‘चिपको’ नाम से ख्यातिप्राप्त आन्दोलन का क्रमिक विकास कैसे हुआ और उसकी अंतिम परिणति क्या हुई, इसका वस्तुगत विश्लेषण किया जाना जरूरी है। हालाँकि ऐसा अध्ययन कोई स्वतंत्र, सक्षम टीम ही कर सकती है, किन्तु अपनी स्मृति के आधार पर जितना कुछ मुझे याद आ रहा है, उसे मैं पाठकों के साथ साझा करना चाहता हूँ।
ग्राम सभा लाता (जिला चमोली) के पूर्व प्रधान धन सिंह राणा ने एक बार टिप्पणी की थी कि, ‘‘हमारे संघर्षों के साथ समस्या यह रही कि हमारे समुदाय का पढ़ा-लिखा हिस्सा बाहर नौकरी की तलाश में निकल गया। जो यहीं घर पर थे, वे हालाँकि संघर्ष करते रहे परन्तु शैक्षिक चतुरता और तर्क शैली से वंचित रह गये। हमारी कमजोरी यह रही कि हम मात्र आन्दोलन करते रहे और विश्लेषण व व्याख्या का जिम्मा हमने अन्य वर्गों पर छोड़ दिया। गाँव में बैठकर हम खुश होते रहे कि आ हा, कैसे दूर-दूर से लोग हम पर शोध करने आ रहे हैं। हमारे फोटो खींच रहे हैं। हम विश्वप्रसिद्ध चिपको आन्दोलन की भूमि के वासी होने के गौरव में डूबे रहे और ऊपर परिभाषायें, व्याख्यायें बदलती चली गई। हमने स्वयं अपने कष्टों और संघर्षों के बारे में लिखने की कभी सोची ही नहीं।‘‘
मीडिया और अध्येताओं ने चिपको आन्दोलन पर अब तक न जाने कितने लेख और ग्रन्थ लिख डाले हैं, परन्तु अपने एकपक्षीय आग्रहों और व्यक्ति केन्द्रित विवरणों के कारण उन्होंने उलझनें बढ़ाई हैं और विवाद पैदा किये हैं।
एक और टिप्प्णी भी गौर करने लायक है-
‘‘आन्दोलन की शुरूआत उत्तराखड में कार्य कर रहे सर्वोदय कार्यकताओं के रचनात्मक कामों के बाद उनमें सरकारी नीति के कारण आने वाली रुकावटों के बाद हुई। आन्दोलन सर्वोदय कार्यकर्ताओं से शुरू हुआ लेकिन अब वह लोगों में फैल गया है। चमोली जिले के कुछ गाँवों के लोगों में इस परिवर्तन की आकाँक्षा फैल चुकी है। इस बार रामपुर में जो भी हुआ, उसमें उत्तराखड के कोई भी सर्वोदय कार्यकर्ता उपस्थित नहीं हो पाये। कुछ खबर देरी से मिलने के कारण तो कुछ अन्यत्र व्यस्त रहने के कारण गाँव वालों ने बिना किसी नेता के आन्दोलन चलाया। केदार सिंह रावत का कहना है कि यहाँ हर डिब्बा इंजन के साथ तैयार हुआ है। यदि यह नहीं होता तो हम सब डिब्बे किसी एक इंजन के चलने से ही चलते, उसके ठप्प होने से ठप्प रहते।‘‘
अनुपम मिश्र द्वारा 14 जनवरी 1974 के ‘भूदान यज्ञ’ में प्रकाशित उक्त रिपोर्ट से स्पष्ट है कि जन ने वन के संरक्षण के लिए स्वतंत्र पहल से काम किया है। जयन्त बंद्योपाध्याय व वन्दना शिवा ने आन्दोलन की इस विशेषता को ध्यान में रखकर इतिहासकार रामचन्द्र गुहा की टिप्पणियों का उत्तर देते हुए है कि ‘‘चिपको का कोई केन्द्रीकृत नेतृत्व नहीं है और इसलिये इसे व्यक्तित्वों के आधार पर शिविरों में नहीं बाँटा जा सकता। चिपको न तो बहुगुणा की सम्पत्ति है और न ही भट्ट की। ये दोनों लोग जनता के उभार से पैदा हुए हैं। इसी कारण चिपको के जन्म को किसी एक स्थान पर हुई घटना विशेष से नहीं जोड़ा जा सकता।’’
