डॉ. भूपेंद्र बिष्ट
पिछले कुछ वर्षों से हो यह रहा है कि हिंदी भाषा के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार की घोषणा होते ही पुरस्कृत कृति के मूल्यांकन और कलमकार के कद पर चर्चा कम लेकिन दीगर बातों को लेकर टीका – टिप्पणी ज्यादा शुरू हो जाती हैं.
अभी बद्री नारायण को इस साल ’22 के लिए नवाज़ने की खबर आई तो भी यही सब प्रकारांतर या प्रकट रूप से सामने आया और आ रहा है.
प्रलय के दिनों में सप्तर्षि मछली और मनु/ सब वेद बचायेंगे/ कोई नहीं बचायेगा/ प्रेमपत्र. ….
यह सुंदर कविता की पंक्ति है बद्री नारायण की और “तुमड़ी के शब्द” ( राजकमल ) है उनका कविता संग्रह — जो पुरस्कृत हुआ. सुना जा रहा है कि पिछले वर्ष भी यह किताब दौड़ में थी पर क्या कारण रहे कि रिजेक्ट हो गई कहने के स्थान पर कहा जाय कि रह गई, कुछ कहा नहीं जा सकता. हां, निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि 2021 में जो श्रीमान दया प्रकाश सिन्हा पुरस्कृत हुए, उनकी ‘ सम्राट अशोक ‘ नाटक की जगह पर तब ‘ तुमड़ी के शब्द ‘ बीस नहीं बाईस रहती !
“हाट-बाजार की कविता” नमक अपने निबंध में नामवर सिंह ने जो संकेत किया है — कविता आज उसी प्रकार जिंदगी की यथार्थ मांसलता का अनुभव करा रही है, जिस प्रकार एक अरसे से कहानी और उपन्यास करते आ रहे हैं. यहां तक कि कुछ एक कविताओं में तो कथा साहित्य से भी ज्यादा जिंदगी की जीवंतता का संवेदन प्राप्त होता है. …. के बरक्स ही हम पुरस्कृत होने पर बद्री उवाच को भी पढ़ सकते हैं — यह मेरा ही नहीं, आम आदमी के जीवन पर रची गई मेरी उन कविताओंके संस्रोत का भी सम्मान है. ….
साहित्य अकादमी के निर्णायक मंडल द्वारा पुरस्कार हेतु चयनित कृति के मूल्यांकन का आधार क्या रहा, इस पर टिप्पणी के लिए कोई मौका नहीं होना चाहिए. लेकिन जब पुरस्कार दूसरे कारणों से विवाद के घेरे में आ जाय तो बहस मुबाहिशे के खुले मंच को आप रोक भी नहीं सकते. इस बार हिंदी भाषा के पुरस्कार के लिए ज्ञात-अज्ञात लेखकों की ग्यारह किताबें नामित थी और विद्वान निर्णायक मंडल में नंदकिशोर आचार्य, अरुण कमल और डॉ. चंद्र त्रिखा रहे. 1998 में अपने कविता संग्रह “नए इलाके में” अकादमी सम्मान से पुरस्कृत अरुण कमल स्वयं विवाद में रहे कि उस समय के निर्णायक मंडल के एक सदस्य भीष्म साहनी को ही संदर्भित संग्रह समर्पित था.
इसी तरह 2005 में जब मनोहर श्याम जोशी के “क्याप” को सम्मानित किया गया तो फिज़ाओं में दो सवाल कई दिनों तक तैरते रहे. एक, क्या अकादमी ने आपको पुरस्कृत करने में देर नहीं कर दी ? और दूसरा, क्या यही उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना कही जा सकती है ?
इधर पिछले वर्ष गीतांजलि श्री के जिस उपन्यास के अंग्रेज़ी अनुवाद (Tomb of Sand) को अंतर्राष्ट्रीय बुकर सम्मान से नवाज़ा गया था, उस ‘रेत-समाधि’ नामक मूल उपन्यास को अपनी मूल भाषा हिंदी में साहित्य अकादमी पुरस्कार के काबिल नहीं समझा गया . वह तो वीरेन डंगवाल की प्रफुल्ल विनम्रता कही जाएगी कि आपने “दुश्चक्र में सृष्टा” ( 2004 ) को पुरस्कार मिलने पर जो यह कहा कि अरे, घर के पिछवाड़े ये टॉर्च की रोशनी कैसी ! इसे बड़ा रूपक समझा जाना चाहिए.
यद्यपि कृष्ण कल्पित कहते हों कि एक विचारधारा से अपनी मुखर नज़दीकी के कारण काशीराम की जीवनी लिखने वाले समाजशास्त्री और कवि बद्रीनारायण इस साल के साहित्य अकादमी पुरस्कार से अब विवाद में आ गए तथापि हमें ओम थानवी जी की इस प्रतिक्रिया के आलोक में व्यवहार करना चाहिए और संजीदा भी रहना चाहिए :
कुछ मित्र पुरस्कृत साहित्यकारों की वर्तमान विचारधारा देखकर उनके दाय पर टीका कर रहे हैं, यह उचित नहीं जान पड़ता. विचारधारा साहित्य के श्रेष्ठ या पतित होने का सबब नहीं हो सकती. जो कवि या लेखक हमारे (या हमारी पसंदीदा) विचार का नहीं, वह साहित्यकार भी अच्छा नहीं — यह नज़रिया एक प्रकार के “जातिवाद” या संकीर्णता का ही प्रसार करता है.
कविता का अस्तित्व ही अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि मानव जीवन के समस्त अनुभवों को तर्कसंगत के दायरे में नहीं लाया जा सकता. जो भौतिक, ठोस और मूर्त है केवल वही जीवन की वास्तविकता नहीं है. बद्री नारायण के काव्य-संग्रह “तुमड़ी के शब्द” से गुजरते हुए हमें एक संवेदनशील कवि की मुफलिस जिंदगी को अनुभव करने की प्यास ( लॉगिंग ) और उसे अपने काव्य में व्यक्त कर सकने की भी क्षमता का पता चलता है :
पहले दिन इच्छा जगी/ दूसरे दिन आस/ तीसरे दिन जग गई मुझमें पाने की चाह/ चौथे दिन, हां चौथे दिन जब मैंने पाने के लिए हाथ बढ़ाया/ सेमल का फूल उपह गया बीच आकाश/ जीवन कितना छोटा है मेरी हिरण ! ….
समालोचकों की निष्पति तो यहां तक है कि इस कविता में ‘हिरण’ का प्रयोग पाठक को कबीर के उन पदों की याद दिला देता है, जिन्हें कुमार गन्धर्व ने अपना स्वर देकर हमारी सांस्कृतिक विरासत का स्थाई भाग बना दिया है.
बद्री नारायण को बधाई.