सन्त समीर
(जिन्हें समझना हो, वे पूरा पढ़ें और जो ख़ुद के बचाव और इलाज मात्र की जानकारी चाहते हों, वे आख़िरी हिस्सा पढ़कर काम चला सकते हैं। बीमारी से भयभीत लोगों से निवेदन है कि आधा-अधूरा पढ़कर पूरा निष्कर्ष निकालने की जल्दबाज़ी न करें। लेख लम्बा है।)
सबसे पहले यह सोचिए कि कोरोना से अब तक कितने लोग मौत के शिकार हुए हैं? जब तक आप सोचेंगे, तब तक दस-बीस और अनन्त की यात्रा पर निकल चुके होंगे। सङ्क्रमण के शिकार कितने हैं? इसकी गिनती करना और बेकार है, क्योंकि रफ़्तार बेतहाशा है। रोज़-रोज़ की रिपोर्टों और ख़बरों में जैसा दिख रहा है, उस हिसाब से ऐसा ही सोचा और कहा जा सकता है, पर इस पूरे कोरोना परिदृश्य को देखने का एक दूसरा नज़रिया भी हो सकता है। वह यह कि कई और बीमारियों के फैलने की रफ़्तार भी क़रीब-क़रीब कोरोना-जैसी ही रही है, लेकिन उनमें इस तरह से जाँचें नहीं की जाती थीं, तो उनके बारे में हम ज़्यादा जान भी नहीं पाते थे। साधारण फ्लू की ही बात कर लें। जिस अमेरिका में सबसे ज़्यादा मौतें हो रही हैं, वहाँ के आँकड़ों पर निगाह डालिए।
सेण्टर फॉर डिजीज़ कण्ट्रोल एण्ड प्रिवेंशन (CDC) की वेबसाइट पर 1 अक्टूबर, 2019 से 4 अप्रैल, 2020 तक की फ्लू की रिपोर्ट है। इस रिपोर्ट के अनुसार अनुमान है कि इस दौरान अमेरिका में तीन करोड़ नब्बे लाख से पाँच करोड़ साठ लाख तक लोग फ्लू के शिकार हुए। एक करोड़ अस्सी लाख से दो करोड़ साठ लाख लोगों ने इसके लिए मेडिकल सलाह ली। चार लाख दस हज़ार से सात लाख चालीस हज़ार तक लोग अस्पतालों में भर्ती हुए। मरने वालों के बारे में अनुमान है कि इनकी सङ्ख्या चौबीस हज़ार से बासठ हज़ार के बीच होगी। सीडीसी ने ही 2018 की रिपोर्ट दी है कि उस साल साधारण फ्लू से अमेरिका में अस्सी हज़ार से ज़्यादा लोग मौत के शिकार हुए, जो चार दशकों में सबसे बड़ी सङ्ख्या है। सामान्य निष्कर्ष यह है कि अमेरिका जैसे देश में फ्लू से हर साल चालीस-पचास हज़ार या इससे कुछ ज़्यादा लोग मरते ही हैं। इसी के साथ बीते मई महीने की दिलचस्प रिपोर्ट यह है कि मई में जब अमेरिका में कोरोना बेतहाशा फैल रहा था तो उन कुछ हफ़्तों में वहाँ के अस्पतालों में फ्लू के मरीज़ न के बराबर आए। सवाल है कि जिस देश में करोड़ों लोग हर साल फ्लू से सङ्क्रमित होते हैं और लाखों अस्पताल पहुँचते हैं, वहाँ इस बार ऐसा कैसे हो गया? क्या फ्लू के मरीज़ धरती में समा गए?
