जयसिंह रावत
देश की राजनीति को बिजली से वोट पैदा करने का नुस्खा देने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने अपना ही नुस्खा पंजाब में आजमाने के लिये वहां 300 यूनिट बिजली मुफ्त देने की घोषणा करने के बाद उत्तराखण्ड में भी ठीक विधानसभा चुनाव से पहले वही नुस्खा आजमा कर राजनीतिक दलों पर बिजली का करंट लगा दिया। उत्तराखण्ड के नये उर्जा मंत्री हरक सिंह रावत की प्रदेशवासियों को 100 यूनिट तक बिजली मुफ्त देने की घोषणा की गूंज थमी भी नहीं थी कि केजरीवाल ने देहरादून आकर 100 के बजाय 300 यूनिट का दांव चल कर उत्तराखण्ड के मंत्री की घोषणा फीकी कर दी। जबकि बिजली का अर्थशास्त्र जानने वालों का मानना है कि अगर वोटों के लिये इसी तरह सभी राज्यों में बिजली को खैरात की तरह बांटा जायेगा तो बिजली सेक्टर का ब्रेक डाउन अवश्यंभावी है। सस्ती लोकप्रियता के लिये मुफ्त बिजली अन्ततः उपभोक्ताओं को तो महंगी पड़ेगी ही साथ ही यह तरकीब आने वाली सरकारों की गले की हड्डी भी साबित होगी।
उत्तराखण्ड के लिये आत्मघाती होगा बिजली का चुनावी नुस्खा
उत्तराखण्ड के बिजली मंत्री हरक सिंह रावत के अनुसार पद्रेश में लगभग 7 लाख उपभोक्ता बिजली की 100 यूनिट तक उपभोग करते हैं जिनको अब मुफ्त बिजली मिलेगी और लगभग 200यूनिट तक खर्च करने वाले लगभग 14 लाख उपभोक्ताओं के बिजली बिलों की आधी रकम माफ कर दी जायेगी। इस प्रकार घरेलू उपभोक्ताओं को 4 रुपये प्रति यूनिट की दर से मिलने वाली बिजली के बिलों में आधी रकम माफ कर दी जायेगी। चूंकि बिजली कंपनी उत्तराखण्ड पावर कारपोरेशन हजारों करोड़ के घाटे में डूबा हुआ है और वैसे भी देश कोई भी बिजली कंपनी (डिस्कॉम) किसी को मुफ्त बिजली नहीं देती। इसलिये राज्य सरकार को ही केवल 100 यूनिट तक खर्च करने वालों पर प्रति माह लगभग 28 करोड़ रुपये और सालाना 336 करोड़ और अगर 14 लाख उपभोक्ताओं के बिजली के आधे बिल माफ होते हैं तो उनके 336 करोड़ की माफ हुयी रकम को जोड़ कर सालाना 672 करोड़ की रकम वहन करनी पड़गी जो कि कर्ज में डूबते जा रहे उत्तराखण्ड के लिये आत्मघाती साबित होगा। राज्य के चालू वर्ष के 57,024 करोड़ के बजट की भरपाई के लिये 12,850 करोड़ कर्ज लेने का प्रावधान रखा है। राज्य को अपने करों से मात्र 12,5744 करोड़ तथा केन्द्र से 7440.98 करोड़ मिलने का अनुमान है। राज्य की माली हालत इतनी पतली है कि उसे कर्मचारियों के वेतन भत्तों के लिये भी कर्ज लेना पड़ता है। कर्ज इतना चढ़ चुका कि जिसका ब्याज ही 6,052 करोड़ हो गया। इधर राज्य के पावर कारापोरेशन को प्रति वर्ष लगभग 1500 करोड़ की महंगी बिजली खरीदनी पड़ रही है। कारपोरशन का घाटा ही 5 हजार करोड़ पार कर गया है।
पंजाब भुगत रहा है बिजली राजनीति का खामियाजा
पंजाब पहले से ही किसानों के अलावा अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़ा वर्ग और बीपीएल परिवारों को 200 यूनिट तक मुफ्त बिजली देने के कारण बिजली संकट का सामना कर रहा है। मुख्यमंत्री अमरेन्दर सिंह द्वारा पिछले साल विधानसभा में पेश श्वेत पत्र के अनुसार विभिन्न वर्गों की सब्सिडी के रूप में सरकार को 14,972.09 करोड़ का भुगतान पावर कारपोरेशन को करना पड़ा। राज्य की रेगुलेटरी कमेटी के दस्तावेजों के अनुसार 2021-22 तक पंजाब सरकार को सब्सिडी के तौर पर 17,796 करोड़ का भुगतान करना था। गंभीर उर्जा और आर्थिक संकट के कारण जैसे ही सरकार बिजली दरियादिली कम करने की सोचती है तब तक विपक्ष बबाल मचा देता है। ऊपर से केजरीवाल ने 200 की जगह 300 यूनिट मुफ्त देने का चुनावी वायदा कर अमरेन्द्र के लिये ऐसी स्थिति पैदा कर दी जो कि न उगलते और न निगलते बनता है।
बिजली से वोट उत्पादन का केजरीवाल नुस्खा
