भारत का किसान आंदोलन आज एक नई करवट ले रहा है। एक तरफ देश में सत्तासीन भाजपा देश को कारपोरेट फासीवादी शासन की दिशा में धकेलने के लिए जोर लगाए है तो दूसरी ओर इन नीतियों से तबाह देश का किसान आंदोलन की नई इबारत लिखने की तैयारी में दिख रहे हैं। देश के 184 किसान संगठनों का एक मंच पर आना और किसान मुक्ति यात्रा से लेकर किसान मुक्ति संसद तक पांच माह चला किसानों का हाल का धारावाहिक राष्ट्रव्यापी आंदोलन यही संदेश दे रहा है।
भारत का किसान आंदोलन आज एक नई करवट ले रहा है। एक तरफ देश में सत्तासीन भाजपा देश को कारपोरेट फासीवादी शासन की दिशा में धकेलने के लिए जोर लगाए है तो दूसरी ओर इन नीतियों से तबाह देश का किसान आंदोलन की नई इबारत लिखने की तैयारी में दिख रहे हैं। देश के 184 किसान संगठनों का एक मंच पर आना और किसान मुक्ति यात्रा से लेकर ‘किसान मुक्ति संसद’ तक पांच माह चला किसानों का हाल का धारावाहिक राष्ट्रव्यापी आंदोलन यही संदेश दे रहा है। यह पहली बार है कि देश के 184 किसान संगठन ‘अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति’ नाम के एक साझे मंच पर एकत्रित हुए हैं। यह भी पहली बार है कि असम से लेकर गुजरात तक और कश्मीर से लेकर तमिलनाडु तक के किसान संगठन इसमें शामिल हुए हैं। किसान संगठनों की इस समन्वय समिति में बड़े फार्मरों और धनी किसानों का प्रतिनिधित्व करने वाले किसान संगठन भी मौजूद हैं और बटाईदार किसानों, गरीब किसानों, खेत मजदूरों और आदिवासियों का नेतृत्व करने वाले किसान संगठन भी मौजूद हैं। इनमें से कई तो अपने कार्यक्षेत्रों में अपनी वर्गीय प्रतिबद्धता के कारण एक दूसरे के खिलाफ मोर्चा लेते रहे हैं। राजनीतिक पृष्ठिभूमि से देखें तो इसमें भाकपा (माले), माकपा, सीपीआई (एमएल) न्यू डेमोक्रेसी सहित कम्युनिस्टों की विभिन्न धाराओं, स्वराज इंडिया, सेतकारी संगठना के लेकर डॉ सुनीलम और प्रतिभा सिंदे जैसी समाजवादियों की विभिन्न धाराओं, कांग्रेस पृष्ठिभूमि से आकर किसान संगठन चलाने वाले सरदार वीएम सिंह, आरएसएस पृष्ठिभूमि से निकल कर किसान संगठन चलाने वाले अय्याकन्नू और रामपाल जाट जैसे लोग और संगठन मौजूद हैं।
इतने बड़े पैमाने पर किसान संगठनों का एक मंच पर आना कोई संयोग या किसी की सदईच्छा का नतीजा नहीं है। बल्कि देश में व्याप्त सर्वयापी कघ्षि संकट और उसके कारण बदलते कृषि परिदृश्य ने इसकी भूमिका तैयार कर दी थी। यह कृषि संकट अब तक के कृषि संकटों से कहीं गहरा और कहीं ज्यादा व्यापक है। इसने भारत के कृषि परिदृश्य को काफी हद तक बदल दिया है। इस बदलाव ने न सिर्फ देश की खेती किसानी को तबाही के रास्ते पर धकेला है बल्कि खेती पर निर्भर पूरे ग्रामीण समाज को अपनी आगोश में ले लिया है। सरकार की किसान विरोधी नीतियों के कारण आज खेती घाटे का सौदा हो चुकी है। इससे बचने के लिए किसानों के एक बड़े हिस्से ने खेती को बटाई पर देकर अन्य रोजगारों की ओर रुख किया है। ऐसे में कल तक के खेत मजदूरों का एक बड़ा हिस्सा छोटा बटाईदार किसान में तब्दील हो चुका है। अपने खुद के पारिवारिक श्रम को लगाकर खेती करने वाले इस बटाईदार किसान को किसान का दर्जा न मिलने के कारण यह उत्पादन तो करता है पर उसे किसानों को मिलने वाली कोई सरकारी सुविधा नहीं मिलती है।आज घाटे की खेती ने किसानों के इन तमाम तबकों को बैकों, सहकारी समितियों और साहूकारों से लिए गए भारी कर्ज में डुबो दिया है। कर्ज न चुका पाने के कारण पिछले 10 वर्षों में आत्महत्या करने वाले 3.5 लाख किसानों में बड़े फार्मरों से लेकर बटाईदार किसान तक किसानों के सभी हिस्से शामिल है।
