मानस भूषण
शहीद भगत सिंह ने कहा था – “जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने शिकंजे में जकड़ लेती है तो वे किसी भी प्रकार की तब्दीली से हिचकिचाते हैं, इस जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिए एक क्रांतिकारी स्पिरिट पैदा करने की जरुरत होती है, अन्यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा जाता है। लोगों को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी ताकतें जनता को गलत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती हैं, इससे इंसान की प्रगति रुक जाती है और उसमें गतिरोध आ जाता है”
क्या किसान आंदोलन ने इसी गतिरोध की स्थिति को तोड़ने का काम किया है? अगर मैं कहूं, हां तो यह अतिशोक्ति नहीं होगा। निश्चित ही देश में राजनीतिक और सामाजिक रूप से जो निराशा और डर का माहौल उत्पन्न हुआ था, उसे तो तोड़ा ही है।
साथ ही साथ, जनआंदोलनों को भी ये आंदोलन काफी कुछ सिखाता है ,समाज में आंदोलनों को लेकर जो एक उदासी बन चुकी थी, शायद अब वो इससे बदले और आंदोलनों को लेकर समाज में सकारात्मकता का रुझान बने।
पिछले 1 साल में इस किसान आंदोलन ने काफी उतार-चढ़ाव देखे हैं, ऐसे कई मौके आये ( 26 जनवरी पर लाल किले की घटना हो या फिर मई -जून कोरोना की दूसरी लहर) जब लगा कि आंदोलन कमजोर हो रहा है या खत्म होने की स्थिति में है। लेकिन सारे उतार चढ़ावों, सारे दमन को झेलते हुए अब किसान आंदोलन सफल होता दिख रहा है।
हालांकि महज तीन बिलों की वापसी ही इस आंदोलन की सफलता का पैमाना नहीं है। जैसा कि, सयुंक्त किसान मोर्चा ने एलान भी किया है- न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी का कानून अभी बाकी है। बिजली बिल और पराली के कानून की वापसी, आंदोलन के दौरान जिन किसानों पर अलग-अलग धाराओं में जो केस लगाए हैं उन्हें हटवाना तथा अन्य और भी मसले हैं जिन पर आंदोलन अभी जारी है।
लेकिन जो भी हो प्रधानमंत्री का तीन बिलों की वापसी की घोषणा करना इस आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण पड़ाव तो है ही।
तो वह कौनसे आयाम या पहलु रहे हैं जो किसान आंदोलन को अन्य आंदोलनों से खास बनाता है या जिन्होंने किसान आंदोलन को सफलता के शिखर पर पहुंचाया है। चलिए, एक-एक करके उन्हें टटोलने की कोशिश की जाए।
किसान आंदोलन का जो सबसे महत्वपूर्ण पहलु रहा है वो है आंदोलन को लेकर एक स्पष्ट समझ का होना। शुरू से ही किसान आंदोलन, आंदोलन के उद्देश्यों और ये आंदोलन किस के खिलाफ लड़ा जा रहा है उसे लेकर काफी स्पष्ट रहा है।
सत्ता और पूंजीपतियों के आपसी गठजोड़ को जितना इस आंदोलन ने जनता के सामने एक्सपोज किया है शायद ही आजाद भारत के इतिहास में कोई अन्य जनआंदोलन कर पाया है। इस आन्दोलन की बुनियाद ही इसी बात पर थी कि ये तीनों बिल पूंजीपतियों के फायदे के लिए बनाये गए हैं।
अगर ये लागू होते हैं तो कृषि क्षेत्र भी निजी हाथों में चला जाएगा जिसका खामियाजा आखिर में जाकर किसानों और आम इंसान को ही भुगतना पड़ेगाl