फरबरी 2020 में होने वाले दिल्ली विधानसभा के चुनाव से पहले अरविन्द केजरीवाल ने 1 अगस्त 2019 से 200 यूनिट तक मुफ्त बिजली की घोषणा की तो उसका भरपूर लाभ उन्हें दूसरी बार जबरदस्त जीत के रूप में मिला। हालांकि इस दरियादिली के लिये उन्हें 2021-22 के बजट में 2,820 करोड़ सब्सिडी का प्रावधान करना पड़ा और राज्य का राजकोषीय घाटा 10,665 करोड़ तक पहुंच गया। केजरीवाल के बाद महाराष्ट्र सरकार ने भी गत वर्ष राज्यवासियों को दीवाली गिफ्ट के तौर पर 100 यूनिट तक प्रति माह मुफ्त बिजली देने की घोषणा तो की, मगर सच्चाई के आगे सरकार का वायदा बौना हो गया। देश में सबसे खराब हालत महाराष्ट्र स्टेट इलैक्ट्रिसिटी डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी की है। जिस पर गत वर्ष तक ही 38 हजार करोड़ का कर्ज चढ़ चुका था। बिजली से वोट उत्पादन का केजरीवाल फार्मूला अपनाते हुये ममता बनर्जी ने भी 2021 के विधानसभा चुनावों से पहले उपभोक्ताओं के तिमाही बिल में 75 यूनिट मुफ्त कर दीं जिसका लाभ उन्हें सत्ता में जबरदस्त वापसी के रूप में मिल गया। अब तो यह चुनावी फार्मूला आम होने जा रहा है।
बहुत महंगी पड़ती है मुफ्त की बिजली
बिजली का अर्थशास्त्र जानने वालों को पता है कि वोट कमाऊ सस्ती लोकप्रियता के लिये मुफ्त बिजली आम उपभोक्ता के लिये अन्ततः बहुत महंगी ही साबित होती है। अगर कोई सरकार किसी एक वर्ग को मुफ्त बिजली देती है तो बिजली महंगी होने पर उसकी भरपाई समाज के दूसरे वर्ग को करनी पड़ती है। राज्य सरकार भले ही मुफ्त बिजली की भरपाई अपने बजट से करे तो भी वह वसूली जनता से ही होती है। बिजली वितरण कंपनियां (डिस्कॉम) वैसे ही आर्थिक संकट से गुजर रही हैं। रिसर्च रेटिंग कंपनी ‘क्राइसिल‘ के अनुसार वित्तीय वर्ष 2020-21 तक देश की बिजली कंपनियों पर कर्ज का बोझ 4.5 लाख करोड़ तक पहुंच गया था। अगर इसी तरह बिजली देकर वोट खरीदने की प्रवृत्ति जारी रही तो देश के ऊर्जा और खास कर बिजली सेक्टर का ब्रेक डाउन तय है। लेकिन राजनीतिक दलों को तो सत्ता हथियाने के लिये एन केन प्रकारेण केवल वोट हथियाने होते हैं।
बिजली कंपनियां को संकट से उबारने के लिये पैकेज
केन्द्र सरकार बिजली सेक्टर को संकट से उबारने के लिये सन् 2000 से अब तक 3 बेलआउट पैकेज जारी कर चुकी है। सन् 2000 में पहला पैकेज 40 हजार करोड़ का था। दूसरा रिवाइवल पैकेज 2012 में 1.9 लाख करोड़ का था और तीसरा पैकेज मोदी सरकार ने ‘‘उज्ज्वल डिस्कॉम एस्यौरेंस योजना (उदय) के नाम से 2015 में जारी किया। लेकिन इन पैकेजों के बावजूद बिजली वितरण कंपनियों की हालत में अपेक्षानुरूप सुधार परिलक्षित नहीं हो रहा है। उदय योजना में कंपनियों के कर्ज को राज्य सरकार के बॉंड में बदलना, लाइन लॉस 15 प्रतिशत तक लाना, सप्लाइ की औसत लागत और राजस्व वसूली के बीच का अंतर शून्य करना आदि प्रावधान हैं।
दोहरी तलवार है मुफ्त बिजली की राजनीति
बिजली की राजनीति दोहरी तलवार की भांति है। अगर किसी सरकार ने मुफ्त बिजली की शुरुआत कर दी तो फिर उसे रोकने का जोखिम कोई राजनेता नहीं उठा पायेगा। वैसे भी राजनीतिक दलों की पहली और सर्वोच्च प्राथमिकता वोट कमा कर सत्ता पर काबिज होने और फिर सत्ता पर बने रहने की होती है। पंजाब में एक बार अकाली दल सरकार ने उर्जा संकट के दौर में यह जोखिम उठाया तो उसे सत्ता गंवानी पड़ी। सन् 2000 के हरियाणा विधानसभा चुनाव में ओम प्रकाश चौटाला ने किसानों के बकाया बिजली बिल माफ करने का वायदा कर चुनाव जीता था, लेकिन जब हकीकत से वह रूबरू हुये तो वायदे से मुकर गये। इसका नतीजा उग्र किसान आन्दोलन के रूप में सामने आया। आन्दोलन के दौरान पुलिस फायरिंग में कुछ किसान मारे गये तो कुछ घायल हुये जिसकी परिणति 2005 के चुनाव में चौटाला की हार के रूप में हुयी।