राजीव लोचन साह
एक बार हम फिर एक नये साल के मुहाने पर हैं। इस उम्र में आकर प्रतीति होती है कि आप अगर व्यस्त रह सकें तो कोई भी साल कितनी जल्दी-जल्दी बीत जाता है।
हर साल इस मौके पर हम कुछ लिखने बैठते हैं। मगर मालूम पड़ता है कि हमारे पास कहने को कुछ है ही नहीं। पिछली बार वाली टिप्पणी इस बार भी तो ज्यों की त्यों धरी जा सकती है। नया कहने को कुछ होता नहीं। हर बार नयी उम्मीद के साथ हम नये साल में प्रवेश करते हैं, मगर कुछ होता-हवाता नहीं और मोहभंग ही होता है। मगर रवायत है कि अपनी जगह है। नया साल है तो मनाया ही जायेगा और कुछ विशेष लिखा भी जायेगा।
पिछले साल इन दिनों देश में, विशेष कर उत्तरी भारत में जबर्दस्त उत्साह था। अयोध्या में राम मन्दिर का उद्घाटन होने वाला था। धर्मप्राण हिन्दू फूले नहीं समा रहे थे। सारी बस्तियाँ भगवा झण्डों से पट गयी थीं। मीडिया में सिर्फ प्राण प्रतिष्ठा समारोह की ही चर्चा थी। कोई इस उद्घाटन के आगे सवाल उठा रहा था तो उसे मुँह की खानी पड़ रही थी। यहाँ तक कि सनातन धर्म के प्रमुख, चार शंकराचार्यों ने एक मुँह से जब यह कहा कि मन्दिर अभी पूरी तरह बना नहीं है और अधूरे मन्दिर में प्राण प्रतिष्ठा करना धर्मशास्त्रों की दृष्टि से वर्जित है तो उत्साही हिन्दू और उनके साथ भाजपा का आई.टी. सैल तथा पूरा का पूरा गोदी मीडिया उन पर आक्रामक हो गये। परिणामस्वरूप शंकराचार्यों ने चुप होकर इस आयोजन से अलग हो जाना ही उचित समझा। 22 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक भव्य ऐतिहासिक कार्यक्रम में, बगैर अपनी अद्र्धांगिनी को साथ रखे (जो कि किसी धार्मिक अनुष्ठान में अनिवार्य है) रामलला के विग्रह में प्राण प्रतिष्ठित कर दिये। अयोध्या उस दौर में विश्व का सबसे चर्चित शहर बना रहा। इसके बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का आत्मविश्वास इतना बढ़ा कि वे कहने लगे कि उनका जन्म सामान्य जैविक क्रिया से नहीं हुआ है, बल्कि ईश्वर ने कुछ विशेष करने के लिये उन्हें धरती पर भेजा है। मगर अधिसंख्य जनता को धीरे-धीरे यह समझ में आने लगा कि यह सारा प्रपंच चुनावों को लेकर था और इसीलिये जून 2024 में जब लोकसभा के चुनाव परिणाम आये तो भारतीय जनता पार्टी को पहले जैसी सफलता नहीं मिली। चुनाव से पूर्व उसका नारा था ‘अब की बार चार सौ पार’, परन्तु वह अपने बूते पर केवल 240 सीटें ही ला पायी और एन.डी.ए. के बाकी घटक दलों के 53 सदस्यों की मदद से ही उसकी सरकार बन पायी। उल्लेखनीय बात यह रही कि खास अयोध्या में भारतीय जनता पार्टी का प्रत्याशी लोकसभा का चुंनाव हार गया। एक तेज बरसात में ही अयोध्या में सड़कों में दरारें पड़ जाने और मुख्य मन्दिर में पानी चूने की खबरों से मन्दिर निर्माण में हुआ प्रचण्ड भ्रष्टाचार भी सामने आया।
