17 साल पहले गैरसैंण में यदि राजधानी बन जाती तो निश्चित रूप से प्रशासनिक कार्य पद्धति में कोई बदलाव आता। एक नयी कार्य संस्कृति विकसित होती। पर अब तो प्रशासन में पूरी तरह उ.प्र. की ही भ्रष्टाचार की संस्कृति रच बस गयी है। तो इतने विलम्ब के बाद अगर गैरसैंण में स्थायी राजधानी बन भी गयी, तो यह अपसंस्कृति बदलेगी इसमें संदेह है।
आंदोलनकारियों के बीच गैरसैण राजधानी के मुद्दे पर कोई सवाल उठा देने पर उसी तरह की प्रतिक्रिया होती है, जिस तरह आजकल के मोदीभक्तों के बीच में कोई समझदारी की बात करने पर उसे देशद्रोह करार दिया जाता है। इस मुद्दे पर उत्तराखंड आन्दोलनकारी कोई भी तर्क सुनने को तैयार नहीं रहते। ऐसा कोई सवाल उठाओ तो कह दिया जाता है कि यह हमारी अस्मिता का प्रश्न है। इस पर कोई तर्क-वितर्क नहीं हो सकता है। यह वैसा ही है, जैसा रामभक्तों का रुख अयोध्या में राम मंदिर को लेकर होता है। सरकारें, चाहे वह कांग्रेस की हो या भाजपा की, गैरसैण में राजधानी के मुद्दे पर अपनी फर्ज अदायगी करते रहते हैं। उधर आंदोलनकारियों के एक वर्ग ने यह मुद्दा छोड़ा नहीं है। इसके लिए अनशन, पदयात्राएँ व जन जागरण के कामों को जिंदा रखा है। भाजपा सरकार ने गैरसैंण में सत्र करने की रस्म पूरी की तो कुछ आंदोलनकारियों ने पदयात्रा के माध्यम से जन जागरण कर गैरसैंण में आमरण अनशन शुरू कर दिया। ऐसा कई बार होता है, मगर उसके बाद फिर कोई हलचल नहीं होती। जनता के बीच में तो गैरसैंण के मुद्दे पर प्रायः खामोशी ही नजर आती है। इसलिए यह प्रश्न महत्वपूर्ण हो गया है कि क्या अब भी गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने से वे उद्देश्य हासिल हो सकेंगे, जिनके लिये पृथक उत्तराखण्ड राज्य का सपना देखा गया था ?
उत्तराखण्ड के विकास की वरीयताओं की जब बात होती है तो मुझे हरिप्रिया रंगन के शोध पत्र बेहद प्रासंगिक लगते हैं। हालांकि उत्तराखण्ड के ‘चिपको’ नेता हरिप्रिया रंगन की चर्चा करने से तक परहेज करते हैं। हरिप्रिया रंगन ‘चिपको आंदोलन’ को मूलतः एक रोजगार का आंदोलन मानती हैं और उसेे एक असफल आंदोलन मानती हैं, क्योंकि चिपको आंदोलन के बाद वनों से जुड़े रोजगार में भारी कमी आयी। वे मानती हैं कि चिपको आंदोलन के असफलता की परिणति के रूप में उत्तराखण्ड आंदोलन की उत्पत्ति हुई या दूसरे शब्दों में उत्तराखण्ड आंदोलन रोजगार की आकांक्षा से पैदा हुआ आन्दोलन था। हालाँकि यह एक उपन्यास है, मगर ऐसा ही एक प्रामाणिक दस्तावेज त्रेपन सिंह चैहान का उपन्यास ‘यमुना’ है। उपन्यास की नायिका को आशा है कि उत्तराखण्ड राज्य बनेगा तो हमारे लोग रोजगार के लिए पलायन नहीं करेंगे। उसका पति पंजाब में ट्रक चलाता है। वह आंदोलन में सक्रिय भूमिका अपनाती है। पर अंत में हर तरह से टूट कर वह मजबूरन अपने पति के साथ पलायन कर जाती है। संक्षेप में मेरे कहने का अर्थ यह है कि उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन का प्रमुख उद्देश्य जनता के लिए रोजगार था।
पिछले 17 सालों में उत्तराखंड के पर्वतीय इलाके की घोर उपेक्षा हुई और रोजगार से लेकर हर तरह की सुविधाओं में बहुत कमी हुई है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण पलायन में निरन्तर तेजी आना है। जो लोग उत्तराखण्ड आंदोलन में सक्रिय थे, वे आज हाशिये पर हैं और जिन लोगों की उस आन्दोलन में कोई भूमिका नहीं थी या जो लोग राज्य के विरोध में थे, वे लोग यहां पर राज कर रहे हैं। नौकरशाही लगातार मजबूत और भ्रष्ट हुई है। राजनीतिज्ञ व नौकरशाह भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुए हैं। 5-5 सालों में सरकारों की अदला-बदली होती रहती है। नेताओं की भरमार है, पर जमीन पर कोई काम होता हुआ नहीं दिखता। इन तमाम अराजकताओं और असफलताओं के बीच हमारे आंदोलनकारियों को क्या अब भी गैरसैंण ही सबसे प्रमुख मुद्दा लगता है। क्या गैरसैंण राजधानी बनने से प्रशासनिक व राजनीतिक संस्कृति में कोई नैतिक बदलाव आ जायेगा ?
