इस्लाम हुसैन
मौजूदा दौर में अर्थव्यवस्था की हालत खराब नहीं बेहद खराब होती जा रही है। इसका रोजगार से सीधा सम्बन्ध है, घटते हुए रोजगार के अवसर से। देश में 45 प्रतिशत बेरोजगारी है। लोअर मिडिल क्लास गरीबी की तरफ बढ़ रहा है। 2020 में 5.6 करोड़ भारतीय अत्यंत गरीब हुए हैं।
पूरी दुनिया के 7.1 करोड़ नये गरीबों में 80 प्रतिशत हिस्सा भारत का है। देश के 77 प्रतिशत अवाम की झोली, थैली, गल्ला, बैंक बैलेंस, दिल सब खाली है। कुछ है तो सिर्फ 5 किलो अनाज। मोदी सत्ता के पहले कार्यकाल में महंगाई 24 प्रतिशत बढ़ी। दूसरे कार्यकाल में 34 प्रतिशत। कुल मिलाकर 64 प्रतिशत। डर है कि तीसरे कार्यकाल यह 100 प्रतिशत पार कर जाएगी। यानी, आज की तारीख में 25 हजार रुपये कमाने वाले को 2029 तक 50 हजार कमाने होंगे।
इस को इस तरह समझाया जा सकता है। देश के गरीबों की कमाई बीते 15 साल में आधी घट गई। लोअर मिडिल क्लास की आय 30 प्रतिशत घट गई और अब वह कर्ज पर आ गया है। मिडिल क्लास भी 10 प्रतिशत कमाई घटा कर लोन के जंजाल में फंसा है। लेकिन अपर मिडिल क्लास की कमाई 7 प्रतिशत बढ़ी तो मोदी सत्ता की 7 प्रतिशत महंगाई ने उसे भी लूट लिया। इन वर्गों की बचत नकारात्मक होती जा रही है। लोग अपना सोना गिरवी रखकर कर्ज ले रहे हैं। इस सब के बीच देश के अमीरों की कमाई में 40 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। इस सब का सीधा असर बचत, निवेश और रोजगार पर पड़ रहा है।
इसका बड़ा कारण उत्पादन के क्षेत्र में नई परियोजनाओं का न आना है। यूं कहें कि मैन्युफैक्चरिंग ग्रोथ जीरो पर आ गई, जिससे नए रोजगार नहीं बढ़ सके। मैन्युफैक्चरिंग न बढ़ने से एन्सेलिएरी, छोटे उद्योग, आईटी सैक्टर से लेकर सर्विस सैक्टर लौजेस्टिक और व्यापार सब पर असर पड़ा है। भारत के बाजारों में विदेशी निवेश 2012 से भी नीचे जा चुका है। इस खबर का बहुत कम हिंदी के अखबार ने उल्लेख किया है। बस कुछ बिजनेस चैनलों या अंग्रेजी अखबारांे ने कवर किया है।
शेयर बाजार की तेजी या मंदी पर कोई कमेंट ना भी किया जाए तो आंकड़े चिंता करने वाले हैं। (1) विदेशी निवेश 2012 से 17 प्रतिशत घट गया; (2) वर्तमान में एफडीआई 23 प्रतिशत घट गया; (3) देशी उद्योगपति इन्वेस्टमेंट नहीं कर रहे हैं; (4) व्यक्तिगत निवेश 50 सालों के नीचे लेवल पर; (5) पिछले कुछ समय से नया इंवेस्टमेंट तो आया नहीं, उल्टे विदेशी निवेशक भारतीय शेयर बाजार से करीब एक लाख करोड़ रुपया निकाल ले गए। इस बीच चीन और बांग्लादेश में विदेशी निवेश बढ़ रहा है। (6) विदेश व्यापार घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है चीन के साथ तो भयावह रूप से बढ़ा है। (7) 80 करोड़ अवाम फ्री राशन की लाइन में है। ऐसे में नौकरी-रोजगार की बात कैसे हो ?
