डॉ. भूपेंद्र बिष्ट
शिरीष कुमार मौर्य मौजूदा दौर के एक उल्लेखनीय कवि हैं. हाल में उन्होंने एक सामुदायिक रेडियो केंद्र से प्रसारित बातचीत में बड़ी महत्वपूर्ण बात कही कि एक ही कविता को जीवन भर भी लिखा जा सकता है और स्पष्ट किया कि उनके इस वक्तव्य को छोटी कविताओं के विरोध में न समझा जाय.
शिरीष ने बताया कि उन्होंने कुछ अरसे से छोटी कविताएं लिखना लगभग छोड़ दिया है, इसके बरक्स वे कविताओं की श्रृंखला पर काम कर रहे हैं. राधाकृष्ण से प्रकाशित “रितुरैण”, वेब पत्रिका समालोचन से प्रसारित “चर्यापद” के बाद रश्मि प्रकाशन से अब उनकी कविता श्रृंखला “आत्मकथा” छप कर आई है.
51 कविताओं के इस संग्रह में कवि की निजता के बजाए हमारे अपने जनों की निजता की कविताएं हैं. व्यक्तिगत समय के बजाए समकालीन बड़े दायरे को इन कविताओं में लक्ष्य किया गया है.
कुमार अंबुज ने संग्रह के लिए आमुख आलेख में कवि की इस आत्मकथा को काफी कुछ खोल भी दिया है. लिखते हैं कि ये कविताएं दीर्घ कविताएं न होकर, एक ही आलंब की नोक पर खिली हुई कविताएं हैं और इनका सहोदरपन इन्हें एक सूत्र में बांधता है.
आत्मकथा की ये कविताएं एकबारगी संचित स्मृतियों की, खुरदरे यथार्थ की और मारक समय की कविताएं लग सकती हैं पर वस्तुत: ये कविताएं संभाल कर रखी गई यादों की, नसीब से मिली दुनिया की और डरा देने वाले, धमकाते रहने वाले वक्त की कविताएं हैं :
बार – बार बिजली गिरती है/ गांव में/ बहुत पास/ जैसे इसी बरस सदियों की बारिशें होनी हैं/ एक ही साथ/ धारासार. …(38)
शिरीष ने इन कविताओं में आख्यान के उपकरण से जिस वितान को साधना चाहा है वह हाशिए के लोगों, शोषितों और विपन्न मनुष्यों की नियति की गाथा है. इसीलिए एक कविता पढ़ने के बाद दूसरी कविता में पूरक का आस्वाद मिलता है. कोरोना काल की भयावहता, मर्मांतक टीस, पलायन की विवशता या वापसी की बेकली कुछ इस तरह से सामने आती है कि मानो महामारी की विभीषिका में सिर्फ़ घर की देहरी ही निरापद हो :
बैलगाड़ी में/ जुए के नीचे एक आदमी ने/ अपना कंधा रख दिया है/ बैलगाड़ी पर/ उसकी गर्भवती पत्नी और/ एक बच्चा है/ एक मां/ थक जाने के कारण/ चौपाये की तरह चल रही है/ उसकी पीठ पर दो बच्चे हैं. …. (17)
इतनी ख़ाली जेब तो/ कभी नहीं लौटे दूर खाने-कमाने गए/ लोग. … (23)
उत्तरआधुनिकता की रोशनी और उसके घनघोर प्रवाह में जीवन का क्रिया-व्यापार इतना शाइन करने लगता है कि निर्बाध साथ चल रहे धब्बे भी चमकने लगते हैं और फलतः बचा कर रखा गया शेष locale भी दम तोड़ देता है. शिरीष ने ऐसी चौंधियाहट में भी मुफलिस जिंदगी की नैसर्गिकता को बचाया है :
अंधेरे में उसके सांस लेने की/ आवाज़ यों आती थी/ जैसे रेत का ढूहा खिसकता हो/ बांज की पत्तियों की तरह/ वह अपने ही वजूद के/ इर्द-गिर्द गिरता और सड़ता था. … (15)
प्रस्तुत कविताओं में गरीब गुरबे के वृत को शिरीष ने उसके ठस और असल के साथ रचा है. साथ में इलीट छायाओं के निरंतर विरूपण और इसकी मनुष्य विरोधी वजहों की तरफ भी पर्याप्त संकेत किया है. उन्होंने पारंपरिक बिंब या भोंचक कर देने वाले रूपक को प्राथमिकता दिए बगैर सामाजिक आशय एवं प्रासंगिकता की बात असरदार तरीके से बुनी है :
बहुत गहराई में/ मेरी बुनियाद के आसपास/ उन चींटियों के/ चलने की आवाज आती है/ जो रोज़ थोड़ा-थोड़ा सा/ मुझको, मुझमें से लाती रहती हैं बाहर/ और मैं रोज़/ थोड़ा-थोड़ा गिरता रहता हूं/ अंदर. …. (5)
कभी मदन सोनी ने एक विश्लेषण किया था कि कविता में एक साथ तमाम अर्थों को संयोजित करने की सामर्थ्य को ही काव्य भाषा की “बहुसंयोजकता” के नाम से पुकारा गया है. शिरीष ने भी यहां अपने रचना कर्म की प्रक्रिया को इतना ठोस कर लिया है कि लफ्जों की अर्थ प्रक्षेपण ताकत पाठकों से अपना लोहा मनवा कर ही रहती है :
रोज़ ए आशुरा हिजरी 1443/ इस पार/ गोली लगने से ठीक पहले/ वह अपने बच्चे को उस पार/ सौंप चुकी है/ उस बच्चे का अकीका करने वाले हाथ/ पीठ पर बंधे/ अपने हिस्से की गोली का/ इंतजार कर रही देह से/ अब तक जुड़े हैं यह हैरत की बात है/ हैरात में/ एक देश अपनी आत्मकथा के बीचोंबीच/ खड़ा सिसक रहा है. ….(50)
35 वीं कविता में जो कहा गया है : पा लिया जिसे कवियों ने/ तो भी कभी कह न सके निस्संकोच, निर्भार.
या 13 वीं कविता में : अपनी नींद में गिरा/ कोई फूल मारना मुझे/ या एक फूंक/ पुरानी हवाओं की याद से भरी. ….
यह सब इसलिए ही कहा जा सका कि कवि की स्थापना है कि मेरे लिए बीता हुआ समय भी समकाल है और इसीलिए उनकी आत्मकथा में “आत्म” लोगों की व्यथा है, दुःख है और “कथा” वे खुद हैं.
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आत्मकथा ( कविता – श्रृंखला )
: शिरीष कुमार मौर्य
रश्मि प्रकाशन, लखनऊ
पृष्ठ – 108.