राजधानी की स्थिति किसी राज्य के विकास में कितनी होती है, इसकी पड़ताल हो सकती है। गैरसैंण को राजधानी बनाने के पीछे लोगों की राय दो कारणों से थी। पहला, यह लगता था कि कुमांऊँ व गढ़वाल के बीच कई तरह के मतभेद होने के कारण गैरसैंण दोनों के बीच में बैठता था और दूसरा, यह पहाड़ी इलाके में था। इसलिए हमारा गैरसैंण के साथ भावनात्मक संबध रहा है। हमने यह तो सोचा था कि राजधानी कहां हो, पर यह कभी नहीं सोचा कि राजधानी कैसी हो ? यह उसी तरह की विबंडना थी कि पूरे राज्य आंदोलन में ‘राज्य चाहिये’ पर तो सहमति थी पर यह शायद ही कभी तय किया गया हो कि राज्य कैसा हो ? उसी का खामियाजा आज हम भुगत रहे हैं। आज कई लोग ऐसा कहते मिल जाते हैं कि उत्तराखण्ड से अच्छे तो हम उ.प्र. में थे! ऐसा मानना सर्वथा निराधार भी नहीं है। उ.प्र. में कई बेहतरीन शिक्षा संस्थान थे और आज भी हैं। हमारे छात्र उनसे वंचित हुए। हमारे पास जो भी एकाध शिक्षा संस्थान थे, वे आज नाम लेने लायक तक नहीं रह गये हैं। इसी तरह नौकरी के अवसरों में कमी आयी है, क्योंकि अविभाजित उ.प्र. की सरकारी नौकरियों में उत्तराखण्ड की हिस्सेदारी बहुत अधिक होती थी। राजनीति का हाल तो यह है कि लुटेरा पहले लखनऊ से वार करता था, अब वह घर में ही आ घमका है।
राज्य को लेकर यह उम्मीद थी कि इससे आम जनता की सरकार तक पहुँच आसान हो जायेगी, भ्रश्टाचार कम हो जायेगा, चिकित्सा स्वास्थ्य जैसी सुविधाएँ बढ़ेंगी और स्थानीय व क्षेत्रीय दलों के लिए चुनाव जीतना आसान होगा, जिससे कि वे सरकार के निर्णयों में प्रभावशाली भूमिका अपना सकेंगे। गैरसैंण में राजधानी के पीछे यह अवधारणा थी पहाड़ की राजधानी पहाड़ में ही हो। पर सही अर्थों में देखा जाये तो उत्तराखण्ड में भले ही क्षेत्रफल पहाड़ी इलाकों का ज्यादा हो, विकास से वंचित पहाड़ का ही भाग हो पर बोलबाला मैदानी हिस्से का ही है। चलती मैदानी लोगों की है। यही नहीं, हमारे पहाड़ के जनप्रतिनिधियों का स्थायी ठिकाना भी अब मैदानों में ही बन गया है। तो प्रश्न उठता है कि यदि हम लोग गैरसैंण में स्थायी तौर पर राजधानी ले भी आये तो क्या इस परिदृश्य में कोई बदलाव आयेगा ? क्या हम विधान सभा व अन्य सांवैधानिक पदों पर योग्य व क्षेत्रीय दलों के प्रतिनिधि पहुँचा सकेंगे ? उत्तर नकारात्मक ही होगा। तो अगला सवाल कि क्या हम गैरसैंण के नाम पर अपनी कीमती ऊर्जा नष्ट नहीं कर रहे हैं ? इन प्रश्नों का शाश्वत उत्तर यह है कि जनता के सही विकास का राज छोटे राज्य या राजधानी में नहीं, बल्कि सत्ता के विकेन्द्रीकरण में छुपा है। जरूरत इस बात की है राजधानी, विधान सभा और नौकरशाही को जनता के आवश्यक विषयों के संबध में अप्रासंगिक बना दिया जाये। आज सत्ता के केन्द्रीकृत होने के कारण गांव व शहर के विषयों में निर्णय का अधिकार केन्द्र व प्रदेश सरकारों के पास रहता है। इससे न केवल