देश के कई हिस्सों में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ एक दशक पहले से किसान आंदोलनों का एक दौर हमने देखा। पर पिछले तीन साल से कर्ज माफी और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के अनुरूप फसलों का मुनाफा युक्त दाम की मांग पर किसान आंदोलन का नया दौर पंजाब और महाराष्ट्र के किसानों ने शुरू कर दिया था। इस बीच देश के कई हिस्सों में तीन साल तक पड़े भीषण सूखे और सूखाग्रस्त क्षेत्रों की सरकार द्वारा की गई उपेक्षा ने आग में घी का काम किया और किसान आत्महत्याएं देश के नक्शे में नए क्षेत्रों को भी अपने आगोश में लेने लगी। किसानों की कर्ज माफी और खेती को घाटे से उबारने का सवाल देश व्यापी सवाल बनने लगा। इन सवालों को लेकर किसान नेता अय्याकन्नू के नेतृत्व में दिल्ली के जंतर मंतर पर तमिलनाडू के किसानों के आंदोलन ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा। उनसे मिलने जाने वाले किसान नेताओं के सामने अय्याकन्नू द्वारा देश के किसान संगठनों को एक मंच पर लाने की अपील ने असर किया। सरदार वीएम सिंह, राजू सेट्टी, अय्याकन्नू ने 14 मई 2017 को किसान संगठनों की बैठक बुला कर इसकी पहल की। समय और स्थितियां जैसे इस पहल का इंतजार ही कर रही थी। इस बीच जून की शुरुआत में महाराष्ट्र की किसान हड़ताल से प्रेरित हो मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले के किसानों ने फसलों के सही दाम और कर्ज माफी की मांग पर स्वतरूस्फूर्त हड़ताल शुरू कर दी। इस आंदोलन में 6 जून 2017 को 5 किसानों की पुलिस ने ठंडे दिमाग से गोली मार कर और एक किसान की दो दिन बाद थाने में पीट- पीट कर हत्या कर दी। इस घटना ने तमाम संघर्षरत किसान संगठनों को एक मंच पर लाने में प्रेरक की भूमिका निभाई। एक माह बाद यानी 6 जुलाई को मन्दसौर के शहीद किसानों को श्रद्धांजलि देने और दो निर्विवाद मुद्दों ष्किसानों की कर्जा मुक्तिष् और फसलों की लागत का डेढ़ गुना दामष् की मांग पर मन्दसौर से ष्किसान मुक्ति यात्राष् शुरू करने पर सबकी सहमति बनी। 6 जुलाई 2017 को मन्दसौर से ष्किसान मुक्ति यात्राष् शुरू करने तक देश के 160 किसान संगठन ष्अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समितिष् के साथ जुड़ चुके थे। यात्रा मन्दसौर के बूढा गांव से शुरू हुई और पिपलिया मण्डी पहुंची जहां आंदोलनकारी किसानों की भाजपा की शिवराज पुलिस ने हत्या कर दी थी। भारी पुलिस फोर्स लगाकर शिवराज सरकार ने हजारों किसानों के काफिले को घटनास्थल से पहले ही रोक दिया। अन्ततरू सड़क पर ही शहीदों को श्रद्धांजलि के बाद विरोध सभा शुरू की गई। पुलिस ने लगभग 600 लोगों को गिरफ्तार किया। इस अभियान के मध्य प्रदेश में संयोजक डॉ सुनीलम को सरकार ने पहले दिन ही गिरफ्तार कर जेल भेज दिया था। पर भारी विरोध के बाद अंततः शाम को गिरफ्तार सभी लोगों को छोड़ना पड़ा। मन्दसौर से शुरू यह यात्रा मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, पाश्विमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा के बल्लभगढ़ होते हुए 18 जुलाई को दिल्ली पहुंची। 18 – 19 जुलाई को दिल्ली के जंतर मंतर में दो दिन तक हजारों किसान डटे रहे। इसके बाद यात्रा को हरियाणा, पंजाब, जम्मू कश्मीर, हिमांचल की यात्रा करनी थी जो राम रहीम प्रकरण के बाद उपजे माहौल के कारण स्थगित करनी पड़ी। यात्रा का अगला पड़ाव दक्षिण भारत था जहां आंध्र, तेलंगाना, कर्नाटका, केरला और तमिलनाडु में कई जगह किसान मुक्ति यात्रा के कार्यक्रम हुए।