चिपको आन्दोलन पर जो पहली पुस्तक मेरे हाथ में आई वह थी 1980 में भरत डोगरा द्वारा लिखित ‘पीपुल एंड फाॅरेस्ट’। मैं हैरान रह गया कि उस पर प्रकाशन के रूप में योगेश बहुगुणा द्वारा हिमालय दर्शन प्रकाशन समिति, शिवानन्द आश्रम, ऋषिकेश छपा हुआ है। भरत डोगरा मेरे पास तब आये थे, जब हम लोग देहरादून की तराई में जमीनों के सवालों को लेकर काम रहे थे। उन्हें उसी की रिपोर्टिंग किसी पत्रिका के लिये करनी थी। उन्हीं दिनों मैं सुन्दर लाल बहुगुणा जी और शांति लाल त्रिवेदी जी के 50 साल के सेवा कार्यों को निमित्त बनाकर ‘हिमालय दर्शन‘ नाम से एक स्मारिका के प्रकाशन की तैयारी में था और उसी के लिये हिमालय दर्शन प्रकाशन समिति के नाम से एक अनौपचारिक समिति बनाई थी। भारत डोगरा ने यह भी उचित नहीं समझा कि प्रकाशन के रूप में मेरा और हि.द.प्र. समिति को नाम देने से पूर्व वह कम से कम पूछ तो लेते। उस पुस्तक की छपाई का खर्चा भी उन्होंने स्वयं ही वहन किया होगा। उस किताब के प्रकाशन के बाद से आज तक उस पत्रकार ने मुझ से सम्पर्क नहीं किया।
प्रख्यात इतिहासकार रामचन्द्र गुहा ने अपनी पुस्तक में चिपको आन्दोलन के संदर्भ में सुन्दरलाल बनाम चण्डी प्रसाद की खूबियों और खामियों पर एक चार्ट बना कर ही दे डाला है। मैंने टिहरी के चिपको साथियों से पूछा तो पता लगा कि गुहा उनसे कभी मिले ही नहीं, जबकि पेड़ों पर सीधे-सीधे चिपकने की नौबत टिहरी की हेंवल घाटी में ही आई जहाँ धूम सिंह नेगी जी सलेट में एक पेड़ को बचाने के लिए उस पर चिपकते तो ठेकेदार के मजदूर दूसरे पेड़ को काटने को लपक लेते। थक कर वे बैठ कर गीता और विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करने लगे। आखिर मजदूरों को दया आई, वे चले गये। नेगी जी ने पूरी रात अकेले ही उस जंगल में बिताई।
जार्ज एलफ्रेड जेम्स की सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘इकोलाॅजी इज परमानेन्ट इकानामी’ मुख्यतया सुन्दर लाल बहुगुणा के व्यक्तित्व और उनके चिंतन पर केन्द्रित है। अनेक विवादास्पद सवालों को भी जेम्स ने इस पुस्तक में उठाया है।
चिपको महामंत्र का उद्गाता ऋृषि कौन ? चालीस साल से अधिक समय बीत गया पर अभी तक यह प्रश्न अनुत्तरित और विवादास्पद है। इस ‘मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्नः’ की स्थिति है। कुछ दिन पहले एक वेबसाइट में देख रहा था कि चिपको आन्दोलन की खोज सुन्दर लाल जी की पत्नी विमला बहुगुणा ने की, सुन्दर लाल जी ने तो उसका प्रचार भर किया। मीडिया और समाज का एक बड़ा वर्ग गौरा देवी को चिपको की जननी मानता है। उत्तराख्ंाड सरकार गौरा देवी के नाम से एक पुरस्कार परियोजना भी चला रही है। कुछ लोग कहते हैं कि ‘चिपको’ शब्द को जन्म लोक गायक घनश्याम रतूडी ‘सैलानी‘ ने दिया, ‘चिपको पेड़ों पर अब न कटेंण द्या, पहाड़ कि सम्पत्ति अब न लुटेण द्या,‘ गीत के रूप में तो कुछ लाग चण्डी प्रसाद भट्ट जी को इसका जनक इसलिए मानते हैं कि दसोली ग्राम स्वराज्य संघ की एक बैठक में जब इस बात पर चिन्तन हो रहा था कि साइमन कम्पनी को अंगू के पेड़ काटने से कैसे रोका जाये तो चण्डी प्रसाद जी ने भावावेश में कहा, ‘‘जैसे ही वे पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलायेंगे, हम पेड़ों से चिपक जायेंगे।’’ रामचन्द्र गुहा इसी मत के हैं।