भ्रष्टाचार बढ़ता है, बल्कि वरीयता के कार्य नहीं हो पाते हैं। उत्तराखंड में यही हो रहा है। सत्ता के विकेन्द्रीकरण का अर्थ है कि गांव-शहर का प्रशासन स्थानीय निकाय व ग्रामसभाओं को सौंपा जाये। इसके लिए जरूरी है कि महत्वपूर्ण विषयों में उन्हें पूर्ण अधिकार दिये जायें। गांधी की भारत को लेकर यही परिकल्पना थी कि भारत आठ लाख गांवों का एक गणराज्य हो और प्रत्येक गांव स्वयं में स्वायत्त व आत्मनिर्भर हो।
हम गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने के आंदोलन में लगे लोगों का पिछला इतिहास जानते हैं। इन लोगों की ईमानदारी व निस्वार्थता पर कोई प्रश्न उठाया ही नहीं जा सकता। पर इन्हें सोचना चाहिये कि क्या आज की परिस्थितियों में गैरसैंण मात्र एक भावानात्मक मुद्दा नहीं रह गया है ? क्या अगर गैरसैंण में स्थायी राजधानी बन भी गयी जो क्या वास्तव में कोई बड़ा बदलाव आ जायेगा ? मैं स्पष्ट शब्दों में यह कहना चाहता हूँ कि हमें गैरसैंण के मोह से बाहर आ जाना चाहिये।
भाजपा व कांग्रेस की सरकारों ने गैरसैंण को एक झुनझुने की तरह प्रयोग किया है। गैरसैंण में निर्माण के अलावा और हो भी क्या रहा है ? जिस तरह का निर्माण कार्य वहाँ होता हुआ दिख रहा है, वह तो केवल ठेकेदारों के हितों को ही अधिक पूरा कर रहा है। जनता केवल बेवकूफ बन रही है। 17 साल पहले गैरसैंण में यदि राजधानी बन जाती तो निश्चित रूप से प्रशासनिक कार्य पद्धति में कोई बदलाव आता। एक नयी कार्य संस्कृति विकसित होती। पर अब तो प्रशासन में पूरी तरह उ.प्र. की ही भ्रष्टाचार की संस्कृति रच बस गयी है। तो इतने विलम्ब के बाद अगर गैरसैंण में स्थायी राजधानी बन भी गयी, तो यह अपसंस्कृति बदलेगी इसमें संदेह है। अतः इस मुद्दे पर भावानात्मक रूख छोड़ कर वास्तविकता को देखें। समस्याओं से घिरी जनता के पास पहुँचें और उसकी मूलभूत समस्याओं को दूर करने के लिए संघर्ष करें। उत्तराखण्ड में जमीनी स्तर पर संघर्ष करने वाले संगठनों का पूर्ण रूप से विलोप हो चुका है। ऐसे जमीनी संगठन बना कर उनके माध्यम से विकेन्द्रीकृत शासन व्यवस्था के पक्ष में राय विकसित करनी होगी और इस उद्देश्य को पाने के लिए बड़ा आंदोलन करना होगा। तभी उत्तराखण्ड राज्य के नाम धोखा खाये लोगों की किस्मत को बदला जा सकेगा।
एक जागृत समाज को समय-समय पर आत्म विश्लेषण करना ही चाहिये। क्या आज हमें इस बात का पुनरावलोकन करने की जरूरत नहीं है कि राज्य आंदोलन कहां पर से हमारे हाथ से निकल कर उन्हीं राजनीतिज्ञों के पास चला गया जो जनता के अधिकारों के लुटेरे थे ? यह तय करने की जरूरत नहीं है कि भारत में छोटे राज्य आम आदमी का विकास करेंगे या कि सत्ता का विकेन्द्रीकरण ? इस माह के अंत में हल्द्वानी में उत्तराखंड की महिलाओं का एक महा अधिवेशन होना है। मेरा माना है कि उसमें भी इस मुद्दे पर खुल कर बहस की जानी चाहिये।