निष्कर्ष साफ़ है कि पहले कोरोना वायरस की पहचान नहीं थी तो फ्लू का मरीज़ बस फ्लू का माना जाता था, अब कोरोना की पहचान के बाद फ्लू वाले मरीज़ भी कोरोना में रूपान्तरित हो गए, क्योंकि कोरोना भी अनन्तः फ्लू वायरस ही है।
अमेरिका में कोरोना से हुई मौतों में से फ्लू, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, अस्थमा, मधुमेह वग़ैरह की वजह से हुई मौतों की छँटाई की जाय तो कोरोना से मरने वाले लोग सिर्फ़ हज़ार-दो हज़ार तक सिमट कर रह जाएँगे। यहाँ यह भी समझ लेना ठीक रहेगा कि भारत में फ्लू से हमेशा से ही बहुत कम मौतें होती रही हैं। कारण कि यहाँ के खानपान में जानवरों से मिलने वाले प्रोटीन की मात्रा बहुत कम होती है, इसके अलावा यहाँ के बच्चे आमतौर पर धूल-मिट्टी में खेल-खेलकर बड़े होते हैं और उन्हें साल में चार-छह बार सर्दी-ज़ुकाम-फ्लू होता ही है, तो उनकी रोगप्रतिरोधक क्षमता ऐसे वायरस के ख़िलाफ़ ज़्यादा मज़बूत होती है। सङ्क्रमण यहाँ भी होगा ही, पर सिर्फ़ वायरस पॉजिटिव होने का मतलब बीमार होना नहीं है। भारत में केवल फ्लू से कोई मर जाय, ऐसा बहुत कम होगा या उन्हीं लोगों में होगा, जो बहुत हद तक पिज्जा-बर्गर संस्कृति की गिरफ़्त में आ चुके हैं। सच तो यह है कि इन दिनों हमारी रसोई के हल्दी, दालचीनी, काली मिर्च, सोंठ, लौंग जैसे मसाले भी हमारी इम्युनिटी के लिए काफ़ी कारगर साबित हो रहे हैं।
कोरोना से हो रही मौतों में एक और बड़ा पेंच है। इन सभी मौतों को किस आधार पर कहा जाए कि ये सब मौतें सचमुच कोरोना से ही हुई हैं या हो रही हैं? सामान्य नियम यह बना दिया गया है कि कोई व्यक्ति किसी भी बीमारी से मरे, पर अगर उसकी जाँच में कोरोना वायरस की पुष्टि हो गई (भले ही कोरोना के कोई लक्षण न हों या वायरस ने ज़रा भी प्रभाव न दिखाया हो) तो उसकी मौत कोरोना से मानी जाएगी। हाल यह है कि दुर्घटना के शिकार व्यक्ति में कोरोना मिल जाए तो डॉक्टर उसकी मौत को कोरोना से हुई मौत लिख सकता है। न्यूमोनिया और साधारण फ्लू से होने वाली तमाम मौतें आँख मूँदकर कोरोना से हुई मौतों के रूप में दर्ज की जा रही हैं। भारत में फिर भी ग़नीमत है, पर अमेरिका की ख़बरें हैं कि वहाँ दूसरी तमाम मौतें बिना पूछे ही कोरोना में दर्ज हो रही हैं। इटली के बारे में तो कुछ रिसर्च ऐसी आई हैं कि वहाँ की मौतों में से केवल दस प्रतिशत मौतों को ही कोरोना से हुई मौतें माना जा सकता है। इसका सीधा अर्थ यह निकलता है कि कोरोना की मौतों में दूसरी बीमारियों से होने वाली तमाम मौतें भी जुड़ी हुई हैं।
इसे यों भी कह सकते हैं कि हर सौ में पञ्चानवे या अट्ठानवे मौतें महज़ कोरोना की वजह से नहीं हैं। एक उदाहरण से इसे और आसानी से समझ सकते हैं। कोरोना-काल से पहले की स्थिति यह थी कि अगर किसी अस्थमा के रोगी को फ्लू हो जाय, धीरे-धीरे तबीयत ज़्यादा ख़राब हो जाय और अस्पताल में भर्ती होने के बाद उसकी मौत हो जाय तो डॉक्टर उस मौत को अस्थमा से हुई मौत लिखता था। मरीज़ का रिश्तेदार अगर कहे कि डॉक्टर साहब, जब से इन्हें सर्दी-जुकाम हुआ, तब से तबीयत ज़्यादा ख़राब हो गई तो डॉक्टर डपटकर कह देता था कि रोगी की मुख्य बीमारी अस्थमा थी, इसलिए इसकी मौत अस्थमा से हुई। अगर कोरोना पर रोज़-रोज़ शोर न मचाया जा रहा होता, तो वही वाली स्थिति आज भी दिखाई देती।
