केशव भट्ट
बागेश्वर जिले में शहर से डोबा-धारी-गिरेछिना से सोमेश्वर को एक पतली सी सड़क बनने से अब ज्यादातर लोग इसी मार्ग से आ-जा रहे हैं. हांलाकि बरसातों में सड़क बंद होने के अंदेशे से इस मार्ग में आने-जाने का क्रम थोड़ा कम हो जाता है. यह मार्ग गरूड़-कौसानी से 17 किलोमीटर कम है. सोमेश्वर से गिरेछिना से तो बहुत पहले सड़क बन गई थी, लेकिन यहां से गिरेछिना तक का मोटर मार्ग को बनने में कई साल लग गए. जब बागेश्वर की ओर से मोटर मार्ग नहीं बना था तो डोबा-धारी से जुड़े दर्जनों गांव के जीवट लोगों का बागेश्वर की बाजार में पैदल ही आना-जाना होता था. ये गांव किसी जमाने में काफी संपन्न और समृद्व थे. आवाजाही की परेशानी के चलते धीरे-धीरे संपन्न लोगों ने बागेश्वर के आसपास ही बसना शुरू कर दिया. अब तो गांवों में ज्यादातर, मजबूर लोग ही जीवन यापन के लिए संघर्ष करने में लगे हैं. ज्यादातर घरों में ताले लटके हैं. पलायन कर चुके लोगों के अपने-अपने तर्क हैं. ‘बंदर और जंगली जानवरों ने सब चौपट कर दिया है.. खाली मेहनत करनी हुवी.. बच्चों की पढ़ाई के लिए कुछ सुविधा हुवी नहीं.. अब पहले ही सड़क आ जाती तो क्या पता गांव में ही रूक जाते.. कितने आंदोलन किए.. क्या मिला.. बस वैसे ही हाल हैं अभी भी.. वो आंदोलनकारी बिशनदा भी चले गए अब तो.. पूरी जिंदगी बर्बाद कर दी उन्होंने अपनी कि गांव में खुशहाली आए करके.. लेकिन क्या मिला उन्हें.. बेचारे! बीमार हुए तो आयुष्मान कार्ड भी उनके काम नहीं आया.. अरे! सभी तो चाहते थे कि ये सिरदर्द बचे ही नहीं.. क्या नेता.. क्या प्रशासन.. सच्चे लोगों की तो कोई कद्र जो क्या है आज के वक्त में.. हर कोई उन्हें कश्मीर का आतंकवादी जैसा देखता था.. कागजों में हर गांव में विकास हो जाने वाला ठैरा.. और गांवों के विकास के लिए आए पैंसे सभी डकार लेने वाले हुए.. क्या नेता क्या अधिकारी.. सभी एक जैसे ठैरे!’
ग्रामीणों की बातें उनके भोगे रहे दर्द को बयां करती महसूस हुवी. करीबन दसेक साल पहले एक दिन एक युवा बुजुर्ग से मुलाकात हुवी. उम्र करीबन साठ साल लेकिन शरीर में गजब की फुर्ती. दुबली-पतली सी काया लिए वो वक्त के थपेड़ों में झुलसे काफी सख्त जान लिए महसूस हुए. बातचीत से पता चला कि वो डोबा-धारी के बिशन सिंह टंगड़ियाजी हैं. अपने गांव समेत आस—पास के गांवों की बुनियादी जरूरतों के लिए बकायदा उन्होंने ‘गांव-गरीब-महिला उत्थान मंच’ भी बनाया है. एक कपड़े का बैनर बना उसे वो विभागों के बरामदे में टांग देते हैं और अपनी मांगों के लिए सत्याग्रह रूपी धरना भी देते रहते हैं. कुछ दिनों बाद विभाग उन्हें कुछ आश्वासनों का पुलिंदा पकड़ा, समझा बुझाकर सत्याग्रह से मुक्त करा अपना भी मुक्त हो लेते हैं. कुछ दिनों बाद बिशनदा फिर किसी दूसरे विभाग के बरामदें में सत्याग्रह करने बैठ जाने वाले हुए. और यह सिलसिला उनकी बीमारी तक चलते रहा. और अब बिशनदा भी सिस्टम के घोर अंधेरे में विलीन हो दुनियां छोड़ के जा चुके हैं. अब बस उनकी यादें ही शेष हैं.
बिशनदा से जब मुलाकात हुवी तो कुछ दिनों बाद एक दिन अचानक ही वो एक कट्टे में खूब सारी गडेरियां लेकर मेरे पास आ गए. उन्होंने बताया कि ये सब मेरे लिए हैं. मैंने कीमत पूछी तो मुस्कुराते हुए वो बोले, ‘अरे! साहब ये घर ही ठैरा.. क्या कीमत होती है.. कुछ नहीं है.. आपके लिए लाया हूं.. सभी के लिए लाता रहता हूं गांव में जो भी हुवा.. किसान भी ठैरा.. बस आप हमारे गांव की समस्याओं के बारे में लिख दो.. गांव में सब ठीक हो जाएगा तो पलायन भी कम होगा.. सब भाग रहे हैं गांव से..’
मैंरे गडेरी बिन कीमत के न रखने की बात पर बमुश्किल उन्होंने आधी ही कीमत मुझसे कबूली. इस उम्र में उनकी जिजीविषा को देख मैंने उन्हें अपनी सारी बातें ‘नैनीताल समाचार’ को लिख भेजने को कहा. अब उन्हें आंदोलनों से जब फुर्सत नहीं मिल पाती थी तो वो लिखते कब..?
बहरहाल! उन्होंने नैनीताल समाचार की वार्षिक सदस्यता ले ली और एक दिन लेटी गांव के अपने मित्र धन सिंह दयाराकोटी को अपने सांथ लाए और उन्हें भी नैनीताल समाचार की सदस्यता दिला दी. उनकी बात जब नैनीताल समाचार में जून 2010 के अंक में छपी तो वो काफी उत्साहित हो उठे. समाचार पत्रों का सहारा मिलने पर उनके आंदोलन की धार भी तीखी हो जाती थी. उन्हें विश्वास था कि जब समाचार पत्रों ने भारत को आजादी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी तो उनके गांव की समस्याओं का भी एक दिन जरूर हल मिलेगा और वो सभी भी गांव में आंनद से रह सकेंगे. अब मैं बिशनदा को कैसे समझाता कि आज के युग में ज्यादातर की कीमत तय हो जाती है, आप बहुत भोले हो.
लेकिन उनसे ये कभी कह नहीं पाया. डर लगा कि कहीं सत्याग्रह के प्रति उनका आत्मविश्वास डगमगा न जाए.
बिशनदा को हर कोई बिशनदा ही कहता था. इसके पीछे उनकी आत्मीयता और जीवटपना भी था. एक बार उनसे बातचीत में पता चला कि, चिपको आन्दोलन में डोबा के लेटी गाँव के जंगल में बालम सिंह जनौटी के नेतृत्व में सबने तब के ठेकेदार प्रीतम सिंह व उसके कामगारों को जंगल से भगा दिया था. बिशनदा कहते थे कि, गांव में कई तरह की परेशानियां हुवी जो कि सरकारी अधिकारी हो या नेता या फिर विधायक, समझने के बाद भी कुछ करने वाले हुए नहीं. गांव की जनसंख्या कम होते जा रही ठैरी तो मंत्री-विधायकों को उनसे वोट का ज्यादा फायदा नहीं मिलने वाला हुवा तो वो भी इस तरह के गांवों की ओर पीठ फेर लेने वाले हुए.
बिशनदा ने अगस्त 2006 को ‘गाँव गरीब महिला उत्थान मंच’ के नाम मंच बनाया और फिर सत्याग्रह का रास्ता अपना आर-पार की लड़ाई करने का मन बना लिया. शुरूआत में उनका घर से भी विरोध हुवा तो उन्होंने उन्हें समझाया तो वो राजी हो गए. उनकी इस लड़ाई में उनकी पत्नी कमला टंगड़िया ने भी कई बार उनका बखूबी सांथ निभाया.
एक बार बिशनदा ने अपने पिटारे से हुड़का निकाला और स्वरचित बोल में.. कोई नहीं इस जहां में गरीब की सुनने वाला रे… सुनाया तो मैं उनकी इस अनजानी प्रतिभा को देखता ही रह गया. उन्होंने झोले से कई कागज निकाल दिखाने शुरू किए तो उनमें अल्मोड़ा आकाशवाणी समेत तमाम पत्र दिखे. पता चला कि वो आकाशवाणी समेत दूरदर्शन में अपने कई प्रोग्राम कर चुके हैं.
स्वतंत्र भारत में वो ताउम्र जनता के अधिकारों की लड़ाई लड़ते रहे और अंतत: उनके शरीर ने उनके अनगिनत आमरण अनशनों और धरनों की वजह से उनका सांथ छोड़ दिया.
सलाम ! बिशनदा आपको और आपकी जीवटता को. उम्मीद है कि आपकी तरह इस तरह की लड़ाई लड़ रहे इंसानों को उनके हक-हकूक और जीने का अधिकार इस स्वतंत्र भारत में सही ढंग से मिले और हर इंसान को अपनी स्वतंत्रता और दो वक्त की रोटी मिलने का सुखमय आभास हो..