गोविन्द पंत ‘राजू’
हिमाचल प्रदेश में जुलाई के महीने में मंडी इलाके में हुई भीषण तबाही और बाढ़ जैसी स्थितियों के जख्म जरा भरे भी नहीं थे कि उत्तराखंड में टनकपुर से लेकर देहरादून तक तराई और भाबर के इलाके में अगस्त की शुरुआत से हो रही भीषण बारिश ने नई तबाहियां पैदा करनी शुरू कर दी थीं। हल्द्वानी, कालाढूंगी, रामनगर, कोटद्वार, ऋषिकेश -हरिद्वार और देहरादून-विकासनगर तक तमाम इलाकों में अनेक पुल टूट गए थे, दर्जनों लोगों की मौतें हुईं और सैकड़ों घर तबाह हो गए थे लेकिन जैसे कुदरत को इतने सब से ही सब्र न हुआ हो, अगस्त के दूसरे हफ्ते में तो प्रकृति के गुस्से ने अति ही कर डाली है। उत्तराखंड में गंगा का समूचा जलग्रहण क्षेत्र कुदरत के दिए घावों से चीत्कार कर रहा है। कई जगहों पर बादल फटने और भूस्खलनों के कारण बड़ी संख्या में लोगों की मौत हुई है, संपत्ति का भारी नुकसान हुआ है। ऑल वेदर रोड जैसे नासूर के साथ ही तमाम दूसरी मोटर रोडों का बुरा हाल हो गया है। अनेक छोटी-बड़ी नदियों और छोटे-छोटे गधेरों ने अपने प्रवाह के चलते इस संकट को और तीखा बना दिया है। हिमाचल में तो तबाही का यह दूसरा दौर व्यास घाटी के साथ-साथ राजधानी शिमला के लिए भी बहुत बड़ी विपदा लेकर आया है। शिमला में घने जंगलों के बीच अनेक रिहायशी इलाकों में बड़े भूस्खलन होने से पचासों इमारतें ध्वस्त हो गई हैं और लगभग 100 से अधिक लोगों की जान चली गई है।
यों तो पिछले कुछ वर्षों से बरसात का मौसम पहाड़ी इलाकों में तबाही लाता रहा है लेकिन अब यह तबाही बरसात के मौसम के अलावा अन्य मौसमों में भी होने लगी है। 5000 से ज्यादा लोगों की जान लेने और अरबों रुपए की संपत्ति लील लेने वाली 2013 की केदारनाथ आपदा जून के महीने में आई थी और चमोली जिले में 2021 की धौलीगंगा घाटी में 200 से ज्यादा लोगों को शिकार बनाने तथा दो बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं का सफाया करने वाली तबाही फरवरी के महीने में हुई थी।
साफ दिखता है कि अब आपदा का संबंध सिर्फ मानसून के साथ ही नहीं रह गया है। जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग जैसे नए कारक भी तबाहियों की संख्या एवम विनाशकारी क्षमता को बढ़ाने में सहायक होने लगे हैं। लेकिन अगर गंभीरता से देखा जाए तो यह समझ में आता है कि भारतीय हिमालयी क्षेत्र में बढ़ती जा रही इन आपदाओं के लिए मानवीय गतिविधियां भी बहुत जिम्मेदार हैं। उत्तराखंड की केदारनाथ आपदा और चमोली की विष्णुप्रयाग तबाही मुख्य रूप से मानवजनित कारणों से ही हुई थी। इसी तरह उत्तराखंड के सबसे पुराने शहर जोशीमठ की बर्बादी के पीछे भी मुख्य वजह यही है। उत्तराखंड में इन आपदाओं की वजहें जितनी प्राकृतिक हैं उससे अधिक मानवजन्य हैं। यह मानवीय हस्तक्षेप दो तरह का है। एक स्थानीय लोगों के द्वारा प्रकृति के खिलाफ की जा रही गतिविधियां और दूसरी सरकारी स्तर पर चलाई जा रही तथाकथित विकास गतिविधियां। आपदाओं को बढ़ाने में इस तरह की विकास गतिविधियों का योगदान स्थानीय आबादी के द्वारा किए जा रहे नुकसान का 8 से 10 गुना अधिक है। उत्तराखंड