कोरोना से हो रही मौतों की सही स्थिति सामने लाने का एक तरीक़ा यह है कि अन्य बीमारियों के आँकड़े भी कोरोना के ही समानान्तर प्रतिदिन जारी किए जाएँ। ऐसा होने लगे तो सोचिए क्या तसवीर बनेगी! कोरोना के समानान्तर न्यूमोनिया-जैसी बीमारी में मौतों की सङ्ख्या पच्चीस-तीस गुना ज़्यादा दिखाई देंगी। हम सिर्फ़ एक बीमारी के सही या ग़लत आँकड़े हर दिन सामने देख रहे हैं तो इसका ही भय हमारे सिर पर सवार हो रहा है। इस तरह से एक तरफ़ तो इन मौतों को सिर्फ़ कोरोना से हुई मौतें कहा नहीं जा सकता और दूसरी तरफ़ अगर सिर्फ़ कोरोना की वजह से लाख-दो लाख मौतें भारत में हो भी जाएँ तो भी इसे महामारी किसी भी दृष्टिकोण से नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इससे ज़्यादा मौतें टीबी, मधुमेह जैसी दूसरी कई बीमारियों की वजह से होती ही रही हैं। फ़र्क़ बस इतना है कि इनके आँकड़े हर दिन, हर घण्टे-दो घण्टे पर जारी नहीं किए जाते।
न्यूमोनिया जैसी बीमारी से डेढ़ लाख से ज़्यादा लोग तब के हाल में मरते हैं, जबकि ग़रीब से ग़रीब व्यक्ति भी हालत बिगड़ने पर डॉक्टर के पास जाकर इसका इलाज कराता है। अगर न्यूमोनिया का इलाज न किया जाय तो सोचिए कि कितने लोग मौत के मुँह में जाएँगे! यह सङ्ख्या क़रीब आठ-दस लाख होगी। ठीक इसके विपरीत, कोरोना का सच यह है कि अभी तक इसका इलाज खोजा ही नहीं जा सका है। मतलब कि कोरोना सङ्क्रमण या कहें कोविड-19 का इलाज हो ही नहीं रहा है और जो हो रहा है, वह बस बुख़ार कम बनाए रखने की जुगत है। किसी दिन इस रहस्य से भी पर्दा उठ सकता है कि कोरोना से लोगों की मौतें घरों के बजाय अस्पतालों में इलाज के दौरान ज़्यादा हुई हैं और इस वजह से हुई हैं कि बीमारी की दवा के अभाव में मरीज़ों पर भाँति-भाँति की दवाओं का एक तरह से ट्रायल होता रहा और ग़लत दवाएँ देने की वजह से वे मौत के शिकार हो गए। पहले से डायबिटीज़, हृदय रोग वगैरह की चार-छह दवाएँ खा रहे एक व्यक्ति पर एण्टी मलेरिया, एण्टी बायोटिक, एण्टी वायरल और यहाँ तक कि एड्स तक की दवाओं का ट्रायल किया जाता रहा।
सोचिए कि ऐसे में कौन ज़िन्दा बच पाएगा और कौन काल कवलित हो जाएगा। अगर डब्ल्यूएचओ को आए दिन कुछ दवाओं के इस्तेमाल पर पाबन्दी लगानी पड़ रही है, तो इसका साफ़ मतलब है कि उन दवाओं ने मरीज़ों की जान साँसत में डाली। यह अजब सच है कि बीमारी की वजह से कम और कोरेण्टाइन की वजह से लोग ज़्यादा हलकान हुए हैं और श्मशान पहुँचे हैं। यह भी ध्यान देने वाली बात है कि वेण्टिलेटर अन्ततः मौत की मशीन बन गया है। जो वेण्टिलेटर पर ले जाए गए, उनके जीवित बचकर बाहर आने की सम्भावना न के बराबर है। बच भी गए तो अपङ्गों-जैसा जीवन जीने को अभिशप्त हो सकते हैं।
वायरस की अनुपस्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता, पर यह भी सच है कि हममें से किसी ने इसे देखा नहीं है, बल्कि प्रयोगशालाओं के अभाव में बड़े-बड़े डॉक्टरों और वैज्ञानिकों की बिरादरी में से 99 प्रतिशत ने कोरोना वायरस नहीं देखा है। ऐसे में, विश्व स्वास्थ्य सङ्गठन (डब्ल्यूएचओ) जो कहे, उसी को आँख मूँदकर हम मान रहे हैं। यह संस्था अब तक अमेरिका के इशारे पर काम करती थी, पर अब अमेरिका इससे नाराज़ है। अमेरिका को सही समय पर जानकारी न देने का आरोप तो है ही, आरोप यह भी है कि डब्ल्यूएचओ चीन के साथ मिलकर वैश्विक साज़िश रच रहा है।
