प्रमोद साह
अशोज का महीना और रामलीलाओं का सीजन जब भी आता है एक अजीब सा कवमवाट आज भी लग जाता है। कवमवाट मतलब वही जिसे आप लोग नॉस्टैल्जिया कहते हैं। यह 80 का दशक था, जब हम बच्चे से लड़के हो रहे थे। हमारे उस लड़कपन के दौर में मनोरंजन के साधन बहुत कम थे। हर मौसम में लगने वाले मेले और अशोज की रामलीला ही तब सामाजिक मेल मिलाप का भी एक सशक्त माध्यम थी। लेकिन अशोज के उन दिनों में कस्बे के आसपास की 2 -3 रामलीलाएं जो दर्शकों की संख्या को संतुलित करने के हिसाब से अलग-अलग समय अवधि में होती थी। हमारे मनोरंजन का महत्वपूर्ण साधन थी।
मेरी सुनहरी यादो की वह रामलीलाएं कस्बा द्वाराहाट की हैं। जहां मुख्य बाजार मे हितचिंतक रामलीला कमेटी के साथ ,कुछ ही दिनों के अंतर पर धटेढ़ाली/विजयपुर की रामलीला मुख्य थी। कुछ वर्ष बाद काली खोली, मल्ली मिरई और छतेना की रामलीलाएं भी महत्वपूर्ण हो गई थी। जिन्हें देखने हम जाते थे. यह सब रामलीलाएं, राधेश्याम तर्ज पर खेली जाती थी। रामलीलाओं में रामलीला से भी ज्यादा महत्वपूर्ण रामलीलाओं का मौसम और दोस्तों के साथ बिताई गई वह खुराफात भरी रातें ज्यादा महत्वपूर्ण होती थी।
इन दिनो पहाड़ों में गुलाबी ठंड पड़ने लगती ,स्वेटर और जैकेट निकाल दिए जाते, महिलाएं पूरी रामलीला में एक से अधिक स्वेटर बुन लेती थी। दिन में बच्चे बोरे बिछाकर रात में रामलीला देखने के लिए स्थान घेर लेते थे। इसमें भी बडा कम्पटीशन चलता और बच्चों का हुनर परखा जाता था। उन दिनां रामलीलाएं ही इलाके में कच्ची पड़ी प्रेम कहानियों को पका देती थी। यह कहानियां… “जाने ना जाने, गुल ही न जाने, बाग तो सारा जाने है“. –की तर्ज पर अपनी भीनी खुशबू पूरे शहर में फैला देती थी। सीरियस प्रेमी जोड़ों के अलावा लफंडरों की टोली भी इन रामलीलाओं का आकर्षण होती थी। यहीं से अंतर-ग्रामीण दोस्तियां पैदा होती थी और इलाकाई दादाओ का जन्म भी रामलीलाओं से ही होता था, रामलीलाओं की वह करारी मूंगफली और घर से बाहर पहली-पहली बार मिली चाय की चुस्कियां यादों के में पटल में कुछ ज्यादा छाप छोड़ देती थी।
रामलीला देखने में जितनी भीड़ रहती थी. उससे अधिक चहल-पहल बंद बाजार की गलियों में देखी जाती थी. जहां स्कूल जाने वाले लड़के अपनी अलग अलग योजनाओं में मशगूल रहते थे, कुछ के लिए क्रिकेट की बातें महत्वपूर्ण होती थी .तो कुछ खत्म हो रही ककडियों में हाथ साफ करने की योजना बनाते थे। कुछ मौसम के पहले नींबू चुरा लेने के किस्से सुनाते थे। कहीं गल-गलो की सामत आती. कुछ युवा प्रेम की फूटी नई कपोलो पर हिरण से फूदकते।
