे खुबसूरत अहाते में हरे रंग का कालीन है. कश्मीरी घर लग रहा है अंदर से. सामने के सारे कमरों के दरवाजे इस अहाते में खुलते हैं. पर जिस बात ने मन लूटा है वो है ऊपर की इस मंजिल के सामने के इस अहाते के दूसरी ओर फैली खिड़कियाँ जिनसे सामने के सीढीवाले खेत और उस पार के ऊँचे पहाड़ों पर पड़ती सुबह की धूप को देखते हुए जिंदगियां गुजर जाएं.
इस गाँव का नाम है सौड़ और ये घर रोहन का है. हमारा हर की दून का साथी. वो देहरादून के एक स्कूल में ११ वीं के पर्चे दे कर घर आया है. एकदम प्यारा सा बच्चा है. हमारी इसकी मुलाकात को अभी एक पूरा दिन भी नहीं गुजरा है और ये हमें हिदायतें दे रहा है रास्ते के लिए. अपने लिए जरुरी सामान एक बैग में भर लिया है हमने. इस समय इसके घर हम अपना बाकी का सामान छोड़ने आये हैं. अभी सुबह के 7 बजे हैं और हम रोहन के साथ हर की दून के लिए निकलने की तैयारी में हैं.
बीते दो दिन रोचक किस्म के निकले. नौजवानी में जब सच मुच में भाग जाना आसान था तो हिम्मत नहीं थी. जब सब कुछ छोड़ कुछ दिनों के लिए एकदम गायब होने की जबरदस्त इच्छा के साथ थोड़ी हिम्मत और थोड़े-बहुत पैसे आये तो पता लगा कि भागना मुमकिन ही नहीं. कम से कम एक नौकरी के साथ तो बिलकुल नहीं. आपको बताना ही पड़ेगा कि आप शहर से बाहर जाना चाहते हैं. बताना नहीं बल्कि पूछना पड़ेगा कि क्या आप फलानी जगह कुछ दिनों के लिए जा सकते हैं? अगर आप पार्टनर के साथ हैं, तो उसको भी ये सब करना ही होगा. दोनों को अगर एक साथ सफलता मिल जाये तो ही बात आगे बढ़ सकती है. मुझे कुछ दिन पहले सफलता मिल चुकी है और मैं अगले हफ्ते छुट्टी पर हूँ. आज शनिवार है और अब शाम होने वाली है. पर अभी तक वेद को छुट्टी मिलने का इंतजार है.
खैर ४ बजे मोबाइल बजा. वेद ने कहा कि फाइनली छुट्टी मिल गयी है इसलिए सामान निकाल लो और सोच लो कि जाना कहाँ है. मेरे पास कई गाइडों के नंबर हैं, पिंडारी से लेकर मिलम तक के. ये मैंने शिद्दत से इकट्ठे किये हैं. मिलम के नंदन जी बताते हैं कि लम्बा ट्रेक है ५-६ दिन में नहीं हो सकता, पिंडारी बात नहीं हो पाती तो मैं सीधे सांकरी के एक होटल को गूगल से खोज कर फ़ोन लगातीं हूँ. खैर कई नम्बर मिलाने के बाद एक नम्बर पर घंटी बजती है और मोबाइल उठता है. ये जनाब देहरादून में हैं आज. ये बताते हैं कि काफी कमरे खाली हैं इस समय और हमें रहने की कोई दिक्कत नहीं होगी इनके होटल में. इस तरह अगली रात रहने का इंतजाम हो गया. सांकरी इसलिए क्योंकि वहां से हर की दून जा सकते हैं. ये जगह काफ़ी अरसे से मेरे रडार पर है और सब कुछ सही रहने पर यहाँ हो के हम ५-६ दिन में वापस दिल्ली पंहुंच सकते हैं. बाकी वहीँ पहुंच के देखा जायेगा.
सांकरी तक पंहुचने के लिए क्या सीधी बस है देहरादून से? उसका टाइम क्या है? या गाड़ी बदल-बदल कर जाना होगा? क्यूँ ना इस होटल वाले को ही फ़ोन कर पूछ लिया जाये कि भाई कल हम आ तो रहे हैं पर आयें कैसे ये वो बता दे. हम कल सुबह ६ बजे तक यदि देहरादून पंहुंच जायें तो ये जनाब हमें बस स्टेशन से पिक कर लेंगे और शाम तक हम उनकी टेम्पो ट्रेवेलर से सीधे सांकरी पंहुंच सकते हैं. तो छुट्टी डिसाइड होने के चंद मिनटों में जगह भी डिसाइड हो गयी, रहने का भी इंतजाम हो गया और पंहुचने का भी. अब सामान निकाल लिया जाये.
पहाड़ों में पिछले सालों से आते – जाते हमने ट्रैकिंग के लिए जरुरी छोटे-मोटे सामान एक जगह इकट्ठे कर लिए हैं. तो मिनटों में सारा सामान अपने बोक्सों से बाहर निकल बेड पर बिखर गया. बस अब पैकिंग बची है जो मैं नहीं करुँगी. अब ये भी कर दिया तो जेंडर इक्वेलिटी शर्मसार होगी. इसलिए दूसरे पर छोड़ देती हूँ. वेद के घर आने का इन्तजार है और बचे खुचे खाने का डिनर खा कर हम निकल सकते हैं.
साढ़े आठ बजे हम कश्मीरी गेट आईएसबीटी के सामने अपने टेम्पू से उतरे ही थे कि सामने देहरादून के लिए एक बस निकल रही थी. काफ़ी अँधेरा था वहां पर बस ठीक-ठाक ही दिख रही थी. स्टेशन के अन्दर भी नहीं गये और आव देखा ना ताव बस को दौड़ कर रोका और चढ़ गए. हमेशा वाले ‘इक्तेफाक’ की वजह से सबसे पीछे वाली लम्बी सीट खाली है जो हमने लपक ली और सारा सामान एडजस्ट कर बैठ गए.
धीरे- धीरे जब बस की गद्दी और खिड़की को महसूस करना शुरू किया तो पता चला कि बाहर से वॉल्वो टाइप दिखने वाली ये बस अपने लेवल से काफी गिर कर अब सामान्य वर्ग में, सामान्य टिकट के साथ चल रही है इसलिए गद्दी फटी है और खिड़कियाँ खुलीं और टूटीं हैं और यहाँ-वहां कीलें निकली हुए हैं. सामान्य लोगों के संग अमान्य बर्ताव. पर अब तक ये काफ़ी आगे निकल आई है और हम अब वापस नहीं जा सकते. इसलिए मई की एक गर्म दिन की इस रात में खस्ताहाल बस में बैठे अचानक आये ठंडी हवा के झोंकों के शुक्रगुजार हैं. अपनी तमाम कमियों के बावजूद इस बस ने हमें काफ़ी सुबह देहरादून पंहुचा दिया.