किसान मुक्ति यात्रा का तीसरा चरण 2 अक्टूबर को चम्पारण से शुरू हुआ जो पश्चिमी चंपारण, पूर्वी चंपारण, गोपालगंज, सीवान होते उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड में पहुंचा। इसका समापन 11 अक्टूबर को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गजरौला में हुआ। चैथा चरण पश्चिम बंगाल के भांगूर से 28 अक्टूबर को शुरू हुआ जो बंगाल के बाद उड़ीसा के भुवनेश्वर होते हुए झारखंड और बिहार में घूमी। इसका समापन मुजफ्फरपुर में शहीद खुदीराम बोस को श्रद्धांजलि के साथ समाप्त हुई। इस यात्रा में 50 से लेकर 25 हजार संख्या तक किसानों की सभाएं हुई। सबसे बड़ी सभा अखिल भारतीय किसान महासभा द्वारा आयोजित पीरो की सभा थी। वहीं आल इंडिया किसान मजदूर सभा द्वारा आयोजित खम्मम रैली और मंगलूरू में कर्नाटका स्टेट रैयत संघम द्वारा भी बड़ी सभाएं आयोजित की गई थी। पूरे बिहार और उत्तर प्रदेश के पीलीभीत में सभाओं, स्वागत कार्यक्रमों के साथ ही मोटर साइकिलों और चार पहिया वाहनों के काफिले भी यात्रा के साथ चले जिसने यात्रा को और प्रभावी और दमदार बना दिया था।
पूर्वोत्तर भारत के राज्यों की यात्रा से पहले समन्वय समिति से जुड़े वहां के प्रमुख किसान नेता अखिल गोगई को सरकार ने एनएसए में गिरफ्तार कर लिया। इसके कारण वहां यात्रा टालनी पड़ी और उसकी जगह 12 नवम्बर को गुवाहाटी में एक विशाल किसान मुक्ति रैली आयोजित की गई । किसान मुक्ति यात्रा के इस पूरे अभियान में लगभग 12 हजार किलोमीटर की यात्रा कर 10 लाख से ज्यादा किसानों से सीधे सम्वाद किया गया। यात्रा देश के 18 राज्यों में गई। हर जगह किसानों ने यात्रा का जोरदार स्वागत किया। इस यात्रा में मैंने महशूश किया कि देश भर में किसान खेती – किसानी की तबाही से भारी गुस्से में है। किसान ही क्या नोटबन्दी और जीएसटी के कारण व्यापारियों- व्यवसायियों की भी कमर टूट चुकी है। हैंडलूम उद्योग तबाह हो गया है। निर्माण क्षेत्र भारी मंदी का शिकार है और बाजार में माग की कमी के कारण उद्योग या तो बंद हो रहे हैं या कम उत्पादन के कारण वहां मजदूरों की भारी छंटनी हो रही है। बेरोजगारी हर तरफ फैल रही है।बेरोजगारों के बड़े हिस्से के वापस गांव लौटने के कारण पहले से घाटा और तबाही की मार झेल रही खेती पर और दबाव बढ़ता जा रहा है।
पिछले 6 माह से मोदी के मैजिक ने अब काम करना कम कर दिया है और उनके जुमला शासन की पोल जनता के बीच खुलती जा रही है। इस लिए अभी 6 माह पहले तक मोदी की आलोचना में हर जगह लड़ पड़ने वाला माहौल बदल गया है। जनता के विभिन्न तबके अब मोदी और उनकी सरकार की आलोचना को ध्यान से सुन रहे हैं और साथ ही सरकार के खिलाफ अपने गुस्से का इजहार करना शुरू कर दिए हैं। मैँने वाराणसी में वरुणा नदी के किनारे बने घाट पर पूजा पाठ और कर्मकांड करा रहे लोगों से जब मोदी के वाराणसी से जीतने के बाद वरुणा नदी के घाट व किनारे के सौंदर्यीकरण होने पर बात की तो कई लोगों ने एक साथ तपाक से बताया कि यह काम अखिलेश ने कराया है। लोगों ने गुस्से में बताया कि जब से मोदी यहां से जीते हैं वाराणसी में कोई काम नही हुआ है।