शेखर पाठक
जोशीमठ में चिपको आन्दोलन शुद्ध सर्वोदयी सीमा तथा संचालन पद्धति से कुछ बाहर निकला और एक प्रकार से भाकपा के गोविन्दसिंह इसका नेतृत्व कर रहे थे। पर गोपेश्वर, मण्डल और फाटा से चिपको की शुरूआती फतहों को हासिल करने वाली टीम भी इसके पीछे थी। पुलिस प्रशासन को दलगत नेताओं की कमजोरी और प्रतिबद्धता पता होती थी पर गोविन्दसिंह बिलकुल जमीनी नेता थे। इसी तरह चंडी प्रसाद भट्ट जमीनी कार्यकर्ता थे। गोविन्दसिंह तथा चंडी प्रसाद की या साम्यवादी और सर्वोदयी कार्यकर्ताओं की संयुक्त शक्ति का भय प्रशासन के मन में था। लेकिन जिला प्रशासन तथा जंगलात विभाग को भ्रम था कि यदि चंडी प्रसाद रेणी न पहुँच पायें तो आन्दोलन बिखर सकता है। प्रशासन की योजना रेणी में भी खलल डालने की थी।
तीन चतुराईयां काम न कर सकीं
प्रशासन ने तीन चतुराई भरे काम किये। एक ओर चंडी प्रसाद को 24 मार्च 1974 को गढ़वाल वृत्त के अरण्यपाल चैन सिंह सौन्दाल के माध्यम से घेरा कि वे 26 मार्च को गोपेश्वर में उनसे मिलना चाहते हैं। भट्ट 26 मार्च को गोपेश्वर में रुक गए। उन्होंने जोशीमठ में रावत को संदेश भेजा कि उन्हें उनके और मजदूरों के परमिट बाबत जानकारी दें। 25 मार्च को मजदूरों को परमिट मिल गया। पर भट्ट को नहीं। यह खबर अरण्यपाल को पता थी। चंडी प्रसाद रेणी को न चल दें, यह सोचकर अरण्यपाल एक दिन पहले यानि 25 मार्च को ही गोपेश्वर आ गये। चंडी प्रसाद को बुलाया गया और बातें होती रहीं।
अरण्यपाल दग्रास्वसं के कामों की जानकारी लेते और भट्ट तथा सहयोगियों की तारीफ करते। रेणी के बाबत उपअरण्यपाल मुरलीधर श्रीवास्तव ने चर्चा स्वयं छेड़ी। भट्ट ने आन्दोलन का पक्ष रखा। उपअरण्यपाल ने कानूनी पक्ष को लेते हुए कहा कि नीलामी की बोली के बाद जमानत जमा हो गई है। इसके बाद कटान स्थगित नहीं हो सकता है। चंडी प्रसाद ने कहा कि तब चिपको भी स्थगित नहीं हो सकता। उप अरण्यपाल अपने इरादे नहीं छिपा पाया और कह बैठा कि आप रेणी नहीं जायें। हम आन्दोलन से निपट लेंगे। चंडी प्रसाद ने वहाँ पहुँचना अनिवार्य बताया। बात खत्म हो गयी पर चतुर अरण्यपाल ने दग्रास्वसं परिसर देखना चाहा। 26 मार्च की शाम 4 बजे का समय तय हुआ। साथियों को बताया गया कि अरण्यपाल कल संस्था में आ रहे हैं।
1962 के चीनी आक्रमण के बाद भारतीय सेना द्वारा ली गई ग्रामीणों की जमीन का मुआवजा सैकड़ों ज्ञापनों, प्रतिनिधि मंडलों और घिराव के बाद भी लटका था। 14 साल बाद जिला प्रशासन ने इस मामले को निपटाने की तिथि 26 मार्च 1974 तय की और मलारी, रेणी, लाता सहित इन गाँवों के पुरुष भुगतान हेतु चमोली आ गये। नीतीघाटी और विशेष रुप से रेणी में 26 मार्च 1974 को सिर्फ महिलाएँ और बच्चे-बूढ़े थे। यह प्रशासनिक चतुराई का दूसरा काम था।
