शिरीष कुमार मौर्य
रंगीन रोशनियों की झालरें परग्रही लगती हैं
उनमें मनुष्यता का अनिवार्य उजाला नहीं है
शिवाकाशी के मुर्गा छाप पटाखे
सस्ते चीनी पटाखों से हार गए लगते हैं
गांवों में बारूद सुलगने से लगी आग से मरे कारीगरों की आत्माएं
यहां आकर कलपती हैं
यह पटाखों का नहीं अर्थशास्त्र का झगड़ा है
जो अब मुख्यमार्गों पर नहीं सफलता के गुप्त रास्तों पर चलता है
एक बेमतलब लगते हुंकारवादी नेता के समर्थन में
समूचे भारतीय कारपोरेट जगत का होना
देश में सबसे बड़े विनाशकारी पटाखे की तरह फटता है
एक दिन देश शिवाकाशी के उस जले गांव में बदल जाएगा
नई दीपावली मनाएगा
कारपोरेट लोक में प्रचलित नया शब्द है
वातानुकूलित कमरों में बैठे नए व्यापारी भूखे कीड़ों की तरह
बिलबिलाते हैं
उनकी बिलबिलाहट को सार्वजनिक करने हमारे मूर्ख और धूर्त नायक
छोटे-बड़े पर्दों पर आते हैं
इस दीपावली पर मेरा मन
किसी बच्चे के हाथ में एक गरीब पुरानी सीली फुलझड़ी की तरह
कुछ सेकेंड सुलगा
और बच्चें की तरह ही उदास होकर बुझ गया है
दीपावली का यूं मनाया जाना भी
एक हत्यारा विचार ही था सदियों से
जिसमें गरीब पहले मिट्टी के दिए जला कर
और अब सस्ती झालर लगाकर शामिल हो रहा है
किसी ने नहीं सोचा
कि इस त्यौहार का व्यापार से न जाने कब स्थापित हुआ रिश्ता
मामूली जन की बहुत बड़ी पराजय थी
जो दोहराई जाती है कोढ़ी नकली रोशनियों के साथ
साल-दर-साल