गढ़वाल के कम्युनिस्टों ने जंगलों की नीलामी रद्द करने के लिए 1974 में उत्तरकाशी जिले में बयाली के जंगल में ‘मजदूर बचाओ, वन बचाओ नारे’ के साथ 20 दिनों तक आन्दोलन चलाया था। उसमें कामरेड कमला राम नौटियाल गिरफ्तार हुए थे। उन लोगों का दावा है कि चिपको तो हमने प्रारम्भ किया था और उसी के कारण वन नीति में परिवर्तन हुए। उत्तर प्रदेश सरकार की एक पाठ्य पुस्तक में एक बार जिक्र था, ‘‘गुमानीवाला श्यामपुर की महिलाओं ने चिपको आन्दोलन प्रारम्भ किया।‘‘ जबकि उन महिलाओं ने अपने जंगलों को बचाने के लिये हरी लकड़ी काटने पर प्रतिबन्ध स्वयं ही लगाया था। चिपको का तो उन्होंने नाम तक नहीं सुना था। बाद में इस पंक्ति को पाठ्य पुस्तक से हटा दिया गया। कुछ लोग ‘चिपको’ के तारों को खींचकर जोधपुर (राजस्थान) के खेजड़ली गाँव तक ले जाते हैं, जहाँ सितम्बर सन् 1730 में अमृता देवी ने तत्कालीन राजा अभय सिंह के आदेश पर अपने राज महल के लिए खेजड़ी के जंगलों को कटवाने से रोकने के लिए अपनी तीन पुत्रियों सहित 363 लोगों, जिनमें 71 महिलाएँ व 292 पुरुष थे, का बलिदान कर दिया, ने यह कहते हुए कि ‘‘सिर काटे रूख रहे तो सस्तो जाण।‘‘
सुनील कैंथोला का कहना है, ‘‘आखिर चिपको कोई ऊपर से थोड़े न टपका था। यहीं अँगूठों के ठप्पे लगाने वाली आम जनता के बीच से ही चिपको ने जन्म लिया और नए परिवर्तन की लहर भी अन्ततः यहीं से आनी है।’’
‘‘पिछले दशकों में अनेक शोधार्थी गाँव-गलियों में घूमे और अधकचरे शोध प्रबन्धों के जरिए विषय विशेषज्ञ बनते चले गए। ऊपरी स्तर पर इन बुद्धिजीवियों का इतना बड़ा जमावड़ा पैदा हो गया कि ‘चिपको’ एक ‘प्रोजेक्ट इण्डस्ट्री’ बनकर रह गया और जमीन की आवाज कपट के शोर में दबकर रह गयी। जंगलों को अपने अस्तित्व के लिए जरूरी मानने वाली जनता की आवाज को यूटोपियन बना दिया गया। यह भी सच है कि ‘चिपको‘ के बारे में स्वयं चिपको चलाने वालों के आधिकारिक विचार सामने नहीं आ पाये हैं। इस विषय पर पिछले दशकों में की गई तथाकथित शोधों की प्रासंगिकता एवं उक्त शोधों के आर्थिक श्रोतों व गंतव्यों पर भी शोध करने की आवश्यकता है।’’(सुनील कैंथोला, 14 अक्टूबर 2001, संघर्षनामा)
‘चिपको’ के आदि मानव की ही भाँति चिपको की शुरूआत की तारीख के सम्बन्ध में भी स्पष्टता नहीं है। यदि गौरा देवी ने रेणी के जंगल को बचाकर चिपको आन्दोलन प्रारम्भ किया तो उससे पहले रामपुर फाटा में 14 वर्षीय एक किशोर से लेकर 70 वर्षीय श्यामा देवी के नेतृत्व में जो बारह किमी. लम्बी रैली निकाली गई और जिसके बाद पेड़ काटने वाली कम्पनी को भागना पड़ा, उसे क्या कहेंगे ? विडम्बना यह है कि ऐसे सवाल उठाने पर इसे नारीवाद से जोड़ दिया जाता है। एक बार सोशल मीडिया पर गौरा देवी पर चल रही चर्चा में हस्तक्षेप करते हुए मैंने टिप्पणी की उन्हें ‘चिपको’ की जननी मानना सही नहीं है तो एक पत्रकार की तल्ख प्रतिक्रिया थी कि आप लोगों को महिलाओं के नेतृत्व से ईष्र्या है। मुझे उन पत्रकार को विस्तार से यह समझाना पड़ा कि रेणी के जंगल को बचाने के लिये गौरा देवी ने अपने गाँव की महिलाओं को संगठित किया, जिसके परिणामस्वरूप एक बड़ा प्रदर्शन हुआ और इसका श्रेय उन्हें दिया ही जाना चाहिए। परन्तु उतने मात्र से ही उन्हें इस आन्दोलन की माँ तो नहीं कहा जा सकता। आन्दोलन के उस चरण में पेड़ों पर चिपकने की सीधी कार्रवाही करने की कभी नौबत आई ही नहीं। कभी मीरा बहन के सचिव रहे कृष्णमूर्ति गुप्ता जी कहा करते थे कि जब ‘चिपको’ में इस तरह की सीधी कार्रवाही की घटनाएँ घटी ही नहीं, तो ऐसे दृश्य दिखलाये ही क्यों जाते हैं ? ‘भूदान यज्ञ’ के एक अंक के मुखपृष्ठ पर भी दो लोगों को एक पेड़ को आलिंगन में लेते दिखाया गया है, जब अन्दर छपी रिपोर्ट में कहीं इसका उल्लेख नहीं है। शायद यह सब प्रतीक के रूप में प्रायोजित होगा।
