राजीव लोचन साह
पाँच राज्यों में विधानसभाओं के चुनाव सम्पन्न हो गये हैं और उन राज्यों के मुख्यमंत्री भी तय हो गये हैं। इन चुनावों को पाँच महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनावों का सेमीफाइनल माना जा रहा था। इस दृष्टि से इन चुनावों में कुल प्राप्त मतों के आधार पर कांग्रेस से पीछे रहने के बावजूद भारतीय जनता पार्टी को स्पष्ट रूप से बढ़त मिली है। चुनावों से पूर्व इन पाँच राज्यों में भाजपा सिर्फ मध्यप्रदेश में सत्तारूढ़ थी और पूर्वोत्तर राज्य मिजोरम में सत्ताधारी गठबंधन में वह नाममात्र के लिये शामिल थी। उधर छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की सरकारें थीं। मगर इस बार के चुनावों में भले ही भाजपा मिजोरम में सत्ता से बाहर हो गयी, मगर तीन राज्यों, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में उसे स्पष्ट बहुमत मिला। कांग्रेस को दो राज्य़ खोकर राज्य बनने के बाद पहली बार तेलंगाना़ की सत्ता से संतोष करना पड़ा। इन नतीजों ने न केवल एक्जिट पोल को झुठलाया, बल्कि स्वतंत्र राजनैतिक पंडितों को भी हैरानी में डाल दिया, क्योंकि जमीनी सच्चाइयों की दृष्टि से मध्य प्रदेश में भाजपा के जीतने के दूर-दूर तक भी कोई लक्षण नहीं दिखाई दे रहे थे। अतः चुनावों के बाद ईवीएम मशीनों पर एक बार पुनः, इस बार ज्यादा जोर से सन्देह जाहिर किया जाने लगा है। सरकार और चुनाव आयोग को अब विदेशों के अनुभवों से सबक लेते हुए अब इन मशीनों को हटा ही देना चाहिये, तभी इस विवाद पर लगाम लगेगी। चुनाव की सफलता के बाद भाजपा ने एक सप्ताह से भी अधिक समय लिया और अपने विजित प्रदेशों में रमन सिंह, वसुन्धरा राजे और शिवराज सिंह चौहान जैसे कद्दावर नेताओं को किनारे कर विष्णुदेव साय, भजनलाल शर्मा और मोहन यादव जैसे एकदम अनजाने चेहरों को मुख्यमंत्री बना दिया। इससे यह संकेत गये हैं कि नरेन्द्र मोदी अब ऐसे लोगों को वरीयता देना चाहते हैं, जो अपने स्वतंत्र निर्णय न लेकर उनके फैसलों को ही अमली जामा पहनायें और अपनी महत्वाकांक्षाओं के कारण भविष्य में भी उनके लिये खतरा न बनें।