कुल मिलाकर रामलीला के 10 दिनों में एक शानदार परीलोक इलाके में सजता था। जहां तक रामलीला की बात है, कमोवेश सभी पात्रों के पाठ हमें कंठस्थ हो गए थे। इसलिए घर से रामलीला देखने के बहाने निकलने के बाद हम रामलीला में नाम मात्र को रह कर भी पूरे रमे रहते थे। आस पास हो रही इन रामलीलाओ में कुछ चुनिंदा पात्रों के पाठ हमेशा याद रखे जाते रहे ,जिन्हें देखने के लिए पूरी भीड़ उमड़ पड़ती थी. एक रामलीला कमेटी के लोग भी दूसरी रामलीला कमेटी के इन विशेष पात्रों को देखने, उनके गुर चुराने के लिए पहुंच जाया करते थे। बाजार की रामलीला कमेटी में कई सालों तक राम की भूमिका में ललित साह, लक्ष्मण की भूमिका में महेश यादगार रहे। सुमन्त की यादगार भूमिका स्वर्गीय प्रकाश शाह, रावण की भूमिका में डॉक्टर बसंत, हनुमान की भूमिका में केशव दत्त मैनाली जी जिन्हें उनके जीवंत अभिनय के कारण हनुमान केशव नाम से ही जाना जाने लगा था। यह पात्र हमेशां यादगार रहे, इन रामलीलाओं में अतीत की रामलीलाओं के कर्तव्य भी खूब सुने जाते थे उनमें एक महत्वपूर्ण था मेघनाथ परिवार के श्री शंकर शाह जी जो इतनी तेज तलवार घूमते थे की एक बार तलवार छटक कर देवी के मंदिर में जा लगी लेकिन देवी कृपा से किसी को कोई नुकसान नहीं हुआ।
घटेढाली/विजयपुर की रामलीला में द्वारिका रावण बहुत लाजवाब थे। लेकिन आस-पास आयोजित हो रही इन रामलीलाओं में जो एक बहुत ही साझा पात्र होते थे । जो बगैर किसी रिहर्सल के जोकर की भूमिका में रहते वह थे श्री त्रिलोक सिंह रौतेला उर्फ तिल्दा। यूं तो हास्य उनकी मुख्य विधा होती थी .लेकिन वह सिर्फ हंसाते नहीं थे, बल्कि पूरी रामलीला में चौपाइयों के माध्यम से सूत्रधार की भूमिका में रहते थे। वह सिर्फ सूत्रधार ही नहीं रहते थे .बल्कि जोकर (विदूषक) की भूमिका में ऐसे त्वरित व्यंग्य करते थे. जो उस वक्त समाज को सीख तो देते ही थे ज्वलंत मुद्दों को छूते हुए समाधान भी देते थे। जो भरपूर मनोरंजन करते बीबीसी की खबरें अपने विदूषक अंदाज में सुना कर जनरल नॉलेज भी बढ़ाते थे। आज के संदर्भ में पूरी सोशल मीडिया थे और सामाजिक विमर्श पैदा करते थे।
बृथा अभिमान क्यों करता, अरे रावण.! इन्दिरा गांधी तुम इतना भी न समझी…इमरजेंसी पराजय पर।रावण का भी फार्म हाउस था, जहां फलफूले और पौंधे थे। अशोकवाटिका पर्यावरण प्रेम और पतरौल के किस्से। क्या गजब थे तिल्दा जोकर जो आसपास की सभी रामलीलाओं में ऐतिहासिक पात्रों के अभिनय पर भारी पड़ जाते थे। रामलीलाओं का मुख्य आकर्षण होते थे। त्रिलोक सिंह उर्फ तिल्दा की जो त्वरित टिप्पणियां व्यंगात्मक रूप में होती थी , वो गुदगुदाती तो थी ही. एक राह भी दिखाती थी। इन रामलीलाओ के सीजन में अपने गांव के “तिल्दा जोकर “बहुत याद आते हैं. हांलाकि अब वह नहीं रहे लेकिन मन ऐसे प्रखर व्यंग्यकार जोकर को बहुत ढूंढता है। जो खेल-खेल में बडी बात कह देता था। कहां हरा गए हो ! तिल्दा जोकर, मेरी यादों के पहले हरिशंकर परसाई।