तो फिर इकोनमी चल कैसे रही है? 140 करोड़ का मुल्क है। इकोनमी जीरो तो होगी नहीं। मर-खप कर भी आधे-पूरे पेट खाना तो खाना पड़ेगा। याद कीजिए 18-20 साल पहले की आर्थिक मंदी। तब पश्चिमी देशों की इकोनमी तबाह हुई थी और मुल्क की गाड़ी चल रही थी। पाकिस्तान, श्रीलंका, सोमालिया जैसे देश भी आखिर चल ही रहे हैं।
देशी-विदेशी निवेश न बढ़ने से अलग-अलग आधारभूत क्षेत्रों सहित अन्य क्षेत्रों के उत्पादन के नए कारखाने नहीं बन रहे हैं और दूसरी तरफ उत्पादन नकारात्मक हो रहा है। फिर वस्तुओं की मार्केटिंग नहीं हो पा रही है। अकेले परिवहन सैक्टर में हजारों वाहनों की बिक्री नहीं हुई है।
लोन डिफॉल्टरों की वजह से बैंक डूब रहे हैं। अमीर खुश हैं। उसी लोन से उनकी प्रॉपर्टी खड़ी हो रही है। सत्ता ने 66 लाख करोड़ एनपीए में से 14.5 लाख करोड़ अमीरों को दान कर दिए। नोटबंदी ने उस असंगठित क्षेत्र की कमर तोड़ दी, जो समानांतर अर्थव्यवस्था को बरकरार रखे हुए था। वहीं जीएसटी ने आर्थिक सुधार के नजरियों को ताबूत बनाकर उस पर कील ठोंक दी। इससे इनफॉर्मल सेक्टर सरकार की निगाह में आया, जहां सरकार इससे वसूली करती दिखती.
असंगठित क्षेत्र के 45 करोड़ से अधिक लोगों के सामने रोजगार का संकट उभरा तो संगठित क्षेत्र से जुड़े लोगों के सामने ये उलझन पैदा हो गई कि वे बिना पूंजी कैसे आगे बढ़ें। इस प्रकिया में रियल एस्टेट से लेकर हर उत्पाद कारखाने में ही सिमटकर रह गया.
भारत का सबसे गरीब आधा हिस्सा जीएसटी का दो-तिहाई हिस्सा देता है, जबकि सबसे अमीर लोग केवल 3 प्रतिशत देते हैं। भारत में शीर्ष एक प्रतिशत अमीर लोगों के पास 2012 से 2021 तक देश में बनाई गई कुल संपत्ति का 40 प्रतिशत से अधिक हिस्सा है, जबकि केवल 3 प्रतिशत संपत्ति नीचे के 50 प्रतिशत लोगों के पास गई है। सिर्फ पांच प्रतिशत भारतीयों के पास देश की 60 प्रतिशत से अधिक संपत्ति है।
2019 में, केंद्र सरकार ने कॉरपोरेट टैक्स स्लैब को 30 प्रतिशत से घटाकर 22 प्रतिशत कर दिया, जिसमें नई निगमित कंपनियों को 15 प्रतिशत कम दर का भुगतान करना पड़ा। कॉरपोरेट्स को प्रोत्साहन और कर छूट के रूप में 2020-21 में केंद्र सरकार द्वारा छोड़े जाने वाले अनुमानित राजस्व की राशि 1,03,285.54 करोड़ रुपये से अधिक थी। यह महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के लिए 1.4 वर्षों के लिए किए गए आवंटन के बराबर है।
केवल एक अरबपति गौतम अडानी पर 2017-2021 के दौरान अवास्तविक लाभ पर एकमुश्त कर लगाने से 1.79 लाख करोड़ रुपये जुटाए जा सकते थे, जो एक साल के लिए पांच लाख से अधिक भारतीय प्राथमिक स्कूल शिक्षकों को रोजगार देने के लिए पर्याप्त होते। शीर्ष 10 भारतीय अरबपतियों पर उनकी वर्तमान संपत्ति का 5 प्रतिशत कर लगाने से 5 वर्षों के लिए जनजातीय स्वास्थ्य सेवा की पूरी लागत को कवर करने में मदद मिल सकती थी। यदि भारत के अरबपतियों की सम्पूर्ण सम्पत्ति पर एक बार 2 प्रतिशत कर लगा दिया जाए, तो इससे अगले 3 वर्षों में देश में कुपोषितों के पोषण के लिए 40,423 करोड़ रुपए की आवश्यकता पूरी हो जाती।