चीन की बात आई है तो इस बात पर ध्यान दीजिए कि आख़िर चीन के सिर्फ़ एक ही शहर तक वायरस क्यों सिमट कर रह गया, बाक़ी शहरों तक क्यों नहीं फैला? क्या कोरोना की चीन से कोई रिश्तेदारी थी, जो उसने बाक़ी चीन को बख़्श दिया? चीन के लोग अपने देश में सबसे ज़्यादा एक जगह से दूसरी जगह को जाते रहे होंगे, पर वायरस वुहान के अलावा पूरे चीन को छोड़कर पूरी दुनिया में फैल गया! कहने को कहा गया कि चीन ने ये कड़े क़दम उठाए, वे कड़े क़दम उठाए, पर वैसे ही कड़े क़दम दुनिया के तमाम देशों ने उठाए और नतीजे में कोरोना के आगे पस्त होते गए। यह दिलचस्प है कि जो चीन अपनी बातें अपनी सरहदों से बाहर नहीं निकलने देता, वह कोरोना के मामले में ख़ुद वीडियो और ख़बरें जारी कर-करके पूरी दुनिया को बता रहा था कि कैसे वुहान को लॉकडाउन किया जा रहा है और कैसे सोशल डिस्टेंसिङ्ग व मास्क जैसी चीज़ों को अनिवार्य करके कोरोना को फैलने से रोकने की युद्ध स्तर पर कोशिशें की जा रही हैं।
ऐसा लगता है जैसे कि चीन पूरी दुनिया को दिखा-दिखाकर प्रेरणा या कहें कि ट्रेनिङ्ग दे रहा था कि लॉकडाउन कैसे करना है या कि कैसे सोशल डिस्टेंसिङ्ग करनी है, मास्क और हैण्डसेनेटाइजर का इस्तेमाल करना है। कुल नतीजा यह निकला कि इधर दुनिया पूरी तरह से ठप हो गई और उधर चीन पूरी तरह से चालू हो गया। उसके कारख़ाने दिन-रात उत्पादन में लगे रहे। डब्ल्यूएचओ और चीन की मिलीभगत के आरोप की मज़बूती इस बात में भी है कि डब्ल्यूएचओ के अध्यक्ष टेड्रास चीन के ही समर्थन से इस पद पर क़ाबिज़ हुए थे।
डब्ल्यूएचओ की सन्देहास्पद भूमिकाओं का आरोप एक और कारण से प्रबल हो जाता है। इसके लिए थोड़ा अतीत में जाने की ज़रूरत है। पहले डब्ल्यूएचओ की महामारी की परिभाषा में दो बातें शामिल थीं। एक बात यह थी कि वायरस नया हो और लोगों में उसके प्रति इम्युनिटी न हो तो महामारी की बात सोची जा सकती है। दूसरी बात यह थी कि सामान्य बीमारियों की तुलना में अगर छह गुना मौतें हो रही हों तो महामारी की स्थिति बनती है। वायरस का नया होना और मौतों का छह गुना होना, दोनों बातें साथ-साथ थीं। 4 मई, 2009 को डब्ल्यूएचओ ने महामारी घोषित करने की शर्तों में से छह गुना मौतों वाली बात हटा दी। यानी वायरस के नए होने मात्र से किसी बीमारी को महामारी घोषित किया जा सकता है। आपको याद होगा कि इसके ठीक अगले महीने यानी जून-2009 में स्वाइन फ्लू (H1N1) को महामारी घोषित किया गया। यहाँ तक भी बात ग़नीमत थी, पर मामला तब सङ्गीन हो गया, जब कुछ ही समय बाद फार्मा कम्पनियों के साथ डब्ल्यूएचओ के गठजोड़ की बात उठी और ब्रिटेन की संसदीय समिति ने उसमें 18 मिलियन डॉलर का घोटाला पकड़ा।
बातें बहुत हैं, पर फुटकर-फुटकर में भी काफ़ी कुछ समझा जा सकता है। शायद ही किसी को डब्ल्यूएचओ का वह शुरुआती बयान भूला होगा, जिसमें उसने कहा था कि कोरोना की वजह से दुनिया भर में दो करोड़ लोग तक मौत के शिकार हो सकते हैं। उसका सहयोग कर रही कुछ और रिपोर्टें बता रही थीं कि मौतों की सङ्ख्या छह-सात करोड़ तक जा सकती है। ‘लान्सेट’ जैसी एलोपैथी की पुरज़ोर वकालत करने वाली पत्रिका डब्ल्यूएचओ का क़ायदे से साथ देती रही है। दुनिया के कई देशों में होम्योपैथी, आयुर्वेद जैसी वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों पर पाबन्दी लगवाने में इसकी बहुत बड़ी भूमिका रही है। जो भी हो, मौतों का दो करोड़ या छह-सात करोड़ का आँकड़ा दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा तो लग रहा