{2 फरवरी 1984 को उत्तराखंड के ऐतिहासिक ‘नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन’ का सूत्रपात हुआ था. इस आन्दोलन के 40 वर्ष पूरे होने पर इस आन्दोलन का मूल्यांकन कर रहे हैं, उस वक़्त आन्दोलन में सक्रिय रहे वरिष्ठ पत्रिकार गोविन्द पन्त राजू. —संपादक}
उत्तराखंड राज्य के जन्म से भी पहले आज से 40 वर्ष पूर्व संयुक्त उत्तर प्रदेश के उत्तराखंड वाले पहाड़ी हिस्से में जन्म लेने वाला नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन उत्तराखंड के अनेक जन आंदोलनों से इस मामले में अलग था कि यह आंदोलन उत्तराखंड के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक शत्रुओं के खिलाफ आम आदमी की लड़ाई थी और इस लड़ाई में महिलाओं के साथ-साथ युवाओं की भी बहुत बड़ी भागीदारी थी। कई मामलों में यह आंदोलन राजनीतिक विचारधाराओं की सीमाओं से ऊपर उठकर नशे के व्यापार और उसके व्यापक दुष्परिणाम के खिलाफ स्थानीय प्रतिरोध की अभिव्यक्ति के रूप में सामने आया था। आंदोलन का सबसे प्रमुख नारा था,” जो शराब पीता है वह परिवार का दुश्मन है , जो शराब बेचता है वह समाज का दुश्मन है और जो शराब बिकवाता है वह देश का दुश्मन है।”
आंदोलन लंबे समय तक चला और इस दौरान प्रशासन तथा सत्ता की और से दमन के हर प्रकार के हथकंडे अपनाए गए। छोटे-छोटे गांवो से लेकर अल्मोड़ा नैनीताल जैसे नगरों में सैकड़ो लोगों को गिरफ्तार किया गया, उनके खिलाफ झूठे और फर्जी मुकदमे दर्ज किए गए, शराब माफिया और उनके राजनीतिक आकाओं की ओर से आंदोलन के प्रमुख कार्यकर्ताओं पर हिंसात्मक हमले भी किए गए। यह सही है कि जिस तरह की शराब बंदी की मांग उस वक्त उत्तराखंड की महिला शक्ति की ओर से की जा रही थी, आंदोलन उसे उस लक्ष्य तक नहीं पहुंचा सका लेकिन यह भी सही है कि ‘ नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन ‘ ने उत्तराखंड के समाज में बहुत बड़ी हलचल पैदा की । इस आंदोलन ने उत्तराखंड की युवा शक्ति को चैतन्य किया, मातृशक्ति को जागरूक किया और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को अपनी-अपनी राजनीतिक विचारधाराओं से ऊपर उठकर उत्तराखंड के व्यापक हित में एकजुट होकर खड़े होने के लिए भी प्रेरित किया।
इस आंदोलन का नेतृत्व तत्कालीन उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी ने किया था और आंदोलन की पहली चिंगारी संघर्ष वाहिनी के युवा नेता पीसी तिवारी के गांव बसभीड़ा में उन्हीं के घर से फूटकर पूरे उत्तराखंड में फैल गई थी।आंदोलन के 40 साल बाद पीसी तिवारी खुद इस आंदोलन के बारे में कहते हैं कि इस आंदोलन की परिणति सामाजिक बदलाव के तौर पर सामने आई।
अगर समग्र रूप से देखा जाए तो इस आंदोलन ने उत्तराखंड के युवा वर्ग में नए नेतृत्व के लिए एक पूरी पीढ़ी को तैयार किया। आंदोलन के बीच में जब तमाम प्रमुख नेता जेल में बंद कर दिए गए थे तब आंदोलन को नई पीढ़ी ने ही संभाला और मातृशक्ति में भी नए नेतृत्व को आगे बढ़कर कमान संभालने का अवसर मिला जिसे उसने सफलतापूर्वक निभाया भी। लेकिन इसी के साथ-साथ एक तथ्य यह भी है कि उत्तराखंड राज्य बनने के बाद लगातार सरकारों ने शराब के मामले में जन पक्षधर रहने के बजाय शराब के कारोबार के जरिए अपना राजस्व बढ़ाने पर ही सबसे अधिक ध्यान दिया।