रोजगार बढ़ाने के उपायों और कारकों पर कोई काम न होने से इस क्षेत्र में उम्मीद के हिसाब से नतीजे नहीं आ रहे हैं। रोजगार के सरकारी दावों के बीच रोजगार के अवसर सापेक्ष रूप से नहीं बढ़ पा रहे हैं। जितने युवा विश्वविद्यालयों और कालेजों से निकल रहे हैं, उनके लिए रोजगार ढूंढना मुश्किल होता जा रहा है। इस तरह बाजार में सप्लाई साइड ज्यादा बड़ी है, डिमांड कम है। इसका असर नौकरी पाने वालों के वेतन और सुविधााओं पर पड़ रहा है। 10 साल पहले जिन फ्रैश एमबीए और टैक्नोक्रेट युवाओं को मुम्बई, बंगलौर और चेन्नई जैसे शहरों में 30-50 हजार रुपए महीने का पैकेज मिलता था, आज भी उतना या उससे भी कम मिल रहा है। बड़ी संख्या में एमबीए और टैक्नीकल ग्रेजुएट महानगरों और छोटे शहरों में 10-20 हजार महीने से कम में काम कर रहे हैं। दुकानों और छोटी मैन्युफैक्चरिंग यूनिट्स में लड़के और लड़कियां 8-10 हजार रुपये मासिक में काम करने को मजबूर हैं। उनके काम के घंटे मालिक की मर्जी पर हैं।
रोजगार के चार मुख्य स्रोत हैं। पहला और प्रमुख सरकारी विभागों संस्थाओं में नौकरी, दूसरा, निजी कम्पनियों में नौकरी, तीसरा विदेशों में नौकरी या कोई धंधा, और चैथा सबसे बड़ा स्वरोजगार कारोबार व्यापार है। सरकारी नौकरियों का यह हाल है कि कई सालों से केन्द्रीय सरकार के विभागों और संस्थाओं में भर्ती नहीं हुई है। केन्द्र सरकार के विभिन्न विभागों में स्वीकृत लगभग 40 लाख पदों के सापेक्ष 30 लाख कर्मियों से काम चलाया जा रहा है। इस तरह 10 लाख पद केन्द्र सरकार की संस्थाओं व विभागों में खाली हैं।
इनमें से सबसे ज्यादा पद रेलवे में खाली हैं। पिछले साल रेलवे में 2.74 लाख से ज्यादा पद खाली थे। जिसमें 1.7 लाख सुरक्षा से सम्बंधित हैं। हालिया दिनों में बढ़ती हुई रेल दुर्घटनाओं के संदर्भ में इसकी गम्भीरता देखी जा सकती है। गृह मंत्रालय के तहत आने वाले संगठनों में 1,14,245 पद खाली हैं। इनमें सीआरपीएफ, बीएसएफ, और दिल्ली पुलिस शामिल हैं। भारतीय प्रशासनिक सेवाओं (आईएएस एलाइड) जैसी महत्वपूर्ण कैडर में करीब 4000 पद खाली हैं। इसका जुगाड़ सरकार ने लैटरल इंट्री में भर्ती करके किया है।
राज्य सरकारों के विभागों में लाखों पद खाली हैं। अकेले यूपी में शिक्षकों के करीब 85 हजार से ज्यादा पद खाली हैं। अभी हाल में ही कुछ राज्य सरकारों ने एक-एक लाख पदों की भर्ती की घोषणा की है। यह भर्तियां कब पूरी होंगी, और होंगी या नहीं, कोई नहीं जानता। क्योंकि पता नहीं बरसों बाद निकलने वाली भर्ती परीक्षायें घपले, पेपर लीक, जांच रिपोर्ट, हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट के दखल और दुबारा टेस्ट और एग्जाम के चक्र से निकल पाएंगी या नहीं ?