है कि इसे पूरा करने के लिए अब और तरीक़े आज़माए जा रहे हैं। इस क्रम में डब्ल्यूएचओ का एक बयान यह आया है कि सङ्क्रमण का दूसरा दौर ज़्यादा ख़तरनाक हो सकता है। सवाल जायज़ है कि डरा-डराकर लोगों को मारने का कहीं अभियान तो नहीं चलाया जा रहा? ज़्यादा लोग मरेंगे नहीं तो इसे महामारी कैसे कहा जा सकेगा? कम लोग मरेंगे तो ख़ौफ़ कम होगा और फिर वैक्सीन, दवाओं, टेस्ट किट और भाँति-भाँति के मेडिकल उत्पादों का धन्धा कैसे बढ़ेगा? आए दिन ख़बरें आ रही हैं कि कैसे कोरोना के नाम पर प्राइवेट अस्पताल और डॉक्टर कई-कई लाख रुपये का बिल मरीज़ों को पकड़ा रहे हैं।
संवेदनशील और आमजन की सेवा में ईमानदारी से लगे डॉक्टर प्रशंसा के पात्र हैं और कृपया ख़ुद को इस आरोप से बरी समझें। सन्देह की एक बड़ी वजह यह भी है कि जिस सङ्गठन की ज़िम्मेदारी संसार की सेहत के लिए काम करने की है, वह महामारी जैसी स्थितियों में भी सभी पैथी वालों को साथ बैठाकर इलाज की सम्भावनाएँ तलाशने के बजाय सिर्फ़ एलोपैथी के साथ खड़ा होता है और बाक़ी को अपनी गाइडलाइन से बाहर रखता है। यहाँ यह भी जानना दिलचस्प है कि कोरोना का ख़ौफ़ शुरू हुआ तो शुरू में आयुर्वेद का मज़ाक़ उड़ाया गया कि इससे भला इस बीमारी में क्या होगा…पर आज का हाल यह है कि अस्पतालों में जिन्हें आयुर्वेदिक काढ़ा और हल्दी-दूध वग़ैरह दिया जा रहा है, वे ही ज़्यादा अच्छे से ठीक होकर घर जा रहे हैं। जर्मनी जैसे देश में जहाँ-जहाँ होम्योपैथी दी गई, वहाँ-वहाँ मौतें नहीं हुईं, पर एलोपैथी लॉबी इस बात को भी जगज़ाहिर होने नहीं देना चाहती और किसी भी तरह ख़ारिज़ कर देना चाहती है।
डब्ल्यूएचओ की बात चली है तो एक बात पर और ध्यान दे लेना चाहिए। डब्ल्यूएचओ ने हमारे स्वास्थ्य मन्त्री हर्षवर्धन को कार्यकारी बोर्ड का अध्यक्ष क्यों बनाया? भारत की बारी आना एक बात है, पर भारत के स्वास्थ्य मन्त्री का ही चुनाव कर लेना दूसरी बात है। कहीं ऐसा तो नहीं कि अमेरिका का विरोध झेल रहे इस सङ्गठन ने अपनी साख बचाने के लिए हमारे सीधे-सादे स्वास्थ्य मन्त्री को मोहरा बना लिया है कि कम-से-कम भारत जैसे बड़े देश की ओर से उसके ख़िलाफ़ विरोध का कोई स्वर न उठे। इसके अलावा भारत के साथ अमेरिका की बढ़ती दोस्ती के चलते अमेरिका का रुख़ नरम करने में भी मदद मिल सकती है।
अजीब बात है कि वैश्विक संस्थाओं से लेकर हमारा मीडिया तक डर का माहौल बनाने में जैसे प्राणपण से लगा हुआ है। अगर कोरोना सङ्क्रमण के आँकड़े इस तरह से रोज़-रोज़ देने ज़रूरी हैं तो क्या अन्य बीमारियों के आँकड़े रोज़-रोज़ नहीं दिए जाने चाहिए? सच्चाई यही है कि जिन बीमारियों में इससे ज़्यादा मौतें होती हैं, अगर उनकी भी बुलेटिन हर दिन जारी की जाय तो आश्चर्यजनक रूप से कोरोना का सारा भय भाग जाएगा। एक बात समझिए कि महामारी की हालत पैदा होने पर बिना मीडिया के शोर मचाए भी सङ्केत मिलने ही लगते हैं।
