15 अगस्त। यह दिन मुझको एक आत्मिक प्रसन्नता देने के साथ ही हर साल मेरे सामने निराशाओं से लिपटे कई सवालात भी खड़े कर देता है। आत्मिक प्रसन्नता तो इस कारण कि इस एतिहासिक दिवस के सन्दर्भ में बचपन की अनेक भोली भाली यादें जुड़ी हुई हैं, जब बालक मन ने स्वतंत्रता प्राप्ति का सपना साकार होने का सुख भोगा था। लेकिन आजादी को देश ने शायद स्वच्छंदता के रूप में आत्मसात् किया था, क्योंकि उस एतिहासिक दिन के तुरन्त बाद से ही निरन्तर ऐसे दृश्य सामने आते गये, जिसने निराशाओं को ही जन्म दिया। साल दर साल जैसे हालात पैदा होते रहे हैं, उनसे पैदा होते सवालों का जवाब प्रौढ़ मन को कभी भी प्राप्त नहीं हो सका, बल्कि उसने साल दर साल नये सवालात खड़े कर निराशा को घनीभूत ही किया है।
स्वतंत्रता आन्दोलन जब अपने चरम स्थिति पर पहुँचा हुआ था, उस वक्त की भावनापूर्ण फ़िजाँ में डूबे हुए एक बालक के अन्तर्मन में आसन्न आजादी के सपनों की जो सुखानुभूति हुई थी, उसे हर साल मेरा मन अब भी थोड़ा बहुत महसूस करता है। आज से ठीक 63 वर्ष पहले इस दिन भारत के इतिहास का नया अध्याय आरम्भ हुआ, जब लगभग तीन शताब्दी तक भारत में जमे रहने के बाद अंग्रेज अपना झण्डा और डण्डा समेट कर भारत से रुख़सत हुए थे। इस दिन को लोग कई नामों से याद रखते हैं जैसे, विदेशी दासता से मुक्ति या आजादी का दिन, स्वतंत्रता याने स्वाधीनता दिवस, अथवा इ्न्डिपेन्डेन्स डे वगैरह। कमोबेश सब का आशय एक ही है कि भारतीय जन अब उस स्थिति में आ चुके थे कि वे कुछ भी कर सकें। अपने फैसले लेने के लिये अब किसी का मुँह ताकने की जरूरत नहीं रही थी, कम से कम अंग्रेजों का तो नहीं। मुझे इसके लिये इन्डिपेंडेंस डे सबसे ज्यादा सार्थक लगता है, क्योंकि यह निर्भरता अर्थात् गुलामी के काले युग की याद भी हाथ के हाथ दिलाता रहता है।
अंग्रेज गये तो हमें आजादी के साथ विभाजन की त्रासदी भी दे गये। विभाजन के दंश की पीड़ा देश को अनचाहे झेलनी पड़ी थी। देश के नये हुक्काम आजादी को अपनी-अपनी शैलियों के अनुसार स्थापित करने को आजाद, बल्कि आमादा थे। कुछ लोग इस दिन को इसीलिये आजादी का दिन कहते हैं कि उस दिन से उनको वह आजादी हासिल हो गयी जिससे वह अंग्रेजों की जगह अब खुद ही, बाकी लोगों पर हुकूमत कर सकते थे। देशवासियों का बड़ा हिस्सा आज भी यह सवाल खड़े करता है कि किससे आजादी और कैसी आजादी ? हम आज भी अनेक कुप्रथाओ के अधीन हैं। देश में बंधुआ मजदूरों की बड़ी संख्या है, कितने ही किसान आज भी पीढ़ियों पूर्व के कर्ज से मुक्त नहीं हैं, कितने ही आदिवासी अपनी जातीय तौर तरीके से रहने को आजाद नही हैं, आदि आदि।
सन 1947 को इस दिन हम पराधीन न रह कर स्वाधीन हो गये थे, यानी खुद अपने अधीन, बल्कि कहिये अपनों के अधीन। हमारे उन अपनों को कैसे भी शासन प्रबन्धन की पूरी आजादी थी परन्तु अनुभव कुछ नहीं था। इसके लिये हमारे नये आक़ाओं ने दुनिया भर में मौजूद पद्धतियों की धूल फाँकी परन्तु अपने यहाँ झाँकना उन्होने ज़रूरी नहीं समझा था। इसका खामियाजा जनसाधारण को आज तक भुगतना पड़ रहा है। अंग्रेजी शासन पद्धति की विरासत चालू रखने के पक्षधर नौकरशाह तो भारतीय मूल्यों को प्रगति के लिये, बिल्कुल ही सक्षम नहीं समझते थे, किन्तु हमारे सियासतदान नेताओं का एक बड़ा तबका भी ऐसा था जो कुछ ऐसी ही राय रखता था। यह स्थिति आज भी बनी हुई है।
बीसवीं सदी के चतुर्थ दशक का उत्तरार्द्ध पूरी दुनिया में खलबली मचा देने और इतिहास को नया आयाम देने का आगाज़ था। भारत के राजनैतिक माहौल में परिवर्तन आया, जब अंग्रेज होमरूल के लिये सहमत हुए थे। भारत के कई प्रान्तों में राजनैतिक पार्टियों की सरकारें बनीं। तत्कालीन उत्तर प्रदेश याने संयुक्त प्रान्त (आगरा-अवध) में कांग्रेस की सरकार बनी और गोबिन्द बल्लभ पन्त प्रान्त के प्रधानमन्त्री बनाये गये थे। इससे राजनैतिकों को हुकूमत का चस्का लगा, और सियासती जोड़-तोड़ करने के गुर भी उन्होंने सीख लिये। आज की राजनैतिक सौदेबाजी इसका चरम उदाहरण है। राजनीति में अनैतिक कुछ नहीं, वरन् सब कुछ वैध होता है, वाला सिद्धान्त धीरे धीरे सर पर चढ़ कर बोलने लगा। आज के छुटभइये नेताओं का तो यह गुरुमंत्र है।
पाँचवा दशक शुरू होते-होते स्वतंत्रता की ललक भी प्रखर हो चली थी। सन् बयालिस का ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’, महात्मा गांधी का असहयोग आन्दोलन, क्रांतिकारियों के बलिदान, द्वितीय विश्वयुद्ध में अंग्रेजों की शक्ति का क्षरण, आजाद हिन्द फौज़ के रूप में सैन्य क्षेत्रों में आजादी की भावना का उदय, और भारतीय जनमानस का राजनैतिक उत्कर्ष इत्यादि अनेक आधारभूत कारणों से अंग्रेज भारत छोड़ने को विवश हो गये।
बीसवीं सदी के इस ऐतिहासिक दशक में भारतीय जनमानस आजादी की भावनाओं से ओतप्रोत था। वह इंकलाब का जमाना था, जब एक-एक बच्चा आजादी के तराने गुनगुनाता था। उस युग ने भारत में लगभग सभी भाषाओं में ऐसे रचनाकार पैदा किये जिन्होंने कालजयी रचनाओं का सृजन किया। उस युग के प्रत्यक्षदर्शी लोगों के ज़ेहन में श्यामलाल पार्षद का गीत ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झण्डा ऊँचा रहे हमारा’ आज भी ताजा होगा। इसी प्रकार ‘कदम कदम बढ़ाये जा खुशी के गीत गाये जा’ और ‘आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है…..’ जैसे पसन्दीदा गीत तत्कालीन भारतीय जन मानस की कहानी बखानते हैं। अन्ततः जब आजादी निश्चित हो गयी तब 15 अगस्त की प्रतीक्षा जिस बेसब्री से हमने की थी उसकी मिसाल नहीं है। देश की हालात पर पैदा होने वाले, हल के तलबगार सवालात ज़रूर ज़ायज हैं, लेकिन स्वतंत्रता दिवस की प्रसन्नता उस दिन सर्वोपरि है, उसको महसूस किया जाना चाहिये। मुझको अभी तक 15 अगस्त सन् 47 के दिन बॉय स्काउट के रूप में परेड में शामिल होने के लिये, मूसलाधार बारिश में तरबतर भीगते हुए भी नियत समय पर, मेरा मल्लीताल फ्लैट्स में पहुँचना मुझे कभी नहीं भूलेगा।