दिनेश कर्नाटक
सरकारी क्षेत्र को लेकर हमारे समाज में प्रायः नाराजगी देखी जाती है। यह नाराजगी कई रूपों में पाई जाती है। जो लोग सरकारी क्षेत्र में हैं, उनके पास सरकारी क्षेत्र की इस अव्यवस्था की अपनी वजहें हैं। वे अपने अधिकारों के लिए सतर्क रहते हैं । उन्हें बनाए रखने के लिए आंदोलन करते हैं। जो लोग सरकारी क्षेत्र में नहीं है वे इसकी आलोचना करते हैं। उनके पास सरकारी हील-हवाली से लेकर अव्यवस्था कि तमाम कहानियां होती हैं। संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण व नियमन के लिए सरकारी तंत्र न सिर्फ आवश्यक बल्कि अनिवार्य होता है, मगर कार्यों की गति तथा ढीलेपन के कारण निजी क्षेत्र की सुविधाएं सबको अच्छी लगती हैं। सुविधाओं की बात आती है तो सरकारी क्षेत्र के लोग भी निजी क्षेत्र की ओर जाते हैं । धीरे-धीरे सेवा क्षेत्र से सरकार अपने हाथ खींचते जा रही है तथा अपनी भूमिका नियमन तक ही सीमित रख रही है। सरकारी क्षेत्र के कमजोर पड़ने से लोगों को मुनासिब दाम में मिलने वाली स्तरीय सेवाएं समाप्त होने लगी हैं। इस तरह देखा जाए तो हमारा देश इस समय सरकारी क्षेत्र तथा निजी क्षेत्र के द्वंद्व में उलझा हुआ है। लोगों को वेतन व सेवा शर्तें तो सरकार की जैसी चाहिए और काम निजी क्षेत्र का जैसा चाहिए,लेकिन संकट यह है कि निजी क्षेत्र वेतन व सेवा शर्तें सरकारी क्षेत्र की तरह नहीं दे सकता दूसरी ओर सरकारी क्षेत्र निजी क्षेत्र की जैसी सेवा नहीं दे पाता है।
कोई भी देश भले ही संविधान बहुत अच्छा बना ले, अपने नागरिकों को हर तरह की सुविधा देने का संकल्प ले ले, लेकिन उसका सरकारी तंत्र चुस्त-दुरस्त व परिणाम केन्द्रित नहीं है तो बेहतर राज-काज की उम्मीद नहीं की जा सकती। राजकाज मंत्री अथवा प्रधानमंत्री नहीं चला सकता। शासन चलाने के लिए एक कुशल तथा मानवीय तंत्र की जरूरत हमेशा से रही है। अगर महसामन्त बुरा हुआ तो स्वाभाविक रूप से उसकी मशीनरी भी बुरी ही होगी, अगर महासमंत अच्छा हुआ तब भी उसकी अच्छाई का लाभ जनता को तभी मिल पाएगा जब मशीनरी भी अच्छा करने को संकल्पित होगी। देखने में यह आता है कि जिस प्रकार सामंतों की अपनी एक सत्ता होती है, उसी प्रकार सरकारी तंत्र में भी ऊपर से नीचे तथा नीचे से ऊपर तक कई तरह की सत्तायें बन जाती हैं। नियम व कायदा कुछ भी क्यों न हो कुर्सी पर बैठे आदमी का रवैया अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। वह लोगों के काम निपटाने में यकीन रखता है तो काम आराम से होंगे। उसे काम फँसाने या उलझाने में रुचि है तो काम अटके रहेंगे।