राम मन्दिर में प्राण प्रतिष्ठा के केवल 17 दिन बाद हल्द्वानी के बनभूलपुरा में एक दुःखद घटना घट गई। कथित तौर पर अवैध कहे जा रहे एक मदरसे को प्रशासन द्वारा ध्वस्त किये जाने के दौरान हुई हिंसा में आधिकारिक रूप से पाँच व्यक्ति मारे गये। हालाँकि मरे कुछ ज्यादा ही थे। पूरा इलाका हफ्तों तक आतंक में डूबा रहा। गोदी मीडिया ने चटखारे ले लेकर सनसनीखेज खबरें छापीं। यह घटना पूरी तरह प्रशासनिक विफलता के कारण हुई। इस बात का भी सन्देह होता है कि सत्ताधारी भाजपा ने धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण करने के अपने एजेण्डे के तहत एक सुनियोजित ढंग से इस घटना की पृष्ठभूमि तैयार की, क्योंकि इसके बाद भी पूरे साल भर देवभूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड में नफरत फैलाने की कोशिशें की जाती रहीं। सरकार और प्रशासन जानबूझ कर दंगायी तत्वों को छूट देते रहे। उत्तरकाशी में तो नफरतियों ने पुलिस वालों को ही अपने हमले का शिकार बनाया और उनकी पिटायी की, मगर अपराधियों का बाल भी बाँका नहीं हो सका। सरकार ने दंगाइयों और पुलिस के बीच दंगाइयों को प्राथमिकता दी। अभी कुछ ही दिन पहले जब हरिद्वार में पुलिस-प्रशासन ने अदालती निर्देशों के क्रम में जैसे-तैसे यति नरसिंहानन्द नामक एक नफरती को ‘धर्मसंसद’ करने से रोक दिया तो उसने सर्वोच्च न्यायालय के खिलाफ ही विष वमन करना शुरू कर दिया।
यह नफरत वर्ष 2024 में पूरे भारतवर्ष का स्थायी भाव बनी रही।
देखना यह है कि क्या वर्ष 2025 में भी ऐसा ही होगा ?
पिछले दिनों अचानक एक रोचक संयोग पर नजर पड़ गयी। वर्ष 2025 में दो महत्वपूर्ण शताब्दियाँ होने वाली हैं। पहली भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की और दूसरी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। 26 दिसम्बर 1925 को मानवेन्द्र नाथ राय ने कानपुर में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की थी और इससे तीन माह पहले 27 सितम्बर को नागपुर में केशव बलीराम हेडेगवार ने आर.एस.एस. यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की। कम्युनिस्ट पार्टी कार्ल माक्र्स की विचारधारा पर खड़ी हुई थी, जिसमें बाद में लेनिन और माओ के अनुभवों को भी शामिल किया गया। यह विचारधारा मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को खत्म करने और समाज में आर्थिक समानता लाने की बात करती थी। धर्म के लिये इसमें कोई स्थान नहीं था। पचास साल से अधिक समय तक यह विचार भारत में बहुत मजबूत रहा। देश को औपनिवेशिक शासन से मुक्त कराने के संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाने वाली संस्था भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में भी इस विचारधारा के लोग मौजूद रहे। अनेक विचारक, लेखक, साहित्यकार, कलाकार, संस्कृतिकर्मी, शिक्षा शास्त्री इस विचारधारा से प्रभावित होकर रचनाकर्म में संलग्न रहे और लाखों लोग इस विचार से प्रभावित होकर अपनी जिन्दगी बदलने के संघर्ष में जुटे। चुनाव की राजनीति में भी कम्युनिस्ट पार्टी ने उल्लेखनीय सफलतायें प्राप्त कीं। मगर एक समय के बाद कम्युनिस्ट पार्टियों में विचारधारा में मतभेद के नाम पर जो टूट शुरू हुई, उससे यह दर्जनों टुकड़ों में बँट गई और उसी अनुपात में उसकी शक्ति भी क्षीण होती गयी। आज स्थिति यह है कि समझ में नहीं आता कि किस पार्टी को कम्युनिस्ट पार्टी कहा जाये और किसे नहीं। कम्युनिस्टों के पास अपने विचार से जन साधारण को परिचित कराने के तरीके ही नहीं बचे।
