कल्याण सिंह रावत
पहाड़ी क्षेत्रों में एक हजार मीटर से ऊपर स्थित भवन निर्माण डिजाइनों पर सोचा जाना चाहिए। अपरिहार्य कारणों को छोड़ कर समस्त मकानों को लकड़ी के हल्के मकान बनाने की इजाजत हो। दो मंजिला मकान से बड़े मकान न बनाए जाएं। गांवों में लेंटर के मकान बनाने पर पूर्णतया प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। उन्हें लकड़ी के हल्के पहाड़ी नक्काशीदार मकान बनाने की ओर प्रेरित किया जाना चाहिए। इससे यह फायदा होगा कि —
क- यह क्षेत्र भूकम्पीय सेस्मिक जोन 5 में स्थित है। हल्के मकान सुरक्षित रहेगें।
ख-खनन कार्यों पर अंकुश लगेगा। भूस्खलन क्षेत्र कम पनपेंगे
ग- अच्छे नक्काशीदार मकान होम स्टे पर्यटन को आकर्षित करेंगे।
घ-उतराखण्ड की प्राचीन स्थापत्य कला जिन्दा रहेगी। भवन निर्माण कला के क्षेत्र में रोजगार सृजित होंगे।
च-लकड़ी युक्त मकानों में लोगों का स्वास्थ्य अच्छा रहेगा।
छ-हिमालयी भू- भाग पर अनावश्यक दबाव कम होगा।
ज-पहाड़ में खूबसूरत प्रकृति के साथ खूबसूरत गांव विकसित होंगे। इससे स्वस्थ पर्यटन के अवसर बढ़ेंगे।
अब प्रश्न उठता है कि लकड़ी कहां से आयेगी ?
हमारे पास चीड़ की लकड़ी का साम्राज्य फैला हुआ है। बहुत बूढ़े बूढ़े जंगल, नये पौधों को पनपने का रास्ता रोके हुए हैं। अगर हम इन बूढ़े व पूर्ण विकास को प्राप्त कर गए पेड़ों का वैज्ञानिक प्रवन्धन नहीं करेंगे तो भविष्य में हमारे पास नये वन कहां से आएंगे? इसलिए जरूरी वृक्षों को काट कर लकड़ी उपयोगिता अनुसार लोगों को नि:शुल्क या मामूली शुल्क पर मुहैया करायी जा सकती है।
केवल पेड़ काटने पर हो हल्ला मचा कर अपने को पर्यावरण का हितैषी बताने वालों को मैं यह बताना चाहता हूं कि वनों का वैज्ञानिक प्रवन्धन होना जरूरी है नहीं तो वन विकृत हो जायेंगे। नये पौधों को पनपने के लिए पोषण, जगह और अनुकूलन की आवश्यकता होती है। बूढ़े पेड़ों को हटाकर अच्छे उपयोगी वन विकसित किए जा सकते हैं। विकसित हो चुके चीड़ के पेड़ों की कार्बन धारण क्षमता लगभग न्यून हो जाती है। जबकि नये पनपते पेड़ों को विकास के लिए अधिक कार्बन की जरूरत होती है जिसे वे वायुमंडल से प्राप्त करते हैं इस प्रकार कार्बन स्टाक करने में नये पौधे ज्यादा मददगार साबित होते हैं।
पुराने चीड़ के पेड़ अधिक मात्रा में पत्तियों को गिराते हैं जिससे। भूमि में पिरूल (चीड़ की पत्तियां) अधिक बिछ जाती हैं जो पहाड़ों के जंगलों में गर्मियों में वनाग्नि के सबसे बड़े कारण हैं। ऐसी वनाग्नि समीपवर्ती बांज और मिश्रित वनों को तो क्षति पहुंचाती ही हैं साथ ही जैव विविधता को भारी नुक्सान होता है। चीड़ की जड़ों में मूल रोम नहीं पाये जाते हैं बल्कि इनकी जड़ों में माइकोराइजा प्रजाति की फंफूदों का जाल बिछा रहता है जो इतने बड़े पेड़ को जमीन से पानी अवशोषित करने में मदद करने का कार्य करते हैं। इस वजह से यह पेड़ जमीन के पानी का ज्यादा अवशोषण करके भूमिगत पानी के भण्डार को न्यून कर देता है। इससे ऐसे क्षेत्रों में पानी के स्रोत कम विकसित होते हैं और जमीन निरंतर शुष्क बनी रहती है।
प्राचीन काल में उत्तराखण्ड हरे भरे चौड़ी पत्ती वाले वनों का क्षेत्र रहा है इसलिए इसे आरण्य प्रदेश भी कहा जाता था। बाहरी लोगों ने जब इस क्षेत्र में आकर बसासतें बसानी शुरू की तो झूमिंग खेती ने इन वनों को काफी नुकसान पहुंचाया, गोरखा शासनकाल में भी वनों का बहुत क्षरण हुआ। अंग्रेजों ने व्यापारिक उद्देश्य से बांज के जंगलों का उपयोग कोयला बनाने में किया और उसके जगह पर आस्ट्रिया, इंग्लैंड से चीड़ के बीज मंगाकर उन्हें यहां व्यापक रुप से अपने आर्थिकी को मजबूत करने के लिए बोया। उन्हें इस पेड़ से रेल के लिए स्लीपर, टिम्बर लकड़ी, लीसा, बिरोजा, तारपीन जैसे उत्पादों से भारी मुनाफा हुआ। चीड़ का पेड़ बहुत तेजी से बढ़ता है और लगभग बारह वर्ष की उम्र में लीसा उत्पाद देने लगता है लगभग बीस वर्ष तक यह लीसा देता है उसके बाद यह कुछ वर्षों तक कायिक वृद्धि करता है।
चीड़ के वनों पर लगातार आग लगने से बूढ़े पेड़ों के लीसा निकालने वाले घाव आग से झुलसकर कमजोर होते रहते हैं और ये अपने पूरे भार को सहने में असमर्थ जैसे हो जाते हैं और जब कोई तूफान या बवन्डर आता है तो ये धराशाई हो जाते हैं जिससे एक और प्राकृतिक आपदा खड़ी हो जाती है। पहाड़ी गांवों के सम्पर्क मार्ग इन्हीं वनों से गुजरते हैं जो हमेशा लोगों के लिए खतरा बने रहते हैं।
मेरा यह सब कहने का मतलब ये है कि चीड़ के वनों का वैज्ञानिक प्रबन्धन किया जाना चाहिए। जहां चीड़ के एकल वन हैं वहां वैज्ञानिक प्रबन्धन से पुराने पेड़ों को हटाकर केवल बीजू पेड़ों को रखा जाना चाहिए जब बीजू पेड़ों से बीज गिरेंगे तो नई पौध तैयार होगी। नई पौध वाला वन जहां बारह साल बाद लीसा देने के लिए तैयार होगा और हम लीसा के कारोबार को शुरू कर छिलान, टिपान, भरान, ढुलान जैसे कार्यों में स्थानीय लोगों को रोजगार दे सकेंगे वहीं लघु उद्योग स्थापित कर तारपीन, बिरोजा जैसे उत्पादों को बेचकर भारी आर्थिक लाभ कमा सकेंगे। ये नयी पौध वाले वन वातावरण से अधिक से अधिक कार्बन प्राप्त करने में सक्षम होंगे जिससे कार्बन स्टाक में वृद्धि होगी फलस्वरूप ग्लोबल वार्मिंग में कमी आने से हिमालय के हिमनदों के पिघलने में कमी आएगी।
सातवीं-आठवीं शताब्दी तक उत्तराखंड में अस्सी प्रतिशत तक बांज,फल्यांट,तिलांज जैसे चौड़ी पत्ती वाले मिश्रित जंगल थे। तब हमारे पास पानी के नौले, धारों व प्राकृतिक स्रोतों की भरमार थी। अकेले अल्मोड़ा में तीन सौ से अधिक नौले बताए जाते थे। एक बांज का स्वस्थ पचास साल का पेड़ अड़तालिस घण्टे में चार सौ गैलेन पानी जमीन को देता है। इसलिए बांज को पहाड़ का हरा सोना कहा जाता है। आज स्थिति उलट हो गई है। चीड़ के वनों का प्रतिशत उत्तराखण्ड में अट्ठाइस प्रतिशत से अधिक है जब कि बांज घट कर अट्ठारह प्रतिशत भी नहीं रह गया है। यही कारण है मध्य हिमालय में चौड़ी पत्ती वाले पेड़ों में हो रही क्षति के कारण अधिकतर स्रोत सूख गए है साथ ही इनसे निकलने वाली सदानीरा नदियां गर्मियों में सूखने के कगार पर पहुंच रही है। इसका परिणाम यह होगा कि डेढ़ करोड़ लोगों के हलक तर करने के लिए भी पानी नसीब नहीं होगा। हरे सुंदर व्यवस्थित वन मानसून को पहाड़ों में अपनी ओर आकर्षित करने में सहयोगी होते हैं जिससे वर्षा की निरंतरता बनी रहती है।
वर्ष 1980-81 से पर्वतीय क्षेत्रों में एक हजार मीटर से ऊपर के वनों के पातन पर सरकार ने कानूनन रोक लगा रखी है इसका सबसे अधिक लाभ चीड़ को बेहतासा विस्तार करने में हुआ है। वैज्ञानिक प्रवन्धन न होने से ये वन भी बहुत विकृत और अनुपयोगी सिद्ध हो रहे हैं। इसलिए समय की मांग है कि चीड़ के वनों का वैज्ञानिक प्रवन्धन कर इसके अधिक विस्तार पर रोक लगनी चाहिए।
अब तो स्पष्ट हो गया है कि हमें चीड़ की लकड़ी कहां से और कैसे और कितनी मात्रा में प्राप्त हो सकती है। बस राजनैतिक इच्छा शक्ति और दूरदर्शिता होनी चाहिए। चीड़ के जंगल फैलते हुए गांव के समीप पंहुच गए हैं। ये पेड़ वानर जीवों के लिए सबसे सुरक्षित आवास माने जाते हैं। बन्दर इसलिए गांवों में डेरा डाले हुए हैं। वानरों के आतंक से गांवों की खेती बाड़ी चौपट हो गई है।
अब आते हैं एक महत्वपूर्ण प्रकरण पर वह है आपदा प्रबंधन। इन बाईस सालों के इतिहास को टटोलने पर यह समझ लेना चाहिए कि उत्तराखण्ड एक आपदा बाहुल्य राज्य है। हमने अपने नवजात प्रदेश के लिए कई नाम गढ़ाए थे, जैसे उर्जा प्रदेश, पर्यटन प्रदेश, हरित प्रदेश, फल प्रदेश, जड़ी बूटी प्रदेश और भी न मालूम क्या क्या? लेकिन यथार्थ में हम एक के बाद एक आपदाओं से दो चार होते रहे। अन्तोतगत्वा यह आपदा प्रभावित प्रदेश बन कर ही रह गया है। आपदाओं के समय हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती तत्काल प्रभावित लोगों को पुनर्वास करने की होती है। स्थाई पुनर्वास से पहले किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचा कर उन्हें आवास और भोजन जैसी महत्वपूर्ण सुविधा प्रदान करने की होती है। ऐसी स्थिति में हम या तो टैंट की व्यवस्था करते हैं या स्कूल आदि बन्द कराके वहां रहने का इंतजाम करते हैं। कभी—कभी तो व्यवस्था न होने तक खुले आसमान के तले भी आपदा पीड़ितों को दिन गुजारने पड़ते हैं। तब उनके अन्दर निराशा का भाव प्रकट होता है और वे दुखी होते हैं।
क्यों न प्रत्येक जनपद में चिन्हित आपदा संभावित क्षेत्रों के आस-पास पचास-पचास लकड़ियों के रेडीमेड मकानों की लकड़ी के भण्डार गृह स्थापित किए जाएं। इस प्रकार प्रत्येक जनपद के पास पचास अस्थाई फोल्डिंग लकड़ी के घरों का एक आपदा भण्डार कक्ष होंगा। इनकी जिम्मेदारी जनपद के आपदा प्रबन्धन विभाग व वन विभाग को दी जाय। अच्छे भवन वास्तुकार व इंजिनियर के सहयोग से चीड़ की बल्लियों व तख्तों से दो या तीन रुम सैट का एक फोल्डिंग मकान का आकार तैयार किया जा सकता है। छत पर हल्के भार वाले चद्दरों का प्रयोग किया जा सकता है। इन मकानों का ढांचा तैयार करके उनमें नम्बरिंग व अलग—अलग मकानों की लकड़ियों को अलग—अलग रंगों से चिन्हित कर फिर फोल्डिंग करके, पूरे मकान की लकड़ी को भण्डार गृह में स्थापित कर वहां सुरक्षित रखी जा सकती है। इस प्रकार कम से कम पचास रेडीमेड फोल्डिंग घरों की लकड़ी इन भण्डार गृहों में सुरक्षित रखी जा सकती है। आपदा आने पर इन लकड़ियों को आपदा ग्रस्त स्थान पर ले जा कर तत्काल राहत दी जा सकती है। आवासीय कमी पड़ने पर समीपवर्ती जिले से आवश्यकता अनुसार मकान मंगाए जा सकते हैं। ऐसे मकान उपलब्ध कराये जाने पर प्रभावित परिवारों को भावनात्मक व मनोवैज्ञानिक रुप से थोड़ी राहत जरूर मिलेगी।