सुशील उपाध्याय
हिंदी में शब्दों की नई आमद पर निगाह डाल कर देखिए तो साफ पता लगता है कि बीते समय में राजनीति और मीडिया ने जितने नए शब्द हिंदी को दिए हैं, शायद ही किसी अन्य क्षेत्र से इतने शब्द हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में आए हों। बंगाल के चुनाव में हर रोज कोई न कोई ऐसा शब्द सामने आ जाता है जो न केवल आम लोगों को आकर्षित करता है, बल्कि उसके पीछे कोई ना कोई गहरा कटाक्ष अथवा अर्थ भी निहित होता है। प्रधानमंत्री बंगाल में ‘पोरिबर्तन’ की बात कह रहे हैं तो ममता बनर्जी ‘खेला होबे’ का जिक्र कर रही हैं। परिवर्तन तो समझ में आता है, लेकिन खेला होबे का अर्थ काफी गहरा है। यहां ये अपने विपक्षी को सबक सिखाने के संदर्भ में प्रयोग किया जा रहा है।
इसी कड़ी में टीएमसी समर्थकों ने भाजपा समर्थकों को अंधभक्त से आगे बढ़कर ‘गन्धभक्त’ और ‘गंदभक्त’ तक कहना शुरू कर दिया है। इन दोनों शब्दों में निहित घृणा को साफ-साफ देखा जा सकता है। इस बीच सोशल मीडिया पर भी एक से बढ़कर एक शब्दों का इस्तेमाल किया जा रहा है। उर्दू का बेवकूफ शब्द सोशल मीडिया पर ‘वेबकूफ’ के रूप में सामने आता है। ऐसा व्यक्ति जिसे इंटरनेट की दुनिया की ज्यादा समझ ना हो, उसे बेवकूफ के स्थान पर बेवकूफ शब्द से नवाजा जा रहा है।
बंगाल की चुनावी सभाओं में प्रधानमंत्री के भाषणों के बाद टीएमसी समर्थकों ने उन्हें ‘बतोला’ यानी बहुत सारी और निरर्थक बात करने वाला करार दिया तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘भाइपो-विंडो’ और ‘तोलाबाजी’ का जिक्र किया। बांग्ला में ‘भाइपो’ का अर्थ भतीजा होता है। जब नरेंद्र मोदी भाइपो-विंडो शब्द का प्रयोग करते हैं तो उनका इशारा ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी की तरफ होता है। जैसे कि पूर्ववर्ती लोकसभा चुनाव में जब वे ‘शाहजादा’ शब्द का प्रयोग करते थे तो उनका हमला राहुल गांधी पर होता था।
इसी तरह का एक शब्द ‘मुखमनतरी’ उत्तराखंड में मुख्यमंत्री के लिए चलन में है। इस शब्द का टोन गढ़वाली बोली का है और यह एक कटाक्ष है कि जब व्यक्ति अपने मूल पद की जिम्मेदारी निभाने के बजाय केवल भाषण देने और लंबी-लंबी बातें कहने तक ही सिमटा हो, तब उसे मुख्यमंत्री के स्थान पर मुखमनतरी कहां जाना चाहिए।
इन दिनों टीवी चैनलों पर होने वाली बहसों में पार्टियों के प्रवक्ता एक-दूसरे के लिए कुछ भी कह जाते हैं। जैसे एक बहस में कांग्रेस के प्रवक्ता ने भाजपा के प्रवक्ता को ‘झांसाराम का भोंपू’ करार दिया तो भाजपा प्रवक्ता ने ‘पप्पू के पू-पू’ विशेषण से नवाज दिया। यहां ‘झांसाराम’ में नरेंद्र मोदी और ‘पप्पू’ में राहुल गांधी लक्षित हैं। ऐसे ही, टीएमसी सुप्रीमो ने अपनी एक सभा में वंदे मातरम गाया तो कहा गया कि यह उनके लिए श्रद्धा-आस्था का मामला नहीं है, बल्कि चुनाव को ध्यान में रखकर ‘वन डे मातरम’ है यानी केवल एक दिन का लाभ उठाने का माध्यम है। बंगाल चुनाव में दोनों मुख्य पार्टियां के बीच इतनी ज्यादा तल्खी है कि ममता बनर्जी चुनाव आयोग की आचार संहिता को ‘मॉडल कोड आफ कंडक्ट’ की बजाय ‘मोदी कोड ऑफ कंडक्ट’ कह रही हैं।
राजनीति के साथ-साथ विज्ञापनों के माध्यम से भी नए शब्द सामने आ रहे हैं। मसलन, अमूल ने एक नई आइसक्रीम बाजार में उतारी है, जिसमें चॉकलेट और काजू, दोनों के स्वाद को रखा गया है। इसके लिए शब्द बनाया गया है ‘चॉकाजू’। इसी तरह से बाबा रामदेव अपने उत्पादों के विज्ञापन में बार-बार ‘मेडिकल टेररिज्म’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं। यानी दवा बनाने वाली कंपनियों द्वारा भय का माहौल पैदा करके लोगों से दवाओं और स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए ऊंची कीमतें वसूल करना। यह बाबा रामदेव की निगाह में मेडिकल टेरेरिज्म है। ये बात अलग है कि उनके उत्पादों के विज्ञापनों में भय की बजाय लालच का सम्प्रेषण मौजूद है।
प्रधानमंत्री आकाशवाणी पर अपने ‘मन की बात’ प्रसारण में हर बार कोई न कोई नया शब्द लेकर आते हैं। इस बार उन्होंने कोरोना के फैलाव को रोकने के लिए रात में लगाए जाने वाले कर्फ्यू को नाइट कर्फ्यू की बजाय ‘कोरोना कर्फ्यू’ कहने पर जोर दिया। इसके बाद से ही मीडिया माध्यमों में कोरोना कर्फ्यू शब्द चल निकला है। वैसे यह बात सच है कि मौजूदा राजनीति की भाषा में भाषिक मर्यादा को उसके स्थान से काफी नीचे उतार दिया है। ऐसा लगता है कि आने वाले समय में भाषा विज्ञान को ‘राजनीतिक भाषा विज्ञान’ के रूप में एक नई श्रेणी का निर्धारण करना पड़ेगा, जहां शब्दों के अर्थ उनके सामान्य अर्थों से पूरी तरह से भिन्न होंगे।