सत्ता और पूंजीपतियों के गठजोड़ के साथ – साथ भारत में कॉर्पोरेट मीडिया के चरित्र को एक्सपोज करने में भी आंदोलन पूर्णत: कामयाब रहा है। एक ऐसे देश में जहां सामान्यता किसी भी मुद्दे पर ओपिनियन बनाने में मीडिया का काफी प्रभाव रहता हो और जहां अच्छी खासी आबादी निजीकरण के पक्ष में ही खड़ी हो (खासकर मध्यमवर्ग का अच्छा खासा हिस्सा ) तो ऐसे में आंदोलन की तरफ से अम्बानी, अडानी के सामानों के बहिष्कार का कॉल देना या मंचों से विश्व व्यापार संगठन की नीतियों को उजागर करना हो, या फिर गोदी मीडिया गो बैक के नारे लगना इन तमाम पक्षों को पुरजोर तरीके से उठाया गयाl
सत्ता और कॉर्पोरेट मीडिया के असली चरित्र के सवाल पर किसान आंदोलन शुरू से ही काफी स्पष्ट था और शायद इस लिए ही ये आंदोलन मीडिया और सत्ता के असली चरित्र को उजागर भी कर पाया।
इस आंदोलन का दूसरा जो महत्वपूर्ण पहलू रहा, वो है कि किसान आंदोलन न तो बाहरी दबावों से विचलित हुआ और न ही अपने आंतरिक विरोधाभासों के कारण बिखरा। मीडिया और बीजेपी की तमाम कोशिशें रही, जिससे आंदोलन को भटकाया जा सके।
कभी इसे खालिस्तानी एंगल देने की कोशिश की गई तो कभी जाटों का आंदोलन कहकर प्रचारित किया गया, लेकिन तमाम प्रचारों और प्रयासों के बाबजूद भी आंदोलन खेती, किसानी के सवाल पर ही टिका रहा, लेकिन ये इतना आसान भी नहीं था, क्योकि जिस अंदोलन में धर्म की भी एक भूमिका रही हो या एक समुदाय विशेष की आंदोलन में काफी भगीदारी हो तो ऐसे में आंदोलन का सिर्फ धार्मिक या जाति के सेंटीमेंट पर शिफ्ट हो जाना बहुत ही आसान हो जाता है।
आंदोलन में एक धर्म के रूप में सिख समुदाय की जो अब तक भूमिका रही वो काफी सकारात्मक थी लेकिन जब आंदोलन पर धार्मिक संस्थान हावी होते दिखे तो अंदोलन ने उसके खिलाफ जाकर भी स्टैंड लिया (इसे सिंघु बॉर्डर पर निहंगों की घटना से समझा जा सकता है)l
आंदोलन के नेतृत्व ने खुल कर उस घटना का विरोध किया। ऐसे ही सिखों के आलावा एक समुदाय के रूप में जाटों की भागीदारी भी काफी बढ़-चढ़ कर रही, लेकिन यहां भी अंदोलन को सिर्फ एक जाति केंद्रित आंदोलन नहीं बनने दिया गया, बल्कि इसके बरक्स इसे खेती, किसानी से जुड़े तमाम समुदायों को इस अंदोलन का हिस्सा बनाकर किसान आंदोलन को मजबूत किया गया।
इसका श्रेय आंदोलन के नेतृत्व और उससे भी ज्यादा अंदोलन में भागीदार जनता को ही जाता है, क्योंकि भारत में धर्म या जाति के सवाल काफी सेंसिटिव होते हैं इस लिए किसान आंदोलन पर धार्मिक या जाति की छाप न लगने देना इस आंदोलन का काफी दमदार पक्ष रहा हैl
किसान आंदोलन में खाप पंचायतों की भूमिका भी एक महत्वपूर्ण पक्ष रहा है l अब तक खाफ पंचायतों को एक नकारात्मक भूमिका में ही देखा और समझा गया है, तो क्या इस आंदोलन के बाद से खाफ पंचायतों को देखने के नजरिये में कुछ बदलाव आएगा और क्या खुद खाफ पंचायतों के नजरिये में (खासकर महिलाओं के सन्दर्भ में) कोई बदलाव आएगा?
ये एक ऐसा सवाल है, जिसका उत्तर शायद हमें आगे जा कर मिले, लेकिन महिलाओं का खाफ पंचायतों में भाग लेना तो यही दर्शाता है कि किसान अंदोलन में खाफ पंचायतों में जो भूमिका रही है वह काफी सकारत्मक ही है।
इस आंदोलन का सबसे महत्वपूर्ण और सबसे खूबसूरत पक्ष जो रहा है वो है आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी। ये शायद पहला ही ऐसा आंदोलन रहा होगा, जिसमे ग्रामीण समाज से आने वाली महिलाएं आंदोलन में बराबर की हिस्सेदार रही हो।
एक ऐसे समाज में जहां अब तक दुनिया भर की राजनीति करने का ठेका केवल पुरुषों ने ही ले रखा हो तो ऐसे में अंदोलन में सामान्य महिलाओं का बराबर का हिस्सेदार होना हमारे राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सन्दर्भो में काफी महत्वपूर्ण हो जाता है। इस सन्दर्भ में इससे पहले नागरिकता संशोधन कानून (सीएए), राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) विरोधी आंदोलन भी एक मजबूत कड़ी रहा है।
तो क्या अब ये कहा जा सकता है कि महिलाएं अब धीरे-धीरे पब्लिक स्पेस में अपनी हिस्सेदारी को मजबूत करने में लग चुकी है, अगर ऐसा है तो ये बहुत ही सकारात्मक बदलाव होगा। इन दोनों ही आंदोलनों से शायद पुरुषों के नजरिये में कुछ बदलाव आये कि सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक मसलों पर सार्वजानिक रूप से राय रखने, बोलने या आंदोलन करने का जितना हक पुरुषों को है उतना ही महिलाओं को भी है।
किसान आंदोलन ने भारत के वर्तमान राजनीतिक, सामाजिक परिदृश्य को भी काफी हद तक प्रभावित किया है। एक ऐसे दौर में जहां भारत की पूरी राजनीति हिन्दू-मुसलमान पर आकर टिक चुकी हो और जहां अपने को धर्मनिरपेक्ष राजनीति का प्रतिक साबित करने वाली पार्टियां भी इससे लड़ने की बजाय उल्टा सम्प्रय्दिकता के बहाव में बह चली हो, वहां तो किसान आंदोलन ही एक ऐसा आंदोलन बन कर उभरता है, जो सांप्रदायिक राजनीति को मजबूती के साथ चैलेंज करता है।
एक मायने में यह किसान आंदोलन अन्य आंदोलनों से इसलिए भी अलग है कि किसान आंदोलन ने खुद को 1 साल के भीतर काफी व्यापक किया है। अब तक जो भी आंदोलन रहे हैं, वो जिन मुद्दों पर लड़े जाते थे सिर्फ उन्ही तक सीमित रहते थे।
लेकिन किसान आंदोलन में ऐसा नहीं रहा, किसान आंदोलन ने खेती किसानी के सवाल को तो उठाया ही, लेकिन साथ-साथ बेरोजगारी के सवाल को भी उठाया। यहां 4 लेबर कोड के खिलाफ श्रमिक संगठनों के प्रतिनिधियों ने मंचो से भाषण दिए। आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन के संघर्षों के साथ भी एकता दिखाई गयी।
और जो सबसे महत्वपूर्ण काम किसान आंदोलन ने किया, वह है कि निजीकरण की बहस को देश के सामने फिर से खड़ा किया हैl अगर देश में हर चीज निजी हाथों में चली जाएगी तो इससे किसका नुकसान और किसका फायदा होग? इस तरह किसान अंदोलन ने खुद को एक व्यापक मोर्चे में तब्दील किया है।
अब आगे किसान आंदोलन किस तरह से आगे बढ़ेगा? एमएसपी गारंटी का कानून बनवा पाने में किसान आंदोलन सफल हो पायेगा या नहीं, ये तो आगे वक्त ही बताएगा, लेकिन इस आंदोलन से किसानों को जो हासिल हुआ है। वह यह है कि भारत में 1992 के जिस नयी आर्थिक नीति के बाद से खेती किसानी और गावों के मुद्दे भारतीय राजनीति से गायब कर दिए गए थे। अब भारतीय राजनीति फिर से खेती किसानी पर केंद्रित होती दिख रही है. और अगर ऐसा होता है तो ये किसानों, मजदूरों की लिए काफी बड़ी उपलब्धि होगी।
‘डाउन टू अर्थ’ से साभार