इधर सरकार ने ठेके-संविदा और अस्थाई नौकरी का जो सस्ता विकल्प निकाला है, उससे बड़ी हास्यास्पद स्थिति पैदा हो गई है। एमएससी और पीएचडी किए हुए अस्थाई टीचर का वेतन एक चैकीदार से भी कम तय किया जा रहा है। रोजगार व नौकरी का सबसे बड़ा क्षेत्र कार्पोरेट और निजी कम्पनियों में नौकरी है। यह सैक्टर भी अपेक्षा के अनुसार रोजगार नहीं दे पा रहा है। रोजगार तब पैदा होता है, जब नई कम्पनियां और खास कर उत्पादन क्षेत्र की कम्पनियां शुरू होती हैं या उनका विस्तार होता है। नई कम्पनियां देशी पूंजीपति शुरू करें या विदेशी, उससे अनेक तरह के रोजगार खुलते हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों से (अडानी को छोड़कर, जिसकी निवेश के सापेक्ष रोजगार देने की दर सबसे कम है) देशी पूंजीपतियों ने बड़ा पूंजी निवेश करके नई कम्पनियों से लोगों को न तो रोजगार दिया है और न ही कोई बड़ी विदेशी कम्पनियां उत्पादन के क्षेत्र में आई हैं। कुछ साल पहले दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी उर्जा कम्पनी, सऊदी अरब की ‘अरामको’ भी एमओयू करने के बाद अज्ञात कारणों से पलट गई। सुनते हैं कि उसने चीन में बड़ा इंवेस्टमेंट कर दिया है।
इस समय भारत के बाजारों में विदेशी निवेश 2012 से भी नीचे जा चुका है। इस खबर को बहुत कम बिजनेस चैनलों-अखबारो ने रिपोर्ट किया। आज विदेशी इन्वेस्टमेंट लगभग 55 लाख करोड़ है जो 2012 से भी लगभग 17 प्रतिशत कम है। एफडीआई 23 प्रतिशत घट गया, देशी उद्योगपति इन्वेस्टमेंट नहीं कर रहे हैं और व्यक्तिगत निवेश 50 सालों में सबसे नीचे केबलेवल पर है। विदेशी निवेशक लगातार अपनी पूंजी बाजार से निकाल रहे हैं। एक लाख करोड़ रुपए विदेशी निवेशक निकाल ले गए। आए दिन स्टाक एक्सचेंज क्रैश होता रहता है। दूसरी तरफ कम्पनियां जिस तरह हायर कर रही है वैसे ही फायर (छँटनी) कर रही हैं। यह क्षेत्र नौजवानों के लिए असुरक्षित रोजगार का क्षेत्र बनता जा रहा है।
मैन्युफैक्चरिंग की ग्रोथ नेगेटिव जा रही है। चीन आदि देशों से उन सामानों का आयात बढ़ता जा रहा है, जो देश में बन सकते हैं और जिससे रोजगार बढ़ सकता है। लेकिन इस बारे में काम नहीं हो रहा है। ‘मेड इन इंडिया’ के नारे की हकीकत चीन से होने वाले बढ़ते आयात से आंकी जा सकती है।
नोटबंदी के धक्के के बाद आयात नीति और जीएसटी के नियमों से निजी क्षेत्र में लघु, अति लघु और मध्यम दर्जे के कारोबार भी नहीं उठ पा रहे हैं। खेती-किसानी और खान-पान पर लगने वाला जीएसटी भोग विलास और शानो-शौकत की वस्तुओं से ज्यादा है। इसका सीधा प्रभाव छोटे कारोबारियों की ग्रोथ और रोजगार पर पड़ रहा है। जीएसटी के आंकड़े गवाह हैं कि 97 प्रतिशत जीएसटी 50 प्रतिशत गरीबों व 40 प्रतिशत मध्यम वर्ग से वसूला जाता है। देश का अमीर वर्ग जीएसटी में केवल 3 प्रतिशत का योगदान करता है, जबकि उसने देश के अधिकांश संसाधनों पर कब्जा किया हुआ है। इससे पूंजी का प्रवाह रोजगार सृजन की ओर नहीं हो पा रहा है।