चतुराई का तीसरा काम था गोविन्द सिंह पर सरकारी जासूसों द्वारा निरन्तर नजर रखना और उनकी गतिशीलता को प्रभावित करना। 26 मार्च 1974 की सुबह चंडी प्रसाद नेगवाड़ से संस्था को जा रहे थे तो जीप में रेन्जर तथा उप अरण्यपाल आ रहे थे। बताया कि वे कल किसी काम से नंदप्रयाग गये थे। यह रेणी आन्दोलन के सूत्रधारों को अलग रखने के प्रयासों की चतुराई भरी कड़ियां थीं, जिन्हें बाद के वर्षो में तब जोड़ा और समझा जा सका जब चिपको आन्दोलनकारियों को समीक्षा का अवकाश मिला।
यह दिन अत्यन्त तनाव भरा था। जोशीमठ से कोई सूचना नहीं आ रही थी। फोन पर प्रशासन का नियंत्रण था। अरण्यपाल सायं संस्था में आए और चर्चा चल रही थी। कमरे के बाहर भट्ट को बुलाया गया तो देखा कि चाय की दुकान में हयातसिंह बैठे थे। वे शीघ्र सीढ़ियाँ चढ़कर संस्था के आँगन में आये। भट्ट के पास आते ही बोले कि ‘सब गड़बड़ हो गया है। मजदूर रेणी जंगल में पेड़ काटने चले गये हैं। गाँव में कोई पुरुष नहीं है। गाँव के पुरुष मुआवजा लेने चमोली आए हैं। गोविन्दसिंह अकेले जंगल में जाने की हिम्मत नहीं कर पा रहे हैं। प्रशासन और पुलिस उन तक सही सूचना नहीं पहुंचने दे रही है। गाँव में सिर्फ महिलाएँ हैं। उप अरण्यपाल तथा रैन्जर कल से वहीं थे और अभी गोपेश्वर आये हैं।’
भट्ट को अंधेरे में रखा गया था। प्रशासन तथा जंगलात विभाग ने नियोजित तरीके से आन्दोलनकारियों की सरलता का दुरुपयोग रेणी में चिपको आन्दोलन न होने देने के लिए किया। अधिकारी भीतर संस्था के कामों की तारीफ कर रहे थे और बाहर संस्था के आंगन में षडयंत्र उजागर हो गया। सर्वोदयी सहनशीलता के तहत साड़े सात बजे शाम तक वार्ता चलती रही। रात को गोपेश्वर से रेणी जाना संभव नहीं था। भट्ट को परमिट अभी तक नहीं मिला था। 26 मार्च 1974 की शाम को परमिट मिलने की खबर मिली।
भट्ट तथा सहयोगी हयातसिंह से स्थिति समझ रहे थे। तभी जोशीमठ से गोविन्द सिंह का फोन आया कि धोखा हो गया है। प्रशासन की चतुराई काम कर गई है और अब गोपेश्वर में अरण्यपाल के घिराव का विकल्प बचा है। रावत ने बताया कि नीति घाटी से मुआवजा लेने आये लोग तथा छात्र चमोली तथा गोपेश्वर में हैं और जोशीमठ से भी लोग घिराव हेतु आ रहे हैं। यह भट्ट की सर्वोदयी रणनीति में वर्जित था। अरण्यपाल को घिराव की सूचना दी और सुरक्षित निकल जाने की राय भी। अपने व्यवहार से लज्जित अरण्यपाल अगली सुबह मंडल के रास्ते भाग निकले। 26 मार्च 1974 को चंडी प्रसाद ने मुख्यमंत्री बहुगुणा तथा वनमंत्री अजितप्रताप सिंह को तार भेजा कि भूस्खलन और बाढ़ को रोकने हेतु रेणी जंगल कटान तत्काल निरस्त हो।
रेणी जंगल को काटने की तैयारी हो चुकी थी। यह सब नियोजित तरीके से किया गया था। वर्ना यह कैसे संभव था कि प्रदेश का मुख्यमंत्री कहें कि रेणी का जंगल न कटे पर उप अरण्यपाल मजदूरों को जंगल में पहुँचाने में मदद दें। अरण्यपाल चंडी प्रसाद को गोपेश्वर में रोकें। जोशीमठ में सी.आई.डी. गोविन्दसिंह पर नजर रखे। नीती घाटी वालों को डेड़ दशक से अटका मुआवजा भी उसी दिन वितरित करने का निर्णय हो!