बस से उतरने के कुछ ही देर में हम टेम्पो ट्रेवेलर में सवार थे. इसमें ड्राईवर और हमारे अलावा दो लड़कियां और थीं. ये तीनों एक ही घर के हैं. इन्होने कल ही बता दिया था कि गाड़ी में उनके ही घर के लोग होंगे और कुछ सामान जो ये अपने होटल के लिए ले जा रहे हैं. इन दोनों बालिकाओं ने एक के बाद एक मोबाइल से पंजाबी गाने लगाये. सांकरी गढ़वाल के उत्तरकाशी जिले का एक सुदूर गाँव है. काफ़ी लम्बा रास्ता यमुना के किनारे- किनारे ही रहता है. बारिश के पहले के सूखे हुए पहाड़ देखते उंघते हुए हम सांकरी पहुंच पाते पर पहले खुबसूरत पुरोला आ गया. एकदम ताजा हरा धानी रंग यहाँ नदी और उसके के किनारे के सीढ़ीदार खेतों में जैसे नाच रहा हो. जब पुरोला इतना खुबसूरत है तो आगे आनी वाले मंजरों के बारे में सोच कर हमारे रोंगटे खड़े हो चुके थे. हम उम्मीदों से भर गए. अब बस हम कुछ मिनटो में सांकरी पंहुच जायेंगे. पर ये क्या कुछ १० किलो मीटर पहले के चेक पोस्ट में हमारी गाड़ी को रोक लिया गया. यहाँ और भी कई गाड़ियां सड़क किनारे खड़ीं हैं. कल शाम सांकरी से आगे सौड़ गाँव के पास बादल फटा था इसलिए टूरिस्ट लोगों को चेक कर रहे हैं. शायद आगे ना जाने दें.
पर हम कुछ मिनटों में ही वहां से निकल गए. ये गाड़ी लोकल है और इसमें ज्यादा लोग भी नहीं हैं इसलिए शायद उन्होंने घर जाने की इजाजत दी हो. जो भी हो रस्ते से मायूस तो नहीं लौटना पड़ा.
गाड़ी ने हमें सीधे होटल के सामने उतारा। बाहर से दिखने में ये अच्छा है. मैं अपनी इस चॉइस पर इतरा पाऊं इससे पहले ही समझ आया कि बाहर से खुबसूरत ये होटल दरअसल अंदर से कई सारे जवान लोगों से भरा एक हॉस्टल सा है. बदहवास सा माहौल है यहाँ. बड़े सारे लोग अंदर-बाहर आ-जा रहे हैं. शायद ये ट्रेक से वापस आए लोग हैं. हमारा कमरा इसके पहली मंजिल में किनारे वाला है, जिसकी खिड़की जंगल की और खुलती है. तो ये एक ठीक-ठाक जगह है आज की रात गुजारने के लिए. हमने बस अपने बैग वहां रखे ही थे कि पता लगा कि कल रात बादल फटने की वजह से पानी की लाइन टूट गयी है. इसलिए अभी पानी नहीं आयेगा किसी भी नल से. इस होटल में ही नहीं इस पूरे इलाके में कहीं भी पानी नहीं है आज. यहाँ की इंतजाम देखने वाले लोग कह रहे हैं कि कुछ देर में सब कुछ ठीक कर देंगे. हमारे पास उनकी बात सुनने और मानने के अलावा कोई चारा नहीं है. यहाँ चाय वगैरा भी यहाँ नहीं मिलती है. उसके लिए बाहर कहीं आसपास देखना होगा.
रात का निकला एक इंसान जब कहीं पहुंचता है तो उसको सबसे पहले क्या चाहिए? पानी. जब वो है नहीं तो हम इस कमरे में बैठे क्या करें. बाहर ही चलते हैं. हमारे कमरे के सामने काफी जगह खाली है. जहाँ से रेलिंग के किनारे खड़े हो जंगल के नजारे लिए जा सकते हैं. यहाँ वो दो बालिकाएं भी हैं जो हमारे टेम्पो ट्रेवेलर में सबसे आगे बैठीं थीं. तब तो बात नहीं हुई. पर अब हुई. वे उनीस- बीस साल की होंगी. उनका घर यहाँ पास के ‘सौड़’ गाँव में है. वो इंतजर कर रहीं हैं कि गाड़ी आगे जाए तो वो उसी में चले जाएँ. अभी उनके चाचा गाड़ी में से समान उतार रहे हैं. ये दोनों देहारादून में पढ़तीं हैं. पेपर पूरे हो गए तो छुट्टियों में घर आयीं हैं. थोड़ी सी बातचीत में वो हमें अपने घर चलने का न्यौता दे देतीं हैं. ये भी क्या खूब बात है. मैं एकदम अनजान लोगों को ऐसा न्योता शायद नहीं दे सकती. जाने कौन सी चीज है जो रोक देती है. पर इनका न्योता अच्छा है. आज की शाम की चाय क्या पता इन्ही के घर पर लिखी हो.
सौड़ और साँकरी एकदम आगे पीछे हैं. सौड़ एक पहाड़ी में ऊपर से नीचे तक बसा हुआ गाँव है. सामने ऊंचे पहाड़ों की तरफ खुलने वाला. ये एक खाया पिया टाइप का गाँव है. बड़े घर हैं, लाल टमाटर जैसे बच्चे हैं, गायें हैं. इनका घर बाहर की तरफ लकड़ी के खंभे, उन पर लगी काँच की खिडकियों, फिर तीनों तरफ अहातों, के बाद शुरू होने वाले कमरों वाला घर है. काफी बड़ा घर है और इसमें बहोत सारे लोग समा सकते हैं एक समय में। इसमें ३-४ और बच्चे भी हैं. ये सब भी देहरादून में पढ़ते हैं. पूरे 9 बच्चे हैं इस संयुक्त परिवार में. सब के सब एकदम चुलबुले. ये सब देहारादून में पढ़ते हैं. घर के छोटे बच्चे शाश्तांग प्रणाम कर रहे हैं. छोटे बच्चों के पर्चे पहले ख़तम हो गए तो वे पहले पंहुंच गए गाँव. अब ये अभी-अभी आये बच्चों को बता रहे हैं कि गाँव में घर वाले बड़े लोग कैसे-कैसे काम करवा रहे हैं उनसे. कभी चाय बनवाते हैं तो कभी खेत में कुछ काम तो कभी छत पर झाड़ू मारनी पड़ती है. शायद छुट्टियों में परेशान करने के लिए घर ले कर आये हैं. हमारा अच्छा समय निकला यहाँ और चाय भी मिली. चचा जान ने बताया की चूंकि हम पहले ही होटल कर चुके हैं, नहीं तो हम इस घर में भी रह सकते थे. यहाँ पानी की भी कोई समस्या नहीं होती. ये घर वास्तव में होम स्टे भी है. ठण्ड में जब बरफ से ये पूरा इलाका ढक जाता है तो वे सारे कमरे खोल देते हैं. उस समय केदारकांता ट्रेक के लिए खूब लोग आते हैं. अगली बार कभी आना हो तो यहाँ ही आना.