के संदर्भ में इस तरह की विकास योजनाएं ऑल वेदर रोड और रेल परियोजनाओं के साथ-साथ छोटी बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं, बांध और उनके लिए खोदी जाने वाली सुरंगें तथा अवैध अनियंत्रित खनन तबाही बढ़ाने का काम कर रहा है। भूगर्भीय दृष्टि से अस्थिर माने जाने वाले उत्तराखण्ड में बांधों और जलविद्युत परियोजनाओं ने पर्वतीय क्षेत्रों को भीतर से कमजोर बनाया है। भूजल के प्राकृतिक प्रवाह को भी क्षत विक्षत कर दिया है। इन्होंने बड़े पैमाने पर बायो डाईवरसिटी को नष्ट किया है और वन संपदा को भी गंभीर नुकसान पहुंचाया है। उत्तराखंड की बहु प्रचारित ऑल वेदर रोड के लिए ही तमाम नियम कानूनों को धता बताकर हजारों की संख्या में हिमालय क्षेत्र के देवदार आदि के वृक्षों को काट दिया गया था। जिसकी भरपाई अब किसी भी दशा में नए पेड़ लगाकर की ही नहीं जा सकती। जोशीमठ का धंसाव इस तरह के विनाश का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि बाई पास और विष्णुप्रयाग जल विद्युत परियोजना के लिए खोदी जाने वाली टनलों ने किस तरह पूरे जोशीमठ शहर को हिला कर रख दिया है।
हिमाचल प्रदेश में पिछले महीने हुई भीषण तबाही के लिए भी कुछ इसी तरह की वजहें सामने आई हैं। हालांकि वहां पर तथाकथित विकास परियोजनाओं की तुलना में स्थानीय मानव जनित गतिविधियां तबाही के लिए अधिक जिम्मेदार समझी जा रही हैं । प्रसिद्ध विज्ञानी और भूगर्भवेत्ता डॉ. नवीन जुयाल अभी हिमाचल के आपदा प्रभावित इलाकों से आपदा के कारणों का अध्ययन कर वापस लौटे हैं। उनका मानना है कि हिमाचल में स्थानीय लोगों ने बढ़ती पर्यटक गतिविधियों के चलते जिस तरह नदियों, छोटे-छोटे नालों और गधेरों के प्राकृतिक प्रवाह के भीतर घुसकर निर्माण कार्य किए थे उस ने ही आपदा को कई गुना बढ़ाया है। डॉ. जुयाल ने केदारनाथ और विष्णुप्रयाग तबाहियों के कारणों का भी अध्ययन किया था। इसलिए वे उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश की आपदाओं की प्रमुख वजहों का तुलनात्मक विश्लेषण करते हुए दोनों के बीच में यह अंतर रेखांकित कर पा रहे हैं।
हिमाचल में जुलाई में हुई तबाही में 150 से ज्यादा जानें गईं और 10 हजार करोड़ रुपए से अधिक की संपत्ति बर्बाद हुई थी। पर्यावरण विशेषज्ञ मानते हैं कि देवभूमि कहे जाने वाले हिमाचल प्रदेश में इस बार भारी बारिश की वजह से हुई बर्बादी अप्रत्याशित नहीं है। पिछले कई दशकों में पर्यटन के केंद्र इस पहाड़ी राज्य ने विकास के मामले में मैदानी इलाक़ों की राह पर चलने की कोशिशें की हैं और स्पष्ट रूप से इसका नतीजा प्राकृतिक आपदाओं में दिख रहा है। चाहे कमज़ोर पहाड़ों में चार लेन हाइवे निकालना हो या हाइड्रो प्रोजेक्ट के लिए सुरंगे खोदना। इन सबने पहाड़ और पत्थरों को हिला दिया है। भारी, बेतरतीब और असुरक्षित निर्माण हर जगह हो रहा है और निर्माण का कचरा नदियों और उनकी शाखाओं तक पहुंच रहा है। इन सबने मिलकर बारिश की तबाही को और भी बढ़ा दिया है।
