गुरप्रीत कौर
कक्षा 11वीं
नानकमत्ता पब्लिक स्कूल, उत्तराखंड।
“संगीत सुनना एक कला है। लिखना भी। और आलोचना सबसे बड़ी कला है।” इस पंक्ति को जे सुशील जी अपनी किताब ‘जेएनयू अनंत, जेएनयू कथा अनंता’ के ज़रिए कहते हैं। मेरा मानना है कि उन आलोचनाओं को स्वीकार कर उन पर अमल करना और ख़ुद को और बेहतर बनाना उससे भी बड़ी कला है। दूसरों की आलोचना करना तो ज़रूरी है ही पर उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है ख़ुद पर हुई आलोचना को सकारात्मक ढंग से लेना और उसके मुताबिक सुधार करना। अपनी आलोचना को आप कितनी आसानी से स्वीकार कर उस पर काम कर पा रहे हो, यह एक कला ही तो है!
‘जेएनयू अनंत जेएनयू कथा अनंता’ में जे अपनी कई सीखों का वर्णन करते हैं जो उन्हें जेएनयू से मिली। वह जेएनयू के भूतपूर्व छात्र हैं जिन्होंने जेएनयू में चार साल पढ़ाई की पर अनौपचारिक रूप से लंबे समय तक जेएनयू के आँचल में पले बढ़े। जे कहते हैं “मेरी ज़िंदगी का ताना बाना इसी यूनिवर्सिटी के आस-पास बुना जाता रहा और चाहे-अनचाहे मैं यूनिवर्सिटी से जुड़ा रहा हूँ।” वह इसी बात में जोड़ते हुए कहते हैं “भले ही यह संबंध आधिकारिक न रहा हो लेकिन एक नाभी-नाल सा महसूस करता हूँ जिसे मैं अभी तक काट नहीं पाया हूँ”। जैसे एक बच्चा अपनी माँ से अलग सा संबंध महसूस करता है उसी तरह जे के लिए जेएनयू है। वे चाहे जहाँ भी रहें जेएनयू उनकी ज़िंदगी का अभिन्न हिस्सा है जिसे वे ख़ुद से अलग शायद ही कभी कर पाएंगे।
जे अभी अमेरिका में रहते हुए अपना शोधकार्य कर रहे हैं। अख़बारों और पत्रिकाओं में लगातार लिखने के साथ ही उन्होंने बीबीसी में लंबे समय तक काम किया है। वह अपनी पत्नी के साथ कम्युनिटी और परफॉर्मेंस आर्ट भी करते हैं। उन्होंने दो किताबों का हिन्दी अनुवाद किया है जिनमें से एक है वीएस नायपॉल की किताब ‘ए टर्न इन द साउथ’ और दूसरी है एस हुसैन जैदी की ‘माई नेम इज अबू सलेम’।
अब उनकी खुद की किताब प्रकाशित हुई है, जिसमें अनुवादक की भूमिका न निभाकर वे लेखक हैं। ‘जेएनयू अनंत जेएनयू कथा अनंता’ किताब उनके जेएनयू से जुड़े एक्सपीरिएंस का संग्रह है। इस किताब में उन्होंने जेएनयू में जिए अनेक अनुभवों को शब्दों में संजोया है। इन अनुभवों के पिटारे को प्रकाशित कर कई लोगों तक पहुँचाने का काम ‘प्रतिबिम्ब’ ने किया है। इस किताब का मूल्य ₹215 है। यह 142 पन्नों की किताब किसी व्यक्ति की आँखों में जेएनयू की झलक दिखा देने की योग्यता रखती है। और जेएनयू के भूतपूर्व छात्रों की यादें यह पुस्तक ताज़ा करती है। जेएनयू से जुड़े लोगों को जेएनयू को देखने का एक और नज़रिया भी यह किताब देती है।