ये बात काफ़ी ख्यात है कि इस इलाके में दुर्योधन का मंदिर है. हमें उसको देखने का मन है. पर पूछने पर पता चला की वो इस गाँव में नहीं है, कुछ दूर है यहाँ से. शायद लोग उसके बारे में बात नहीं करना चाहते. पास में जो पुराना मंदिर है उसका रास्ता चाचा जी बता देते हैं तो घूमते हुए हम पंहुच जाते हैं. लकड़ी के बने हुए मंदिर की खपरैल जैसे दिखने वाले पत्थर की बनी छत है. छत के ठीक बीच में कुछ जानवर लोग एक के पीछे एक बैठे हैं. मंदिर के गर्भ गृह के ऊपर की छत उठी हुई है और उस पर भी लकड़ी की चिड़ियाएँ बनी हुई हैं. लकड़ी की दीवार और सामने जो चाँदी जैसा पत्ता लगा हुआ है वो भी सुंदर नक्काशी से भरा हुआ है. आगे का अहाता काफी खुला हुआ है. और बच्चे यहाँ खेल रहे हैं. शांत जगह है ये एक.
शाम होते-होते याद आया कि कल का भी इंतजाम करना है. वैसे कोई खास इंतजाम नहीं है बस एक बंदा चाहिए जो हमारे साथ चल पड़े. सुना है हर की दून का रास्ता आसान है पर अकेले जाने का हमारा कोई इरादा नहीं है. जंगल में बेयर ग्रिल्स को भटक के संभलते देखा तो है पर खुद पर यकीन तो उस प्रैक्टिकल के बाद ही आयेगा जिसको करने का हमारा कोई इरादा नहीं है. तो हमें एक गाइड की तलाश करनी होगी. लेकिन उससे पहले इस गाँव को पूरा घूम लेना चाहिए. सड़क पर की लकड़ी की एक दुकान के साइड में नवदान्या महिला अन्न स्वराज समूह लिखा हुआ है. जिसका मतलब है मोटी बिंदी वाली वंदना शिव का साम्राज्य यहाँ तक है. चाय-कॉफी और मैगी से लेकर यहाँ के राजमा, खुबानी का तेल, गरम ऊन के यहाँ के लोगों के बनाए कोट, स्वेटर, मफ़लर सब कुछ है इस दुकान में. और इसके मालिक हमें ओरगनिक चीजों के फायदे, यहाँ की दालों के बारे में बताते हुए, जिंदगी के अपने अनुभव और वंदना शिवा से जुड़े अपने काम के बारे में बताते बताते, जबरदस्त सी मेगी और कॉफ़ी खिला देते हैं. ठण्ड में आपको और चाहिये भी क्या. पर अभी हमें एक गाइड भी चाहिए. जो बस हम दोनों के साथ जाये. हम किसी बड़े ग्रुप का हिस्सा बिलकुल भी नहीं बनना चाहते और किसी प्रॉफेश्नल ट्रेकिंग वाले ग्रुप में तो बिलकुल नहीं जाना चाहते. कोई ऐसा जो हमारे साथ आ सके. ‘क्यूँ नहीं? ‘मेरा बेटा है, जो अभी परसों ही वापस आया है और वो हमसे शाम को होटल में आ के मिल लेगा’.
तो साढ़े सात बजे दो लड़के बोले तो दो प्यारे से बच्चे हमारे कमरे में आ गए. उनमे से एक ने पूछा कि हमें कहाँ-कहाँ जाना है? ये रोहन है. क्या आप ले कर जाएंगे हमें? जी हाँ. ओहह. आपकी उम्र क्या है? १७ साल. ‘मैं अभी 11th का पर्चे दे कर छुट्टियों में घर आया हुआ हूँ’. कई बार ले जा चुका हूँ ट्रैकिंग पर लोगों को हर की दून. रोहन पूछता है कि हम इस होटल में क्यूँ रुके? आपको तो हमारे घर रुकना चाहिए था. ये होटल तो महंगा भी होगा और यहाँ घर का खाना भी नहीं मिलेगा. आपको पानी की भी कोई दिक्कत नहीं होती घर पर. खैर हम वापस आकर आपके घर जरुर रुकेंगे. वो हमें सुबह- सुबह मिलने का वादा करके नंबर देकर चला गया.
सोचती हूँ जब मैं रोहन की उम्र की थी तो क्या करती थी स्कूल के अलावा? दिमाग पर बहुत जोर डालने पर भी सिर्फ एक चीज याद आई साइकिल उठा कर ट्यूशन जाने की. लेकिन इस गाँव के बच्चे ऐसे नहीं हैं. अभी तक तो येही समझ आया. ये काफ़ी कुछ करते हैं और जानते है. बात भी अच्छी करते हैं और जिम्मेवार भी हैं. एक बेहतर जिंदगी जी रहे हैं ये बच्चे. जब ये बड़े होकर पीछे की सोचेंगे तो काफी कुछ मसाला होगा इनके पास.
रात ठण्ड काफ़ी बढ़ गयी और कम्कपाते हुए पास के एक ढाबे का, जो एक महिला और उनकी बेटी चलाती थी, ताजा सब्जियों का गर्म खाना खाकर हमने दिन को अलविदा कहा.
आज दूसरे दिन की सुबह है और हम रोहन के घर आ चुके हैं. अगले चार पांच दिन हमारे फ़ोन नहीं चलेंगे और मैं ये बात अपने घर बताना चाहती हूँ. खास कर अम्मा को जिनसे मैं रोज बात करती हूँ और अचानक बिना बताये गायब हो जाना बिलकुल ठीक नहीं है. कल से कोशिश में लगी हूँ कि एक बार बात हो जाये या मेसेज चला जाये पर यहाँ सिग्नल ही नहीं हैं. बीएसएनएल के सिवा कोई और फोन नहीं लगता और बीएसएनएल से भी बात करनी हो तो दो किमी नीचे जो पुलिस की चौकी है वहाँ पर जाना होगा. हर की दून के लिए निकलने का समय हो गया था और मुझे टेंशन भी हो गयी है. रोहन की बहन के फ़ोन से भी कई बार कोशिश कर ली है. उसको रिक्वेस्ट भी किया कि हमारे निकलने के बाद भी वो तब तक मेसेज भेजने की कोशिश करे जब तक कम से कम एक मेसेज ना चला जाये.
तो सुबह आठ बजे के आस-पास हम रोहन के घर से निकलने को तैयार थे. अपने जरूरत भर का सामान लेकर वेद के बेहद ख़राब मूड के साथ. इस दौरान एक इंटरव्यू का रिज़ल्ट जो पता चला था. रिज़ल्ट अच्छा नहीं था. खैर इतनी खूबसूरत जगहों पर मूड बिगाड़ने वाले लोग तो मेरी समझ से बाहर हैं. पर आदत से मजबूर इंसान को हर चीज में अब कमियां नजर आ रहीं थीं. हमारे पुराने से बैग में भी जो कोई सात –आठ साल पहले सरोजिनी की मार्किट से लिया था. वो जरुरत से थोडा ज्यादा बड़ा है. पर अब कोई चारा है क्या?
रोहन के पिता हमें गाँव के रास्ते से निकल जाने की सलाह देते हैं और रोहन को गंगाड़ में रात रुकने के लिये वरदानु दीदी का नाम याद रखने की हिदायत देते हैं. उसकी बहन एक रजिस्टर में हमारा नाम पता और हमारे जानकार लोगों का नंबर लिखवा लेती है जिनको हमें कुछ दिक्कत आने पर हमारे बारे में सूचित किया जा सके. पराठे खा कर हम वहाँ से गाँव-गाँव के रास्ते निकल जाते हैं.
