प्रमोद साह
भारत के स्वतंत्रता संग्राम और उसमें महात्मा गांधी के सत्याग्रह के प्रयोग ने न केवल भारत को बल्कि भारत के साथ और उसके बाद आजाद होने वाले तीसरी दुनिया के दर्जनों देशों को स्वतंत्रता आंदोलन की व्यावहारिक समझ दी और अप्रत्यक्ष तौर पर उसका नेतृत्व भी किया। पुर्तगाल के विरुद्ध गोवा के मुक्ति संग्राम को सीधे तौर पर सरदार पटेल और राम मनोहर लोहिया ने नेतृत्व दिया, लेकिन इसके अलावा म्यांमार, बहरीन, कांगो और दक्षिण कोरिया जैसे दर्जनों देश भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से प्रेरित होकर अपनी आजादी की लड़ाई में कामयाब हुए।
न केवल राष्ट्रों की आजादी, बल्कि दुनिया को लोकतांत्रिक समाज के भीतर प्रतिरोध का जो अनुशासित पाठ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और महात्मा गांधी ने दिया, उससे सबक लेकर भारत तथा दुनिया के बहुत से देशों में आज भी सरकारों के विरुद्ध संघर्ष की परंपरा जिंदा है।
आंदोलन के संकट के समय हमारा स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास यह सबक देता है कि आंदोलन में लगातार आगे ही नहीं बढ़ा जाता बल्कि बैठ जाना, चौरी-चौरा की तरह आंदोलन का स्थगित हो जाना, राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस की तरह कई बार वार्ता का अवसर लेना और अंततः “भय बिन होत न प्रीत गुंसाईं ” की तर्ज पर “करो अथवा मरो” के आह्वान के साथ भारत छोड़ो आंदोलन का सबक भी हमारे स्वतंत्रता संग्राम इतिहास का एक बेजोड़ हिस्सा है।
महात्मा गांधी और स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास ने कालांतर में दक्षिण अफ्रीका की आजादी के लिए नेल्सन मंडेला जैसा नायक पैदा किया, वहीं अमेरिका के लोकतंत्र से नस्लभेद के दाग को मिटाने के लिए मार्टिन लूथर किंग जूनियर को प्रेरित किया।
महात्मा गांधी के विचार “दुनिया को बदला जा सकता है” के एक विचार से प्रेरित होकर स्टीव जॉब्स एक बड़े और सफल व्यवसायी बन गए ।
कोरोना के संकट के समय जब दुनिया अपनी स्वास्थ्य सेवाओं को सुधार रही थी, उस पर अमल कर रही थी, ठीक उस समय मौजूदा तीन कृषि कानून अध्यादेश के रूप में भारत में आए, जो 20 सितंबर 2020 को राज्यसभा से कृषि बिल के पास होने के साथ ही कानून बन गए।
अध्यादेश के समय ही पंजाब में इन कानूनों के विरुद्ध आंदोलन की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी लेकिन कानून बनते ही आंदोलन की पहल 26 सितंबर 2020 को भारत बंद के साथ हुई, जो काफी हद तक कामयाब रही। उसके बाद 40 से अधिक संघर्षरत किसान संगठनों ने 7 नवंबर 2020 को संयुक्त किसान मोर्चा (अहिंसक प्रतिरोध ) का गठन किया।
अपनी टैगलाइन के रूप में अहिंसक प्रतिरोध शब्द को जोड़ देने मात्र से ही किसानों ने अपनी लंबी लड़ाई के इरादे को जाहिर कर दिया था। साथ ही यह भी संदेश दिया कि वह गांधी के अहिंसा के मार्ग की ताकत को पहचानते हैं । जानते हैं कि शक्तिशाली सत्ता के साथ मुकाबला सिर्फ अहिंसा के मार्ग से ही किया जा सकता है।
संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा दिल्ली को घेरने की कॉल के साथ ही 26 नवंबर 2020 को जब किसानों का पहला जत्था हरियाणा से सिंघु बॉर्डर पर पहुंचा तो पानी की बौछार से उसका स्वागत हुआ। सीमेंट की बैरिकेड तथा अभूतपूर्व प्रबंधों के साथ किसानों के जत्थे को वहां रोक दिया गया, इसी के साथ-साथ राजस्थान से आ रहे किसान टिकरी बॉर्डर और उत्तर प्रदेश से लगे गाजीपुर पर भी को रोक दिये गये।
पुलिस के साथ किसानों का गंभीर टकराव हुआ, लेकिन किसान अपनी टैगलाइन अहिंसक प्रतिरोध को यहां बचाए रखने में कामयाब रहे। यह किसानों की पहली जीत थी ।
दिल्ली न पहुंचने पर किसानों ने दिल्ली की तीन ओर से आ रही सीमाओं पर अपने डेरे डाल दिए। एक-दो दिन में ही इन स्थानों पर टेंटेड कॉलोनी और स्थाई भोजन के लंगर चल पड़े, सारे जरूरी इंतजाम ऐसे हुए, जैसे कोई स्थाई शहर यहां आकर बस गया हो। व्यवस्थित किसान आंदोलन जिसमें शानदार टेंट थे, सारी जरूरी सुविधाएं थी। आंदोलन की इस व्यवस्था को देखने के लिए देश और दुनिया के बहुत सारे छात्र, शोधकर्ता और आंदोलनकारी इन तीनों स्थानों पर आने लगे।
