पंकज पचौरी
(इंडिया टुडे, नवंबर 30, 1990)
अनुवाद उमेश तिवारी विश्वास
एक अनाथ बच्चे की तरह मुख्यधारा की राजनीति में आवारागर्दी करने के बाद, भाजपा अंततः अपने परिवार, आर एस एस में लौट आई है। आइंदा, राम के नाम का इस्तेमाल और हिंदू राष्ट्र के सिद्धांत को प्रचारित करने वाली आरएसएस की संहिता ही भाजपा का युद्धघोष भी होगी।
अयोध्या विवाद में अपने रुख पर मिली जनता की जबरदस्त प्रतिक्रिया से पार्टी को विश्वास हो गया है कि अगले चुनाव में इस मुद्दे का और फायदा उठाया जा सकता है। आरएसएस के 18 लाख समर्पित कार्यकर्ताओं के अलावा, कई नए चेहरे भी इसमें शामिल हुए हैं, जिससे पार्टी के आत्मविश्वास और अहम में काफ़ी वृद्धि हुई है।
भाजपा नेताओं की आशावादिता को आधार बनाएं तो वो मानते हैं कि हिंदू कार्ड के बेहतर इस्तेमाल से उनकी लोकसभा सीटों की संख्या 86 से बढ़ कर 120 हो सकती है। वरिष्ठ नेताओं को भरोसा है कि पार्टी दो राज्यों; उत्तर प्रदेश और बिहार में अपनी ताकत 17 सीटों से दूनी कर, कम से कम 35 (सीटें) कर लेगी। महाराष्ट्र में उसे 10 से उछल कर 16 पर और हरियाणा में एक से बढ़कर 3 सीटों पर पहुंचने की उम्मीद है। गुजरात, राजस्थान, दिल्ली और हिमाचल प्रदेश से उसे उम्मीद है कि वह अपनी 32 सीटें बरकरार रखेगी। मध्य प्रदेश में उसे वास्तव में अपनी वर्तमान 27 सीटों से कम मिलने का अनुमान है। लेकिन उनके अनुसार इसकी भरपाई कर्नाटक और जम्मू की तरह की “अप्रत्याशित जीत“ से हो सकती है। महासचिव जय प्रकाश माथुर कहते हैं, “माहौल उत्साह का है। कुछ को छोड़कर हम सभी सीटों पर चुनाव लड़ेंगे, लक्ष्य लोकसभा में प्रभावी उपस्थिति दर्ज़ करना है।’’
इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पार्टी आंदोलन की राजनीति तेज़ करने और वि.हि.प. के अयोध्या अभियान का समर्थन लेकर आगे बढ़ने की योजना बना रही है। इतना ही नहीं, वि.हि.प. मथुरा और वाराणसी में कार सेवा समितियां बनाने की योजना बना रहा है और पूरे देश में 3000 ऐसी ही अन्य मस्जिदों पर विवाद खड़ा करने की धमकी दे रहा है। अपनी बयानबाजी को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए उसने नारे भी गढ़े हैं। इनके दो नमूने हैं; “जो हिंदू हित की बात करेगा, वही देश पर राज करेगा“ और “जो हिंदू हित पर करेगा चोट, कदापि न देना उसको वोट।“
एक ओर जहां वी एच पी अयोध्या पर भावनात्मक अभियान चलाए रखेगी, वहीं भाजपा (मंदिर-मस्जिद) विवाद के राजनीतिक निहितार्थ का लाभ लेने की कोशिश करेगी। महंगाई और जम्मू-कश्मीर तथा पंजाब जैसे मुद्दों के अलावा, उसके अभियान का ध्यान उन मुद्दों पर होगा जिन्हें वह हिंदुओं के साथ भेदभाव, अन्य राजनीतिक दलों का अल्पसंख्यकवाद, धर्म बनाम राष्ट्रवाद और हिंदू संस्कृति की (क्षेत्रीय संस्कृतियों पर) सर्वोच्चता कहती है। चुनाव प्रचार की गर्मी के बीच, फासीवादी हैंडबुक से निकली यह थीम अल्पसंख्यक विरोधी एजेंडे का रूप लेने में पूरी तरह सक्षम है।
भविष्य की ऐसी योजनाओं ने पार्टी के भीतर नरमपंथियों को काफी विचलित कर दिया है। अटल बिहारी वाजपेयी ने दिल्ली में वीएचपी की एक सार्वजनिक रैली को टाल दिया, जबकि वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी के मुस्लिम सदस्य सिकंदर बख्त से ऐसे धरनों से दूर रहने का अनुरोध किया, जहां भाजपा के युवा कार्यकर्ता मुसलमानों की तबाही की मांग करते नारे लगा रहे हों।
भाजपा शासित तीन राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश के नेता भी इस टकराव भरे अभियान का अनुसरण करने से झिझक रहे हैं। उन्हें डर है कि उनपर सत्ता में रहते हुए गैरजिम्मेदारी दिखाने का आरोप लग सकता है.. पर वास्तव में ये हमला तो शुरू हो चुका है। सी पीआई (एम) नेता हरकिशन सिंह सुरजीत कहते हैं, “हालात को पूरी तरह सांप्रदायिक बनाने की नीति पर आगे बढ़ती भाजपा को कुछ भी कर गुजरने से परहेज नहीं होगा। अपने राजनीतिक भविष्य के अंधेरे को दूर करने के लिए, वह हिंदुओं को भगवान राम के नाम पर लामबंद करने का हरसंभव प्रयास करेगी।“
जाहिर है यह दांव खेलने के बाद भाजपा के पास अब पीछे हटने का रास्ता नहीं बचा है। कुछ ही निर्णायक महीनों के भीतर, धर्म को खतरनाक ढंग से राष्ट्रीय एजेंडे पर थोप दिया गया है और आने वाले महीनों में धर्म, राजनीतिक बयानबाजी में आवश्यक रूप से शामिल हो जायेगा। आखि़रकार भाजपा के असली चेहरे से पर्दा उठ चुका है और उसके भविष्य की रणनीति साफ़ उजागर हो गई लगता है।
फोटो इंटरनेट से साभार