सौड़ से तालुका गाँव कुछ 5 किमी दूर है और तालुका तक गाड़ी जाती है. पर बादल फटने से सड़क टूटी हुई है इसलिए गाड़ी सौड़ तक नहीं आ पाएगी. हमें सड़क टूटने वाली जगह तक पैदल जाना होगा उसके बाद ही गाड़ी मिलेगी. बादल फटने से सड़क में बड़ा गड्ढा है और काफी मलबा नीचे आया है. ये जगह इंसानी बस्ती से कुछ दूर है इसलिए जान का नुकसान टल गया. कई सारे लोग यहाँ जमाँ हैं और गाड़ी का इंतजार कर रहे हैं. हमें लगा कि इतनी भीड़ है हमारा नंबर तो देर से ही आएगा तो क्यों न हम चलते रहें. जहां गाड़ी मिलेगी बैठ जाएंगे.
काफी देर में एक सूमों गाड़ी दूसरी तरफ से आती दिखी जिसके छत पर भी लोग बैठे हैं. ये नजारा वैसे तो आम है पर फिर भी ऊँचे पहाड़ी इलाकों में ये देख कर सिहरन सी होती है. पर वो लोगों को ले कर आ रहीं है. पहले गंतव्य पर पहुंच कर लोगों को उतरेगी फिर वहीं से लोगों को भरेगी. तो हमारा स्टॉप को छोड़कर आगे निकलना हमें भारी पड गया. इस गाड़ी ने एक के बाद एक कई चक्कर लगाए और लोगों को तालुका तक छोड़ा. हमने भी फिर इसमें जाने की कोशिश नहीं की. पर तालुका हमारे अंदाजे से ज्यादा दूर निकला. तालुका का सबसे पहला नजारा बच्चों को एक छोटे से खेत में क्रिकेट खेलते हुए देखना था. हिंदुस्तान में क्रिकेट सब जगह मैनेज हो जाता है. इस खेल के बारे में ये भी एक खास बात है.
सौड़ से अलग तालुका पुराने ज़माने का गाँव है. यहाँ का मार्केट काफी छोटा है, कुछ एक दुकानें हैं बस, जिसमें बिस्किट्स और टॉफ़ी ही ज्यादा हैं, कुछ एक सब्जी की दुकानें भी हैं. पर हम यहाँ रुके नहीं और जल्द ही तालुका के सीढ़ी नुमा रास्ते से नीचे पैदल रास्ता शुरू हो गया. यहाँ पहाड़ी नदी की तेज आती आवाजों ने माहौल बदल दिया है. जल्द ही नदी के दर्शन भी हो गए. ये सूपिन नदी है. अच्छा खासा पानी है इसमें. मेरे सोचे से कहीं ज्यादा. और खूब शोर मचाती है. लगता है बड़े-बड़े पत्थर हैं इसके रास्ते मैं. हर की दून का रास्ता इस नदी के बहने की उल्टी दिशा में दायीं ओर से जाता है. खूब सारी सीढ़ियाँ नीचे उतरीं, फिर ऊपर चढ़े और यूँ ही नीचे ऊपर करते करते हम वीरानी पहाड़ी जंगली पगडंडियों को पार करते गए. कोई ज्यादा लोग नहीं हैं रास्ते में. हाँ खाली खच्चर लेकर वापस आने वाले जरुर हैं. ये तालुका से फिर से सामान भरेंगे और खच्चरों से गावों में पहुंचायेंगे.
पहाड़ों, जंगलों से आबाद इस जगह पर कभी सुनसान हो ही नहीं सकता. यहाँ नदी का कोलाहल जो इतना है. दोनों तरफ जंगलों से घिरी ऊंची पहाड़ियों के बीच की संकरी खाई में ज़ोर-ज़ोर से बहती सूपिन के बिलकुल बगल से रास्ता जाता है. कहीं- कहीं पगडंडी नदी के बिलकुल बराबर में से हो कर भी जाती है. इतना शोर तो गंगोत्री में भागीरथी भी नहीं करती. शायद भागीरथी को चौड़ाई में फैलने की जगह मिली हुई है इसलिए. पर सुपिन में पानी बहोत है और जगह कम. वैसे सच भी है कि फैलने की जगह ना हो तो बस शोर ही शोर है जिंदगी में. फिर सुपिन तो एक कुलांचे मारती हुई नदी है. पहाड़ी सुनसान जंगलों के बीच में एसे बहती नदी को देखना दुर्लभ है. इस उछलती हुई नदी के बीच-बीच में लकड़ी की पट्टियाँ बिछाकर बने पुल भी आते हैं. ऐसे बिना रेलिंग के लकड़ी के पुलों के ऊपर से गुजरने पर मेरा दिल सफ़ोला के विज्ञापन में धड़कने वाले प्लास्टिक के दिल की जैसी आवाजें करता है. ऐसा अजीब सा एहसास ऊंची इमारतों की छत से नीचे देखने पर भी हुआ है कई बार. पर खैर हमें अभी इन पुलों को पार नहीं करना है. बस इस के दायें ओर ही रहना है. कई बार नदी आँखों से गायब भी होती है पर ये उसकी आवाज है जो उसकी नजदीकी के अहसास को जहन में बनाये रखती है.
हमारा दोस्त रोहन, हमारा गाइड, पगडण्डी के किनारे लगी जड़ी-बूटियों के बारे में बताता है. कहीं-कहीं छोटे-छोटे फल तोड़कर खाने को भी देता है. पर मेरी नजरों में वो बच्चा है और उसके इस ज्ञान पर अभी विश्वास नहीं आता. वो पहले खुद खाकर विश्वास दिलाने की पूरी कोशिश कर रहा है.
शुक्र है कि जंगली चढाई वाले रास्ते में बरसाती डालकर बनायी एक चाय का खोप्चा भी निकला. उसको चलाने वाला भी रोहन का हमउम्र व् दोस्त लगता है. वो बताता है कि हम किस्मत वाले निकले वरना ये बस आज के दिन का काम काज बंद कर घर वापस निकलने को था.
दोपहर होते-होते हम थक चुके हैं. आगे दो गाँव हैं. एक का नाम गंगाड है और दूसरे का ओस्ला. हमारा इरादा गंगाड में रुकने का है. गावों में रुकना मुझे पसंद है. इससे जिंदगी को हमसे अल्हदा तरीकों से जीने वाले नए-नए लोगों से मिलने के मौके जो मिलते हैं. अच्छी नींद और और अच्छे लोकल खाने के साथ ही साथ टेंट का बोझ भी कन्धों पर ले के नहीं चलना पड़ता. गंगाड गाँव के लोग कैसे होंगे? सड़क से 18 किमी दूर है ये गाँव. गाँव और सबसे पास के छोटे से कस्बे के बीच में नदी, जंगल, पहाड़, जानवर सब हैं. इन दोनों को जोड़ने वाली पगडंडी में दो लोग भी बगल-बगल नहीं चल सकते, हर हाल में आगे पीछे ही चलना है. जब समान ले कर खच्चर आते हैं तो उनके गले में बंधी घण्टियों से पता लग जाता है. आपको पहाड़ की साइड को जहां भी थोड़ी जगह हो किसी तरह अपने को एडजस्ट करना होता है क्यूंकी दूसरी साइड पर खड़े होने पर खतरा है कि खच्चर दुल्लाती मार दे और आप खुद को संभाल न पाएँ और नदी के तरफ की खाई में समाँ जायें.
