प्रमोद साह
इस वर्ष नवरात्र के मध्य भीमराव अंबेडकर की जयंती है। जब सोचता हूं तो पाता हूं बाबा साहब का योगदान भारत के समाज के निर्माण में किसी देवी-देवता से कभी कम नहीं रहा है । इस संपूर्ण अवधि में मैं भीमराव अंबेडकर की उन प्रतिमाओं को देखता हूं जो बाएं हाथ से अपने सीने से संविधान की किताब दबाए हुए हैं और दाहिने हाथ की विश्वास से भरी उंगली अपने अधिकारों की तरफ संकेत कर रही है।
भारत में दलित चेतना के राजपथ पर भीमराव अंबेडकर एक बहुत ही ओजस्वी प्रकाश स्तंभ हैं। लेकिन दलित चेतना के इस संघर्ष में जिसका इतिहास भारत में समाज निर्माण के साथ ही शुरू होता है जो कम से कम ढाई हजार वर्ष पुराना तो है ही, उस पूरे राजपथ पर दर्जनों प्रकाश पुंज प्रज्वलित हैं। उस सब के बाद भी यह राह उतनी रोशन क्यों नहीं है। यह प्रश्न दिमाग में हथौड़े की तरह चलता ही रहता है. कैसे निषादराज को युद्ध कला में श्रेष्ठ होने के बाद भी राज्य योग्य नहीं समझा गया, महाभारत काल में गुरुकुल शिक्षा से वंचित उस दौर के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर एकलव्य को कैसे अर्जुन की श्रेष्ठता साबित करने के लिए खुद का अंगूठा भेंट चढ़ाना पड़ा. बुद्ध और महावीर ने उस वक्त जाति बंधन में बंधे समाज के विरुद्ध विद्रोह कर, नया धर्म स्थापित किया जिसमें उस दौर के दलितों को स्वतंत्रता और सम्मान का आश्वासन तो मिला लेकिन उनके अधिकारों की कोई सार्वजनिक लड़ाई इन धर्मो में भी नहीं लडी गई हांलाकि सम्मान और बराबरी की भावना के कारण बुद्ध हमेशा दलित आकर्षण के केंद्र बने रहे। यही कारण है कि 1956 में भीमराव अंबेडकर ने भी अपने लिए सबसे सुरक्षित और सम्मानित ठिकाना बौद्ध धर्म में ही देखा।
भारत में समाज परिवर्तित हुए, सत्ताएं बदली लेकिन हर दौर में अगर कुछ स्थाई रहा तो वह था समाज के सबसे निचले तबके दलित वर्ग की सामाजिक असुरक्षा और उत्पीड़न जिसके कारण हर सत्ता के धर्म के साथ दलित वर्ग ने बड़ी संख्या में धर्मांतरण किया। उसी का परिणाम है कि भारत में ईसाई संप्रदाय में लगभग दो करोड़ दलित और 10 करोड़ दलित मुस्लिम वर्ग में शामिल हैं।
इस प्रकार दलित भारत की कुल आबादी में 33 करोड़ होकर 25% के आसपास हो जाते हैं।
दलित चेतना के विकास की जब हम बात करते हैं तो हमें अंग्रेजों का शुक्रगुजार होना होगा कि उन्होंने प्लासी और बक्सर के युद्ध के बाद सदियों से सेना से वंचित दलित वर्ग को दलित महार रेजीमेंट 1768 और मरीन पलटन 1777 के रूप में सेना में भर्ती के बड़े अवसर प्रदान किए।
दलित चेतना के इस राजपथ पर तिलका मांझी, बिरसा मुंडा शिक्षा उन्नयन के लिए ज्योतिबा फुले, नमो शूद्र उत्थान के लिए हीराचंद ठाकुर, केरल के नारायण गुरु आदि प्रकाश पुंज का भी लगातार स्मरण करना होगा। ज्योतिबा फुले ने दलित उत्थान के लिए शिक्षा की जो राह दिखाई उसका प्रस्फुटन हम भीमराव अंबेडकर के रूप में देखते हैं। जिन्होंने योग्यता और प्रतिभा के दम पर अपने आप को पूरी आजादी की लड़ाई के आंदोलन में अलग रूप से स्थापित किया, वह जहां भारत में आजादी के पक्षधर थे वही उनकी पहली चिंता दलितों का उत्थान थी। यद्यपि दलित उत्थान के लिए पूना पैक्ट से जो सुविधाएं दलित समाज को मिल रही थी गांधी जी के अनशन के दबाव में उन्होंने उसे छोड़ दिया, यह राष्ट्र की समरसता के प्रति उनके नजरिए को भी प्रतिबिंबित करता है।
लेकिन आज के जो तीखे सवाल हैं जो रोहित वेमुला की तड़फन है उसका समाधान सिर्फ भीमराव अंबेडकर को श्रद्धांजलि देकर नहीं निकलने वाला, दलित समाज को अपने भीतर ही समग्र विकास के कुछ पैमाने तय करने होंगे अन्यथा संविधान प्रदत्त तमाम सुविधाएं एक और उत्पीड़ित और उपेक्षित सामाज बनाने जा रही हैं।
यह बहुत चिंताजनक प्रश्न है कि देश के कुल दलित आबादी में सिर्फ 10% लोग बार-बार सरकारी सुविधाओं को लाभ प्राप्त कर अपनी स्थितियों में सुधार कर रहे हैं जबकि शेष 90% की स्थितियां कमोबेश जस की तस बनी हैं। सरकारी नौकरियों में अवसर अनुसूचित जाति के लिए एक बड़ा सुरक्षा कवच हैं. पिछले 20 वर्षों में सरकारी सेवाओं की संख्या में लगातार कमी हुई है. धार्मिक रूप से जिस प्रकार ध्रुवीकरण हो रहा है। उसमें दलित उत्पीड़न की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं ।2013 से 2017 के मध्य एनसीआरबी के आंकड़ों के लिहाज से दलित उत्पीड़न की घटनाओं में 33% वृद्धि हुई है यह बेहद चिंताजनक तस्वीर है।
अब जब भीमराव अंबेडकर द्वारा प्रदत संवैधानिक सुरक्षा का अधिकार हमारे पास है और अंबेडकर की विदाई के 65 वर्ष हो गए हैं तब मात्र अंबेडकर ही दलित चेतना का विकास कर पाएंगे इस पूरे समाज को सम्यक अधिकार मिल जाएंगे यह सोचना बेमानी होगा। इसके लिए समाज को अपने अंदर खुद शोधन तंत्र विकसित करने होंगे। उन्हें 1108 अनुसूचित उप जातियों में विभक्त दलित समाज को भी अपने भीतर भेदभाव के चक्रों को तोड़ना होगा। वह तंत्र विकसित करना होगा जिससे पूरा समाज समग्र रूप से विकसित हो जिसका लाभ भारत को मिले और सामाजिक समरसता एक स्वप्न ना रहे। बराबरी और सामाजिक सुरक्षा का बाबा अंबेडकर का स्वप्न सच साबित हो।