दशकों पहले जब-जब महामारियाँ आई हैं तो आज की तरह मीडिया नहीं था। गाँव-क़स्बे से जब आए दिन लाशों पर लाशें निकलती थीं तो पता चल जाता था कि महामारी है और लोग गाँव-क़स्बा छोड़कर कुछ दिनों के लिए पास-पड़ोस के नदी-तलाब के किनारे डेरा जमा लेते थे। आज का हाल यह है कि मीडिया क्षण-क्षण अपडेट देना बन्द कर दे अथवा लोग ही दो-चार दिन ख़बरों से निगाह हटा लें तो ज़रा भी पता नहीं चलेगा कि कहीं कोई महामारी है। ख़बरों से नज़र हटते ही सारा डर ख़त्म हो जाएगा। साल-छह महीने में जैसे पहले मुहल्ले-क़स्बे-गाँव का कोई व्यक्ति अल्लाह को प्यारा हो जाता था वैसे ही आज भी हो रहा है। उलटे भारत में मौतों की सङ्ख्या कम हो गई है। हृदय रोग, रक्तचाप, मधुमेह वग़ैरह से पीड़ित लोग आजकल कुछ ज़्यादा ही सावधान हो गए हैं। लोग चाय की जगह आयुर्वेदिक काढ़ा, गिलोय वग़ैरह लेने लगे हैं। लोगों को इस बात का डर है कि तबीयत ख़राब होने पर पता नहीं अस्पताल में जगह मिलेगी या नहीं, तो एक बड़ी आबादी है, जो सेहत के प्रति सचेत हो गई है।
हम सिर्फ़ कोरोना के आँकड़े सुन रहे हैं तो लग रहा है कि दुनिया मरी जा रही है, पर अन्य बीमारियों के आँकड़े दिए जाएँ तो पता चलेगा कि कम-से-कम भारत में मौतों की कुल सङ्ख्या कम हो गई है। ख़बरें आ रही हैं कि कहीं साठ प्रतिशत तो कहीं नब्बे प्रतिशत तक प्रसव अस्पतालों के बजाय घरों में सुरक्षित हो रहे हैं। श्मशान वाले बता रहे हैं कि पहले जहाँ दाह-संस्कार के लिए दस लोग पहुँचते थे, अब तीन-चार लोग ही पहुँच रहे हैं। ज़ाहिर है, कुछ बात तो है, क्योंकि मृतक का दाह-संस्कार किया ही जाएगा, कोई घर में लाश रखकर सड़ाएगा तो है नहीं। अगर मीडिया में जब-तब चलने वाली ऐसी खबरों का कोई हवाला देना चाहे कि कोरोना से बड़ी सङ्ख्या में हो रही मौतों की वजह से कब्रिस्तानों में लाशों को दफ़नाने की जगह कम पड़ गई, तो ऐसा वे ही लोग सोच सकते हैं, जो बुद्धि के पैदल हैं।
यह बात ज़रूर है कि डर का माहौल और बढ़ जाए तो भविष्य में ऐसी स्थिति आ भी सकती है, पर पहले तो यह सोचना चाहिए कि अभी हाल एक दिन में कितनी मौतें हो रही हैं? अब तक एक दिन में सबसे ज़्यादा क़रीब चार सौ मौतें हुई हैं। मान लीजिए कि यह सङ्ख्या हज़ार-दो हज़ार भी हो तो मुश्किल वाली बात तभी होगी, जबकि ये सभी मौतें सिर्फ़ एक या दो स्थानों पर ही हुई हों। ये मौतें पूरे देश की होंगी। ऐसे में, सोचने की बात है कि सवा अरब से ज़्यादा की आबादी वाले इस देश में क्या सिर्फ़ एक ही श्मशान या क़ब्रिस्तान में इन सभी लाशों की लाइन लगेगी? मीडिया की सनसनी पैदा करने की आदत पर ध्यान दीजिए, तो बात समझ में आ जाएगी।
आइए, यहीं पर कोरोना से हो रही मौतों की वास्तविक सङ्ख्या पर एक अलग ढङ्ग से विचार करते हैं। कोरोना में डेथ रेट या कहें मृत्युदर कितनी है? सामान्य प्रचार 2 सा 3 प्रतिशत का है, पर वास्तव में यह है केवल .01 प्रतिशत। डर का माहौल थोड़ा और बढ़ा दिया जाय तो ज़रूर इसमें कुछ और वृद्धि हो सकती है। .01 प्रतिशत मैं यों ही नहीं कह रहा हूँ, आप ख़ुद आसानी से यह प्रतिशत निकाल सकते हैं। जब यह लेख लिख रहा हूँ तो भारत में आज 14 जून को कुल मौतें हुई हैं नौ हज़ार एक सौ निन्यानवे। इसे आप दस हज़ार मान लीजिए। अभी हाल कुल मेडिकल टेस्ट की सङ्ख्या है लगभग सत्तावन लाख। कोरोना पॉजिटिव मिले हैं सवा तीन लाख के आसपास। इस हिसाब से अगर देश की पूरी आबादी का मेडिकल टेस्ट हो जाए तो कोरोना पॉजिटिव या सङ्क्रमित सात या आठ करोड़ तक मिलने चाहिए। सङ्क्रमितों की सङ्ख्या के हिसाब से हमारे देश में मरने वाले होने चाहिए बाईस लाख के आसपास, लेकिन वास्तव में मौतों के मामले में सङ्ख्या दस हज़ार ही सही है, क्योंकि रोज़-रोज़ की मौतें सामने हैं और वे छिपाई नहीं जा सकतीं। मरने वालों की गिनती में सौ-पचास तो इधर-उधर हो सकता है, पर ऐसा नहीं हो सकता कि पूरे देश में लोग अपने प्रियजनों की लाशें घरों में रखकर सड़ाएँगे और छिपाएँगे। अब यहीं पर यह समझिए कि मृत्यदर निकालने में नासमझी या घोटाला क्या हो रहा है। अभी तक जितनी जाँच हुई है, उस हिसाब से मृत्युदर निकालना नाइनसाफ़ी है, सरासर ग़लत है। आप जाँच कम कर पा रहे हैं, यह आपकी असमर्थता है। मौत तो मौत है, वह हो ही रही है।