रेणी का सबसे चमकदार दिन
26 मार्च 1974 की सुबह 10 बजे हिमाचली मजदूरों को जोशीमठ से रेणी के लिए बस में लाया गया। व्यवस्था यमुनानगर के ठेकेदार भल्ला के आदमी कर रहे थे। मजदूरों की हिमाचली टोपी उतारी गयी ताकि वे पहचाने न जाय। बस में एक घंटा पहले बिठा खिड़कियों को बन्द कर उन्हें ले जाया गया। पीछे जंगलात की जीप में कर्मचारी थे। सावधानी बरती जा रही थी। बस तथा जीप रेणी तक नहीं जे जायी गयी। मजदूर तथा जंगलात के लोग मुख्य रास्ते से जंगल को नहीं गये। वे गाँव की निगाह से बचकर ऋषिगंगा के किनारे एक और रास्ते से ऊपर को चढ़ने लगे। चिपको आन्दोलन का भय मजदूरों से ज्यादा मुंशियों तथा जंगलात के कर्मचारियों में था।
रेणी गाँव की एक लड़की ने मजदूरों को ऊपर चढ़ते हुए देखा। पिछले नवम्बर से गाँव में हो रही हलचल से वह परिचित थी और गाँव का सामुदायिक जीवन सदा की तरह कायम था। गाँव के पुरुष जब गाँव में न थे तो ये कौन अजनबी हैं? वह किससे कहे? वह दौड़कर महिला मंगल दल की अध्यक्षा गौरा देवी के पास गई। परदेशियों के गांव के जंगल की ओर आने की बात बताई। महिला मंगल दल छोटा सा संगठन था। चिपको की इस गाँव में हुई सभाओं में कभी कभी महिलाएॅ पीछे बैठा करती थीं। स्वयं गौरा देवी किसी बैठक में नहीं जा पायी थी, हालांकि बेटे ने उन्हें सब बताया था।
दोपहर लगभग 11 बजे थे। गाँव में भोजन बनाने का समय। गौरा देवी तत्काल अपने घर से निकली। फिर अनेक महिलाएँ इकट्ठा हो गईं। किसी ने कालीन बुनना छोड़ा तो किसी ने कपड़े धोना, खाना बनाना या छोटे बच्चों को नहलाना। अपनी माताओं को दौड़ते और गंभीर देख कर सात छोटी-छोटी बच्चियाँ भी उनके पीछे दौड़ पड़ीं। गौरा देवी के साथ 20 महिलाएँ और 7 बच्चियाँ (घट्टी देवी, भादी देवी, बिदुली देवी, डूका देवी, बाटी देवी, गौमती देवी, मूसी देवी, नौरती देवी, मालमती देवी, उमा देवी, हरकी देवी, बाली देवी, फगुणी देवी, मंता (मैता) देवी, फली देवी, चन्द्री देवी, जूठी देवी, रुप्सा देवी, चिलाड़ी देवी, इंद्री देवी तथा सात बच्चियाँ-पार्वती, मेंथुली, रमोती, बाली, कल्पति, झड़ी और रुद्रा) सितेल जंगल को जाने वाली पगडंडी में आ गईं।
शार्टकट से ऊपर चढ़कर वे मजदूरों के पास पहुँचीं। मजदूर खाना बना रहे थे। ठेकेदार के मुंशी तथा जंगलात कर्मचारी दिन के काम की योजना। कटान-गिरान के औजार आसपास बिखरे थे। चढ़ी हुई साँस में महिलाओं को देखकर मुंशी तथा जंगलात कर्मचारी स्तब्ध रह गये। उन्होंने घबराहट को प्रकट नहीं किया। मजदूरों को भी आश्चर्य हुआ। महिलाओं ने कहा कि इस जंगल को मत काटो। यह जंगल हमारा मायका है। इससे हमें लकड़ी, घास, जड़ी-बूटी और सब्जी मिलती है। इसे मत काटो। यदि यह जंगल कटा तो ये पहाड़ हमारे गाँव पर आ गिरेंगे और बाढ़ आयेगी। हमारे बगड़ (नदी किनारे के खेत) बह जायेंगे। हमारे मायके को बर्बाद मत करो। हमारे घर को बर्बाद मत करो।
