कमल जोशी
कोटद्वार तब कस्बे का रूप ले चुका था पर इसके दिल में गांव ही धड़क रहा था। मेरी तरह की एक पूरी पीढ़ी पैदा तो कोटद्वार में हुई थी, पर घर का माहौल उस पीढ़ी से संचालित होता था जो पहाड़ी गांवों से यहां आई थी। गांव की इस पीढ़ी ने अपनी गांव की परम्परा और विरासत को अभी छोड़ा नहीं था। पुरानी पीढ़ी परम्परा को जिंदा रखने की जिम्मेदारी निभा रही थी और हम जो यहीं पैदा हुए, पले बढ़े थे- दूसरी मानसिकता में जी रहे थे। यहां एक ओर हम अपेक्षाकृत संसाधन-विहीन परिवारों से थे, हमें संसाधन वाले घरों के बच्चों से टक्कर लेनी थी। न केवल जीना था- वरन ‘इज्जत’ और ‘आत्म सम्मान’ से जीना था। संघर्ष वही पुराना और शाश्वत था वर्ग संघर्ष ! ‘हैव्स और हैव नॉट’ के बीच का, अब सोचता हूं तो ये संघर्ष हमारे और मार्केट फोर्सेज के बीच का लगता है।
मेरी होली की यादें 1964 से 1968 तक का फ्लैश बैक हैं। पहाड़ी परिवार अपनी होली गांव की यादों के साथ गीत गाकर, मीठे स्वालें बनाकर, होलिका दहन के समय लोक नृत्य कर मनाते, जबकि मारवाड़ी व्यापारिक परिवार की महिलाएं राजस्थानी गीत गातीं और गोबर के छोटे छेद वाले उपलों की माला से होलिका की पूजा करतीं।
हम बच्चे होली अपने जुगाड़ से मनाते। हमारे एक ओर व्यापारी परिवार के बच्चे और कुछ नौकरी पेशा वाले मां-बाप के संसाधन युक्त बच्चे थे। होली खेलने के लिए इनके अभिभावक खर्च कर सकते थे और हमें अपने त्योहार का मजा जुगाड़ से पैदा करना होता ! इस तरह होली हमारे लिए सिर्फ एक त्योहार भर नहीं होता अपितु यह उल्लास, कर्मठता, रणनीति और जुगाड़ सीखने का समय भी होता।
तब मेरी और साथियों की उम्र रही होगी यही कोई 12-13 साल। हम बच्चे भी थे और बड़े भी। हम उस परिवार से थे जहां ये समझा जाता कि बच्चों को पैसा देने का मतलब है उसे बिगाड़ना ! हमें यानी अनिल और मुझको साल में तीन बार ही खर्चे के लिए पैसे मिलते थे। सबसे पहले दशहरे के मेले के लिए पैसे मिलते, जिससे हम लाल सेलिफेन की पन्नी के बने चश्मे और एक गुब्बारे लगी पिपरी खरीदते। ये बात अलग थी कि घर आते-आते चश्मे फूट जाते और पिपरी की आवाज बुसा जाती। दूसरा मौका होता था गिंदी का मेला यहां नारंगी रंग की जलेबी की चाह पिपरी पर भारी पड़ती और हम पूरे दो आने की जलेबी खा जाते। पैसे मिलने का तीसरा मौका होता था होली, इसमें रंग खरीदने की जुगत होती थी। वैसे पिताजी गीले रंगों के खिलाफ रहते। वे गुलाल खरीद कर लाते और कहते इसी से होली खेलो। उस उम्र में सूखे रंग से होली खेलना सम्भव था नहीं सो हम मां के पीछे पड़ जाते। काफी मशक्कत के बाद मां हम दोनों भाइयों को चार आने इस हिदायत के साथ देती कि ‘फालतू में मत खर्च करना!’