मौत को इस बात से लेना-देना नहीं है कि आप कम जाँच कर रहे हैं या ज़्यादा। कम या ज़्यादा जाँच करने से मौत कम या ज़्यादा नहीं हो जाएगी। कम या ज़्यादा जाँच करके इलाज की सुविधाएँ बढ़ाना-घटाना एक दूसरा मुद्दा है। बहरहाल, हो रही जाँचों से सङ्क्रमितों का जो प्रतिशत निकलकर आ रहा है, उस हिसाब से जाँच पूरी कर ली जाए और कुल सात-आठ करोड़ सङ्क्रमित चिह्नित कर लिए जाएँ तो हमारे देश में मृत्यदर बनेगी .01 प्रतिशत। इसका अर्थ यह है कि हर एक लाख कोराना पॉजिटिव में से दस लोग मौत के शिकार होंगे, वह भी तब, जबकि इनमें दूसरी बीमारियों की वजह से मौत के मुहाने पर खड़े कोरोना पॉजिटिव भी शामिल रहेंगे। इस मृत्युदर को ज़रा-सा आगे बढ़ाकर पूरी दुनिया के लिए सच मान सकते हैं। यह बेहद कम है और कई दूसरी बीमारियों के पासङ्ग भी नहीं ठहरती। एक दूसरे अर्थ में कहें तो कोरोना की अपनी कोई स्वतन्त्र मारक क्षमता ही नहीं है, क्योंकि वे ही लोग इससे मर रहे हैं, जो पहले से कुछ गम्भीर रोगों से ग्रस्त हैं। माहौल में पसरे डर और अस्पतालों में ग़लत दवाओं की वजह से हुई या हो रही मौतों का भी सवाल तो है ही।
वास्तव में यह समस्या बहुत हल्की हो सकती थी, पर कुछ शक्तियाँ शायद इसे हल्का बनाना नहीं चाहतीं और हमारी सरकार को जाने-अनजाने उनके कहे अनुसार ही चलना पड़ रहा है। सेहत पर हमारा अपना मज़बूत तन्त्र होना चाहिए था, हमारी अपनी हेल्थ एडवायजरी होनी चाहिए थी, पर हमने ख़ुद को पश्चिमी तन्त्र के रहमोकरम पर छोड़कर ख़ुद की सम्भावनाशील पद्धतियों तक को उपेक्षा का शिकार बना दिया है। अगर हमने आयुर्वेद, होम्योपैथी पर ज़रा भी भरोसा किया होता तो सङ्क्रमण भले कितना ही बढ़ जाता, पर हमारे देश को इतनी भी मौतों का सामना न करना पड़ता। दिलचस्प है कि तमाम किन्तु-परन्तुओं के बीच जब कुछ जगहों पर आयुर्वेद और होम्योपैथी को ट्रायल की छूट दी गई तो ये पैथियाँ ही सबसे ज़्यादा कारगर साबित हुई हैं। अच्छी बात तो यह होगी कि एलोपैथी का योगदान जहाँ बेहतर हो सकता है, उसका इस्तेमाल वहीं किया जाए।
बहरहाल, आने वाले दिनों में डब्ल्यूएचओ का दो करोड़ या इससे ज़्यादा मौतों का आँकड़ा सच साबित हो जाए तो आश्चर्य नहीं। जाँचों को तेज़ करने के लिए कई और किट बाज़ार में आने को तैयार हैं। याद रखने की बात है कि किसी और सङ्क्रामक बीमारी में अभी तक इस तरह से जाँचें नहीं की गई थीं, इसलिए उनमें पॉजिटिव-निगेटिव की इस तरह से बड़ी सङ्ख्या भी नहीं दिखाई दे रही थी। ज़ाहिर है, बढ़ती जाँचों के साथ सङ्क्रमितों की सङ्ख्या भी बढ़ती हुई दिखाई देगी तो डर और डरावना होता जाएगा। और तब, बढ़ती मौतों का कारण ख़तरनाक वायरस नहीं ख़तरनाक डर होगा। कोई रिसर्च इस बात की आ जाय कि कोरोना का अगला हमला हृदयरोगियों के लिए सबसे ज़्यादा घातक होगा, तो यक़ीन मानिए लाखों हृदयरोगी दिन-रात डरे-डरे रहेंगे और इनमें से हज़ारों इस डर की वजह से मौत के मुँह में चले जाएँगे। दूसरे रोगों पर ऐसी रिसर्चें सामने लाई जाएँ तो उनमें भी ऐसा ही होगा। आसान-सा मनोविज्ञान है कि अगल-बगल कई लोगों को खुजली हो रही हो तो आप भी ख़ुद को एक-दो बार खुजा ही लेते हैं।