खैर तीन बजे होंगे जब दूर से एक जगह पहाड़ पर लकड़ियों के खांचे से बने लुके-छुपे से घर दिखे. केमोफ्लेज्ड. बिना किसी रंग रोगन के बने लकड़ी ये घर एकदम आँख गडा के देखने पर ही समझ आते हैं. तो ये है गंगाड़. अभी कुछ दूरी है पर ये जानकर जान में जान आई कि हमें आज पंहुचना कहाँ तक है.
गंगाड़ गाँव के ठीक सामने का नजारा जिंदगी भर याद रहने वाला है. पानी ही पानी है यहाँ. बिना पेड़ों वाले ऊंचे खड़े पहाड़ पर बसा ये गाँव नदी के दूसरी तरफ है. यहाँ वहाँ हर ओर से बस पानी ही पानी चला आ रहा है और इस जगह नदी में समाया जा रहा है. उस ओर को जाने के लिए नदी के ऊपर एक लकड़ी का पुल है. गाँव पुल से काफी ऊपर है. घास काट के रखने वाले टोकरे पीठ में टांगे हुईं औरतें और बच्चे नजर आने लगे हैं. उनके लिबास ऊंचे पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वालों से हैं. छोटे बच्चे मानो हमसे मिलने ही यहाँ पुल तक आए हों.
गाँव में लकड़ियों के कई ढांचे खड़े हैं लगता है ये घर कुछ दिनों-महीनों में तैयार हो जाएंगे. पहाड़ों में आप जाएँ और कोई कुत्ता आपका साथी न बन जाए तो आपका जाना पूरा ही नहीं हुआ. झबरीले बालों वाला एक साथी कुत्ता काफ़ी दूर से हमारे साथ-साथ आया है और हमें गाँव तक पहुंचा कर ही माना.
हम वरदानु दीदी का घर पूछते हुए पंहुच गए. रोहन ने उनको अपना नाम पता बता कर यकीन दिलाया कि वो कहाँ से उनसे जुड़ा है और उन्होंने ख़ुशी-ख़ुशी हमें घर में जगह दे दी. ये प्रोफेशनल होम स्टे नहीं है. बल्कि रोहन के पिता की पहचान से हम यहाँ आये हैं. ये घर आकर्षक है। इसमें दो बहुएं हैं और बहोत सारे बच्चे. और साथ में हैं अम्मा जिन्होंने हमें एक छोटा सा किनारे का कमरा दिखा दिया. कमरे में एक के ऊपर एक रखे रज़ाई गद्दे ज्यादा हैं और सोने के लिए जगह कम. अभी तो खैर हम अपना सामान वहां डाल सीढियों पर बैठ गए हैं. वरदानु बेहद ही प्यारी और उम्र में कम है. ज़िम्मेवार, मेहनतीं, खूबसूरत और खुश दिखती है वो. अपनी कठिन दुनिया में लगीं हुईं, रोज़मर्रा के इन्तजामों में व्यस्त. इस घर में सच में सांकरी से कहीं ज्यादा आराम है, चैन है. बैठने के लिए अच्छी जगह, गरम पानी और अब चाय. वो क्या चीज है जिसने इन लोगों की आँखों में इतनी चमक और चेहरे में तल्लीनता बिखेरी है. ये हम चाह के भी नहीं जान सकते, एक दिन में तो कतई नहीं. वरदानु ने पूछा कि क्या हम रात में लिमुड की सब्जी खाना पसंद करेंगे. हमारी हाँ सुनकर आमा लिमुड साफ कर उसे काटने में लग गईं. इस गाँव में नल में पानी आता है. पानी ही पानी है वैसे यहाँ. जैसे इस गाँव में आकर बसने वालों ने पानी को ही सब कुछ मान लिया हो. कुछ और चाहा ही न हो जैसे.
हम गाँव घूमने निकल गए. यहाँ के मंदिर विशिष्ट हैं. लकड़ी के बने ये खूबसूरत तो हैं ही इनके आगे काफी अच्छी ख़ासी जगह खाली रहती है. वहाँ कुछ बच्चे खेल रहे हैं शायद क्रिकेट. वे सब हमें देखकर हमारे पास आ गए। सभी बच्चे पुरोला या उत्तरकाशी में पढ़ते हैं. छुट्टियों में घर आए हैं. अच्छी बातें हुईं और खूब सारी फोटो निकालीं उन सबके साथ. तभी हमारी मुलाक़ात हुई नीचे चाय का खोप्चा चलाने वाले के साथ. वो भी अपनी दुकान बंद कर गाँव वापस आ गया है. उसके लिए वो आठ- दस किलोमिटर बीहड़ जंगल में, अनेक चढ़ाइयों के बाद चाय का टेंट नुमा खोप्चा चलाना हर साल सैलानियों के मौसम का काम है. बाकी समय यहाँ बरफ ही रहती है जब बहोत कम लोग इधर आते हैं. ठंड अब भी काफ़ी बढ़ गयी है. हम लगभग कांप से रहे हैं. वो हमें अपने घर चलने का न्योता देता है. कहाँ है उसका घर? वोsssss नदी पार जो दायीं ओर को पहाड़ी दिख रही है … वो ऊपर देखो गाँव है वहाँ. ये टार्जन लोग हैं यहाँ के. इन पहाड़ियों से आत्मसात. पर हमारी टांगे तो अब जाम हो चुकीं हैं.
हमारे मेजबान के घर के सामने और अगल बगल छोटे-छोटे चबूतरे से बने हैं. मतलब जैसे छोटे शहरों में पान की दुकान होती है वैसे लकड़ी के स्टैंड पर खड़े बंद खिडकियों वाले चबूतरे. आमा बार–बार इस चबूतरे की खिड्की में लगे ताले खोलकर उचककर खिड़की से अंदर जातीं है और कुछ ना कुछ समान जैसे आलू, प्याज लेकर बाहर आतीं हैं. तो ये राशन पानी रखने का अड्डा है इनका. शाम को रोहन और आमा की कुछ संजीदा बातें हुईं. आमा ने बताया कि कुछ महीने पहले ही उनकी लगभग तेरह चौदह साल कि पोती पेड़ से गिर गयी और बच नहीं सकी. वो ये हाल सुना कर दुखीं हैं उनकी भाषा से अनजान हम उनके सुनाने के अंदाज से गमगीन हुए माहौल की मायूसी महसूस कर रहे हैं.
अभी तो लाइट भी चली गयी है. तो इस अँधेरी शाम में बस पानी का शोर है. घर के बच्चे बताते हैं कि रात होते-होते आ जाएगी. ऐसा ही रोज होता है. ये बच्चे भी सब उत्तरकाशी और पुरोला में पढ़ते हैं. छुट्टियों में आए हैं. इनको यहाँ अच्छा लगता है. पर ये बच्चे बड़े होकर इस गाँव में नहीं रुकेंगे. हाँ अगर होमस्टे और टूरिज्म का यहाँ व्यवसाय बढ़ा तो ही ये जगह यहाँ के वास्तविक लोगों से आबाद रह सकेगी. अभी यहाँ के ज़्यादातर लोग खच्चर का व्यवसाय करते हैं, गाइड हैं, सैलानियों के मौसम में रास्ते में चाय-नाश्ता बेचते हैं या ऐसा ही कुछ और काम. थोड़ी खेती है और गाय हैं. पर पहाड़ों के ये ठन्डे गाँव कहीं से भी गरीब नहीं लगते.