बाजारी सिंथेटिक रंग उस वक्त जर्मनी से इम्पोर्ट होते थे महंगे। उन दिनों नारंगी रंग के टेसू के फूलों से रंग बनाकर खेलने का प्रचलन था। मां के दिए इतने कम पैसों में बाजारी रंग आ पाना मुश्किल था ? इसलिए टेसू से रंग बनाने के लिए हम एडवेंचर ट्रिप पर जाते। कोटद्वार से 12 किलोमीटर दूर नजीबाबाद जाने वाली सड़क पर टेसू (पलास) के पेड़ों की कतारें फूलों से गजागज भरी रहीं। उस वक्त पेड़ों पर पत्ते नहीं सिर्फ फूल ही नजर आते थे। घर से टेसू के फूल लेने जाने की इजाजत हमें मिलती नहीं थी इसलिए हम उन्हें बिना बताये किसी बहाने से टेसू के फूल एकत्रित करते थे।
हमारी टीम के कुछ सदस्य साइकिल-धारी होते थे। हम उनकी चमचागिरी करते और वे तात्कालिक महत्व का फायदा उठाते हुए नखरे दिखाकर, हमसे अपने काम कराते। हम मन ही मन ‘बाद में देख लेने’ की बात कहकर उनकी आज्ञा मानने को मजबूर से रहते। होली से तीन चार दिन पहले का कोई दिन फूल जमा करने के लिए तय किया जाता। फूल लाने के लिए घर से थैले चुराने पड़ते! एक्सपिडिशन के लिए ऐसा दिन चुना जाता जिस दिन इतवार न हो (इतवार के दिन का हिसाब घर वालों को देना होता इसलिए स्कूल वाला दिन चुना जाता)। इन दिनों स्कूलों में एग्जाम नजदीक होते, सो एक्स्ट्रा क्लास का बहाना कर हम 8 बजे जमा हो जाते। एक-एक साइकिल पर दो-तीन के हिसाब से सवार होकर हमारा काफिला अपने-अपने थैले लेकर चल पड़ता। नजीबाबाद की तरफ जाते हुए ढाल होता। साइकिल तेजी से रपटती चली जाती। पता ही नहीं चलता कि कब बारह किलोमीटर पूरे हुए। लगता सड़क के किनारे खड़े टेसू के पेड़ हमारा ही इंतजार कर रहे हैं। कमजोर दिल वाले जो पेड़ में नहीं चढ़ पाते वो नीचे झड़े हुए फूलों को जमा करने लगते और एड्वन्वरिस्ट पेड़ों पर चढ़कर फूलों भरी टहनी तोड़कर नीचे गिराते जाते। फूलों को इकट्ठा कर थैलों में भरने का काम नीचे खड़े सदस्यों का होता। जब जाने का वक्त होता तो एक बड़ी समस्या हो जाती। अति जोश में जो साथी पेड़ पर खूब ऊपर तक चढ़ जाते, उतरने पर उन्हें नानी याद आने लगती। फिर पूरी टीम उन्हें किसी तरह सुरक्षित उतारने में लग जाती। कुछ उपर चढ़कर उन्हें बताते कि कहां पर पैर रखें, कहां से टहनी को पकड़ें। कुछ सदस्य नीचे से निर्देश देते। ये निर्देश उतरने वाले को अक्सर कन्फ्यूज कर देते। जितना समय फूल तोड़ने में लगता उससे ज्यादा समय पेड़ पर चढ़े महारथियों को उतारने में लग जाता।
इसके बाद अब सत्र तू-तू, मैं-मैं का होता। वापस आते वक्त फूल तोड़ने की थकान के बाद चढ़ाई पर साइकिल चलाने के लिए सब आनाकानी करते, ऊपर से डबलिंग और फूलों का बोझ अलग। सब कहते ‘साइकिल तू चला – साइकिल तू चला।’ खैर थोड़ी देर बाद मामला सेटल होता कि बारी-बारी से सब चलाएंगे। इस वक्त अपने को सबसे सुखी वह समझते जिन्हें साइकिल चलानी नहीं आती थी।
वापसी में बस एक सुकून होता। रास्ते में गन्ने के क्रेशर थे। वहां की शर्त होती कि जितने चाहे गन्ने खा लो, पर घर नहीं ले जा सकते थे। वहां पर रुक कर जी भर के गन्ने खाए जाते और एनर्जी रिस्टोर की जाती। हम कितनी भी जल्दी करते पर शाम को घर पहुंचने में देर हो जाती। गन्ने खाने में समय का ध्यान ही नहीं रहता। जिनके घरवाले भले मानस होते वे सिर्फ डांट ही खाते। हमारे नसीब में यह भल-मनसाहत नहीं थी सो खूब मार पड़ती।