सरकारी तंत्र की कार्यप्रणाली व उसमें काम करने वाले लोगों का मनोविज्ञान आदि सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा प्रशासनिक विमर्श का मुद्दा है। एक कामयाब व सफल लोकतंत्र के लिए इस तंत्र का संवेदनशील व जवाबदेह होना बहुत आवश्यक है। क्या केवल निजीकरण से इस समस्या का समाधान हो जाएगा या निजीकरण की अपनी अलग समस्याएं हैं ? निसंदेह निजीकरण समर्थ लोगों के लिए अच्छी व्यवस्था है, क्या यह आम नागरिकों के लिए भी उतनी ही अच्छी है ? ऐसे कई सवाल हैं जो सरकारी व निजी क्षेत्र के द्वंद्व पर सोचने को मजबूर करते हैं। अपनी विकास यात्रा में मनुष्य ने सामंतशाही व राजशाही के बाद समाजवाद तथा लोकतांत्रिक पूंजीवाद के मॉडल की यात्रा की है। समाजवाद की मंशा लोगों को शिक्षा, स्वास्थ्य तथा रोजगार के संकट से मुक्त करने की थी। अपने आप में यह विचार बहुत ही माननीय तथा प्रगतिशील था लेकिन बात उसी तंत्र की आ जाती है, जिसे उसे संचालित करना है। इतना अच्छा विचार होने के बावजूद सत्ता पर बैठे लोग तथा सरकारी तंत्र मिलकर उस सपने को पूरा नहीं कर पाये। लोकतांत्रिक पूंजीवादी समाजों में भी सरकारी तंत्र को अपनी भूमिका निभानी होती है, लेकिन वही संकट यहां भी नजर आता है।
‘चाकरी चतुरंग’ ललित मोहन रयाल की औपन्यासिक कृति है । इसके शीर्षक की व्यंजना को पकड़ने की कोशिश करें तो यह नौकरी के विभिन्न रूपों की बात करती है। चतुरंग के एक और अर्थ के अनुसार यह इस पूरे तंत्र में शतरंज के मोहरे में बदल गए सरकार रूपी सेना के विभिन्न अंगों व किरदारों की यह आख्यानपरक व्यंगात्मक रचना है। यह रचना सरकारी तंत्र के सामाजिक व मनोवैज्ञानिक पहलू की पड़ताल करने के बजाए इस तंत्र के बहुरंगी व विविध किरदारों से हमें परिचित कराती है। इस किताब को पढ़ते हुए सरकारी तंत्र में काम करने वाले नीचे से लेकर ऊपर के पायदान तक के किरदारों के चरित्र हमारे सामने आते हैं। देखने में आता है कि लोग जहाँ काम करते हैं, उसकी बात न करके दुनियाभर की बात करते हैं। ललित मोहन रयाल जी स्वयं लोक सेवा में हैं तथा उसकी बात कर रहे हैं। यह एक तरह से खुद की ओर देखना है। अपनी पूर्व की रचनाओं में भी वे यही करते रहे हैं। इस दृष्टिकोण से यह रचना महत्वपूर्ण हो जाती है।
चार सौ से अधिक पृष्ठों में फैली ‘चाकरी चतुरंग’ में यूं तो कोई केंद्रीय कथा नहीं है मगर विष्णु शंकर की चार खंडों में दी गई संक्षिप्त कथा की छांव में चरित्रों तथा उनसे जुड़ी घटनाओं की एक बहुत बड़ी दुनिया से हम रूबरू होते हैं। इस दुनिया में महा सामंत, आप्त सामंत, क्लर्क, परिचारक, पटवारी, समाज सेवक, शिक्षक, ठेकेदार, इंजीनियर से लेकर फाइलों तक की उपस्थिति है। इसमें डीआर पांडे, आरके दुबे, धर्मराज जैसे ईमानदार अधिकारी हैं जिनका मन लेखक के शब्दों में बिना किसी उद्दीपन के भी सही करने को मचलता है। वही कुंवर विजय जैसे किरदार भी हैं जो इतनी पीते थे कि कोई लालसा से बाकी न रहे। वही धरणीधर शर्मा भी हैं, जो सीनियर्स के आदेश पर एक पैर में खड़े होने को तैयार रहते हैं। संत सेवक शुक्ल हैं जो दूरदराज के इलाकों में सेवाएं देते हैं। शेर सिंह सूर्या जैसा चौकीदार है जो अपने काम के प्रति हद दर्जे का समर्पित हैं, वहीं अपने जीवन व स्वभाव के कारण जटिल स्थितियों