आंदोलन के दीर्घ जीवी होने के लिए आंदोलन का सबसे जरूरी पक्ष साहित्य और कला का होता है। वह भी इस आंदोलन में साथ-साथ चला। आंदोलन के मंच से किसान आंदोलन के बारे में 2,000 से अधिक कविताओं का सृजन हुआ, दर्जनों कहानियां लिखी गईं, कुछ उपन्यास भी इस आंदोलन के गर्भ से निकले और फिल्में बनीं।
नवंबर 2020 से आंदोलन के दबाव में भारत सरकार ने आंदोलनकारी संगठन को वार्ता का निमंत्रण दिया। 1 दिसंबर को दो दौर की वार्ता हुई। आंदोलन के दौरान वार्ता में भागीदारी के लिए 25 सदस्य किसानो के वार्ता दल का गठन हुआ। आंदोलन के बिंदुओं पर चर्चा के लिए पहले कोर कमेटी की बैठक होती थी फिर वार्ता।
वार्ता के निष्कर्षों पर पुनः समीक्षा और भविष्य के लिए वार्ता की दिशा तय की जाती थी। यह सब कुछ व्यवस्थित, लोकतांत्रिक और अनुशासित था। साथ ही वार्ताकारों का नैतिक पक्ष मजबूत रहे इसके लिए आंदोलनकारी किसानों ने सरकारी भोजन का परित्याग किया और वार्ता के दौरान अपने ही लंगर से भोजन किया गया, जो कि आंदोलन की एक व्यापक रणनीति का हिस्सा था।
वार्ता के दौरान लम्बे गतिरोध के बने रहने के बाद भी कभी भी वार्ता के मध्य उत्तेजना और हिंसा की जैसी पृष्ठभूमि नहीं देखी गई। यह इस आंदोलन और वार्ता की रणनीति का एक शानदार नमूना था। थका देने वाली लंबी वार्ताओं के बाद आखिरकार 22 जनवरी 2021 से वार्ता का यह क्रम टूट गया।
अब किसानों का आंदोलन मनोवैज्ञानिक लड़ाई लड़ रहा था। 26 जनवरी 2021 को किसानों की गणतंत्र दिवस परेड निकाले जाने की मांग की सीमित अनुमति प्रदान हुई, लेकिन यहीं किसानों के एक छोटे गुट, जिनका नेतृत्व दीप सिद्धू और लक्की सडाना द्वारा किए जाने का आरोप है, ने निर्धारित रूट से अलग हटकर दिल्ली पुलिस के बैरिकेडों को तोड़कर लाल किले पर एक संप्रदाय विशेष का झंडा फहराने का प्रयास किया। यहां व्यापक हिंसा हुई लेकिन पुलिस ने बड़े संयम का परिचय दिया, बड़ी हिंसा और पूरे दिल्ली में अराजकता होने से बच गई।
अहिंसक प्रतिरोध के अपने सिद्धांत से जैसे ही किसान आंदोलन भटका, तो उसकी उल्टी गिनती शुरू हो गई। अब माना जाने लगा कि किसान आंदोलन बगैर किसी निष्कर्ष के खत्म हो जाएगा। लेकिन तभी गाजीपुर बॉर्डर पर पुलिस द्वारा अचानक राकेश टिकैत के मंच पर जोर-जबरदस्ती का जो प्रयास किया और राकेश टिकैत के जो बेबसी के आंसू छलके, उसने पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बिखर चुके आंदोलन को फिर से ताकत दी।
किसान आंदोलन फिर से नए संकल्प के साथ ही एकत्रित हुआ, दीप सिद्धू तथा अन्य किसान आंदोलन के घटक जो कि दिल्ली हिंसा में शामिल थे, से संयुक्त किसान मोर्चा ने किनारा किया और आंदोलन को पुनः अहिंसक और प्रभावी बनाए रखने की रणनीति के तहत आंदोलन के बडे कार्यक्रम जारी हुए, जिसमें किसान बहुल क्षेत्रों में किसान पंचायत, बंगाल में चुनाव प्रचार के दौरान किसानों का पक्ष रखना, साथ ही जुलाई-अगस्त के संसद सत्र में किसान संसद का संचालन जैसे बड़े और सफल कार्यक्रम इस अवधि में हुए।
पूरे एक साल चले आंदोलन में शामिल आंदोलनकारियों की प्रकृति ने भी गहरी परीक्षा ली। जहां इस वर्ष दिल्ली के बॉर्डर पर शून्य के आसपास पारा रहा, वहीं कोरोना के भयंकर हाहाकार के बीच किसान आंदोलन बड़ी महामारी से बचा रहा।
भयंकर गर्मी और लू के थपेड़े, 45 डिग्री से अधिक का तापमान महीने भर बना रहा। लगातार चार-पांच दिन की मूसलाधार बारिश का सामना करने के बाद पानी-पानी हो चुके टैंटों पर भी आंदोलन को जिंदा रखने के संकल्प ने आखिरकार यह संदेश दिया कि यदि आप विचारधारा और रणनीति के स्तर पर मजबूत हैं, हिंसक नहीं हैं तो आप के आंदोलन की विजय होती है।
आखिरकार 19 नवंबर 2021 का ऐतिहासिक दिन आया, जब माननीय प्रधानमंत्री जी ने इन तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा की, हालांकि किसानों का अभी शीघ्र घर वापसी का इरादा प्रतीत नहीं होता। लेकिन जो भी हो एक ऐतिहासिक आंदोलन के रूप में इस आंदोलन को याद किया जाएगा जिसने अपनी पूरी अवधि में 671 साथियों को खो दिया हो, जिन्हें किसान शहीद कहते हैं और इतना लंबा चलने के बाद भी पूरे संयम और अहिंसा के संकल्प के साथ आंदोलन की ताकत को जिंदा। इस दृष्टि से यह किसान आंदोलन 21वीं सदी में लोकतंत्र की पाठशाला के रूप में भी याद रखा जाएगा।