इस घर की औरतों ने हर की दून नहीं देखा है. वे कहतीं हैं सब हमारा ही इलाका है. कभी कोई ऐसी विशेष इच्छा नहीं हुई उसे जा के देखने की. पर ये बच्चे एक बार हर की दून घूम आए हैं ये जानने के लिए कि ऐसा क्या है वहाँ जो दिल्ली, बंबई से लोग आते हैं. पर इनको वहां कुछ भी अलग नजर नहीं आया. बल्कि इनके हिसाब से उससे कहीं अच्छी जगहें इन्होने देख रखीं हैं.
कहाँ हैं वो जगहें?
वो सामने वाले पहाड़ के उस पार.
खैर सच में आठ बजे बिजली आ गयी. रसोई में बैठकर मिट्टी के चूल्हे में पकी अति स्वादिष्ट रोटी, लिमुड़ की सब्जी खा कर हम तीनों हमारे रज़ाई गद्दों के अंदर सरक गए. थोड़ी देर में रात की चाय पी कर लुढ़क भी गए.
सुबह- सुबह दिखाई दिये हाथ के बनाए गए ढेरों मिट्टी के दिये. जो बाहर पानी गरम करने के बड़े हौदों के ढक्कनों में सुखाने रखे थे. कल शायद हम ज्यादा थके थे, तो हमने यहाँ तफ़शीश नहीं की. सुबह भी शाम जितना ही अहा नाश्ता कर के हम वहाँ से जल्द ही निकल गए अपने पेमेंट कर के. वरदानु और उनकी साथी के चेहरे चमक उठे थे अपनी मेहनत कि कमाई पाकर.
आज हमको सीधे हर की दून पहुंचना है. गंगाड़ का पुल पार कर एक बार फिर हम नदी के दायें किनारे चल दिये. कुछ देर रास्ता काफी सीधा, और गजब का सुंदर है. नदी के एक बराबर में चलना है. फिर सीमा गाँव आया, जहाँ पहाड़ों के छोटे-छोटे खेतों में आलू की पौध निकली है. पत्थरों को एक के ऊपर एक रखकर दीवार सी बनाई हुई है. पानी को रोकने के लिए या लोगों को खेतों में जाने से रोकने के लिए. पर हम यहाँ रुके नहीं और कुछ ही देर में हमने खुद को लकड़ी के पटरों को बराबर में रखकर बनाए बिना रेलिंग के हिलते डुलते लम्बे पुल से नदी को पार कर सीधे ऊंची खड़ी चढ़ाई चढ़ते हुए पाया. अब ओसला गाँव का इन्तजार है.
ओसला भी गंगाड़ जैसा है, वैसा ही मंदिर भी है, पर ये गाँव गंगाड़ से बड़ा लगता है. ओसला की इस सुबह ऐसा लगता है कि हम जैसे हड़प्पा के समय में पहुंच गए हों. सुबह-सुबह हर कोई जैसे आदम ज़माने का काम-धंधा शुरू करने घर से निकल पड़ा हो. औरतें टोकरी पीठ पर बांधे घर से निकल पड़ीं हैं घास काटने तो, तो कुछ गाय चराने. इन गायों की आवाज दूर से ही पता लगती हैं उनके गले की घंटियों से. कुछ दुकनें भी खुल चुकी हैं. केवल जरुरत का सामान रखने वाली एकदम छोटी लाला वाली दुकानें जिसके सामने खूब सारे बच्चे खड़े हैं, हँसते खेलते छोटी भूरी आँखों वाले.
ओसला में भी सड़क किनारे लाइन से पत्थरों के ऊपर टिकाये पान की दुकान वाले राशन का सामान रखने के छोटे से चबूतरे बने हुए हैं. इनमें ताले लगे हुए हैं. इनकी मालकिन आमाओं ने इनकी चाभियाँ शायद कहीं छुपा के रखी होंगी. घर में किस-किस को हक़ होता होगा इनमें से सामान निकालने का. कौन जाने? पर इस गाँव में लकड़ी के शानदार घर बन रहे हैं. यहाँ पर्यटन विकसित हो और शायद अगली बार ओसला आयें तो शायद पहचान भी ना पाएं.
हम ओसला गाँव की सरहद से जल्द ही निकल गए. पर अब सोचती हूँ कि ओसला में भी रुक जाना चाहिए था. आते या जाते समय एक बार तो बनता था. ऐसी भी क्या हड़बड़ी थी? जहाँ ४ दिन की छुट्टी थी वही ५ या ६ दिन की हो जाती. क्या बिगड़ जाता हमारा? इतना सुन्दर गाँव हमने बस घंटे भर में पार कर दिया. कहीं और पंहुचने की हड़बड़ी में. किसी से बात भी नहीं की. कुछ खाया-पिया भी नहीं. ऐसी एक्यूट हड़बड़ी भी किस काम की. अफसोस कि ये सब पता हो कर भी एक ठहरे हुए गाँव में हम कुछ देर भी ठहर नहीं पाए.
ओसला काफ़ी ऊँचाई पर है. सीधी खड़ी चढ़ाई है. गाँव पार कर हम नीचे उतर रहे हैं. हमसे ज्यादा मजे में यहाँ की गायें लगती हैं. वे क्या सरपट पत्थरों को लांघती उतरतीं हैं. उनके गले में बंधीं घंटियाँ उनके सर्वव्यापी होने का अहसास करातीं हैं. उनके मालकिनें और बच्चे भी उछलते कूदते निकलते हैं. वे काफ़ी दूर तक ले जातीं हैं अपने जानवरों को चराने के लिए. काफ़ी दूर हैं इन लोगों के खेत भी जहाँ गेहूं पका हुआ है और हवा के साथ झूल और झूम रहा है. जंगल के हरे, चट्टानों में उगी घास के हरे और फसलों के हरे में अंतर को बताते हुए खेत हैं जिनके बींचों-बीच में हम हैं. ये जगह गज़ब की है और आपको एकदम शानदार महसूस कराती है.