उत्तराखंड राज्य की नीतियों का आलम यह है कि इस राज्य ने अपनी कमाई के सबसे बड़े साधन के रूप में शराब के धंधे को अपना लिया है। नौबत यहां तक पहुंच गई है कि आबकारी विभाग प्रदेश में सबसे अधिक राजस्व देने वाले विभागों में शामिल हो गया है। आबकारी राजस्व पूर्ति का सबसे बड़ा जरिया दुकानों की नीलामी और शराब की बिक्री है। पिछले वर्ष उत्तराखंड सरकार ने शराब के दामों में 20 प्रतिशत तक कमी की थी। इसका कारण यह बताया गया कि उत्तराखंड की तुलना में हिमाचल प्रदेश में समान ब्रांड की शराब काफी सस्ते दरों पर मिल रही है। इस कारण शराब की सबसे अधिक तस्करी, हिमाचल, चंडीगढ़ और हरियाणा से हो रही है। शराब की कीमतों में हुए बदलाव से फायदा यह हुआ कि शराब तस्करी पर थोड़ा असर पड़ा। वित्तीय वर्ष 2024-25 के लिए प्रस्तावित आबकारी नीति में राजस्व लक्ष्य 4500 करोड़ रुपए से अधिक रखा जा सकता है। वित्तीय वर्ष 2023 – 24 में आबकारी विभाग को 4000 करोड़ रुपये का राजस्व लक्ष्य दिया गया है।उत्तराखंड राज्य की नीतियों का आलम यह है कि इस राज्य ने अपनी कमाई के सबसे बड़े साधन के रूप में शराब के धंधे को अपना लिया है। नौबत यहां तक पहुंच गई है कि आबकारी विभाग प्रदेश में सबसे अधिक राजस्व देने वाले विभागों में शामिल हो गया है। आबकारी राजस्व पूर्ति का सबसे बड़ा जरिया दुकानों की नीलामी और शराब की बिक्री है। पिछले वर्ष उत्तराखंड सरकार ने शराब के दामों में 20 प्रतिशत तक कमी की थी। इसका कारण यह बताया गया कि उत्तराखंड की तुलना में हिमाचल प्रदेश में समान ब्रांड की शराब काफी सस्ते दरों पर मिल रही है। इस कारण शराब की सबसे अधिक तस्करी, हिमाचल, चंडीगढ़ और हरियाणा से हो रही है। शराब की कीमतों में हुए बदलाव से फायदा यह हुआ कि शराब तस्करी पर थोड़ा असर पड़ा। वित्तीय वर्ष 2024-25 के लिए प्रस्तावित आबकारी नीति में राजस्व लक्ष्य 4500 करोड़ रुपए से अधिक रखा जा सकता है। वित्तीय वर्ष 2023 – 24 में आबकारी विभाग को 4000 करोड़ रुपये का राजस्व लक्ष्य दिया गया है।
शराब से अपनी कमाई बढ़ाने के चक्कर में उत्तराखंड सरकार इस कदर बावली हो गई कि उसने उत्तराखंड सरकार की आबकारी नीति 2023-24 के तहत उत्तराखंड सरकार ने किसी भी उत्तराखंड निवासी को अपने घर में 50 लीटर तक शराब रखने का अधिकार दे दिया था । जिसके लिए उसे एक लाइसेंस उत्तराखंड सरकार से लेना पड़ता । इस लाइसेंस की कीमत सालाना 12000 रुपये होनी थी।
इस लाइसेंस को लेने के बाद कोई भी उत्तराखंड निवासी अपने घर में 50 लीटर शराब रख सकता था। उसमें बस यह शर्त थी कि घर के जिस क्षेत्र में बार बनाया जाता वहां घर के 21 साल तक के किसी भी लड़के या लड़की को जाने की इजाजत नहीं होगी।
इस पॉलिसी के आने के बाद प्रदेश भर में इसका विरोध शुरू हो गया था। लगातार लोग इस पॉलिसी का विरोध कर रहे थे और इस मामले में अनेक सामाजिक संगठन एवं कई विधायक भी सरकार की नीति के खिलाफ मुखर हो गए थे।अपना पासा उल्टा पड़ता देख उत्तराखंड सरकार को रातों-रात इस पॉलिसी को स्थगित करना पड़ गया ताकि विवाद अधिक न बढ पाय और मामला वहीं पर खत्म हो जाए।हालांकि आजादी से पहले भी सयुक्ंत प्रान्त आबकारी अधिनियम- 1910 लागू होने के साथ ही यह तय हो गया था कि सरकार शराब और अन्य मादक पदार्थों को अपनी आय का एक जरिया बनाना चाहती है। इस अधिनियम को लेफ्टिनेंट गर्वनर द्वारा 18 सिम्बर 1909 तथा गर्वनर जनरल द्वारा 24 फरवरी 1910 को स्वीकृति प्रदान की गयी और इसे इन्डियन काउन्सिल एक्ट 1960 की धारा 40 के अन्तर्गत 12 जून 1910 को प्रकाशित किया गया था।
