उत्तराखंड में भूमि का बंदोबस्त इस तरह है कि अधिकांश किसानों के पास नाप भूमि के साथ-साथ बेनाप भूमि भी है। गाँव वालों के पास तो केवल बेनाप भूमि ही है। इस भूमि पर उनका मकान है तथा खेती भी होती है। नगरपालिका बन जाने के बाद बेनाप भूमि के नजूल में परिवर्तित होने की सम्भावना है। जिसे लेकर गाँवों में डर का माहौल है।
उत्तराखंड में गाँवो को शहर बनाने की कोशिशें लगातार जारी हैं। यहाँ की कई ग्राम सभाओं को नगरपालिकाओं में शामिल करने की कोशिशें की जा रही हैं। कई स्थानों पर तो शासनादेश जारी करके नगरपालिकाओं का विस्तार कर ग्राम सभाओं और गाँवों का अस्तित्व ही समाप्त हो गया है। महानगरों में इसका हल्का विरोध हुआ है। लेकिन प्रभावी एवं दमदार विरोध अधिकांश जगह नदारद है। गाँवों वालों का मुख्य विरोध का कारण उनके ऊपर लगने वाले नगरपालिका के विभिन्न करों को लेकर है। अभी तक गाँवों में रहने वाले लोगों को भवन कर, सफाई कर, पशु कर आदि से पूर्णतः छूट है।
उत्तराखंड राज्य सरकार के एक मंत्री का स्पष्ट रूप से कहना है कि नगरपालिकाओं की आय बढ़ाने के लिए इनका विस्तार किया जा रहा है। फिलहाल ऐसा लगता है कि शासन के पास ऐसी कोई योजना नहीं है कि जिससे यह साबित हो सके कि गाँवों को नगरपालिका में मिलाने से नगरपालिका को कोई लाभ होगा अथवा ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत अधिक विकास हो जायेगा या पलायन रुक जायेगा।
उत्तराखंड में भूमि का बंदोबस्त इस तरह है कि अधिकांश किसानों के पास नाप भूमि के साथ-साथ बेनाप भूमि भी है। गाँव वालों के पास तो केवल बेनाप भूमि ही है। इस भूमि पर उनका मकान है तथा खेती भी होती है। नगरपालिका बन जाने के बाद बेनाप भूमि के नजूल में परिवर्तित होने की सम्भावना है। जिसे लेकर गाँवों में डर का माहौल है। एक बात यह भी सामने आ रही है कि जंगल, पानी, वन पंचायतों क हक हकूक, जो थोडा बहुत बचे हुए हैं वे भी समाप्त हो जायेंगे। पहाड़ों में शहरों की संस्कृति व गाँवों की संस्कृति में अभी भी बहुत अंतर दिखाई देता है। गाँवों को शहरों से जोड़ने से न तो गाँव शहर बन पायेंगे और न ही गाँव गाँव रह पायेंगे। ऐसा प्रतीत होता है कि शहरों को गाँवों में मिला कर गाँवों को उजाड़ने की पूरी कोशिश की जा रही है।
मनरेगा और ग्रामीण विकास की कई योजनायें बहुत लाभकारी न भी हों, तब भी गाँव वालों को कभी-कभार रोजगार मिलता ही है तथा कभी-कभी बीज पेड़ कृषि यंत्र भी मिलते रहते हैं। हालाँकि यह बहुत कम हैं, फिर भी नगरपालिकाओं में शामिल होने के बाद ये पूर्णतः बंद हो जायेगा।
एक बात जो ग्रामीण को हमेशा ही बहुत नागवार गुजरती है, वह यह है कि शहरी लोग ग्रामीणों को हमेशा ही दोयम दर्जे का नागरिक मानते रहे हैं तथा वे ग्रामीणों के साथ अपनी सुविधायें भी नहीं बाँटना चाहते। यह बात अलग है कि शहरों की कई झुग्गियों तथा मोहल्लों के हालात गाँवों से भी बदतर हो गये है।