में उलझे रहते हैं। वहीं राजधानी में रहकर दुर्गम क्षेत्र का काम संभालने वाले अधिकारी को अंग देश व कर्ण से जोड़ते हुए लेखक ने सुंदर व्यंग्य किया है। पुस्तक में काम करने को तत्पर रहने वाले तथा काम से जी चुराने वाले दोनों तरह के लोग हैं। वहीं धर्मराज जैसे संवेदनशील अधिकारी भी हैं जो दो भाइयों के असंभव से लगने वाले विवाद को सुलझाते हैं, अनाथ बच्चे के पुनर्वास की राह निकालते हैं, सड़क के एक जटिल मामले को सुलझाते हैं तथा नहर के भ्रष्टाचार की तह तक जाते हैं।
इस प्रकार इस उपन्यास में करीब 16 ऐसे विभिन्न किरदार हैं जो अपनी चरित्रगत विशिष्टताओं से न सिर्फ आकर्षित करते हैं बल्कि मानव मन तथा व्यवस्था की गुत्थियों को समझने में भी मदद करते हैं। इन किरदारों से गुजरते हुए लगता है कि हर किरदार पर अलग से कहानी या उपन्यास लिखा जा सकता था। इस प्रकार लेखक ने बड़े ही सघन तथा व्यंजनापरक तरीके से दफ्तरशाही के अंदर की यात्रा करवाई है। लेखक की व्यंग्यात्मक शैली की वजह से पूरी पुस्तक बेहद रोचक बन पड़ी है। इस किताब की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रायः किसी भी विषय को व्यक्ति एक या दो कोण से देखता है और उसके देखने की सीमा होती है, लेकिन यहां लेखक ने सरकारी तंत्र के किरदारों को हर कोण से देखा है। बड़ी बात यह है कि लेखक लोगों को कैसा होना चाहिए इसकी फिक्र करने के बजाय जो जैसा है वैसे ही बेहद तटस्थता वह वस्तुनिष्ठता के साथ प्रस्तुत करता है।
आर के दुबे साहब के स्वभाव का वर्णन देखिये, ‘बस एक बार काम उनकी जानकारी में आ गया तो वो काम फरियादी का न होकर, उनका खुद का हो जाता था। उसमें हद से ज्यादा दिलचस्पी लेने लगते थे। काम निपटाने को बुरी तरह लालायित हो उठते। एप्लीकेंट को फोर्मेलिटी पूरी कराने की रोज याद दिलाते।’ इनके ठीक विपरीत हैं चरण दत्त बीडीओ, ‘काम से दिली नफ़रत करते थे। हमेशा ‘ज्यादा दिमाग क्यों खपाएँ’ के फेर में पड़े रहते थे। गलती से इधर-उधर दो –चार जगह चिड़िया क्या बिठा दी कि समझते जैसे अहसान कर दिया हो। जितनी चिड़िया बिठाते सबका पाई-पाई हिसाब रखते थे।’ सरकारी तंत्र में कुछ लोग जहां भ्रष्टाचार के अंतिम छोर पर पहुँच जाते हैं वहीं दूसरे तरह के लोग ईमानदारी के नाम पर समस्या बन जाते हैं, ऐसे ही एक महानुभाव के बारे में लेखक लिखते हैं-‘अकारण सख्ती, नुक्ताचीनी, अड़ियल स्वभाव, बेबात की टोका-टोकी को सद्गुण मान बैठते हैं।…….. अपनी ईमानदारी से सबको दुखी किए रहते हैं। धीरे-धीरे उनका जमीर कई टन वजनी हो जाता है, जो गलत तो क्या, सही काम की भी गवाही नहीं देता।’ आगे लेखक लिखते हैं, ‘जो अपना काम ईमानदारी से डिलीवर न करे, परिणाम न दे, दूसरों को राहत न दे, समाज के व्यापक उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक न बने, वो किस बात का ईमानदार …….. बड़प्पन तो वो है, जब कोई आमजन आपसे मिलकर खुद को बड़ा महसूस करे। उसे अंदर से खुशी मिले। वो जब लौटे तो पॉज़िटिव होकर लौटे।’ कामचोरी वाले एक बाबू की मिसाल देखिए-‘पेंशन महकमे में एक ऐसे बाबू थे, जो ऐन मौके पर बीमार पड़ते थे। महीने के आखिरी हफ्ते में पेंशन बिल और इनवाइस बनाने का जिम्मा उनका था। काम के बोझ से मुक्ति पाने के लिए, उस हफ्ते में वे डॉक्टरी छुट्टी पर चले जाते थे। काम रुक नहीं सकता था, सो किसी और को जूझना पड़ता था। जैसे ही काम निपटता वे लौट आते। एक तरह सैलरी की दरों पर पेंशन उठा रहे थे। इन हरकतों की वजह से दफ्तर उनसे आजिज़ आ गया।’
यह किताब अगर अभिदा शैली में लिखी गई होती तो निश्चित ही पाठक को हैरान व परेशान कर देती। लेखक ने इसे व्यंग्य की शैली में लिखा है। अतः यह न सिर्फ इन किरदारों की हरकतों पर हंसने को विवश करती है, बल्कि खुद को देखने व नजर रखने को भी प्रेरित करती है। किसी भी किताब की उपलब्धि यह होती है कि वह न सिर्फ एक नई दृष्टि दे अपितु सवाल भी खड़े करे। इस किताब को पढ़ते हुए बार-बार सवाल उठता है कि हमारे देश में व्यक्ति की शिक्षा व प्रशिक्षण उसके काम में क्यों नहीं दिखाई देता। व्यक्ति अपने मूल स्वभाव में उतरकर मनमर्जी क्यों करने लगता है ? क्या ऐसा इसलिए है कि सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों को अत्यधिक संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है ? या ऐसा इसलिए है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे महासामंतों के कोई मूल्य व प्रतिबद्धता नहीं है और ऊपर से गड़बड़ होगी तो नीचे तक जाएगी ही।
‘चाकरी चतुरंग’ को किसी विधा विशेष के खांचे में फिट नहीं किया जा सकता। कहने को इसे उपन्यास कहा गया है लेकिन इस कृति में संस्मरण, रेखाचित्र, कहानी, व्यंग लेख के कई रूप मौजूद हैं। इसे विधाओं का कोलाज भी कह सकते हैं। विधाओं के किसी तय खांचे में फिट न होना इस रचना की बड़ी विशेषता है। कहन की आख्यानपरक शैली के कारण इसे ‘आख्यानपरक उपन्यास’ भी कहा जा सकता है। दूसरी ओर सरकारी तंत्र की एकरूपता तथा अलग-अलग छोटी-बड़ी कहानियां मिलकर एक बड़े औपन्यासिक कलेवर का निर्माण करती है। इस किताब को पढ़ते हुए जहां लेखक की बारीक दृष्टि का परिचय मिलता है वहीं भाषा का खिलंदड़ अंदाज पाठक को आनंदित कर देता है। इस प्रकार यह रचना न सिर्फ उस हरेक व्यक्ति को पढ़नी चाहिए जो सरकारी तंत्र की अंतरंग दुनिया को जानना या समझना चाहता है, बल्कि सरकारी तंत्र में काम कर रहे व्यक्ति को तो इसे अवश्य ही पढ़ना चाहिए। एक स्वागतयोग्य रचना।
चाकरी चतुरंग : ललित मोहन रयाल
अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा0) लिमिटेड
4697/3, 21-ए, अंसारी रोड, दरियाजंग, नई दिल्ली-110002
पृष्ठ-403, मूल्य-395/-
One Comment
Pankaj Shukla milani khal,Rikhnikhal Pauri Garhwal
सादर प्रणाम,
सरल सारगर्भित शब्दों में पुस्तक का पूर्ण परिचय व समीक्षा इसे पढ़कर पुस्तक पढ़ने की प्रेरणा मिलती है।