दूसरी ओर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, यानी आर.एस.एस. की विचारधारा सिर्फ इतनी थी कि भारत हिन्दुओं का देश है और केवल उन्हीं धर्मों के लोग भारत में रह सकते हैं, जो धर्म भारत में जन्मे हों। इस आधार पर यह इस्लाम और ईसाई मत को खारिज करता था। हिन्दू धर्म में व्याप्त सारे दुर्गुणों को यह पूरी तरह स्वीकार करता था और समाज के आर्थिक स्वरूप को लेकर तो इसकी कोई सोच ही नहीं थी। एक आदर्श के रूप में इसके पास यहूदियों से घृणा करने वाला नाजीवाद था, जिसका प्रमाण यह है कि भारत में प्रचलित पहनावे ‘धोती’ के स्थान पर इसने ‘खाकी निकर’ को अपने गणवेश के रूप में स्वीकारा और अभिवादन के रूप में पारम्परिक ढंग से हाथ जोड़ने के स्थान पर दाहिने हाथ की हथेली को छाती पर आड़ा रखना शुरू किया। मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने के अपने प्रयत्नों से इसने देश के विभाजन के लिये जिन्ना और मुस्लिम लीग की परोक्ष रूप में बड़ी मदद की। ब्रिटिश दासता से देश को मुक्त कराने की लड़ाई में यह न सिर्फ अलग रहा, बल्कि कांग्रेस के कार्यक्रमों के विरोध में लगातार सक्रिय भूमिका निभाता रहा। गांधी की हत्या के बाद भारत के गृहमंत्री बल्लभ भाई पटेल ने और इमर्जेंसी में प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने इमर्जेंसी में थोड़े-थोड़े समय के लिये आर.एस.एस. पर प्रतिबंध लगाया था। देश की आजादी के बाद संविधान में ‘धर्म निरपेक्षता’ को अंगीकार कर लिये जाने के बाद लम्बे समय तक इसकी गतिविधियाँ सीमित ही रहीं। मगर पिछली सदी के सातवें दशक से अयोध्या में राम मन्दिर आन्दोलन के साथ इसका विचार फिर से मजबूत होना शुरू हुआ और आज इसकी विचारधारा देश की सबसे शक्तिशाली विचारधारा है। एक पुष्ट इतिहास के बदले इसने अपना एक नया इतिहास गढ़ लिया है। इससे जुड़े दर्जनों संगठन सैकड़ों माध्यमों से करोड़ों देशवासियों की मानसिकता तैयार कर रहे हैं और इसका राजनीतिक संगठन, भारतीय जनता पार्टी मजबूती से देश पर शासन कर रहा है।
सौ साल में समाज कितना बदल जाता है ? हम सिर्फ एक साल के उतार-चढ़ाव से प्रसन्न या दुःखी होते रहते हैं। जल्दबाजी में अपने फैसले दे डालते हैं।
2024 का साल रतन टाटा, जाकिर हुसैन और श्याम बेनेगल जैसे अनेक विराट व्यक्तित्वों को हमसे छीन ले गया। इस वक्त, जब हम नये साल के स्वागत में ये पंक्तियाँ लिख रहे हैं, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के देहान्त की खबर मिल रही है। हम डाॅ. मनमोहन सिंह के प्रशंसक नहीं रहे, बावजूद उनके मनरेगा, सूचना का अधिकार और वनाधिकार जैसे महत्वपूर्ण कानूनों के। हम मानते रहे कि उनके शासन में आर्थिक उदारीकरण के नाम पर संसाधनों की वह निर्मम लूट शुरू हुई, जिसे मौजूदा सरकार की मदद से आज गौतम अडानी ने आकाश की बुलन्दियों तक पहुँचा दिया है। मगर इस वक्त हमें आर्थिक उदारीकरण का जनक नहीं, एक बेहद शिष्ट, शालीन, विनम्र, अपरिग्रही और मितभाषी व्यक्ति याद आ रहा है, जो प्रधानमंत्री के रूप में कभी जनता के सवालों से किनारा नहीं करता था, न अपनी कमजोरियों को छिपाने के लिये बड़बोलेपन के साथ प्रतिपक्ष पर हमले करता था। डाॅ. मनमोहन सिंह और हमारे सामाजिक जीवन में खालीपन छोड़ जाने वाले तमाम व्यक्तियों को हम हार्दिक श्रद्धांजलि देना चाहते हैं।
फिलहाल इतना ही। थोड़ा कहा, बहुत समझना। अब आगे की ओर देखें।
तुम आओ तो बीस सौ पच्चीस, शायद अगली बार हमें सचमुच कुछ नया कहने को मिले!