उत्तर प्रदेश में हर जगह लोगों से बात करने पर एक बात साफगोई से लोग बता रहे थे कि उत्तर प्रदेश में काम करने वाली सरकार अखिलेश की थी, अधिकारी मायावती के शासन में डर कर रहते थे, योगी के शासन में विधायकों और मंत्रियों की तक अधिकारी नहीं सुन रहे हैं। पूरे देश में चाहे किसान हो, मजदूर हो, रिक्शा टैम्पो वाला हो या दुकानदार, व्यवसायी और ट्रांसपोर्टर हो ष्इस सरकार को 2019 में बताएंगेष् कहते मिले। राजनीतिक दलालों, व्यापारियों के एक छोटे हिस्से और सातवां वेतन आयोग से फायदा बटोरे कर्मचारियों के एक हिस्से को छोड़कर आम जनता में मोदी सरकार की छवि रोजगार विरोधी, लुटेरी और कार्पोरेटपरस्त सरकार की बनी है। ऐसे बदलते माहौल में देश के किसानों और किसान संगठनों की यह एकता और एकताबद्ध आंदोलन आने वाले समय में देश में बदलाव की राजनीति के आगे बढ़ने का आधार बन सकता है।
मैंने 1980 में जब से मैं राजनीति में सक्रिय हुआ हूँ, संयुक्त मोर्चा आंदोलन में नीचे से ऐसी गति कभी नहीं देखी जो इन 5 महीनों में किसान संगठनों के इस संयुक्त मोर्चे में देखी है। इस देश में जन संगठनों के संयुक्त मोर्चे का एक प्रयोग पिछले 25 वर्षों से ट्रेड यूनियन मोर्चे पर चल रहा है। उससे बड़ी-बड़ी ऐतिहासिक हड़तालें और अभी दिल्ली में तीन दिनों तक मजदूरों का पड़ाव जैसी बड़ी आंदोलनात्मक कार्यवाहियां हुई हैं। फिर भी मुझे लगता है उसमें नीचे से वह गति नहीं बन पाई है जो आज के किसान आंदोलन में बनी है। पिछले ढाई दशक से साल भर के बीच में होने वाले ये कार्यक्रम रस्मी से लगने लगे हैं। मेरा मानना है कि किसान संगठनों की यह एकता लंबे समय तक बनी रहेगी। यह अस्थाई परिघटना नहीं है। इस एकता के पीछे देश में 3.5 लाख किसानों की आत्महत्या और भांगूर – मन्दसौर जैसे गोलियों से शहीद हुए किसानों की पीड़ा है। इसके पीछे देश के किसानों के मन में छुपी वह आकांक्षा है जो उन्हें अहसास कराती है कि काश हमारा भी देश भर में एक मंच होता तो खेती और किसान की यह दुर्दशा नहीं होती। इस लिए इस साझे मंच से कोई संगठन बाहर हो सकता है पर यह कारवां अब रुकने वाला नहीं है। सबसे अहम बात जो इसमें है वह वामपंथ का ही मुख्य ताकत होना है। देश भर में चली किसान मुक्ति यात्रा और दिल्ली में हुई किसान संसद में लगभग 70 प्रतिशत भागीदारी वामपंथ से जुड़े किसान संगठनों की ही रही है। माकपा से जुड़ी किसान सभा, भाकपा (माले) से जुड़ी किसान महासभा और सीपीआई (एमएल) न्यू डेमोक्रेसी से जुड़ा आल इंडिया किसान मजदूर सभा इसमें शामिल देश व्यापी तीन किसान संगठन हैं। बाकी सभी किसान संगठन एक या कुछ जिलों में या कुछ क्षेत्र या एक राज्य में कार्यरत हैं। किसान महासभा और किसान सभा इसमें सबसे ज्यादा आधार रखने वाले राष्ट्रीय संगठन हैं। ऐसे में वामपंथ की यह जिम्मेदारी बनती है कि वो इस नए प्रयोग में और ताकत लगाए। इस आंदोलन में केंद्रीय भूमिका के लिए खुद को तैयार करे और नीचे से चल रही इस हलचल को कारपोरेट फासीवाद के खिलाफ एक नए जनवादी भारत के निर्माण की दिशा में मोड़ दे। क्योंकि कृषि और गांव प्रधान इस देश में अगर किसान उठ खड़ा हुआ तो दूसरी आजादी के गदर को कोई नहीं रोक पाएगा बसर्ते आंदोलन का नेतृत्व सही हाथों में हो।