सार्वजनिक बैंक सरकार द्वारा एनपीए को माफ करने से कर्ज देने में हिचक रहे हैं (हाल ही में एसबीआई ने अडानी के 12,770 करोड़ का कर्ज माफ कर दिया है)। प्राइवेट बैंकों पर भी एनपीए को एडजस्ट करने के दबाव ने नए कर्ज और कारोबार के रास्ते दुश्वार कर दिए हैं। इससे छोटे और मझोले स्तर के कारोबार में अपेक्षित नई भर्तियां नहीं हो पा रही हैं और जो हो भी रही हैं, उससे एक औसत परिवार का घर चलाना मुश्किल होता जा रहा है।
पढ़े लिखे (प्रोफैशनल और टैक्नोक्रेट) नौजवानों के लिए उनकी योग्यता के अनुसार रोजगार न होने से नौजवानों में हताशा है। वे कम वेतन, सुविधाओं पर काम करने के लिए मजबूर हैं और क्लीनर, चपरासी और डिलीवरी जैसे कामों में हैं। कहीं-कहीं इन कामों में अधिक पढ़े हुए प्रोफैशनल और टैक्नोक्रेट नौजवान भी लगे हुए हैं। ऐसे नौजवान बेरोजगार विदेश में जाकर कोई भी काम करने के लिए तैयार हैं। विदेश में स्थाई रूप से बसने या रोजगार के लिये जाने की दर पिछले दशक की अपेक्षा ज्यादा हो गई है। 15 लाख से ज्यादा भारतीय अच्छी जिन्दगी के लिए भारतीय नागरिकता छोड़कर विभिन्न देशों, मुख्यतया अमेरिका, कनाडा, यूरोप और मध्य पूर्व के देशों में बस चुके हैं।
इसकी बानगी अमेरिका में अवैध रूप से घुसने वाले भारतीयों की संख्या है। हर घंटे 10 भारतीय अमेरिका में घुस रहे हैं, जिनमें 5 गुजराती हैं। एक साल में यह आंकड़ा 90 हजार को पार कर गया है। पिछले साल गुजरातियों से भरा जो विमान फ्रांस में पकड़कर वापस गुजरात भेजा गया था, उसके मुसाफिर भी अमेरिका में घुसने के इरादे से किसी तीसरे दक्षिण अमेरिकी देश के सफर में थे। अमेरिका में शरण मांगने वालों का प्रतिशत 855 प्रतिशत बढ़ गया। उधर ट्रम्प के आने पर कठोर आव्रजन नीति लगने की आशंका से अमेरिका में रह रहे करीब 8 लाख भारतीयों पर संकट है। कनाडा से हुए तनाव का प्रभाव भी भारतीयों पर पड़ने की आशंका है। इससे रोजगार की स्थिति और भयावह हो सकती है। विदेशों में करीब एक करोड़ भारतीय रोजगार कर रहे हैं, जिनमें करीब 90 लाख मध्यपूर्व के देशों में हैं। वहां काम करने वाले भारतीयों को देश के अक्सर बिगडने वाले साम्प्रदायिक माहौल को लेकर चिंता होती रहती है।
अमेरिका और कुछ अन्य मुल्कों के कड़े आप्रवासी नियमों के कारण भारतीय अन्य देशों का रुख कर रहे हैं। इसके लिए वे मजदूरी करने को भी राजी हैं। इसलिए भारत अब विदेशों में लेबर सप्लाई करने वाला मुल्क बनता जा रहा है। पढ़े-लिखे नौजवान रूस आदि योरोपीय देशों में मजदूरी करने जाते थे। अब सूडान जैसे अफ्रीकी देश में और यूक्रेन और इस्राइल जैसे युद्धग्रस्त मुल्कों में रोजगार जाने के लिए मजबूर हैं। कुछ महीने पहले खुद सरकार ने बेरोजगार युवकों को इस्राइल में लेबर कामों के लिए भेजा था। इटली में मजदूरी करने गए मजदूरों की मौत से भारतीय चिन्तित नहीं हैं। यही हालात रहे तो रिटायरमेंट के बाद हमारे ‘अग्निवीर’ विदेशों में भाड़े के सैनिक बनेंगे।
