भास्कर उप्रेती
दीप भट्ट को आपने ‘अमर उजाला’ के ‘रंगायन’ फीचर पृष्ठ पर खूब पढ़ा होगा. वह लम्बे समय तक ‘हिंदुस्तान’ के लिए फिल्म जगत की पत्रकारिता करते रहे. और..कभी-कभार ‘कादम्बिनी’ में भी लिखते हैं.
फुल-टाइम फ़िल्मी हैं. किशोरावस्था में माया-नगरी देखने भाग निकले. बाद में वन महकमे की नौकरी को अलविदा कह पत्रकार हो गए. दिन-भर ख़बरों की ख़ाक छान लेने और उन्हें मुद्रण के लिए रवाना करने के बाद रात को बारी होती फिल्म-जगत की रोमानी दुनियाँ के चित्र उकेरने की. इस मशरूफियत में उन्होंने जिन्दगी ही खपा दी. हसीन किस्सों से भरे दीप भट्ट खुद में एक लाजवाब किस्सागो हैं. कभी देव साहब के किस्से तो कभी राज साहब की शोखियाँ.
यूँ तो फिल्मानी होना उनके रोम-रोम में है. देवानंद पर एक किताब पहले दे चुके हैं. मगर, ताज़ातरीन किताब उनकी जिंदगी के खून-पसीने का सर्वोत्तम है. यह किताब माइनस अखबारी पत्रकार की कलम से है. यानी उन्होंने अखबारी जीवन से सेवानिवृत होने के बाद तसल्ली से लिखी है.
अमेजन ने अपने प्रोमो पर किताब के बारे में कुछ इस तरह दर्ज किया है- “अपने इंटरव्यू में महान फिल्मकार श्याम बेनेगल कहते हैं कि समाज बदलने के बाद फिल्म अच्छी होगी, ये बात गलत है, समाज जैसा है, फिल्म भी वैसी होगी, ये बहाना है । ऐसा कहते हुए वे संकेत देते हैं कि सिनेमा का मकसद सिर्फ जनता का मनोरंजन करना ही नहीं, बल्कि समाज को शिक्षित और संस्कारित करना भी है । उनकी इस बात में फिल्मकारों की समाज के प्रति प्रतिबद्धता और दायित्वबोध की झलक भी मिलती है । अच्छा सिनेमा ही बेहतर समाज की भावभूमि तैयार कर सकता है, जिसकी आज देश–समाज को सख्त जरूरत है । तब सवाल उठता है कि क्या आज का सिनेमा कोई सामाजिक जिम्मेदारी महसूस करते हुए अभिव्यक्ति के सबसे सशक्त माध्यम होने की भूमिका निभा रहा है ? इस पुस्तक में दीप भट्ट ने हिन्दी सिनेमा के दिग्गज फिल्मकारों, अभिनेताओं से लेकर, नामचीन अभिनेत्रियों के साथ ही समानांतर सिनेमा के शीर्ष कलाकारों के साक्षात्कारों में सिनेमा और समाज के अनेक पहलुओं को उठाया है । सवाल जिस जिज्ञासा और उत्कंठा से पूछे गए हैं, उन्हें जवाब भी उसी भाव में मिले हैं, जिसके चलते संग्रह में साक्षात्कारों के बहाने कुछ ठोस सवाल आए हैं, बहसें आई हैं और कुछ अनछुए पहलू भी । लेखक की बेबाक और उत्तेजक बातचीत शैली के बहाने सिनेमा का जीवन–दर्शन सिनेमा की रील की तरह पाठकों के सामने खुलता चला जाता है । यह संग्रह सिनेमा पर एक जरूरी संवाद और दस्तावेज की शक्ल में आकार लेता नजर आता है । इसकी तासीर ने संग्रह को पठनीय ही नहीं, संग्रहणीय भी बना दिया है।”
आपको फ़िल्मी जगत में थोड़ी दिलचस्पी तो जरूर होगी..होगी ही..आपकी दिलचस्पी थोड़ी हो या ज्यादा यह किताब आपके काम की है. जरूर ऑर्डर करें.
संजोने और पढ़ाने लायक हार्डकवर में इसकी कीमत 400 रुपए है.