“मनुष्य क्या पढ़ता है, से भी ज़्यादा ज़रूरी है कि वह कैसे पढ़ता है और पढ़े हुए को कैसे समझता है।” जे ऐसा कहते हुए मेरे ज़हन को अभी की स्थिति के बारे में सोचने को मजबूर करते हैं। ‘क्या पढ़ने’ से ज़्यादा ज़रूरी ‘कैसे पढ़ना’ तो है और आप कैसे पढ़ रहे हैं यह इस बात को निर्धारित करेगा कि आप उसे कैसे समझेंगे। इसलिए सही ढंग से पढ़ना आवश्यक हो जाता है। आजकल शिक्षार्थी जैसे-तैसे 12वीं कक्षा तक तो अपनी पढ़ाई कर ले रहे हैं पर जब सवाल आता है उच्च शिक्षा का तो सभी के मुँह में मानो चुप्पी सी छा जाती है।
जब कोई छात्र अपनी स्कूली पढ़ाई के बाद उच्च शिक्षा प्राप्त करने किसी बड़े शहर नहीं जा पाता तो उसे अपने आस-पास की यूनिवर्सिटी और कॉलेजों में एडमीशन लेना पड़ता है। उन कॉलेजों की स्थिति खास ठीक न होने के कारण वह छात्र अपनी समझ में गहरा विस्तार कर पाने में अक्षम रह जाता है। बच्चों को देश का आने वाला भविष्य माना जाता है तो हमें यह समझने की ज़रूरत है कि अच्छी उच्च शिक्षा को प्राप्त करने के लिए पर्याप्त यूनिवर्सिटी और कॉलेजों का न होना इस बात का संदेश है कि देश का भविष्य खास प्रगति नहीं कर सकता। एक अच्छी यूनिवर्सिटी में पढ़ना और अपनी समझ को गहरा करना एक अलग सा अनुभव है। यह किताब उन लोगों को भी एक विश्वविद्यालय के जीवन से रूबरू कराती है जो इस एक्सपोज़र से अभी दूर हैं।
यह किताब जेएनयू के विभिन्न पहलुओं को समेटने की एक सफ़ल कोशिश है। जे अपनी इस किताब की शुरुआत इसे लिखने के उद्देश्य को बताते हुए करते हैं। इसके बाद जेएनयू बनने की कथा, कक्षाएँ, कैंपस, बहस का माहौल, चुनाव, वहाँ के प्रोफ़ेसर, ज्ञान की विनम्रता, मित्रताएँ आदि विषयों को यह किताब शामिल करती है। इस किताब में मुझे इन्डेक्स की कमी लगी। इस पुस्तक का अगर शुरुआत में एक पृष्ठ इन्डेक्स को दिया जाता तो पढ़ने वालों के लिए किताब के कॉन्टेन्ट का अंदाज़ा लगाना और भी आसान हो जाता।
ख़ैर कॉन्टेन्ट तो जेएनयू की मानो पूरी सवारी करा देता है। इस किताब को पढ़ने के बाद मुझे समझ आया कि पढ़ाई सिर्फ़ कक्षा में बैठकर नहीं होती। जे का मानना है कि उन्होंने उतना कक्षा में बैठकर नहीं सीखा जितना बहसों से सीखा है। यह बहसें किसी ज्वलंत मुद्दे पर या कक्षा में हुई किसी बात पर होती थीं। छात्र सहजता से अपनी बातें रखते थे और उसमें से कुछ नया निकलना संभव होता था और ऐसे ही उनकी नई सीख होती थी।
जे यह भी कहते हैं “कैंपस का माहौल ऐसा है कि लोग एक-दूसरे से सीखते हैं। एक-दूसरे का सम्मान करते हैं और एक दूसरे के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा जानने की कोशिश करते हैं, जो उन्हें एक बेहतर इंसान बनाने में मदद करता है”। भविष्य में चाहे हम किसी भी पेशे में जाएं पर बेहतर इंसान बनना सबसे ज़रूरी है। और ऐसा बनने का अवसर देने वाली एक यूनिवर्सिटी को यह किताब दर्शाती है।