(‘जर्नल ऑफ़ एशियन स्टडीज’ मे प्रकाशित संजय जोशी के रिसर्च पेपर ‘जूलियट गौट इट रौंग –कन्वर्जन एंड द पॉलिटिक्स ऑफ़ नेमिंग इन कुमाऊं 1850-1930’ के आधार पर.)
उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम और बीसवीं शताब्दी के शुरुआती वर्षों में अल्मोड़ा में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किये गए लन्दन मिशन के प्रभाव में आकर अच्छी खासी संख्या में लोगों ने ईसाई धर्म अपनाया था. शुरू में यह कार्य समाज में नीची जाति का माने जाने वाले लोगों द्वारा किया गया लेकिन बाद के वर्षों में अनेक उच्चकुलीन माने जाने वाले परिवारों ने भी धर्मांतरण किया.
पहले वाले मामले में तो यह एक तरह का सामाजिक प्रतिरोध था क्योंकि तथाकथित नीची जातियों वाले लोगों को परम्परागत तरीके से बहुत प्रताड़ित किया गया था और उन्हें दोयम दर्जे का मनुष्य माना जाता था. दूसरे वाले मामले में बात कुछ अलग थी. चूंकि अल्मोड़ा में बड़ी संख्या में अंग्रेज आ बसे थे, उनके रहन-सहन से बहुत सारे उच्चजातीय लोग प्रभावित हुए और कहीं न कहीं वैसा ही बनने और उसके भी अधिक उनकी दया और कृपा का पात्र बनने की महत्वाकांक्षा ने उन्हें ईसाई धर्म अपनाने पर विवश कर दिया.
वे इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि अल्मोड़ा में जिन निम्नजातीय लोगों ने अपना धर्म छोड़ कर ईसाई धर्म अपनाया उन्होंने अपना नाम पूरी तरह बदल लिया लेकिन वहीं जिन उच्चकुलीन लोगों (मुख्यतः ब्राह्मणों) ने अपना धर्म बदल लेने के बावजूद अपना मूल जाति नाम नहीं बदला. उन्होंने अपना केवल पहला नाम ईसाई रखा. इनमें कुछ महत्वपूर्ण नामों में विक्टर मोहन जोशी, डेनियल देवीदत्त पन्त इत्यादि का जिक्र किया जा सकता है.
उच्चजातीय लोगों की इस प्रवृत्ति के पीछे अपना धर्म छोड़ देने के बावजूद अपनी तथाकथित जातीय श्रेष्ठता के झांसे को बनाए रखने की नीयत से ऐसा किया गया होगा. वे नहीं चाहते होंगे कि शताब्दियों से उनके समाज और घरों में तकरीबन गुलामों की तरह रहे लोग धर्मांतरण के बाद खुद को उन्हीं के समकक्ष मानने लगें.
अल्मोड़ा में बसने आये इन उच्चकुलीन लोगों ने अपनी विशिष्ट पहचान बचाए और बनाए रखने की नीयत से अपने गाँवों के नाम पर अल्मोड़ा के मोहल्लों का नामकरण तक किया था जैसे झिझाड़, गल्ली इत्यादि.
लन्दन मिशन के प्रभाव में आये इन नए नए ईसाई बने लोगों को अल्मोड़ा में हीराडुंगरी नामक मोहल्ले में बसाया गया था. यह इलाका जिला प्रशासन द्वारा लन्दन मिशन को इसी प्रयोजन से दिया गया था.
जिन उच्चकुलीन लोगों ने धर्म परिवर्तन किया, जाहिर है उन्हें उनके परिवारों और निकट-सम्बन्धियों ने अछूत घोषित कर अपने इन कुलीन मोहल्लों से निकाल बाहर किया और वे भी इसी हीराडुंगरी मोहल्ले में बसने को मजबूर हुए. यह मोहल्ला अल्मोड़े में बिशप बडन द्वारा स्थापित चर्च के बहुत नजदीक स्थापित किया गया था.
उस समय के अल्मोड़ा में, जो तब तक यूनाइटेड प्रोविंसेज के पर्वतीय इलाकों का सबसे सुसंस्कृत और बौद्धिक नगर बन चुका था, इस प्रवृत्ति को लेकर हजारों किस्म की बातें हुईं होंगी. मशहूर कुमाऊनी कवि गौरीदत्त पन्त ‘गौर्दा’ (1872-1939) ने इस प्रवृत्ति पर व्यंग्य कसते हुए ये चार पंक्तियाँ लिखी थीं:
हीराडुंगरी रम्य प्रदेसा
उमें रूनीं कास कास मैंसा
हरुवा हैनरी जसुआ जैका
क्वे नी जाणन च्याल छन कैका
(‘जर्नल ऑफ़ एशियन स्टडीज’ मे प्रकाशित संजय जोशी के रिसर्च पेपर ‘जूलियट गौट इट रौंग –कन्वर्जन एंड द पॉलिटिक्स ऑफ़ नेमिंग इन कुमाऊं 1850-1930’ के आधार पर.)