‘चिपको’ नाम से ख्यातिप्राप्त आन्दोलन का क्रमिक विकास कैसे हुआ और उसकी अंतिम परिणति क्या हुई, इसका वस्तुगत विश्लेषण किया जाना जरूरी है। हालाँकि ऐसा अध्ययन कोई स्वतंत्र, सक्षम टीम ही कर सकती है, किन्तु अपनी स्मृति के आधार पर जितना कुछ मुझे याद आ रहा है, उसे मैं पाठकों के साथ साझा करना चाहता हूँ।
वन अधिकारों को लेकर उत्तराखण्ड में आजादी से पूर्व हुए जन संघर्षों में टिहरी के राजा नरेन्द्र शाह के शासन काल में तिलाड़ी के मैदान में हुआ गोलीकाण्ड (30 मई, 1930) सबसे अधिक चर्चित रहा है। इसकी तुलना जलियाँवाला गोलीकाण्ड से की जाती रही है। इसे पहले तिलाड़ी के रूप में मनाया जाता था। अब शहीदों की स्मृति में 1968 से इसे वन दिवस के रूप में मनाया जाने लगा है। इस दिन स्थानीय नागरिक और रचनात्मक संगठन जिस घोषणा पत्र द्वारा अपना संकल्प प्रगट करते हैं, उसे मैं अविकल रूप से यहाँ दे रहा हूँ:
‘‘सृष्टि के आदिकाल से वन हमारे सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन के आधार रहे हैं। वनों की रक्षा करना हमारा मुख्य कार्य है और उनके द्वारा जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करना तथा वन उपजों से रोजगार पाने के अपने जन्मसिद्ध अधिकार की हम घोषणा करते हैं। हमारी सुख-समृद्धि के आधार वनों और हमारे बीच मधुर सम्बन्ध हमेशा कायम रहें, इसके लिए यह आवश्यक है कि वन सम्पदा का पहला उपयोग वनों के निकट रहले वाली जनता की सुख-समृद्धि के लिए होना चाहिए। इसके लिए दैनिक आवश्यकता एवं ग्रामोद्योगों के काम में आने वाली वन उपजें सर्वसाधारण के लिए सुलभ हों तथा वनों से प्राप्त कच्चे माल से वनों के निकट उद्योग स्थापित हों।
‘‘वन उपजों की निकासी की ठेकेदारी पद्धति के स्थान पर श्रमिकों की सहकारी समितियाँ बनंे। वनों के प्रति ज्ञानयुक्त प्रेम पैदा करने के लिये वन प्रधान क्षेत्रों में हर स्तर की शिक्षा में वनस्पति विज्ञान और जीव विज्ञान की शिक्षा को समुचित स्थान मिले।
‘‘आज के इस पवित्र दिन पर हम तिलाड़ी के वीर शहीदों का आदरपूर्वक स्मरण करते हैं। उनका शांतिमय आन्दोलन और वीरतापूर्ण बलिदान हमें वन सम्पदा एवं वन सम्बन्धी मूल अधिकारों की रक्षा के लिए सतत् जागरूक और तत्पर रहने की प्रेरणा दे। अतः यह दिन हम वन दिवस के रूप में मनाने का संकल्प करते है।‘‘
अगस्त 1974 में, जब देश का ध्यान चिपको आन्दोलन की ओर आकृष्ट हो चुका था, उत्तराखड सर्वोदय मण्डल की गरुड़ में हुई बैठक में एक महत्वपूर्ण संकल्प स्वीकृत किया गया था।
उन दिनों मैं मण्डल का संयोजक था और उत्तराखंड के सभी प्रमुख कार्यकर्ता इसमें उपस्थित थे। गरुड़ की जिस संस्था, कत्यूर ग्राम स्वराज संघ के परिसर में यह बैठक हुई थी, दीवान सिंह जी उसके संचालक थे। वे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे और आजादी के बाद सरला बहन की प्रेरणा से अपने क्षेत्र में रचनात्मक कार्यक्रमों को संगठित करने में लगे हुए थे। वनाधारित उद्योगों के विकास के लिए भारत सरकार के खादी ग्रामोद्योग आयोग द्वारा बिरोजा एवं तारपीन प्लान्ट स्थापित करने के लिए इस संस्था को वित्तीय सहायता दी गई थी। उत्तराखंड की आठ रचनात्मक संस्थाओं को आयोग द्वारा इस प्रकार की वित्तीय सहायता ब्याज मुक्त कार्यशील पूँजी और चालू खर्चों के रूप में प्रदान की गई थी, जिसमें चण्डी प्रसाद भट्ट की दसोली ग्राम स्वराज्य संघ भी शामिल थी। इस संकल्प में कहा गया था कि:-
