राजीव लोचन साह
हाल के सालों के भारत के सबसे वाचाल और बड़बोले मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चन्द्रचूड़ 8 नवम्बर कोे सेवानिवृत्त हो गये। वे एक सवाल भी छोड़ गये कि इतिहास उन्हें किस रूप में याद करेगा। उनके कार्यकाल में सर्वोच्च न्यायालय में कई बदलाव हुए। नयी टाइल्स लगवायी गईं। अदालत की कार्रवाही लाइव स्ट्रीम की गई। न्याय की देवी की मूर्ति को हिन्दू देवी का रूप देकर उन्होंने एक विवाद भी पैदा किया, भले ही उस देवी की आँखों से पट्टी हटाकर उसके हाथ में संविधान पकड़ा दिया गया हो। उनके प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ गणेश पूजा करने से तो न्यायापालिका की निष्पक्षता पर विश्वास करने वाला हर व्यक्ति हिल गया। राम मन्दिर पर निर्णय लेने से पहले प्रार्थना करने की उनकी स्वीकारोक्ति ने भी अनेक भौंहें टेढ़ी कीं। इतिहास किसी न्यायाधीश को उसकी निष्पक्षता, न्यायप्रियता और साहस के लिये याद करता है। 1975 में प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के चुनाव को रद्द करने वाले इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जगमोहन लाल सिन्हा को लोग आज भी याद करते हैं। चन्द्रचूड़ को सुनवायी के दौरान अपनी टिप्पणियों से असीमित उम्मीदें जगाने वाले लेकिन ऐन फैसलों के वक्त कन्नी काट लेने वाले न्यायाधीश के रूप में याद किया जायेगा। इसका एक उदाहरण चुनावी बाॅण्ड का है, जिसमें उन्होंने सरकार को घुटने टेकने के लिये तो मजबूर किया, मगर मामले की जाँच करने का आदेश देने से मना कर दिया। संविधान की धारा 370 और होमोसेक्सुअलिटी जैसे मामलों में भी यही प्रवृत्ति देखी गई। संविधान पर हो रहे भयानक हमलों के कारण यह दौर इतना चुनौतीपूर्ण था कि यहाँ मुख्य न्यायाधीश के लिये चैतन्य और प्रो एक्टिव होना बहुत जरूरी था। मगर चन्द्रचूड़ यह कहते हुए सिर्फ मणिपुर का मामला ही सुओ मोटो उठा सके कि यदि सरकार कुछ नहीं करती तो हम करेेंगे। मगर इस मामले में आगे क्या हुआ, यह किसी को नहीं मालूम। वरिष्ठ एडवोकेट दुष्यन्त दवे तो साफ-साफ शब्दों में कहते हैं कि चन्द्रचूड़ की विरासत को जितनी जल्दी भुला दिया जाये, उतना अच्छा।