हिमाचल प्रदेश में नदियों से कथित अवैज्ञानिक खनन ने भी ऐसी आपदाओं का ख़तरा बढ़ने की चिंताएं बढ़ा दी हैं। पर्यावरणविदों को लगता है कि हिमाचल प्रदेश में उफनाई नदियों, खासकर ब्यास की वजह से हुई भारी तबाही का एक कारण मोटे तौर पर स्पष्ट है और इसकी तुलना साल 2000 में सतलुज नदी में आई बाढ़ से की जा सकती है। तब रामपुर शहर में इससे भारी तबाही हुई थी, वहां बहुत से लोग नदी के पास बने निर्माणों में रह रहे थे। ब्यास नदी की घाटी में भी, निर्माण नदी के बेहद आसपास तक पहुंच गया है, ऐसे में अचानक आई बाढ़ से नुक़सान का ख़तरा और अधिक बढ़ जाता है। वास्तव में इस बार ऐसा ही हुआ भी। ब्यास में तेज गति से आ रहे पानी ने रास्ता बदला और मनाली से मंडी के बीच बहुत से मकान, वाहन, जानवर और कई जगहों पर राष्ट्रीय राजमार्ग के हिस्से बह गए। वैसे भी, ब्यास की रफ़्तार इस क्षेत्र में तेज़ होती है और पानी सड़क से बहुत दूर नहीं होता है। शिमला में इन दिनों हो रहे भूस्खलनों की एक बड़ी वजह पहाड़ पर इमारतों का बढ़ता बोझ तथा उचित सीवर व जल निकासी व्यवस्था की खामियों को भी माना जा रहा है। हमारे नैनीताल की हालत भी शिमला से बहुत अलग नहीं है।
पर्यावरण विशेषज्ञ संजय सहगल कहते हैं, “अब समय आ गया है जब हम पर्यटन पर चलने वाले राज्य में विकास का ऐसा मॉडल अपनाएं जो पर्यावरण के अनुरूप हो । हम एक सीमा के बाद प्रकृति से छेड़छाड़ नहीं कर सकते हैं। सीमा लांघने के बाद प्रकृति स्वयं अपनी सीमाएं निर्मित करने लगती है। अवैज्ञानिक रूप से विकास कार्यों के लिए पहाड़ों में विस्फोट और निर्माण कार्यों के मलबे को बिना योजना के डंप करने और अनियंत्रित संख्या में वाहनों के पहाड़ी सड़कों पर चलने के दुष्परिणाम कितने भयावह हो सकते हैं। हम इसका अहसास नहीं कर पा रहे हैं। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान के 2017 में हुए एक शोध से पता चला था कि हिमाचल प्रदेश में कुल 118 हाइड्रो प्रोजेक्ट हैं जिनमें से 67 पहाड़ खिसकने वाले इलाकों में हैं।
राज्य के आदिवासी बहुल जिले किन्नौर, और कई अलग हिस्सों में जब हाइड्रो प्रोजेक्ट लगाये जा रहे थे तब पर्यावरणविदों और प्रभावित स्थानीय नागरिकों ने उनका विरोध भी किया था और कई जन अभियान भी चले थे। लेकिन तत्कालीन सत्ताधारी राजनीतिक दलों ने इन्हें नजरअंदाज कर दिया था। चिपको आंदोलन का हिस्सा रहे अभिमन्यु कहते हैं, “समय आ गया है जब हम प्रकृति के इस आक्रोश से सबक लें, इस संवेदनशील पर्यावरण और इस बात को समझने का प्रयास करें कि पारिस्थितिकी रूप से नाजुक इस क्षेत्र में पर्यावरण की कीमत पर हो रहे असंतुलित विकास की वजह से प्रकृति का कोप बढ़ रहा है। “वो सवाल करते हैं, “देखो, हम प्रकृति के साथ खिलवाड़ करके अपने खूबसूरत पहाड़ों के साथ क्या कर रहे हैं ? यह समझना चाहिए कि इसके बदले में प्रकृति भी हमारे लिए ख़तरनाक होती जा रही है। हमें चार लेन वाली सड़कों की ज़रूरत क्यों हैं, बड़े ढांचागत या हाइड्रो प्रोजेक्ट हमें क्यों चाहिए जो पहाड़ों को भीतर से खोखला कर रहे हैं ? हम ऐसे प्रोजेक्ट शुरू करने से पहले पहाड़ों और नदियों की वहन क्षमता का अध्ययन क्यों नहीं करते हैं ताकि पर्यावरण को बचाया जा सके ?”