गाँव और गाँव वालों की परिधि से हम बाहर निकल आये हैं. खेत भी पार हो चुके हैं. इस जगह से अब खड़ी चढ़ाई है. एक बार फिर से जंगल की पगडंडियों में हैं जिसके एक और पहाड़ तो दूसरी ओर के ऊँचे, एकदम आलिशान पहाड़ के बीच की घाटी में कम से कम सात-आठ हजार फीट नीचे नदी है. नदी के उस पार के ऊँचे झरनों को हम इधर से देख रहे हैं. कुछ फोटो, विडियो लेने चाहिए. पर यहाँ बादल आ गए हैं. काफ़ी देर हो गयी है कोई इन्सान इधर से गुजरा नहीं है. आसमान से डरावनी आवाजें भी आ रही हैं. ऐसा लगता है जल्द ही बारिश हो ही जाएगी. बल्कि हल्की फुहारें पड़ने भी लगी हैं. हमारे पास रेन कोट हैं पर अगर बारिश इतनी हो गयी कि हम आगे ही ना बढ़ पाए तो हमारे पास रात रुकने के लिए टेंट नहीं है. हम ये मान कर चले थे कि हम अपने गंतव्य तक हर हाल में पंहुच ही जायेंगे. इस जंगल में, इस अकेलेपन में हमें रात भी गुजारनी पड़ सकती है इस मानसिकता को हमने आने ही नहीं दिया था. सबसे बड़ी बात कि वेद के पैर में काफ़ी ज्यादा दर्द हो रहा है. पर अब आगे बढ़ते रहने के अलावा कोई और चारा नहीं है.
दूर से एक जगह चाय का खोप्चा दिख रहा है. रोहन के हिसाब से ये बस अन्खिरी चाय है और इसके बाद हर की दून पंहुंच कर ही चाय मिल पायेगी. इसका मालिक इसको बंद कर जाता सा दिखा रहा है. पर हमें बिना चाय के मायूस नहीं करता. इसी समय यहाँ दो और लड़के भी हैं. वे शहरी हैं और एक बार पहले यहाँ आ चुके हैं. इस बार टूर ऑपरेटर का स्टार्ट अप स्टार्ट करने की जुगत में हैं. इतने में ही वो रोहन के नाम पते नोट कर उससे लिंक बना लेते है. वे चाय पी कर हमसे पहले ही रुखसत हो लेते हैं.
यहाँ पर एक जगह है जो मुझे अक्सर याद आती है. ये एक ऊंचाई पर पड़ने वाला मोड़ है. जिस नदी के किनारे हम इतना दूर आये इस वीरानी में वो बायीं तरफ से आती एक दूसरी गाड़ से मिलती है. नीचे संगम है जिसका मतलब है आप नदियों के बहने से बने एक तिराहे कह लो या वाई जंक्शन को उसके ठीक ऊपर कम से कम सात-आठ हजार फुट की ऊँचाई से खड़े पहाड़ की एक पतली पगडण्डी से उचक कर देख रहे हैं. नदियों के दोनों तरफ पहाड़ों पर ऊपर के इलाके में जंगल हैं. जंगल के ऊपर फिर घास के हरे मैदान हैं. उसके ऊपर फिर वनस्पतियां विरल हैं. ये कतई भी वो जगह नहीं कि आप लम्हे गुजरने की सोचो. पर यहाँ फोटो खींचना तो बनता है.
खैर इस शानदार मोड़ से हम बाएँ मुड गए और जंगल के भीतर पंहुच गए. जंगल के फूलों और खुशबुओं के बीच. रायबरेली में मेरा घर जंगल के पास था. ३/१३ जेल गार्डन रोड. जंगल छोटा था उसके अन्दर जाने में अपना मजा था. अन्दर एक छोटा तालाब था और उस पार खेत जिसमें कुछ पुलिस वाले और कुछ कैदी कभी दिख जाते थे. खेती करते हुए, धान रोपते हुए शायद. खूब सांप निकलते थे वहां. कभी नेवले दिख जाते थे. राजस्थान के झड़ी वाले जंगल जैसे कि सरिस्का के जंगल जिनमें टाइगर रहा करते हैं, मैंने कई बार देखे और भरतपुर के खुबसूरत पंछियों को लुभाने वाले जंगल भी. फिर मध्य भारत के बिलासपुर में चारों तरफ फैले तालाब किनारे पेड़ों पर दीमकों के ऊँचे घर और उड़ने वाली गिलहरियों से भरे विशाल सतपुड़ा के जंगल, और वहां हाथियों और इंसानों के बीच होने वाली कशमकश के गवाह पलामू के जंगल कोई भूलने वाली बात नहीं. पर हम इस लम्हे जहाँ हैं वो सबसे अलहदा है. ये हैं हिमालय के घने, ऊँचे और गहरे जंगल हैं. हजारों खुशबुओं से भरे अथाह पानी वाले. इनकी क्या बात है.
अगले कई घंटे हम इन जंगलों में चले होंगे. कुछ झरने भी पार किये. कई जगह सुस्ताये और कोशिश की कि इन मंजरों को आँखों में भर लिया जाये. अब लगता है हर की दून पास है. और जल्द ही एक अंतिम चढ़ाई के बाद हमने हर की दून की खुबसूरत जादुई वादी में कदम रखा. नयी चमकदार हरी घास वाली वादी के बीच से उसके बराबर में एक छोटी सी गाड़ बह रही है. बिलकुल बराबर में आप हाथ डालकर ठन्डे पानी को छू सकते हैं. आपके साथ चलने वाली गाड़ जैसे न्यूब्रा में श्योक और तपोवन में आकाशगंगा. इस के किनारे- किनारे छोटे-छोटे लाल हरे टेंट तने हुए हैं. और उस पार खाना बनाने वालों के टेंट भी. देख कर अच्छा लगा कि रास्ते की सुनसानी से अलग यहाँ काफ़ी लोग हैं. पर हम टेंट में रहने नहीं जा रहे हैं. यहाँ गढ़वाल मंडल विकास निगम का गेस्ट हाउस भी है. नीचे चाय कि दुकान में मिला लड़का जो ट्रेवल आर्गेनाइजर बनने वाला है यहाँ दिख जाता है. आगे जाकर थोडा ऊपर गाड़ को पार कर के मटमैले – पीले रंग से पुता गेस्ट हाउस है, बिलकुल सरकारी हिसाब-किताब वाला. जर्जर और अँधेरे में नहाया हुआ सा. ये एक चौकीदार कम रसोइया कम मेनेजर के हवाले है. जो लकड़ी जला के चाय बना रहे हैं. लम्बा खाकी रंग का ऊनी कुर्ता पहने, टोपी लगाये चन्दराम काका हैं ये. मेरे पूछने पर कि क्या यहाँ कमरा मिलेगा वो पूछते हैं कि कितने लोग हैं और जवाब हाँ में देते हैं. तो हमारा आज का इंतजाम हो गया. इस गेस्ट हाउस में यहाँ और भी कुछ लोग आये हुए हैं. और कुछ ही देर में वेद और रोहन भी पंहुच जाते हैं. अभी ४ बजे होंगे और दिन छिपने में अभी थोडा समय है. ये गेस्ट हाउस थोडा ऊँचाई पर है तो हम यहाँ से इस अद्भुत वादी के नज़ारे ले सकते हैं.
इस गेस्ट हाउस के कमरे पीछे कि और खुलते हैं जिससे दूसरी ओर के पहाड़ और नीचे बहती बड़ी नदी और उसके किनारे की हरी घास को चरते जानवर दिखते हैं. ये जानवर पास के गाँव वालों के हैं जिनके मालिक उनको बरफ गलने पर आई अच्छी घास को चरने के लिए कुछ महीनों के लिए छोड़ गए हैं. ठीक सामने स्वर्गारोहिणी की बरफ से ढकी सफ़ेद चोटी को शाम के हलके लाल आसमान तले आँखों में उतारने के हिसाब से भी यह जगह एकदम माकूल है.