महिलाओं ने कहा कि खाना खा लो, फिर हमारे साथ नीचे चलो। जब हमारे मर्द आ जायेंगे तब फैसला होगा। ठेकेदार के कारिन्दे तथा जंगलात के कर्मचारी शराब पिये थे। उन्होंने महिलाओं के साथ छेड़खानी की कोशिश की और काम में रुकावट पर गुस्सा जताया। गिरफ्तार करने का भय दिखाया। दल में एक बन्दूक वाला भी था। जंगल में पड़ाव के दौरान शिकार किया जाता था। बन्दूक लेकर लड़खड़ाते हुए महिलाओं की ओर आया व्यक्ति शराब पिये था।
औरतों के मन में मंथन चल ही रहा था कि गौरा देवी ने अपनी आंगड़ी के बटन खोलते हुए कहा, ‘लो मारो बन्दूक और काट ले जाओ हमारा मायका!’ सर्वत्र एक चुप्पी छा गई। नीचे ऋषिगंगा बह रही थी और ऊपर नन्दादेवी की तरफ उठते पहाड़ खड़े थे। बीच में यह प्रतिरोध के पराकाष्ठा पर पहुँचने की चुप्पी थी। इतिहास का एक असाधारण क्षण था यह। ऐसा क्षण 13 जनवरी 1921 को बागेश्वर में प्रकट हुआ था या 23 अप्रैल 1930 को पेशावर में। लगता था जैसे गौरा देवी तथा साथियों के मार्फत सिर्फ रेणी नहीं, पूरा उत्तराखण्ड बोल रहा था। बल्कि देश के वनवासी बोल रहे थे।
खाना खा चुके मजदूर, शराब पिये हुये कारिन्दे और जंगलात कर्मचारी सब घबरा गये। बन्दूकधारी को किसी कर्मचारी ने डाठा और उसके हाथ से बन्दूक ले ली। मजदूर नीचे खिसकने लगे। कुछ नशे में धुत कर्मचारी बक रहे थे कि हम पैदल नहीं जायेंगे। उन्होंने अपने को ‘ऊँची जाति का मालदार’ और महिलाओं को ‘नीच कौम की औरतें’ सम्बोधित कर कहा कि हम पालकी में जायेंगे। इस बीच गाँव से कुछ और महिलाएँ आ गईं और नीचे राशन की बोरियाँ उपर को लाते मजदूर भी दिखे। कुछ औरतें तेजी से नीचे उतरी। उन्होंने मजदूरों को रास्ते में रोका और समझाकर नीचे लौटने को कहा। मजदूरों ने कहा कि उनका खाना उपर जंगल में बन रहा है तो औरतों ने राशन के बोरे वहीं पर रखने और खाना खा आने को कहा। खाना खिलाकर इस टोली को भी नीचे उतार दिया गया।
पालकी के इंतजार वाले अभी बैठे थे। कुछ औरतों ने कमर में बधे कपड़े से पालकी नुमा बनाकर उसमें एक नशेड़ी को लिटाकर दो तरफ से उठाने की कोशिश की। तब तक नशा उतरने लगा था। इसी बीच मलारी की तरफ सेना का एक वाहन भी गया। कुछ क्षणों तक जंगलात वालों को लगा कि कहीं आन्दोलनकारी जोशीमठ या गोपेश्वर से न आ गये हों। अपने अन्य साथियों और मजदूरों को वहाँ न पाकर वे खुद भी नीचे उतरने लगे। उन्होंने अपने सब्बल तथा कुल्हाड़ी आदि उठा लिये। जो ज्यादा नशे में थे उनके औजार महिलाओं ने पकड़ लिये।
सभी नीचे को आये। पगडंडी के मोड़ पर भूस्खलन से टूटे हिस्से को रास्ता बनाने के लिए एक सिमेन्ट के पट्टे से जोड़ा गया था। उपर पहाड़, नीचे ऋषिगंगा। नीचे जा रहे लोग जब मोड़ से आगे निकले तो कुछ औरतें उनके साथ चलती रही, पर सात औरतें यहाँ पर रुक गयी। उन्होंने सब्बलों से सिमेन्ट के इस पट्टे को हिलाया और तोड़ कर गिरा दिया। महिलाओं ने जंगल को जाने वाले अकेले रास्ते को बन्द कर दिया।