हम लोगों ने जब गाँवों को शहरों में शामिल किये जाने के विरोध में विभिन्न गाँवों में जनसभायें कीं तो मूल ग्रामीण लोग तो गाँवों को शहरों में मिलाये जाने के पुरजोर विरोध में दिखाई दिये, लेकिन वे लोग जिन्होंने एक नाली-आधा नाली भूमि में मकान बनाकर अपना आशियाना गाँवों में बनाया है, बहुत उदासीन नजर आये। उनका कहना था कि इससे हमें कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम गाँव में रहें या शहर में। नौकुचियाताल जैसी जगह में कुछ लोग नगरपालिका के पक्ष में थे। उनका कहना था कि गर्मियों में यहाँ प्रतिदिन पाँच हजार से अधिक पर्यटक आते है और अपने साथ लाये कूडे़-कचरे से पूरे नौकुचियाताल को गंदा करते हैं। नौकुचियाताल के आसपास के ग्राम सभाओं के पास सफाई की कोई उचित व्यवस्था नहीं है।
एक तरफ गाँवों में सफाई को लेकर ग्राम पंचायतों पर सवाल उठाये जा रहे हैं, वही दूसरी तरफ सफाई तथा अन्य कार्यो के लिए नगर पालिकाओं के पाय संसाधनों की भीषण कमी है। फिलहाल राज्य सरकार ने 3 नगर निगमों और 22 नरगपालिओं के विस्तारीकरण का शासनदेश जारी कर किया है। भवाली नगरपालिका ने प्रस्ताव पारित कर सभी पाँचों ग्रामसभाओं को नगरपालिका में शामिल करने से इंकार कर दिया है। भीमताल में आधा दर्जन से अधिक ग्रामसभाओं को नगर पंचायत में शामिल करने का शासनादेश जारी हो चुका है।
सत्ता पक्ष अधिकांश कार्यकर्ता तथा ग्राम पंचायत प्रतिनिधि जहाँ सरकार की इन कोशिशों का समर्थन कर रहे हैं, वहीं कांग्रेस पार्टी व अधिकांश पंचायत प्रतिनिधि इसका विरोध कर रहे हैं। विधायक और सांसद वोट की राजनीति के कारण इन मुद्दों पर चुप है तथा कन्नी काटने की कोशिश कर रहे हैं।
एक सवाल जो अहम तथा महत्वपूर्ण है वह यह कि ग्रामीण विकास का मंत्रालय अलग है तथा शहरी विकास का मंत्रालय अलग है। शहरों तथा गाँवों की जरूरतें अलग-अलग हैं। एक ही दिन में गाँव शहर तो बनने से रहे। तो उन ग्रामीण क्षेत्रों में किस तरह से विकास व कृषि के कार्य होंगे।
सरकार गाँवों को शहर बनाने की बहुत जल्दबाजी में नजर आ रही है। गाँवों को शहर बनाने की प्रक्रिया में ग्राम पंचायतों को भागीदार नहीं बनाया गया। ग्रामसभाओं से न तो उनकी राय पूछी गयी, न ही ग्राम पंचायत की बैठकों में गाँव वालों की राय ली गयी। सरकार ने जब आपत्तियाँ माँगी तो दशहरे की छुट्टियाँ चल रही थीं। इससे पूरे प्रदेश के ग्रामीणों को केवल 3-4 दिन का समय ही आपत्तियाँ दाखिल करने के लिए मिल पाया। आपत्तियाँ जिला मुख्यालय की जगह देहरादून में मँगायी गयीं। इस कारण प्रदेश के अधिकांश ग्रामीण अपनी आपत्तियाँ समय पर दाखिल ही नहीं कर पाये या उनकी आपत्तियों पर सुनवाई का काम केवल औपचारिकता मात्र रहा। डिजिटल इण्डिया का नारा देने वाली सरकार ने ईमेल से भेजी गयी आपत्तियों को कहाँ दर्ज किया, इसका भी पता नहीं चल सका है।