अब अगला काम होता था रंग पकाने का। टेसू के फूलों से रंग निकालने के लिए उन्हें पानी में उबालना पड़ता। बोरा भरकर जमा किये गए फूलों को उबालने के लिए बर्तन भी बड़ा ही चाहिए था। हमारी नजर में एक ही बर्तन रहता। वह था हज्जन चचा का कपड़े धोने वाला टब। वे हमारे पड़ोसी थे। हम सब हज्जन मियां के चक्कर काटने लगते और कहते ‘चचा एक दिन के लिए टब हमें दे दो’ जबकि हमें पता था कि हम तीन-चार दिन तक टब लौटा ही नहीं सकते। इस बात को हज्जन चचा भी अच्छी तरह जानते थे। वे कहते ‘पिछली बार भी दिया था, तुमने उसे काला करके वापस दिया था, मेरे धोये कपड़े खराब हो गए… मैं दो दिन तक टब धोता रहा’…। हम उदास चेहरों के साथ हज्जन चचा की दुकान में उन्हें घेर कर बैठ जाते। हज्जन चचा चेहरे का भाव बदले बिना, बार-बार कनखियों से हमारी ओर देखते। बाहर से कठोर पर अन्दर से उदार हृदय वाले हज्जन मियां कुछ ही देर में नरम होने लगते। हम समझ जाते कि अब टब मिलने ही वाला है। आखिर चचा दो-चार मीठी गालियां देकर टब देने की हामी इस ताकीद के साथ देते कि ‘टब जैसा साफ दिया जा रहा है, वैसे ही साफ वापस करना होगा’। हम सब समवेत स्वर में ‘बिल्कुल चचा’ कहकर उछलने लगते। हज्जन चचा पोपली मुस्कराहट के साथ कहते ‘हरामियो, जाओ अब खाना खाओ।’ वे अच्छी तरह जानते थे कि इस बार भी टब उन्हें कालिख से भरा ही वापस मिलेगा। पर बच्चे तो उनके लिए फरिश्ते थे।
अब रंग बनाने की कारसाजी शुरू होती। मिन्नतों के बाद किसी के छत पर चूल्हा बनाया जाता। लकड़ी की विशेष परेशानी थी नहीं। सब अपने-अपने घर से लकड़ी चुराकर ले आते। उत्साह में हम इतनी लकड़ी जमा कर देते कि रंग बनाने के बाद भी बच जाती। छोटी होली से एक दिन पहले छत पर भट्टी लगती। टब चढ़ाया जाता। उसमें हम टेसू के फूल और पानी भर देते। भट्टी सुलगाने का काम जरा मुश्किल होता पर हम किसी तरह सुलगा कर ही दम लेते। धीरे-धीरे रंग पकने लगता। नत्था भाई मिठाई कारीगर के साथ ही बांस की पिचकारी बनाने के भी अब हमारा दूसरा काम होता भागसिंह हलवाई के कारीगर नत्था भाई को कारीगर थे। शाम को जब मिठाई बनायी जानी बंद होती तो हम उनके पीछे पड़ जाते। नत्था भाई भी अपनी कला दिखाने को बेताब रहते। वह चाहते थे कि हम सब उनकी खुशामद करें।
हम आम के बागों की रखवाली करने वालों से बांस मांग लाते। शाम को नत्था भाई की पिचकारी बनाने की वर्कशॉप लगती। वह बांस को गांठ के पास से आरी से काटते और गांठ के दूसरी तरफ के हिस्से को अगली गांठ के समीप। इस तरह एक खोखले बांस का सिलिंडर बन जाता। इन बांस के टुकड़ों को वे रात को छिपा कर भट्टी पर रख देते। सुबह जब भट्टी सुलगती तो वे बांस के सिलिंडर के गांठ वाली मुंह की तरफ से ‘ओप्टिमम मार’ (बेहतरीन लक्ष्य भेदन) के लिए गरम सुवे से छेद कर देते।