नीचे पहुँचते ठेकेदार के कारिन्दों और जंगलात कर्मचारियों को ऊपर मार्ग बंद होने की जानकारी हो गई। वे सब सड़क पर आ गये। नशा उतर गया और बदतमीजी की गुंजायश अब नहीं थी। मजदूर तथा कर्मचारी भयभीत थे। 50 साल की गौरा देवी, 52 साल की मूंगा देवी और अपेक्षाकृत युवा बाली देवी, रुपसा, भादी, मूसी, हरकी, मालमती, फगूणी आदि सभी सड़क पर आ गईं। लगता था कि वे सब तब सिर्फ औरतें ही नहीं थीं, बल्कि वे अपने पतियों, बेटों तथा भाईयों की ओर से खड़ी मनुष्य भी थीं।
यहीं पुल के पास सड़क के किनारे 1800 बोरी राशन पड़ा था। औरतें पगडंडी और सड़क के मिलने की ठौर बैठ गयीं। ठेकेदार के कारिंदे ने शाम को गौरा देवी को अलग बुलाकर डराया-धमकाया और चलते-चलते उनके मुख पर थूक दिया। ठेकेदार के कारिन्दे को लगा कि यह महिला ही इस सबके लिए जिम्मेदार है क्योंकि वह बन्दूक से भी भयभीत नहीं हो सकी। गौरा देवी ने चुपचाप यह सह लिया। औरतें वहीं बैठी रहीं। बच्चे-बच्चियाँ इस बीच गाँव भी हो आये। कुछ महिलाएँ इस बीच और आ गइंर्, कुछ गाँव चली गईं पर उनका निर्णय था कि वे अभी इस पगडंडी की शुरूआत पर बैठी रहेंगी। रातभर महिलाएँ वहीं बैठी रही और नन्दादेवी के तथा अन्य गीत गाती रहीं। गौरा देवी कहती थी कि तब उन्होंने कोई नारे नहीं लगाये। दरअसल चिपको आन्दोलन के नारे उनकी कार्यवाही बन गये। शब्द जब कर्म बनते हैं तो उन्हें उच्चारित करने की जरुरत नहीं रहती।
अगली सुबह
27 मार्च 1974 की सुबह हुई। धौली के उस पार पहाड़ के शिखर से धूप धीरे-धीरे नीचे उतर रही थी। महिलाओं ने देखा कि उनका जंगल मुस्कुरा रहा है। मुस्कान महिलाओं के चेहरों पर भी थी, लेकिन इसमें अभी गंभीरता का पुट था। 9-10 बजे के बीच जोशीमठ से गोविन्दसिंह तथा गोपेश्वर से चंडी प्रसाद और अन्य लोग आ गये। मार्क्स या लेनिन का नाम न जानने वाली तथा गाँधी या विनोबा विचार से भी लगभग अपरिचित इन महिलाओं के काम से वे सभी गौरवान्वित थे। हालांकि इसके पीछे उन्हीं का काम था। रेणी गाँव के जमाई हयातसिंह ने चंडी प्रसाद तथा अन्य को महिलाओं के पास ले जाने में देरी नहीं की। महिलाओं ने हाथ जोड़ सबका स्वागत किया।
गौरा देवी ने आगे बढ़कर कहा कि ‘हमने जो किया ठीक किया। हमें पछतावा नहीं है और न डर है। हमने आदमी को नहीं मारा। प्रेम से बात की। अब पुलिस पकड़ भी ले जाय तो चिन्ता नहीं। हमने अपना मायका बचा लिया, हमने अपने खेत और बगड़ बचा लिये।’ फिर वे सबको उत्साह से उस पगडंडी की ओर ले गयी, जिसमें सीमेन्ट का बना पट्टा उखाड़ दिया था। इस बीच पूरी बातें महिलाओं ने बता दी। पर बन्दूक तानने तथा मुंह पर थूकने की बात नहीं बताई। कदाचित् जंगलात कर्मचारियों की नौकरी की बात उनके मन में आई थी।