वास्तव में आज पूरे हिमालय से जुड़े क्षेत्रों के लिए विकास की नई अवधारणा बहुत जरूरी है क्योंकि आज जिस तरह का विकास हो रहा है, वह समूचे हिमालय क्षेत्र के लिए विनाशकारी साबित हो रहा है। यदि उस भूगर्भीय और भौगोलिक रूप से अतिसंवेदनशील इलाके में प्राकृतिक संतुलन पूरी तरह गड़बड़ा जाएगा और स्थितियां मानव वास के अनुकूल नहीं रह जाएंगी, तब फिर ऐसे विकास के क्या मायने रह जाएंगे ? उत्तराखंड ने पहली चेतावनी दे दी थी और अब हिमाचल प्रदेश में दूसरी चेतावनी दे दी है इसलिए अब वक्त आ गया है कि हमारे योजनाकार और विकास की बातें करने वाले राजनेता बहुत गंभीर होकर उत्तराखंड और हिमालय की परिस्थितियों के अनुकूल विकास योजनाओं के बारे में सोचने लगें तथा उसी के अनुकूल विकास योजनाओं को बनाया और चलाया भी जाए।
अब वक्त आ गया है हमें अपने विकास मॉडल पर फिर से पुनर्विचार करना चाहिए। बांधों और बड़ी परियोजनाओं के निर्माण के तरीके में बदलाव, फसल और बागवानी तथा वनीकरण के पैटर्न में परिवर्तन के साथ-साथ पर्यटन की भीड़ की समस्या के वास्तविक समाधान के बारे में नए सिरे से सोचा जाना चाहिए। यह सही है कि जलवायु परिवर्तन के कारण सामान्य वर्षा का औसत लगातार बढ़ रहा है और जिन इलाकों में 500-600 मिलीमीटर वर्षा हुआ करती थी वहां अब 750 मिमी से 900 मिली मीटर तक बारिश होने लगी है। इसमें भी चिंता करने वाली बात यह है अनेक बार बहुत कम वक्त में बहुत तेज बारिश हो जाती है और वह बादल फटने आदि रुपों में विनाशकारी प्रभाव लेकर आती है। लेकिन इसके साथ ही यह बात भी विचारणीय है कि हमने हिमालय क्षेत्र के विकास के लिए जिन चीजों को संसाधनों के रूप में इस्तेमाल किया है उनमें वन, जल और पर्यटन प्रमुख रहे हैं। गौरतलब है कि हाल के वर्षों में इन इलाकों में आने वाली आपदाओं के लिए प्रमुख रूप से यह तीन संसाधन की किसी न किसी रूप में जिम्मेदार रहे हैं। अकेले हिमाचल प्रदेश में ही इस वक्त 168 जल विद्युत परियोजनाएं चल रही है और लगभग 11000 मेगावाट बिजली उत्पादन हो रहा है। निकट भविष्य में यह उत्पादन दुगने से अधिक किए जाने की योजना है और इसके लिए लगभग 1000 जल विद्युत योजनाएं या तो विचाराधीन हैं या उन पर निर्माण कार्य चल रहा है। इन योजनाओं के लिए बड़े पैमाने पर सुरंगें खोदी जाती हैं और नदियों के प्राकृतिक जल प्रवाह क्षेत्र को बुरी तरह क्षति पहुंचाई जाती है। इन परियोजनाओं के निर्माण से पैदा होने वाला मलवा, मिट्टी, पत्थर आदि इन्हीं नदियों में डाल दिया जाता है, जो आगे चलकर बड़ी तबाहियों की वजह बनता है। यही हाल सड़क चौड़ीकरण योजनाओं का भी है। इसके लिए पहाड़ों को बुरी तरह से काटा और छीला जाता है, जिसके बाद हल्की सी बारिश भी बड़े भूस्खलनों को जन्म देती है। यही भूस्खलन पर्वतीय इलाकों में नासूर की तरह बन जाते हैं।
यह सोचा जाना चाहिए कि अगर हिमालयी क्षेत्र अस्थिर होगा तो इसका सीधा दुष्प्रभाव पंजाब, हरियाणा,उत्तरप्रदेश और बिहार की आबादी के बहुत बड़े हिस्से पर पड़ेगा। समस्या बहुत बड़ी है और इसीलिए इसका समाधान भी बड़ा ही होना जरूरी है।
फोटो इंटरनेट से साभार
One Comment
बटरोही
यह बहुचर्चित और चिंतित लेख अनेक मौलिक बातें सामने लाता है। वे बातें यद्यपि पहले कही जा चुकी हैं, फिर भी टनलों के जरिए धरती के अंदर और जंगलों के कटान के जरिए बाहर जो अनर्थ हो रहा है, है वह कोई दैवी प्रयत्न नहीं है, इसकी ओर लेख में विश्वस्त ढंग से बातें की गयी हैं।