डॉ. भूपेंद्र बिष्ट
रुपहले परदे पर चित्रित कहानी के सीक्वेल की बात सिर्फ़ देखने वालों की उत्सुकता को बनाए रखने तक महदूद हो सकती है पर किसी औपन्यासिक गाथा की अगली कड़ी कथा वस्तु का विस्तार भर नहीं हो सकती, बल्कि यह कथ्य के वितान की विस्तृति भरी खास आवश्यकता को बताता है.
“दावानल” के बाद नवीन जोशी का नया उपन्यास “देवभूमि डेवलपर्स” पहाड़ के रहवासियों की आवाज़, जो संयुक्त प्रांत में पहले ही कुछ दबी हुई सी थी और अब अलग राज्य बन जाने के बाद तो एकदम घुट सी गई है, को मर्मांतक तरीके से एंप्लिफाई करता है.
लेखक ने शुरुआत में ही उपन्यास के बारे में एक इंट्रो नुमा चिप्पी कि “उत्तराखंड के जन आंदोलनों, पृथक राज्य के स्वप्न एवं स्वप्न – ध्वंश, प्राकृतिक संसाधनों की लूट, भुतहा होते गांव और बड़े बांधों में डूबते समाज की औपन्यासिक गाथा” लिखकर कथा की भावभूमि को खोला नहीं है अपितु विषय क्षेत्र के लिए रचे – बुने बिंदुओं को हाइलाइट करने भर का संकेत ज़रूर दिया है.
इसीलिए “देवभूमि डेवलपर्स” के पाठक मन में “दावानल” की यह भूमिका सहेजे हुए आगे बढ़ते हैं कि छह वर्ष के पुष्कर को उसके बाबू लखनऊ ले आए, पर कितनी ही श्रृंखलाएं थी पहाड़ों की, जो बड़े होते जा रहे पुष्कर की समझ में अपने घाव, अपने पैबंद खोल रही थी.
विश्व भर में उपन्यास के इतिहास के समक्ष हिंदी उपन्यास अभी 100 – 110 साल का ही है और इस दरम्यान इस विधा ने यहां कई करवटें बदल ली हैं. पर उपन्यासों में स्थानीयता ने अपनी पुख्ता जगह 90 के दशक के बाद ही बनाई. तमाम वैश्विक चिंताओं, भिन्न भिन्न अवधारणाओं के विमर्श और कई तरह के मानवीय संकटों के बीच विस्थापन, पलायन और जल – जंगल – जमीन से जुड़े सवाल तथा विस्मृत होते जा रहे लोक तत्व वाली पीड़ा ने कथा शिल्पियों को उद्वेलित किया है. फलत: लोकेल की संघर्षमय दुनिया भी हमें कथा – कहानियों में दस्तयाब होने लगी.
रणेंद के “ग्लोबल गांव का देवता”, संजीव के “फांस” और अखिलेश के “निर्वासन” के बाद नवीन जोशी का “देवभूमि डेवलपर्स” उसी स्थानीयता के मसाइल को उठाता है और स्वप्नदर्शी संघर्ष के बीच स्थानीय लोगों की बेकसी तथा मज़लूमियत को बताता है.
नौ परिच्छेद की जुजबंदी वाला “देवभूमि डेवलपर्स” उत्तराखंड में 1984 के ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आंदोलन के साथ ‘टीरी’ (टिहरी) डूब की बेबशी, खुला खेल फर्रुखाबादी का परिणाम — पर्यावरण असंतुलन, खटीमा-मसूरी गोलीकाण्ड के साथ मुजफ्फरनगर कांड, राज्य गठन एवं राजधानी गैरसैण की नत्थी मांग, खनन की लिप्सा और तंत्र की चाल, जगह – जगह धसान के बावजूद नए – नए रिसोर्ट्स के निर्माण जैसे मुद्दों को जिस प्रमाणिक तरीके और तथ्यपरक क्रोनोलॉजी व डिटेल्स के साथ हमारे सामने रखता है, उससे जीवन की यह असल बात सचमुच हांट करने लगती है कि यदि आप यथार्थ में शरीक नहीं होते, उससे प्रभावित नहीं होते या उसे प्रभावित नहीं करते तो यथार्थ आपको ध्वस्त कर देगा.
बीसवीं सदी के अंतिम दो और इक्कीसवीं सदी के आरंभिक दो दशकों यानी पिछले कुल 40 साल के उत्तराखंड के समाज, यहां के जनांदोलन, तथाकथित विकास के मौजूदा ढांचे और राजनीति के विद्रूप पर केंद्रित इस उपन्यास में आने वाले कल की रोशनी पर बीते हुए कल की परछाई साफ देखी जा सकती है.
“देवभूमि डेवलपर्स” में पहाड़ी समाज के बदलाव के चित्र के साथ उसकी जड़ता के रंगों का विवरण भी है. पुष्कर के शुरुआती जोश के समानांतर तारा भट का विवेक हो या फिर बाद में पुष्कर के हल जोतने वाली घटना में काकी की चीख — सुनना ओ बिरादरो, ये नंदाबल्लभ ज्यू का लड़का मेरा कुछ नहीं लगता. …. इसका उदाहरण कहा जा सकता है.
इसी तरह भिन ज्यू और पुष्कर की बातचीत का यह अंश देखिए :
“भिन ज्यू, सरयू में जो छोटा सा बिजलीघर बना रहे थे रस्यून वाले, उसका क्या हुआ ?”
“डुबाने के लिए अब कौन बनाएगा बिजलीघर ! सबसे पहले तो वही डूबेगा यार !” भिन ज्यू की आवाज़ में कोई व्यथा नहीं थी.
कथा का ताना बाना आंचलिकता की बघार-धुआंर के साथ साथ एक बड़े व्यापक फलक तक भी इंसानी सरोकार की सुवास पहुंचाने का माद्दा रखता है. संघर्ष वाहिनी के लिए समर्पित सलीम से पुष्कर जब पूछता है — अम्मी परेशान रहती हैं, तुम शादी क्यों नहीं करते ?
दूसरी ओर रिपोर्टर कविता का किरदार उपन्यास में संघर्ष के प्रत्येक मोड़ पर, जिंदगी के हर मरहले पर एडिसिव और कोहिसिव चीज़ की माफिक अपनी मौजूदगी का एहसास कराती है. कुछ पात्र तो एक राज्य बनाने की हौसला आमेज़ लड़ाई के लिए वास्तविक घटनाक्रम से मानो जस का तस ले लिए गए हों और फिर ये सभी लोग पाठकों से रु – ब – रू होकर कहते हों कि बताइए अब क्या किया जाय ! या कहो, हम गलत हैं क्या ?
एक बात और, आख्यान के लिए लेखक जब खालिस यथार्थ को पिक करता है तो रचना प्रक्रिया में अपूर्ण सच के बार बार नमूदार होते रहने का खतरा उपस्थित रहता है और नवीन जोशी भी इस द्वंद से साहित्यिक स्तर पर बखूबी टकराए हैं. एतदर्थ “देवभूमि डेवलपर्स” में उन्होंने उस भूगोल को भी इस कृति कलेवर में समेट लिया है, जिसकी ज्यादा जरूरत न थी. इसी प्रकार मूल कथा के स्वर से परे कुछ प्रसंग भी हैं, जिनका आमेलन छोड़ा जा सकता था.
हां, जिन लोगों को उत्तराखंड के संघर्षकामी इतिहास में दिलचस्पी है या जिनका नजरिया पहाड़ों में सैर-सपाटे की तात्कालिकता से बड़ा है, उन्हें यह उपन्यास अवश्य ही पढ़ना चाहिए. उन लोगों को भी पढ़ना चाहिए, जो कदाचित पहाड़ की स्त्रियों की ताकत और साहस को किसी किस्से की या कविता की ही बात समझते हैं :
विक्रमा देवी और जमुना बुलडोजर पर चढ़ गई. नहीं डरती वे इस राक्षस से जो उनका जंगल, जमीन और पानी छीनने आया है. ड्राइवर डर से अपनी सीट पर दुबक गया.
“कां छुप रा तु ? हटा – हटा, पीछे ले जा इस राक्षस को. सुन रा तु ? विक्रमा देवी की दहाड़ सुनकर ड्राइवर बुलडोजर के पहिए पीछे घुमाने लगा.
“जां से लाए थे, वईं ले जाओ इस बुलडोजर को”……
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देवभूमि डेवलपर्स
: नवीन जोशी
हिंद युग्म प्रकाशन,
नोएडा (उ. प्र.)
पृष्ठ — 310