इन महिलाओं ने गोविन्दसिंह के साम्यवाद और राजनैतिक कर्म तथा चंडी प्रसाद के सर्वोदय तथा सामाजिक कर्म दोनों की लाज रखी और कुछ समय के लिए इनके ‘वादों’ और ‘व्यक्तित्वों’ के विस्तार को अपनी कार्यवाही से ढक दिया। शाम को उस जगह प्रदर्शन हुआ, जहाँ मजदूर, राशन की बोरियाँ तथा भल्ला ठेकेदार के कारिन्दे विराजमान थे। हिमाचली मजदूर अपने पहाड़ी विरादरों को देखकर घबरा गये थे। चंडी प्रसाद ने उनका डर खत्म करना चाहा, क्योंकि मजदूरों को लग रहा था कि ये महिलाएँ अब उन्हें पिटवायेंगी। मजदूरों को बतलाया गया कि आन्दोलनकारियों की उनसे लड़ाई नहीं है। न ही उनके मालिक या जंगलात वालों के साथ। हमें अपना जंगल बचाना था और बचा लिया है। इसलिए आपको यहाँ डरना नहीं चाहिए। बाद में मजदूर प्रदर्शन स्थल तक आये। वक्ताओं ने तनाव को निरन्तर घटाने का प्रयास किया।
चंडी प्रसाद बोल ही रहे थे कि मजदूर सामने दरी पर बैठ गये। जंगल को काटने में असफल और जंगल को बचाने में सफल समूह एक साथ भट्ट को सुन रहे थे। लगता था जैसे मजदूर कार्यकर्ता की तरह हो गये थे। भट्ट महिलाओं द्वारा की गई कार्रवाही की प्रशंसा के साथ इस लड़ाई को आगे ले जाने की बात कर रहे थे। गोविन्दसिंह ने कहा कि वे किसी और घटना से इतने प्रसन्न नहीं हुये जितने कि कल के प्रतिरोध से। उनके चेहरे पर इतनी खुशी कभी नहीं खिली। बैठक में 31 मार्च को इसी स्थान पर प्रदर्शन करने का निर्णय लिया गया। अब तक गोपेश्वर-चमोली से रेणी गाँव के अनेक मर्द भी आ गये। उन्हें अपनी महिलाओं के काम पर गर्व हो रहा था पर ताजा इतिहास के इस असाधारण पृष्ठ पर पूरा विश्वास नहीं। कुछ के मन में जंगलात विभाग, पुलिस तथा ठेकेदार के कारिन्दों का भय अंकुरा रहा था। पर जन उत्साह और तमाम लोगों के रेणी आ जाने के कारण भय तिरोहित हो गया।
अगले चार दिन आन्दोलनकारी और मजदूर यहीं रहे। 27 से 30 मार्च 1974 तक अलग अलग समूहों को जंगल की निगरानी की जिम्मेदारी सौंपी गयी। प्रकारान्तर में मजदूरों तथा 1800 बोरे राशन की सुरक्षा भी हो रही थी। महिलाएँ गाँव से आती जाती रहीं। भोजन की व्यवस्था करती रहीं। रोज नारे लगे। बातचीत हुई। गीत गाये गये। 31 मार्च 1974 को इस घाटी का सबसे बड़ा और भव्यतम प्रदर्शन हुआ। जैसे पूरी धौली घाटी रेणी की सड़क पर इकट्ठा थी। धौली घाटी के सभी गाँवों से ग्रामीण पहुँचे तो जिले के अन्य क्षेत्रों से भी कार्यकर्ता आये। सुराई ठूठा, लाता, रेणी, पैंग, मुरांडा, सुभाई, तपोवन, ढाक, रिंगी, करछी, तुगासी, भंग्यूल, रेगड़ी आदि के ग्रामीण ऋषिगंगा के किनारे जमा हो रहे थे। हर ओर से परम्परागत और रंग-बिरंगी कपड़े पहने आदमी, औरतें, बच्चे आ रहे थे। गाजे-बाजों के साथ कुछ समूह नन्दादेवी के गीत गा रहे थे। कुछ समूह उन नारों को दोहरा रहे थे, जिन्हें कार्यकर्ताओं ने पिछले महीनों में गाँवों में बोया था। ‘वन जागे, वनवासी जागे’ इसमें सबसे ज्यादा दोहराया जाता था।
आज जैसे उनके विचारों की फसल अंकुरित हो आई हो। जंगलात के कर्मचारी तो जरूर भाग गये थे पर ठेकेदार के कारिंदे और मजदूर यह सब देखते रहे। उन्हें 28 महिलाओं और बेटियों के पीछे खड़े समाज का अन्दाजा आया। उन्हें स्पष्ट लगा कि जंगलात की नीति के खिलाफ कुछ लोग नहीं, पूरा समाज लड़ रहा था। जब ग्रामीणों की सब धाराएँ इकट्ठा हो गई तो सभा हुयी। ग्रामीणों और कार्यकर्ताओं ने अपनी तरह से आन्दोलन को परिभाषित और प्रस्तुत किया। रेणी की इस जीत पर सभी प्रसन्न थे और अनेक वक्ताओं ने मंडल, फाटा और रेणी के सिलसिले को समझा, उनके अन्तर्सम्बन्ध को जोड़ा और आगे की तैयारी की जरूरत बताई। कार्यकर्ताओं को पता था कि ये तीन सफलताएँ कम नहीं है पर अभी सरकारी जंगलात नीति टस से मस नहीं हुई है।