होली का दिन हमारा ‘डी-डे’ होता। प्रभुत्व के संघर्ष का यानी जुगाड़ी वर्सेज संसाधन वालों का। लगभग आठ-नौ बजे के बाद हमें होली खेलने की इजाजत मिलती। हमारा दल अपने ‘हथियारों’ और ‘एम्युनिशन’ के साथ गली के एक ओर तैनात होता। दूसरी ओर बाजार से खरीदे रंग और पिचकारी वाले रहते। इस तरह लोकल वर्सेज ग्लोबल मार्किट की सीधी लड़ाई होती। पहले विरोधी पक्ष मार करता। लम्बी दूरी तक मार करने वाली पीतल की पिचकारी के रंगों से हम बिना हथियार उठाये ही पहले झटके में ही रंगीन हो जाते। इनके आगे हमारी बांस की पिचकारियां आधी दूरी तक भी मार नहीं कर पातीं। इन्हें पिचकारी की रेंज तक लाने के लिए हमें रंगों की बौछारों में ही आगे बढ़कर उन पर रंग डालना होता। हमारी हिम्मत भी जबाब देने लगती क्योंकि बाजारी रंग तेज होते और हमारा टेसू का रंग उसके सामने फीका पड़ जाता। हमारी नाकामी पर विरोधी हमें चिढ़ाने लग जाते। अब दूसरी रणनीति का सहारा लिया जाता। उस वक्त तक न तो हमें शिवाजी के छापामार युद्ध शैली का पता था और न ही चे-गुएरा के गुर्रिल्ला रणनीति का। बस हालात और अनुभव ने हमें ज्ञानी बना दिया था। हममें जो कमजोर किस्म के थे वे पिचकारी थामे मोर्चा सम्हाले रहते और मुस्टंडे जैसे साथी छतों से कूदते हुए गली के दूसरे छोर पर पहुंच जाते। विरोधी दल का ध्यान हम पर ही रहता सो वे पीछे से उनके रंगों की बाल्टी छीन लेते। बाल्टी बचाने के चक्कर में जब वे लोग पिचकारी नीचे रख कर बाल्टी बचाने लगते तो टीम के पैदल सिपाही आगे बढ़कर उनकी पिचकारियां फेंक देते। होली युद्ध अब पिचकारी के बजाय हाथों से लड़ा जाने लगता। रंग की बाल्टियों की छीना-झपटी में दोनों पक्ष तर-बतर हो जाते। इस बार विरोधी पक्ष अपने ही पक्के रंगों से पुता होता जो हमारी मुस्टंडा ब्रिगेड की उपलब्धि होती। बाद में दोनों दल आपस में मिलकर खूब मस्ती करते। फिर सब घरों में जाकर नमकीन-मिठाई खाते, जिन घरों में गुजिया बनी होती, वहां तो हम पहले ही पहुंच जाते।
रंगों से पुते चेहरे लेकर जब हम घर पहुंचते तब एक नई कहानी शुरू होती। जिन बर्तनों से हम रंग खेलते वो पिचक जाते। इसके लिए हमारी पिटाई भी होती। कई बार हमारा ‘विलाप’ इस मार से हमें बचा ले जाता था। रंग छुड़ाने के लिए नहलाते वक्त हमारी घिसाई भी होती। तब हमारा क्रंदन पांचवें और सातवें सुर पर पहुंच जाता था। इस समय अमूमन हर घर से इसी तरह के समवेत सुर सुनाई पड़ते थे।
हज्जन चचा का टब जो एक किनारे लावारिस पड़ा होता अब उसे लौटाना हमारे लिये बड़ी समस्या हो जाती। हम सब टब लेकर ऐसे मोड़ पर खड़े हो जाते जहां से हम हज्जन मियां को आसानी से देख सकते थे पर वे हमें नहीं देख पाते। हज्जन मियां अच्छी तरह जानते थे कि हम उनका टब लौटाने के लिए ऐसा कर रहे हैं। वे यह भी जानते थे कि इस बार भी टब काला ही मिलेगा, वे जानबूझ कर अपनी दूकान से उठकर चले जाते थे ताकि हम आसानी से टब रख सकें और बाइज्जत भाग सकें। उनके जाते ही हम उनकी दुकान में काला टब रखकर तेजी से भाग जाते। थोड़ी देर बाद हमें हज्जन चचा की कड़क और ऊंची आवाज सुनाई देती- ‘हरामियो, फिर काला कर दिया टब ! अब अगली बार नहीं दूंगा…।‘ यह कहकर हज्जन चचा दोनों हाथ उठाकर आसमान की तरफ देखते… और हम बच्चों को दुआएं देने लगते।