मानव जाति की सुरक्षा के लिये वनों की तबाही रोक कर चिपको आन्दोलन को सफल बनाइये
1- वनों और वनवासियों को तवाह करने वाली ठेकेदारी प्रथा तुरन्त समाप्त करके योजना आयोग के निर्देशानुसार वन श्रमिक सहकारी समितियों द्वारा वन सम्पदा का दोहन हो।
2- वन व्यवस्था और प्रशासन में वनों की सुरक्षा के लिए ग्राम सभा, क्षेत्र समिति, जिला परिषद व वन पंचायतों को शामिल किया जाये।
3-वन सम्पदा के कच्चे माल का निर्यात वन क्षेत्रों से बाहर न हो। इसके ऊपर आधारित छोटे उद्योगों के लिये वनों के निकट रहने वाली जनता को कच्चा माल, पूँजी और तकनीकी सहायता दी जाये।
4- नया वन बन्दोबस्त करने की तुरन्त व्यवस्था हो।
5- वनों की नंगी भूमि को हरा-भरा बनाने में ग्रामीणों को सहायता दी जाये।
6-नदियों के जलागम क्षेत्रों में तथा भूस्खलन और भूक्षरण से होने वाली भूमि में पेडों़ का कटान तत्काल बन्द किया जाये।
उत्तराखंड सर्वोदय मण्डल उन लोगों का एक साझा मंच या परिवार जैसा था, जो गांधी, विनोबा और जय प्रकाश के विचार व कार्यप्रणाली से प्रेरित होकर अपने-अपने क्षेत्रों में स्थानीय परिस्थिति व जरूरतों के हिसाब से रचनात्मक कार्यक्रमों को संगठित करने में लगे हुये थे। इसमें पदाधिकारियों के नाम पर एक संयोजक मात्र होता था, जो वर्ष में कम से कम एक बार सम्मेलन का आयोजन करता था, जिससे अनुभवांे का आदान-प्रदान हो सके और परस्पर समस्याओं को समझकर उन्हें हल करने के सामूहिक प्रयत्न किये जायें। यह कोई केन्द्रीकृत संगठन न हो कर संगठन का एक लोकतांत्रिक प्रयोग जैसा था।
उक्त बैठक के निष्कर्षों का ध्यान से विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि अपने प्रस्थान बिन्दु पर यह आन्दोलन मजदूरों के शोषण के विरुद्ध, ठेकेदारों द्वारा वनों की तबाही, स्थानीय कच्चे माल से स्थानीय विकास, वन प्रबन्धन में स्थानीय जनता की भागेदारी, वनवासियों के हक हकूक और वन संरक्षण व संवर्धन पर केन्द्रित था। इस विषय पर उत्तराखंड सर्वोदय मण्डल की यह अन्तिम बैठक थी। उसके बाद अनेकों मंच अस्तित्व में आये और अपने-अपने दृष्टिकोण से इस विषय पर विमर्श व विवेचना करते रहे। ऐसा एक मंच रहा ‘उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी’, जिसका मैं विशेष रूप में उल्लेख करना चाहूँगा।
पूरे हिमालय क्षेत्र में रचनात्मक कार्य करने वाली संस्थाओं की केन्द्रीय कड़ी की भूमिका निभाने वाली संस्था हिमालय सेवा संघ ने धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश) में एक कार्यकर्ता सम्मेलन आयोजित किया था, जिसमें उत्तराखंड से भी कई कार्यकर्ताओं ने भाग लिया था। वहाँ के पहले मुख्यमंत्री वाई. एस. परमार ने विकास की जो नींव रखी थी, उसके परिणामों को देखकर हम लोग गद्गद् थे ओर उत्तराखंड के अलग राज्य आन्दोलन में कूद पड़ने को हम व्यग्र हो चले थे। भाई मान सिंह रावत जी ने इतने आह्लादित हुए कि कहने लगे, ‘‘यहीं से पैदल यात्रा करते हैं पृथक उत्तराखंड राज्य के लिये।’’ कुछ समय बाद उत्तराखंड सर्वोदय मण्डल के तत्कालीन संयोजक आनन्द सिंह बिष्ट ने इसी विषय को लेकर गोपेश्वर चमोली में एक बैठक बुलाई। इसमें शमशेर सिंह बिष्ट, पी.सी. तिवारी, चण्डी प्रसाद भट्ट, कुँवर प्रसून और मैंने भाग लिया। सबकी भावना रही कि उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के लिए अलग से कोई संगठन बनाना चाहिये। कई नाम प्रस्तावित किये गये और अन्त में उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी पर सर्वसम्मति बनी। निश्चय किया गया कि उत्तरायणी मेले के अवसर पर बागेश्वर में इस मुद्दे को लेकर एक विराट सम्मेलन का आयोजन किया जाये। यह भी सोचा गया कि सम्मेलन में पहले उत्तराखंड के गाँवों में ज्यादा संघर्ष समितियों का गठन कर लिया जाये और एक हजार सैनिक तैयार किये जायें जो आन्दोलन को संगठित करने में अपना समय और शक्ति लगायें। इन सैनिकों के लिए एक संकल्प पत्र तैयार किया जाये। इस संकल्प पत्र को तैयार करने की जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई और शमशेर सिंह बिष्ट को इसका संयोजक बनाया गया। यह काम आगे बढ़ता इससे पहले ही चिपको की रणभेरी बज गई और उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के साथ कुमाऊँ से जुडे़ साथी ‘वन बचाओ‘ के नारे के साथ आन्दोलन में कूद गये। उन्होंने अपने अभियान को चिपको आन्दोलन नाम नहीं दिया। इसी तरह उत्तराखंड के सर्वोदय कार्यकर्ताओं द्वारा शराबबन्दी आन्दोलन के नाम से जो नशा मुक्ति आन्दोलन चलाया गया था, वाहिनी के साथियों ने उसे ‘नशा नहीं रोजगार दो‘ के नाम से आगे बढ़ाया। ऐसा शायद उन्होंने अपनी सर्वोदय से अलग पहचान बनाने के लिए किया गया हो। वनों के सवालों पर लोगों की समझ बढ़ाने के लिए ‘जंगल के दावेदार‘ नाम से एक पत्र का प्रकाशन भी वाहिनी के लोग करते रहे। इसी तरह से सुन्दर लाल जी ने अपने अभियान को ‘हिमालय बचाओ‘ नाम दिया और सिल्यारा में चिपको सूचना केन्द्र प्रारम्भ किया। कोई ऐसी जोड़ कड़ी नहीं रही, जो अलग-अलग क्षेत्रों में जंगलों के सवाल पर काम करने वाले समूहों में समन्वय का काम करती और इसका नुकसान इस मुद्दे को उठाना पड़ा। इससे भ्रम और मतिभ्रम की स्थिति पैदा हुई। किसका चिपको, यह सवाल खड़ा हुआ।
चिपको आन्दोलन को समझना हो तो उस सन्दर्भ को समझना भी जरूरी है जिसमें गांधी विचार से प्रेरित बड़ी संख्या में सत्ता और दलगत राजनीति से तटस्थ रह कर लोग अपने-अपने क्षेत्रों में शराब बंदी, विनोबा और जय प्रकाश के नेतृत्व में चलाये जाने वाले ग्राम दान, ग्राम स्वराज्य आन्दोलन आदि आन्दोलन चला रहे थे। 1960 के आस पास कइयों ने प्रखण्ड स्तर की स्वैच्छिक संस्थायें बना ली थी। इन संस्थाओं के बायलाॅज में लिखा गया था, ‘‘संस्था का उद्देश्य ग्रामदान मूलक ग्रामोद्योग प्रधान अहिंसक समाज की रचना करना है।’’ मैं स्वयं भी उत्तर प्रदेश गांधी स्मारक निधि के अल्मोड़ा केन्द्र से मुक्त होकर अपने सावली में वापिस आ गया था और टिहरी जिले के चम्बा प्रखण्ड को कार्य क्षेत्र बनाकर काम करने लगा था। खादी ग्रामोद्योग आयोग ने उत्तरकाशी में अपना क्षेत्रीय कार्यालय खोल दिया था। उसकी वित्तीय सहायता से कुछ संस्थाओं ने ऊनी खादी का उत्पादन शुरू कर दिया था। चनौदा (जिला अल्मोड़ा) में गांधी आश्रम तो आजादी के पहले से ही यह काम कर रहा था। यह आजादी के आन्दोलन का सक्रिय केन्द्र रहा था और अंग्रेजों ने आश्रम के सारे कार्यकताओं को गिरफ्तार कर आश्रम की सम्पत्ति नीलाम कर दी थी।