हर गाँव के प्रतिनिधि ने जंगल की लड़ाई आगे बढ़ाने का आह्वान किया और रेणी के आसपास के ग्रामीणों ने बच गये जंगल पर नजर रखने की जरूरत बताई। रेणी में उपस्थित जिन लोगों को मण्डल तथा फाटा के बारे में पता न था, उन्हें वहां की चर्चा सुनकर आश्चर्य हुआ। सभी ने समझदारी से संघर्ष को आगे ले जाने की जरुरत बताई। वक्ताओं ने कहा कि जब तक सरकार की ओर से व्यापक तथा व्यवहारिक फैसले नहीं होंगे, तब तक जंगलों की सुरक्षा की गारंटी नहीं है। कुछेक वक्ताओं ने इसे एक अप्रत्याशित घटना भी कहा। रेणी के प्रतिरोध ने चिपको आन्दोलन को एक स्पष्ट चेहरा और चमक देने में कामयाबी पाई।
इस बीच चारों ओर से चिपको आन्दोलन को अपना नैतिक समर्थन मिला। सरकार की ओर से दो साल से ठप्प पड़ी लीसा इकाईयों को लीसा दिया गया। ये इकाईयां चालू हो गई। यह आन्दोलन की प्रथम सफलता थी। इससे पहले लीसे के दाम एक किये गये। 1974-75 के बजट लेखानुदान पर बोलते हुए उत्तराखण्ड के अनेक विधायकों ने बहुगुणा सरकार के सामने उत्तराखण्ड के लोगों तथा चिपको आन्दोलन की अपेक्षायें रखी। लगातार तीन पराजयों से जंगलात विभाग उबर नहीं पा रहा था। सरकारी सोच बदले बिना अधिकारियों द्वारा परिवर्तन किया जाना संभव नहीं था। नयी सरकार ने इसे महत्व देना तो शुरू किया पर प्रदेश स्तर पर इसको प्राथमिकता नहीं मिली। तब भ्रष्टाचार के विरुद्ध गुजरात का नव निर्माण आन्दोलन चल चुका था और वहाँ का संदेश जयप्रकाश नारायण बिहार में रोपने का काम कर चुके थे।
रेणी की जीत चिपको आन्दोलन के पहले सफल अघ्याय की पराकाष्ठा थी। गोपेश्वर, मण्डल और फाटा होकर चिपको यहां पहुंचा था। रेणी से पहले फाटा में भी महिलाओं की हिस्सेदारी हो चुकी थी। पर रेणी में महिलाओं को इतिहास रचने का मौका मिला। गौरादेवी इसकी प्रतीक माता बनी। सर्वोदयी, साम्यवादी तथा अन्य सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ताओें की इस सामूहिकता को जन समर्थन ने ताकत दी और ये सफलताएं भी। दशौली ग्राम स्वराज्य मण्डल की केन्द्रीय भूमिका और पृष्ठभूमि में सर्वोंदयी कार्यकर्ताओं का योग अपनी जगह था। भट्ट और रावत का नेतृत्व, तमाम सामाजिक7राजनैतिक कार्यकर्ताओं तथा महिलाओं और विद्यार्थियों की गहन हिस्सेदारी आन्दोलन को इस बिन्दु तक ले गई।
चिपको आन्दोलन की पहली सफल लहरों के 50 साल पूरे होने के मौके पर चिपको आन्दोलन, उसके नेतृत्व, कार्यकर्ताओं तथा उसमें सतत हिस्सेदार समाज को सलाम।
(विस्तार के लिए देखें लेखक की किताब ‘हरी भरी उम्मीद’, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली)