यह आलेख वर्ष 2017 में तब प्रकाशित हुआ था जब नैनी झील का स्तर सबसे नीचे पहुँच गया था। इस बार भी हालात कुछ उसी तरह का संकेत दे रहे हैं। अतः इसे पुनः प्रकाशित किया जा रहा है।
-सम्पादक
राजीव लोचन साह/विनोद पांडे
नैनीताल के बारे में चिंता तभी जताई जाती है जब कोई बड़ी घटना घटती है। ये कारण कभी भूस्खलन होते हैं तो कभी तालाब का गिरता स्तर। इस साल क्यांकि तालाब का जलस्तर अभूतपूर्व रूप से गिर चुका है तो इस बारे में खोखली बयानबाजी से लेकर वास्तविक चिंताओं और राष्ट्रीय मीडिया में बड़ी-बड़ी रपटों तक सब कुछ हो रहा है। जिन लोगों को नैनीताल के साथ-साथ अपना भविष्य भी अंधकारमय लगता है, वे चिन्तित हो कर पूछते हैं कि झील की इस बदहाली का कारण आखिर क्या है ? क्या अब ताल धीरे-धीरे सूख जायेगा ? क्या नैनीताल खत्म हो जायेगा ? जो पर्यावरणविद् या तथाकथित विशेषज्ञ हैं उनके पास उत्तर तैयार रहता है- सूखाताल को ठीक कर दो, बाकी सब ठीक हो जायेगा। या ऐसा ही कोई सीधा, रेडीमेड सा उत्तर।
क्या वाकई इतनी ही आसानी से सुलझ सकती है नैनीताल की बदहाली की समस्या ?
नैनीताल को लेकर इन दिनों सर्वत्र व्याप्त चिन्ता को देखते हुए उत्तराखंड सरकार ने पिछले महीने झील के रखरखाव की जिम्मेदारी सिंचाई विभाग को दे दी। इसके बाद तमाम अखबारों में और तथाकथित पर्यावरणविदों में इस बात की होड़ लग गई कि कौन सरकार के इस फैसले का श्रेय ले ले। दैनिक अखबार आगे बढ़-बढ़ कर यह दावा करने लगे कि मुख्यमंत्री ने उनके द्वारा प्रकाशित समाचार का संज्ञान लिया है और पर्यावरणविद् कहने लगे कि नहीं यह उनके द्वारा निरन्तर किये गये प्रयासों का प्रतिफल है। इस बीच नैनीताल के हालात से चिन्तित कुछ लोगों, जिनमें नैनीताल के स्थायी निवासी कम और नैनीताल में पढ़ाई कर अब बाहर बस चुके लोग ज्यादा थे, ने 3 जून की शाम नैनीताल की मालरोड पर एक ‘बेयरफूट वॉक’ (नंगे पाँव चलना) किया। इसके बाद मुख्यमंत्री ने झील के रखरखाव के लिये तीन करोड़ रुपये देने की भी घोषणा कर दी।
नैनीताल की झील को उपहार में पाकर सिंचाई विभाग गद्गद् हो गया होगा, परन्तु नैनीताल का आम आदमी सशंकित है। इसकी जड़ में यही तथ्य है कि सरकारों और व्यवस्था से उसका विश्वास उठ चुका है। लोग देख रहे हैं कि जब भी इस तरह की आपदाएँ आती हैं तो सरकारी विभाग उसका फायदा उठा कर कमीशनखोरी के लिए निरर्थक काम करवा देते हैं। नैनीताल को लेकर भी पिछले दो-तीन दशकों में अनेक बार ऐसा हो चुका है। इससे जमीन पर समस्या सुलझने के बदले और बिगड़ जाती है।
किसी समस्या के समाधान के लिये मर्ज को ठीक से समझना जरूरी है। यह समझ सरकार में नहीं हो सकती। यह काम हमारे पर्यावरणविदों, जो स्वयं को आंदोलनकारी भी मानते हैं, को करना चाहिये। परन्तु ये लोग अपनी इस जिम्मेदारी पर खरे नहीं उतरे हैं, क्योंकि वे हकीकत से आँखें मूँद कर सिर्फ बयानबाजी करते रहे हैं। उन्होंने अब तक जो कुछ कहा या किया है, उससे केवल भ्रम पैदा हुए हैं। इन्हीं भ्रमों के साथ हम नैनीताल की समस्याओं को सुलझाने चले हैं। आइये, देखें ये भ्रम क्या-क्या हैं।
पहला भ्रम- तालाब महज एक जलाशय है।
तालाब किसी टैंक या बाँध की तरह महज एक जलाशय या पानी का एक भंडार नहीं है। यह एक सम्पूर्ण जीवित पारिस्थितिकीय तंत्र है। टैंक या बाँध कृत्रिम बनावटें होती हैं, इसलिए इनकी अपनी कोई पारिस्थितिकी नहीं होती। ये प्राकृतिक रूप से स्वयं को साफ नहीं कर सकते। इनके विपरीत झीलों का एक पारिस्थितिकीय तंत्र होता है। उनके भीतर व बाहर कई तरह के जीव होते हैं, जो निश्चित अंतर्संबधां से जुड़े रहते हैं और एक दूसरे के अस्तित्व के लिए काम करते हैं। इस पारिस्थितिकीय तंत्र में जितना अधिक मानवीय हस्तक्षेप होता है, उतना ही यह तंत्र गड़बड़ाता जाता है। हमें बहुत ईमानदारी से यह मानना चाहिये कि हमारा तालाब बहुत बीमार है। उसका पानी ऊपर से यदि साफ दिख रहा है तो ऐसा इसलिये क्योंकि हमने कृत्रिम रूप से ऐसा किया है। एरिएशन, यानी उसके भीतर बाहर से ऑक्सीजन का प्रवाह कर हम उसे साफ दिखा रहे हैं। यह कुछ इस तरह है, जैसे हमने मौत के जबड़े में फँसे किसी रोगी व्यक्ति को वेंटिलेटर पर रख कर उसे जबरन जीवित माना हुआ है। तालाब को इस लायक होना चाहिये कि वह स्वयं अपने को साफ रख सके। वर्तमान परिस्थितियों में हम तालाब के आसपास मानवीय हस्तक्षेप को पूरी तरह समाप्त तो नहीं कर सकते, किन्तु नैनीताल को बचाने के लिये हमें इसे न्यूनतम स्तर तक तो लाना ही होगा।
दूसरा भ्रम- सूखाताल नैनीताल का एकमेव जलागम है।
आजकल हर व्यक्ति कहने लगा है कि सूखाताल नैनीताल का जलागम क्षेत्र है और सूखाताल को ठीक कर दो तो नैनीताल खुद-ब-खुद ठीक हो जायेगा। ताल पानी से लबालब हो जायेगा। यह सच है कि सूखाताल नैनी झील का एक प्रमुख जलागम है और उसे अतिक्रमण से मुक्त करने से नैनीताल को लाभ ही होगा। मगर पूरे विश्वास के साथ तो यह भी नहीं कहा जा सकता कि सूखाताल का समस्त पानी नैनी झील में ही आता होगा। उस क्षेत्र के भूगोल को देखा जाये तो यह भी सम्भव लगता है कि उसका पानी रिस कर सड़ियाताल या खुर्पाताल में भी पहुँचता हो। अन्ततः तमाम विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों के बावजूद हमारी वैज्ञानिक जानकारियाँ तो शून्य हैं। हमने ‘आइसोटोप’ आदि का सहारा लेकर ऐसी जानकारियाँ ही नहीं प्राप्त की हैं कि भूमि के गर्भ में पानी का प्रवाह किस जगह से कहाँ को हो रहा है। नैनीताल के ऊपरी इलाकों में टहलें तो ऐसे कई गहरे स्थान मिल जाते हैं, जो बारिश में पानी के बड़े-बड़े चहबच्चों में बदल जाते हैं। यह पानी रिस-रिस कर तालाब में ही पहुँचता होगा। कुछ दशक पहले तक ऐसे चहबच्चों की संख्या बेहिसाब थी, विशेषकर अयारपाटा क्षेत्र में। मगर अब उन पर मकान बन गये हैं या उन पर सीमेंट कर उन्हें कार पार्किंग बना दिया गया है। वैध-अवैध की विडम्बना देखिये कि नैनीताल की महायोजना बनाते वक्त झील विकास प्राधिकरण ने हरीतिमायुक्त, पानी की दृष्टि से बेहद सम्पन्न इस सम्पूर्ण अयारपाटा क्षेत्र को तो निर्माण कार्य के लिये सुरक्षित घोषित कर दिया और अपेक्षाकृत रूखे शेर का डाँडा को ‘ग्रीन बेल्ट’ बना दिया। हो सकता है कि महायोजना बनते वक्त अयारपाटा क्षेत्र के भूस्वामी राजनैतिक दृष्टि से ज्यादा शक्तिशाली हों और अपनी जमीनें बेचने के लिये अधिक उत्कंठित रहे हों।
तीसरा भ्रम- नैनीताल के जंगल बहुत अच्छी स्थिति में हैं।
नैनीताल को बचाने की बात जब भी होती है तो उसमें नैनीताल के वन क्षेत्र का जिक्र नहीं होता। नैनीताल के वनों को लेकर होने वाली बहसों या जनहित याचिकाओं में शायद ही कभी इस बात की चर्चा की गई हो। नैनीताल के वनों के बारे में गलतफहमी है कि वे बहुत घने हैं। पर सच्चाई यह है कि वे बुरी तरह अवनत हो गये हैं। यहाँ की कई मूल प्रजातियाँ या तो लुप्त हो गयी हैं या लुप्त होने की कगार पर हैं, क्योंकि उनका पुनर्जनन नहीं हो पा रहा है। इससे इन वनों ने अपना मूल स्वभाव खो दिया है। पहले वे जिस तरह से जल संरक्षण करते थे और पूरे साल भर जल स्रोतों को जीवित रखते थे, उनकी वह क्षमता अब नष्टप्राय है। इन वनों के गहन अध्ययन की आवश्यकता है। इसके बगैर इन वनों को स्वस्थ बनाने के लिये कोई कारगर कदम नहीं उठाये जा सकते और वनों के स्वस्थ रहे बगैर झील के स्वास्थ्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पहले ये वन नगरपालिका के पास थे। वन विभाग को दिये जाने के बाद इनका तेजी से विनाश हुआ, क्योंकि वन विभाग आज विशेषज्ञता विहीन व सबसे भ्रष्ट विभाग है। हमें इन जंगलों को पुनर्जीवित करने के लिये ईमानदार और विशेषज्ञ लोग चाहिये।
चौथा भ्रम- नालों का रखरखाव संतोषजनक ढंग से हो रहा है।
1880 के भू-स्खलन के बाद नैनीताल को बचाये रखने के लिये अंग्रेजों ने तीनों ओर की पहाड़ियों पर नालों का जो संजाल निर्मित किया, उसने अब तक इस शहर को निरापद रखा है। मगर अब लोक निर्माण विभाग ने इन नालों के रखरखाव को एक बहुत बड़े भ्रष्टाचार में तब्दील कर दिया है। इनके रखरखाव के नाम पर प्राप्त होने वाली धनराशि खा-पीकर बर्बाद कर दी जाती है। इनकी सामान्य सफाई तक लोक निर्माण विभाग नहीं करता। वैज्ञानिक दृष्टि से बनाये गये कैचमेंट लापता हो गये हैं। ब्रिटिश काल में बने ये नाले अपने मूल रूप में जमीन की सतह से थोड़ा नीचे धँसे होते थे, ताकि पहाड़ के ढलान का पूरा पानी इनमें समाहित हो जाये और उस जमीन को न काटे, जहाँ पर से वह गुजर रहा है। अपनी बनावट में ये ऊपरी हिस्सों में कम चौड़े और कम गहरे होते थे और नीचे आते-आते पानी की अपेक्षित मात्रा के अनुरूप इनकी चौड़ाई और गहराई बढ़ती रहती थी। ब्रिटिश काल के नालों के अवशेष जहाँ कहीं हैं, वहाँ यह देखा जा सकता है। आज बजट खपाने की दृष्टि से इनमें से अधिकांश नाले ‘नहर’ जैसे बना दिये गये हैं। उनके किनारे अपनी बगल की जमीन से ऊपर उठे हुए हैं, जिस कारण उनके बगल से गुजरने वाला पानी उन नालों में नहीं जाता, बल्कि आसपास की जमीन को काटता चलता है। इस तरह बने इन नालों से वह मूल मकसद ही खत्म हो गया है, जिसके लिये अंग्रेजों ने ये नाले बनाये थे। नालों के कैच पिटों की सफाई, वर्षा जल के प्रवाह की गति को कम करने जैसे प्रयास अब गायब हैं। अभियांत्रिकी का अर्थ है कि कार्य को हमारी आवश्यकताओं को कम व्यय में टिकाऊ रूप में किया जाये। नैनीताल के नालों में ऐसा कतई नहीं मिलेगा। ये नाले तालाब में गंदगी जरूर पहुँचा रहे हैं, पर वर्षा जल का समुचित नियंत्रण नहीं कर पा रहे हैं।
पाँचवाँ भ्रम- पैदल मार्गों को सी.सी. कर देने से सुविधा बढ़ी है।
नैनीताल के विकास के नाम पर नगर की लगभग सभी सड़कों को कंक्रीट-सीमेंट, यानी सी.सी. में बदल दिया गया है। किसी समय ये पैदल मार्ग मिट्टी के थे जिनमें बजरी बिछी होती थी। मिट्टी की इन सड़कों द्वारा अवशोषित जल अन्ततः तालाब में पहुँचता था। इन ‘घोड़िया सड़कों’ की विशेषता यह थी कि इनकी ढलान पहाड़ की ओर होती थी और थोड़ी-थोड़ी दूरी पर इनमें पनकट्टे यानी पानी के बहाव को रोकने के लिए आड़े पत्थर लगे रहते थे। बरसात होने पर पानी सड़क पर नहीं बहता था, बल्कि इन पनकट्टों के सहारे समीप की नाली में चला जाता था, उसके बाद बड़े नाले में और अन्ततः तालाब में। पिछले कुछ दशकों में नैनीताल में संरक्षण के नाम पर आये बजट का सबसे बड़ा हिस्सा मिट्टी के इन पैदल रास्तों को सीसी में बदलने में ही खर्च हुआ। ये सीसी सड़कें घटिया अभियांत्रिकी का अद्भुत उदाहरण हैं। इनमें अब ढाल पहाड़ी से लगी नालियों की ओर नहीं है। मामूली बरसात में भी इन सड़कों पर बहने वाले पानी से इन पर पैदल चलना कठिन हो जाता है। तेज बारिश में तो ये सड़कें ऐसे खतरनाक पहाड़ी दरिया जैसे हो जाते हैं, जो अपने रास्ते में आने वाले हर अवरोध को मिटा देता है। यह पानी फिर निचले इलाकों में मकानों-दुकानों में घुस कर तबाही मचाता है। 5 जुलाय 2015 को जिला परिषद् के पास हुआ भयंकर भूस्खलन इसी तरह पैदा हुआ था। तेज वर्षा का पानी नाले में जाने की बजाय सड़क पर से बहा। जिस जगह उसे ढाल मिली, वहाँ पर उसका बहाव इतना तेज था कि उसने जमीन को काट कर भूस्खलन कर दिया। अनेक प्रत्यक्षदर्शियों ने यह विभीषिका देखी थी। हमें इस भ्रम में नहीं रहना चाहिये कि ये सी.सी. सड़कें विकास की परिचायक हैं। इसके उलट ये नैनीताल के लिए नुकसानदायक हैं।
छठा भ्रम- नैनीताल एक साफ-सुथरा शहर है।
नैनीताल की मालरोड पर टहलते हुए अक्सर यह लगता है कि यह एक साफ-सुथरा शहर है। अन्य नगरों की तुलना में ऐसा लगना स्वाभाविक है। मगर वास्तव में इस शहर में कूड़ा निस्तारण की कोई व्यवस्था है ही नहीं। नगरपालिका ने कुछ जगहों पर कूड़ादान जरूर रख दिये हैं, पर उन्हें समय पर न उठाने के कारण वे बदबू फैलाने और कुत्ते व बंदरों के अड्डे बन गये हैं। उनके आसपास से गुजरने पर दहशत होती है। कूड़े का जैविक और अजैविक विभाजन तो होता ही नहीं। जबकि इसके लिए कानून बने हैं और ऐसा न करना कानूनन अपराध है। मगर नगरपालिका अकर्मण्यता की प्रतीक बन चुकी है और उसे ऐसा बनाने के लिए हम भी बराबर के दोषी हैं। हम नगरपालिका को गंभीरता से नहीं लेते हैं। 74वें संविधान संशोधन कानून के अनुसार नगरपालिका एक स्थानीय सरकार है और अपने नगर के मामले में वह कलक्टर तो क्या मुख्यमंत्री से भी अधिक ताकतवर है। परन्तु न हम लोग नगरपालिका के चुनावों गंभीरता से लेते हैं कि प्रबुद्ध और योग्य लोगों को नगरपालिका के लिये चुनें और न ही हमारी सरकारें नगरपालिकाओं को उनके संविधानप्रदत्त अधिकार दे रही हैं। हमें इस सच्चाई को समझना चाहिये कि हमें एक सर्वशक्तिसम्पन्न और सुयोग्य नगरपालिका नहीं मिली तो हम नैनीताल को नहीं बचा पायेंगे।
सातवाँ भ्रम- यातायात व्यवस्था से नैनीताल का कुछ अहित नहीं है।
नैनीताल नगर में बढ़ते यातायात, विशेषकर छोटी गाड़ियों की लगातार बढ़ती संख्या से लोग थोड़ा परेशान तो हैं, परन्तु इसे नैनीताल के अस्तित्व के लिये खतरा नहीं मानते। जबकि सही मायनों में अनियंत्रित यातायात नैनीताल के लिये भारी-भरकम भवनों से भी ज्यादा खतरनाक है। हमने कमजोर पहाड़ियों पर लगातार भागती गाड़ियों से उत्पन्न कम्पन के दुष्प्रभाव का वैज्ञानिक अध्ययन ही नहीं किया है। सरकार- प्रशासन यातायात को सुचारु करने के लिए किसी भी सीमा तक जाने को तैयार रहता है, चाहे उससे पैदल चलने वालों की जान पर बन आये या दीर्घकालीन रूप में नैनीताल नगर के अस्तित्व पर ही खतरा खड़ा हो जाये। जनता के उपयोग के सार्वजनिक स्थलों को बेहिचक पार्किंग में बदल दिया जाता है। नगर में वाहन वाले बहुसंख्यक और पैदल चलने वाले अल्पसंख्यक होते जा रहे हैं। इतने खराब हालात हैं कि यह विश्वास करना ही कठिन लगता है कि नैनीताल में एक ठंडी सड़क है, जो यातायात से पूरी तरह बची है! आखिर प्रशासन की यह धारणा क्यों बनी है कि नैनीताल में पैदल चलने वालों के कोई अधिकार ही नहीं है और वाहनों को किसी भी कीमत पर सुविधाएँ दी जानी चाहिये ? जब सारी पार्किंगें फुल हो जाती हैं और माल रोड तथा सभी छोटी-बड़ी सड़कें कारों से अँट जाने के कारण पैदल चलने के लिये अनुपयुक्त हो जाती हैं, तो पुलिस वाले कहते दिखाई देते हैं कि पार्किंग तो कहीं है ही नहीं। कहाँ जायें ‘बेचारे’! हमारे योजनाकार, सरकार और प्रशासन इस भ्रम को तोड़ें कि शहर के भीतर पार्किंग विकसित होने से पार्किंग की समस्या से निजात मिलेगी। सच यह है कि जितने अधिक पार्किंग स्थल आप विकसित करेंगे, उतनी ही अधिक गाड़ियों को आप नगर में आमंत्रित करेंगे और उसी क्रम में नैनीताल की बदहाली बढ़ती चली जायेगी। जरूरत है कि महाराष्ट्र के हिल स्टेशन ‘माथेरान’ की तरह नगर में वाहनों को लाना प्रतिबंधित किया जाये।
यह भी एक भ्रम है कि गाड़ियों की बढ़ती संख्या से तालाब को नुकसान नहीं पहुँचता। ऊपर यह बताया गया कि नैनीताल के जंगल बर्बाद हो रहे हैं, जिनसे उनकी जल धारण क्षमता प्रभवित हो रही है और उनसे तालाब को पानी नहीं मिल पा रहा है। दरअसल ऊँची पहाड़ियों पर स्थित इन जंगलों की बर्बादी का असली कारण वह प्रदूषण है, जो हर जगह पहुँच गई गाड़ियों से उन जंगलों में फैल रहा है। तमाम अन्य कारणों की तरह इस प्रदूषण के बारे में कोई वैज्ञानिक अध्ययन नहीं किया गया है।
आठवाँ भ्रम- पर्यटन नैनीताल की जीवन रेखा है।
बेशुमार पर्यटकों के आ जाने पर दैनिक अखबार लिखते हैं, ‘‘पर्यटक नगरी गुलजार हुई।’’ चारां ओर कूड़ा पट जाता है, टै्रफिक इतना हो जाता है कि पैदल चलना दूभर हो जाता है। कई स्थानीय बुजुर्ग हफ्तों-हफ्तों तक घरों से बाहर नहीं निकलते। ये गुलजार होना है या बर्बाद होना ? पत्रकार अपने निहित स्वार्थोंर्ं के कारण ऐसा लिखते होंगे। पर यह पूरी सच्चाई नहीं है। पर्यटन निश्चित रूप से नैनीताल की आमदनी का एक बड़ा आधार है, परन्तु यह सम्पूर्ण आधार नहीं है। पर्यटन की आमदनी कुछ ही लोगों तक सीमित रहती है। इसका सबसे बड़ा हिस्सा होटल मालिकों के पास जाता है और इसीलिये आज नगर में वैध होटलों से ज्यादा अवैध होटल हैं। अन्य कुछ छोटे-छोटे समूह हैं, जिनके हिस्से में उनके काम के अनुपात में थोड़ा-थोड़ा पैसा आ जाता है। पर कटु सत्य यह है कि पर्यटन व्यवसायी आज शहर के सबसे बड़े प्रेशर ग्रुप के रूप में हैं। वे वह सब करवा सकते हैं, जो उनके हित में है और वह सब रुकवा सकते हैं जो उनके व्यावसायिक स्वार्थों के विपरीत जाता है। उन्होंने यह भ्रम तो पैदा कर दिया है कि यदि नैनीताल में पर्यटन नहीं होगा तो नैनीताल की अर्थव्यवस्था चौपट हो जायेगी, मगर वह पर्यटन किस तरह से पर्यावरणसम्मत हो, इस पर विचार- विमर्श करने में उनकी कोई रुचि नहीं है। क्या हम पर्यटन को नियंत्रित नहीं कर सकते ? क्या हम ऐसी कोशिश नहीं कर सकते कि सिर्फ संवेदनशील पर्यटक ही नैनीताल आयें ? क्या पर्यटन का कोई ऐसा मॉडल नहीं हो सकता, जो रोजगार भी दे, मगर यहाँ की शान्ति और प्राकृतिक सुषमा को नष्ट न करे ? ऐसे मुद्दों पर कोई बातचीत ही नहीं करता। नैनीताल को पर्यटन नगरी के भ्रम से अलग कर एक संवेदनशील पर्यावरण तंत्र के रूप में मानना चाहिये, तभी यह शहर और यह झील बच पायेगी।
नवाँ भ्रम- ‘अतिथि देवो भव’….अतिथि देवता होते हैं।
हमारे यहाँ पर्यटक को अतिथि कहा जाने लगा है। परन्तु आपके घर आया जो अतिथि आपके घर के नियम-परम्पराओं को न माने, आपके परिवारजनों से अशोभनीय व्यवहार करे उसे आप क्या कहेंगे ? ऐसा ही पर्यटकों के साथ भी है। यदि वे यहाँ आकर प्रदूषण करें, इस नगर की संवेदनाओं को न समझ कर महज एक ऐशगाह समझें कर आयें, क्या उन्हें भी आप ‘देवता’ ही कहेंगे ? नैनीताल में रहन-सहन, खान-पान, आचार-व्यवहार की कुछ परम्परायें थीं, जो वक्त बहुत बदल जाने के बाद भी आज तक नैनीताल के लोगों की स्मृति में हैं। नई पीढ़ी ने भी उसमें से बहुत कुछ सीखा ही है। नैनीताल के किसी भी स्थायी निवासी को आप नगर के भीतर खुले में मल-मूत्र विसर्जन करते नहीं देख सकते, न ही सामान्यतः अनावश्यक शोरगुल करते। नैनीताल में सीजन आते ही यह सब बदल जाता है। पर्यटन के नाम पर यह सब जोर-जबर्दस्ती बर्दाश्त कर ली जाती है। पर्यटक से यह अपेक्षा नहीं की जाती कि वह नैनीताल की परम्पराओं का सम्मान करे, उसके हिसाब से अपने को बदले। यह दृष्टिकोण बदलना होगा।
दसवाँ भ्रम- हाईकोर्ट शहर को ठीक कर देगा।
ऐसा भ्रम भी कई लोगों को होगा। मगर जिस हाईकोर्ट ने भूमि-भवन अधिग्रहीत करने के मामले में और भारी-भरकम निर्माण कार्य करने के मामले में स्वयं किसी बड़े व्यवसायी जैसी भूमिका अदा की हो, वह नैनीताल की समस्याओं को कैसे सुलझा सकता है ? निसंदेह हाईकोर्ट ने नैनीताल को व्यवस्थित करने के लिये कई बार बहुत महत्वपूर्ण आदेश दिये हैं। यह भी सच है कि सरकार-प्रशासन नैनीताल को लेकर बेहद संवेदनहीन हैं और तभी हरकत में आते हैं, जब उन्हें न्यायालय से लताड़ पड़ती है। परन्तु न्यायपालिका के पास कार्यकारी शक्तियाँ नहीं होतीं। वह केवल आदेश दे सकता है। उनका सही या गलत रूप में क्रियान्वयन तो सरकारी विभागों को ही करना पड़ता है। सरकार व प्रशासन विभाग इन आदेशों को ठंडे बस्ते में डाल देने के तरीके भली भाँति जानते हैं। एक उदाहरण लीजिये। न्यायालय ने नैनीताल को ईको सेंसिटिव जोन घोषित करने के आदेश दे दिये हैं। पर इसके अनुपालन में सरकार ने कुछ किया अभी तक ? न्यायालय ने तो प्रदेश की झीलों को ‘एक व्यक्ति’ का दर्जा दे दिया है, पर सरकार ने इस ‘झील रूपी व्यक्ति’ के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए कुछ किया ? अलबत्ता सर्वोच्च न्यायालय में झीलों के इस दर्जे को समाप्त करने की अपील जरूर लगा दी है। न्यायालय प्रभावी रूप से तभी कुछ कर सकता है, जब सिविल सोसायटी भी उसके साथ सक्रिय हो। वह नैनीताल के संवेदनशील मामलों का लगातार अध्ययन करे और उसके लिए दबाव बनाये। न्यायपालिका आपकी सहायता तभी कर सकती है, जब आप उसके सामने सही और विज्ञानसम्मत तथ्य लायेंगे। हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें और मान लें कि न्यायपालिका सब कुछ ठीक कर देगी, यह बहुत बड़ा भ्रम है।
यह बात भली भाँति समझ लीजिये कि जब तक आप अपने दिमाग में अंधविश्वास की तरह जड़ें जमा चुके इन और इन जैसे अन्य अनेक भ्रमों से मुक्त नहीं होंगे, सम्पूर्ण वैज्ञानिक दृष्टि से नैनीताल के बारे में नहीं सोचेंगे, पूरे तथ्य जुटा कर परस्पर विमर्श नहीं करेंगे और कुछ बहुत कठोर निर्णय लेने और उन्हें ईमानदारी से लागू करने का संकल्प नहीं करेंगे, तब तक नैनीताल की बदहाली का कोई उपचार नहीं हो सकता। मीडिया में शोरगुल होने, कमिश्नर-जिलाधिकारी द्वारा लगातार बैठकें करने, पर्यावरण दिवस के अवसर पर ताल की सफाई, भाषण व पुरस्कार वितरण, नंगे पैर नैनीताल बचाने के लिए मार्च से लेकर मुख्यमंत्री द्वारा तालाब सिंचाई विभाग को सौंप देने जैसे क्रियाकलापों से क्या कोई फर्क पड़ेगा ?
फोटो : गूगल डॉट कॉम से साभार