इस अधिनियम में यह सुनिश्चित कर दिया गया था कि उपयुक्त पर्यवेक्षण एवं नियंत्रण द्वारा मादक वस्तुओं की वैधानिक बिक्री से आबकारी विभाग अधिकतम राजस्व प्राप्त कर सके । राज्य बनने के बाद उत्तराखण्ड में शराब के कारोबार पर बडे ठेकेदारों के एकाधिकार को समाप्त करने एवं नये उद्यमियों को मदिरा व्यवसाय में प्रवेश करने के समान अवसर उपलब्ध कराने के नाम पर उत्तराखण्ड सरकार ने 2001-02 में नईआबकारी नीति लागू की । इस नई नीति द्वारा पूर्व में चली आ रही ठेकेदारी प्रथा को समाप्त कर दिया गया। जानकारों का मानना था कि राज्य की सरकार और जिम्मेदार नेता लोग ऐसा करके अपनी कमाई के लिए ऐसे कारोबारियों को तैयार करना चाहते थे जिन पर उनका नियंत्रण आसानी से हो सके। इसके बाद भी राज्य की अलग-अलग सरकारों ने अपने-अपने फायदे के लिहाज से आबकारी नीतियों में बार-बार बदलाव किया। यह समझ जा सकता है कि इन सारे बदलावों का लाभ सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक नेताओं तथा उनकी पार्टियों को व्यक्तिगत रूप से हुआ। आम जनता सरकार की आबकारी नीति और इस नीति के दुरुपयोग के कारण लगातार छली ही गई। नतीजा यह हुआ कि आज नशे की समस्या उत्तराखंड के समाज को भस्मासुर की तरह निगलते जा रही है और सरकारें जनता तथा समाज की चिंता छोड़कर शराब से राजस्व बढ़ाने के लिए नए-नए हथकंडे अपनाने में जुटी हैं। लेकिन शायद अब वक्त आ गया है कि जनता अपने सवालों के लिए खुद उठ खड़ी होने के लिए तैयार हो रही है । एक और जन सरोकारों के मुद्दों पर नई रणनीति बनाने के लिए अनेक जन संगठन नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन की तर्ज पर नफरत नहीं रोजगार दो अभियान छेड़ने की तैयारी कर रहे हैं । जिसमें वन अधिकार कानून ,श्रमिक बस्तियों के मालिकाना हक और आश्रय के अधिकार के हनन , पूंजीपतियों तथा कारपोरेट घरानों को उत्तराखंड की जमीनों को लूटने की खुली छूट देने और महिलाओं तथा धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव की नीति जैसे सवालों पर साल भर समान विचारधारा वाले जन संगठनों के साथ मिलकर लड़ाई लड़ने का संकल्प लिया गया तो दूसरी तरफ आंदोलन के 40 वर्ष पूरे होने के बाद वर्तमान में परिवर्तन पार्टी के मुखिया और उत्तराखंड के तमाम जनमुद्दों को लेकर लड़ाई लड़ने वाले पीसी तिवारी अब इस आंदोलन की ऊर्जा और अनुभव के जरिए उत्तराखंड के तमाम सवालों के समाधान की दिशा में एक बड़ी पहल करना चाहते हैं। पी सी उत्तराखंड में नशे के लगातार विकराल होते जा रहे भस्मासुर के खिलाफ बड़ी लड़ाई छेड़ने के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधनों और जमीनों की लूट के खिलाफ संघर्ष को तेज करने ,भू कानून एवम जल जंगल जमीन जैसे मुद्दों को भी एक साथ जोड़कर आगे लड़ाई को तेज करने की तैयारी कर रहे हैं। आंदोलन की 40वीं वर्षगांठ पर आंदोलन की जन्मस्थली बसभीड़ा से निकल गए जुलूस में उपस्थित जनसमूह के तेवर और उनका जोश यह दिखाने के लिए पर्याप्त था कि उत्तराखंड में अभी भी आम जनता के हितों के समर्थन में आवाज उठाने वाली शक्तियां कमज़ोर नहीं पड़ी हैं । हालांकि उत्तराखंड राज्य बनने के बाद बार-बार ऐसा देखा गया है कि आम आदमी के मुद्दों की बात करने वाले और सकारात्मक सोच रखने वाले तमाम लोग छोटी-छोटी महत्वाकांक्षाओं और अपने अहम के टकराव के कारण एकजुट होकर किसी भी लड़ाई को निर्णायक लक्ष्य तक पहुंचाने में सफल नहीं रहे हैं लेकिन फिर भी उम्मीद की जानी चाहिए कि नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन के 40 वर्ष पूरे होने के मौके पर उस आंदोलन के अनुभव और उसकी ऊर्जा को एकजुट कर सभी जन संगठन और उत्तराखंड के हित की बात करने वाले लोग एक साथ आवाज उठाएंगे और सवालों को समाधान की दिशा तक ले जाने में कामयाब होंगे।