इधर केदार सिंह कुंजवाल जी ने सूती-ऊनी खादी के साथ-साथ माचिस बनाने का काम भी प्रारम्भ किया। आठ संस्थाओं ने बिरोजा तारपीन संयंत्र लगाये। गोपेश्वर में चण्डी प्रसाद जी और उनके कई साथियों ने मल्लानापुर श्रम संविदा सहकारी समिति गठित की जिसके 30 स्थायी और 700 अस्थायी सदस्य थे। बाद में इन्हीं कार्यकर्ताओं ने दसोली ग्राम स्वराज्य संघ की स्थापना की। चम्बा की संस्था चम्बा ग्राम स्वराज्य संघ ने उत्तरकाशी के पुरोला क्षेत्र में सीधी नीलामी में भाग लेकर खादी ग्रामोद्योग आयोग की वित्तीय सहायता से वनौषधि संग्रह का काम हाथ में लिया। रचनात्मक जगत और उससे बाहर राजनैतिक क्षेत्र में भी आम सहमति जैसी बनी थी कि पर्वतीय क्षेत्र में भारी उद्योगों की स्थापना अनार्थिक और अव्यावहारिक है। लघु और ग्रामोद्योगांे को खेती व डेरी उद्योग के साथ जोड़कर यहाँ का आर्थिक विकास सम्भव है जिसमें वन सम्पदा आधारित उद्योगों की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।
वनाधारित उद्योगों की स्थापना में बड़ी समस्या यह थी कि इस पर वन विभाग का कानूनी एकाधिकार होता था और वन विभाग इसका दोहन ठेकेदारों से करवाता था। ठेकेदारी पद्धति से वन सम्पदा का निर्मम दोहन होता था। स्वाभाविक था कि तिलाड़ी और गरुड़ के संकल्पों में ठेकेदारी प्रथा को समाप्त करवाने के संकल्प पारित किये गये। वन विभाग ने जब नैनीताल, कोटद्वार, उत्तरकाशी, देहरादून, नरेन्द्रनगर में जंगलों की नीलामी के महापर्व आयोजित किये तो महिलाएँ, पुरुष, स्कूली छात्र, सामाजिक कार्यकर्ताओं ने हल्ला बोल कर पुलिस की मौजूदगी के बावजूद वन विभाग को नीलामियाँ निरस्त करने को मजबूर कर दिया। इन हलचलों के कारण इतना तो हुआ ही कि खादी ग्रामोद्योग आयोग की सहायता से स्थापित लीसा उद्योग की इकाइयों को लीसे का एक निर्धारित कोटा बिना खुली नीलामी में भाग लिये प्रतिवर्ष स्वीकृत किया जाने लगा। इसके समानान्तर लीसा निकालने के लिए चीड़ के पेड़ों पर किये जाने वाले गहरे घावों से उनकी जो लाशें बिछ रही थी, उस पर भी सरकार को आगाह किया जा रहा था। रामचन्द्र उनियाल की अध्यक्षता में इसके अध्ययन के लिये एक समिति का गठन किया गया था। उनियाल टिहरी की आजादी के संघर्ष के नेता और सिपाही थे। वे उत्तर प्रदेश विधान सभा में उत्तरकाशी विधान सभा क्षेत्र से विधायक भी रहे और काँग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में उनकी गिनती होती थी।
ठेकेदारी पद्धति को बदलकर सरकारी तंत्र के अन्तर्गत काम करने वाले वन निगम की स्थापना की गई