हमारें बगल वाले कमरे में दिल्ली से दो सज्जन आये हैं जो हर साल आते हैं एक बार ट्रैकिंग के लिए. चंद राम काका हमें अच्छी चाय भी पिलाते हैं और हुक्का भी. उनकी छोटी से रसोई में लकड़ियाँ ही लकड़ियाँ हैं. कमाल है अभी तक चल रहे थे तो अहसास नहीं था पर अब बैठते ही हम ठण्ड से सिकुड़ गए हैं, खालिस ऊनी मोटी टोपी को भी ऊपर से जैकट के हुड से ढक लिया है. अगले कुछ एक घंटे तो बस इस वादी के नजर रहे. पर अब चंद राम काका हमें जल्द से जल्द खाना खिला के सुला देने पर अमादा हैं ताकि उनका काम निपटे. थोड़े नखरे वाले चंद राम जी अगर कहीं और मिले होते तो हम आराम से उनको सत्तर साल का तो मान ही बैठते पर छोटी आँखों और सिलवटें पड़ी खाल वाले वो अभी नौकरी में हैं तो पचास पचपन से ज्यादा के नहीं होंगे. हम उसको टाल कर के भी साढ़े सात से ज्यादा नहीं खींच पाते. तो आज की शाम इतनीं ही. हम कल भी यहीं रुकने वाले हैं.
हर की दून की सुबह आसमान के नीलेपन के कब्जे में होती है. नदी, पेड़, पत्थर, वादी सब कुछ नीले रंग की श्याही से धुले नजर आते हैं. पर यहाँ आज का दिन एक अकेला दिन था. सुबह-सुबह सारे टेंट खुल गए, सभी लोग अपना सामान बांध के निकल गए. हमारे अलावा कोई नहीं रुका और कोई नया आया भी नहीं. शायद बादल फटने की घटना के चलते नीचे अब कड़ाई की जा रही हो. सुबह ही चंद राम काका काफ़ी लकड़ियाँ ले आये जंगलों से. उन्होंने बताया कि उनके घर में आज उनकी जरुरत है इसलिए दोपहर खाने के बाद वो भी ओसला निकल जायेंगे. तो हम आज रात गेस्ट हाउस में भी अकेले होंगे. उन्होंने हमारे लिए कुछ सामान रसोई में निकाल के रखा है और कुछ लकड़ियाँ भी इंगित कर दी हैं जिनको इस्तेमाल करके हम अपने लिए खुद पका सकते हैं. कल जब हम वापस जा रहे होंगे तो वे हमें रास्ते में कहीं मिल जायेंगे और हमसे चाभियाँ ले लेंगे.
रोहन ने हमें यकीन दिलाया कि वो भी हमारे लिए खाना बना सकता है. पर काका के जाने के बाद वेद ने उनकी किचन पर कब्ज़ा कर लिया. लकड़ी सुलगाई और इस दिन को पैरों की मालिश और सेकाई के नाम किया. मैंने और रोहन ने आसपास के इलाके की सैर की और जन्नत से भी खुबसूरत नदी और वादी को गेस्ट हाउस के पास लगे ऊँचे पत्थर पर बैठ कर जी भर के देखा. खूब फोटोएं निकालीं.
शाम को हम दूर से नजर आ रही काली बरसाती वाली जगह पर गए ये जानने कि वहां क्या है? क्या कोई और भी है हमारे अलावा यहाँ? ये एक अस्थायी ढाबा टाइप निकला. बरसाती के नीचे कुछ लकड़ियाँ, कुछ बर्तन, पानी की कुछ बाल्टियाँ, डिब्बे जिनमें कुछ दालें, चाय बनाने का सामान और टोफियाँ रखीं थीं और बैठने के लिए स्टूल थे. कल ये यहाँ लगाये रंग-बिरंगे तम्बुओं के बीच में हमें नजर नहीं आया. इसका मालिक, एक बीस-बाइस साल का नौजवान उतना ही खुबसूरत है जितनी ये जगह. एकदम ग्रीक गॉड टाइप. वो ओसला गाँव का है. आज जब यहाँ कोई भी नहीं था तब भी वो गाँव वापस नहीं गया. इस आस में कि शायद कल कुछ और लोग आयें. यहाँ आस-पास बिच्छु घास है अगर हम खाना चाहें तो वो हमारे लिए तोड़ कर लायेगा. तो रात बिच्छु घास की सब्जी और रोटी की दावत पक्की है. सुबह वापसी से पहले हमें चने, पूड़ी और चाय मिल सकते हैं तब जब हम अभी से बता दें क्योंकि इसको सुबह चार बजे उठना होगा चने गलाने के लिए. पहाड़ों में दाल देर से क्यों गलती है? खैर हमारी दाल तो गल गयी है. अच्छा ही रहा चंद राम काका निकल गए, वरना इस लाजवाब खाने और बनाने वाले तक हम कैसे पंहुच पाते?
अगली नीली सुबह छोटी गाड़ के बगल की काली बरसाती में बैठकर खाते हुए एक आखिरी बार इस वादी को अपने अन्दर महसूस करने की कोशिश की. जाने कभी दुबारा इसे देखने का मौका मिले ना मिले. आज का इरादा सीधे सौड़ पंहुचने का है.
हमने सुबह चलकर बिना कहीं रुके रात तक सौड़ पंहुचने का क्यों सोचा ये हड़बड़ी अब मेरी समझ से बाहर है. सौड़ हम रात ढलने पर ही पंहुच पाए. बेहद थके हुए. वादे के हिसाब से आज रात हमें रोहन के घर रुकना था. वहां बड़े से हौदों में लकड़ी पर गरम किया हुआ पानी था जिसकी खुशबू ने भी हमें तरोताजा कर दिया. जल्द ही हम एक बड़ी सी रसोई के ठीक बीचों बीच लगे लकड़ी के चूल्हे के किनारे बैठे थे और कई बार की चाय पी चुके थे. काफ़ी जगह है इस रसोई में. यहाँ दस पंद्रह लोग तो आराम से बैठ सकते हैं. आग से गर्मी भी है. पर थकान इतनी ज्यादा है कि खाने का मन नहीं है. खाने की पौष्टिकता के हिमायती रोहन के पिता और बेहतरीन खाना चूल्हे पर बनाने वाली मां जोर देते हैं कि बिना खाए सोना ठीक नहीं. खाने में उन्होंने काफ़ी कुछ बनाया है और हर चीज हमें खिला देना चाहते हैं. इस परिवार से मिलकर ख़ुशी हुई.
ये घर एक अच्छी गर्म जगह है जहाँ कोई भी कई बार आना चाहे. पर हमारी ये ख्वाहिश अब पूरी नहीं हो सकेगी. किसी एक छोटी गलती से भड़की आग ने इस पूरे घर को राख में तब्दील कर दिया. ये घर धू-धू करके जल गया. घर का एक भी सामान नहीं बचा पाए ये लोग पर शुक्रमंद हैं कि किसी की जान नहीं गयी. सोचती हूँ अभी के अभी रोहन को फ़ोन करती हूँ, काफ़ी टाइम हो गया बात किये हुए. आपको अलविदा.
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स्वाति मेलकानी
एक अति पठनीय यात्रवृत