वह दिन दूर नहीं जब सोमालिया से लेकर मंगोलिया तक में हमारे मजदूरों का डंका बजेगा। पश्चिमी देशों में मजदूरी के लिए जाने के लिए युवा अब पूर्वी देशों वियतनाम, थाईलैंड जैसे मुल्कों में पर्यटक वीसा लेकर जा रहे हैं और वहां से वापस नहीं आ रहे हैं। पिछले पांच-छः सालों में ऐसे 30,000 पर्यटक हिन्दुस्तान लौटकर नहीं आए। भारत का गोदी मीडिया पिछले कई सालों से बांग्लादेशी घुसपैठियों का हल्ला-गुल्ला कर रहा है। 5 अगस्त के सत्ता पलट से पता चला कि बांग्ला देश तो हमारे हजारों लोगों को रोजगार दे रहा था। हमारे देश के हजारों छात्र वहां पढ़ाई के लिए गए थे। 2024 में विदेश जाने वाले कुल भारतीय छात्रों की संख्या लगभग 13 लाख है, जिनमें से 4.27 लाख कनाडा और 3.37 लाख छात्र अमेरिका गए हैं। देश में अच्छी शिक्षा पर सबसे कम ध्यान दिया जा रहा है, जिससे मौजूदा दौर के लिए पर्याप्त योग्य नौजवान नहीं मिल रहे हैं। यह भी रोजगार संकट की एक बड़ी वजह है। इसीलिए बड़े और नामवर शिक्षा संस्थानों का प्लेसमेंट घट रहा है। आईआईटी बॉम्बे में ऑन कैंपस प्लेसमेंट में 30 प्रतिशत छात्रों के बेरोजगार रहने की खबर आई थी। सभी आईआईटी का यही हाल है। कंपनियाँ 4-10 लाख सालाना माने 30-80 हजार महीने पर भर्ती कर रही हैं तो छात्र मजबूर हैं! हाल ये है कि फिर भी बहुत से छात्र प्लेसमेंट में सलेक्ट नहीं हो पा रहे हैं।
नए रोजगार लायक इंवेस्टमेंट नहीं आ रहा है। दूसरी ओर शेयर बाजार की अनिश्चितता से विदेशी निवेश खिसकता जा रहा है। छोटे और मझोले निवेशक तबाह हो रहे हैं, जिसका प्रभाव घूम-फिरकर रोजगार और विकास पर पड़ रहा है।
इस समय असंगठित क्षेत्र के 45 करोड़ से अधिक लोगों के सामने रोजगार का संकट है तो संगठित क्षेत्र से जुड़े लोगों के सामने ये उलझन पैदा हो गई कि वे बिना पूंजी कैसे आगे बढ़ें और इस प्रकिया में रियल एस्टेट से लेकर हर क्षेत्र सिकुड़ रहा है।
रोजगार और अर्थव्यवस्था से सम्बंधित कुछ तथ्य और विचारणीय हैं। 2024 के वैश्विक प्रकृति संरक्षण (दूसरे शब्दों में प्राकृतिक संसाधन, जिसके आधार पर किसी देश की स्थाई और सतत् प्रगति होती है) सूचकांक में भारत 180 देशों में 176वें नंबर पर रहा है। आर्थिक स्वतंत्रता रिपोर्ट-2024 में भारत 84वें स्थान पर है।
इस साल देश का निर्यात बढ़ते बैंक ब्याज और अन्य नीतिगत कारणों से 40 प्रतिशत तक घट सकता है, इससे कितने ही रोजगार के अवसर प्रभावित होंगे ? निम्न और मध्यम वर्ग की खरीद शक्ति कम होने से किराना व्यापारी हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं तो कार और अन्य वाहनों की बिक्री घटी है। लाखों-करोड़ों का स्टाक शोरूम में अटका पड़ा है।
उधर देश का इलीट वर्ग इस सबसे बेखबर मौज में है। अमीरों की अमीरी और संवेदनहीनता बढ़ती जा रही है, जिसका एक उदाहरण पिछले दिनों मुकेश अम्बानी के लड़के की शादी में मिला।