और जहाँ-जहाँ लोग सहकारी समितियाँ बनाएँ, वहाँ बिना खुली नीलामी में शामिल हुए दोहन के लिए एलाॅटमेंट हों। मंैने देहरादून में एक सहकारी समिति को गठित करने के लिये प्रेरित किया था उसमें हरिद्वार के पास पथरी वन खंड में कटान का काम किया था। चम्बा में भी एक सहकारी समिति ने लीसा टिपान का काम हाथ में लिया था। टिहरी जिले के सकलाना क्षेत्र में सोमवारी लाल उनियाल जी ने लाइम स्टोन के खनन के लिए सहकारी समिति गठित की। मैं स्वयं वन श्रमिक सहकारी समितियों के गठन और उनकी कार्य पद्धति का अध्ययन करने गुजरात प्रदेश में गया और सूरत जिले में घूमकर उनकी विस्तृत जानकारी प्राप्त की। वन श्रमिक सहकारी समितियों के गठन का काम उत्तराखंड में बहुत आगे नहीं बढ़ पाया। गुजरात में सहकारिता आन्दोलन आज भी इतना सशक्त है कि राजनैतिक शक्तियों को नियंत्रित करने और उसे बदलने में उनकी निर्णायक भूमिका होती है। उत्तराखंड की सहकारी संस्थायें राजनैतिक नेताओं की चारागाह मात्र बन कर रह गईं।
जिस दौर की मैं बात कर रहा हँू, उस समय वन और जन के रिश्तों पर एक नयी चेतना जन्म की ले रही थी, तथापि वन सम्पदा का दोहन कोई पाप नहीं माना जाता था। रिश्ते नये ढंग से परिभाषित होने लगे थे। वन श्रमिक समितियाँ नैसर्गिक सम्पत्ति के दोहन और उपयोग की पद्धतियाँ हाशिये पर नहीं गई थीं। यही कारण है कि सुन्दर लाल जी ने श्रमिकों की समस्या को लेकर जंगल में उपवास तक रखा और शस्त्र पूजा का आयोजन करके उनके प्रति अपना समर्थन व्यक्त किया। कम्युनिस्ट पार्टी के एक कार्यकर्ता जगदीश व्यास ने शस्त्र पूजा करते सुन्दर लाल जी का फोटो छाप कर उन्हें व्यंग्य बाणों से छलनी करने की कोशिश भी की। सुन्दर लाल जी के ऋषि तुल्य जीवन बिताने के बाद भी उनके जीवन की यह विडम्बना ही रही है कि तीरन्दाज लोग उन पर व्यंग्य बाणों की वर्षा करने के अवसर तलाशते ही रहे।
एक ओर जन साधारण में वनों को लेकर यह नई चेतना उत्पन्न हो रही थी, दूसरी ओर सरकारों का रुख इस मामले में नकारात्मक बना हुआ था। ऋषिकेश में पश्चिमी हिमालय क्षेत्र के रचनात्मक कार्यकर्ताओं का एक सम्मेलन हिमालय सेवा संघ की ओर से आयोजित किया गया, जिसमें तत्कालीन राज्यमंत्री (केन्द्र सरकार) हेमवती नन्दन बहुगुणा जी उद्घाटन के लिये आमंत्रित थे। पश्चिमी हिमालय क्षेत्र का संजोजक होने के नाते मैंने व्यापक सन्दर्भ में चिपको पुराण प्रस्तुत किया था। गौर से सुनने के बाद उनकी प्रतिक्रिया थी, ‘‘चिपको की जगह कहीं लटको ना हो जाये।‘‘ उन्हीं हेमवती नन्दन जी ने प्र्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के पौड़ी दौरे के मौके पर हमारी मुलाकात उनसे करवाई। हम चार लोग थे- धनजंय भट्ट (‘उत्तराखंड आबर्जवर‘ साप्ताहिक के सम्पादक), आनन्द सिंह बिष्ट (संयोजक उत्तराखंड सर्वोदय मण्डल), चण्डी प्रसाद भट्ट और मैं। हमने मौखिक चर्चा के साथ एक लिखित ज्ञापन भी इन्दिरा जी को दिया। वे ध्यानपूर्वक हमारी बातें सुनती रहीं। उस दिन पौड़ी की जन सभा में इन्दिरा जी ने कहा, ‘‘हमें कई कामों के लिये लकड़ी की जरूरत पड़ती है। पर जंगलों के कटने से मौसम में भारी परिवर्तन हो रहा है। इससे पहाड़ों और मैदानों को भारी नुकसान हो रहा है और बाढ़ का खतरा बढ़ रहा है।’’
उत्तराखंड सर्वोदय मण्डल की गरुड़ बैठक में लिये गये संकल्पों में एक संकल्प यह भी था कि नदियांे के जलागम क्षेत्रों में तथा भूक्षरण और भूस्खलन से होने वाली भूमि में पेड़ों का कटान तत्काल बन्द किया जाये। कुछ समय बाद इस माँग को दूसरी तरह से प्रस्तुत किया जाने लगा कि हजार मीटर से अधिक ऊँचाई वाले वन क्षेत्रों में हरे पेड़ों के कटान पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाये।
(जारी है)