सच है कि डर फैलाने में कामयाबी मिल चुकी है। डर का व्यापार चल रहा है। इस डर ने अच्छे-अच्छों को डरा दिया है। जो लोग कोरोना को साज़िश बताते नहीं थक रहे थे, उनमें से भी काफ़ी लोग डरकर चुप्पी साध चुके हैं। डर का आलम यह है कि सर्दी-ज़ुकाम या गले में खराश लिए एक व्यक्ति कई दिनों से ठीक-ठाक काम पर लगा हुआ था, पर कोरोना पॉजिटिव की रिपोर्ट मिलते ही घबराकर आनन-फानन में अस्पताल में जाकर भर्ती हुआ। अनावश्यक एण्टीबायोटिक वग़ैरह दी गईं और अच्छा-भला यह व्यक्ति इलाज के दौरान चल बसा। मेरे एक परिचित के यहाँ यह हुआ। डर एक ऐसी चीज़ है, जो रोगप्रितरोधक क्षमता को सबसे ज़्यादा कमज़ोर करती है।
यह रिसर्च तो अब बहुतों को रट गया है कि सामान्यतः अस्सी और कई बार नब्बे प्रतिशत बीमारियाँ मानसिक तनाव की वजह से पैदा होती हैं। सोचिए कि डर की वजह से भयङ्कर मानसिक तनाव में जा चुके एक व्यक्ति की हालत क्या होगी! आज के माहौल में डर इतना व्याप्त है कि हिम्मती से हिम्मती व्यक्ति को भी बता दिया जाए कि वह कोरोना पॉजिटिव है, तो ऊपर से भले कहे कि वह डरता नहीं है, पर चौबीसों घण्टे उसके मन में इस बात का डर बना ही रहेगा कि कहीं वह मर न जाए। कमाल है कि मरने वाले बहुत कम, पर मरने का डर बहुत ज़्यादा। मरने वालों की सङ्ख्या सचमुच बढ़ जाएगी, तब सोचिए कि डर का हाल क्या होगा? अगर शोध किया जाय तो पता चलेगा कि कुल मौतों में महामारी के भय से मरने वालों की तादाद बहुत बड़ी है। डर का हाल यह है कि कोरोना पॉजिटिव की ख़बर मिलते ही कुछ लोगों ने आत्महत्या तक कर ली। अस्पताल की सातवीं मञ्ज़िल से मरीज़ के कूदने की घटना ज़ेहन से अभी गई नहीं है। साधारण लोगों की बात छोड़िए, आईआरएस अधिकारी (द्वारका-दिल्ली) तक कोरोना के डर से तेज़ाब पीकर आत्महत्या कर लें, तो इसे आप क्या कहेंगे?
कोरोना दिमाग़ में इतने गहरे तक उतार दिया गया है कि अच्छे-भले समझदार लोग भी इसे बेहद भयावह बीमारी मानने लगे हैं। कुछ लोगों के साथ ऐसा हुआ कि वे कोरोना को पहले ज़्यादा गम्भीर नहीं मानते थे, पर उनके पड़ोस में किसी व्यक्ति की तबीयत ख़राब हो गई और चलने-फिरने में असमर्थ-सा हो गया, तो उन्होंने उसे अस्पताल पहुँचाया। इस पूरे घटनाक्रम से उन पर ऐसा असर पड़ा कि वे भी कोरोना को गम्भीर बीमारी मानने लगे। यह स्वाभाविक है, पर इसे समझने की ज़रूरत है। सच्चाई यह है कि हर चार-छह महीने या साल-दो साल में ऐसा हमारे साथ होता ही है कि हमारे आसपास किसी की तबीयत बहुत ख़राब हो जाय और हम उसे अस्पताल पहुँचाएँ।
तब किसी ख़ास बीमारी पर हमारा फोकस नहीं होता तो हम उसे ख़ास तरह से नहीं देखते और रोज़मर्रा की बात मान लेते हैं। आज का हाल है कि किसी की तबीयत ख़राब होने पर हम उसमें कोरोना की भयावता तलाशने लगते हैं। यह कुछ वैसे ही है, जैसे कि कोई व्यक्ति भूत पर विश्वास करता हो और रात के अँधेरे में कहीं सुनसान में उसे निकलना पड़े तो दूर हवा से हिलते किसी पौधे में आदमी की शक्ल नज़र आने लगती है और भूत समझ कर वह थर-थर काँपने लगता है।
अब बात यह कि वायरस तो वायरस! हम इसकी प्रकृति के बारे में नहीं जानते। जो बताया जा रहा, उस पर भी बहुत भरोसा नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह सब सच होता तो दुनिया भर के लॉकडाउन, फिजिकल या सोशल डिस्टेंसिङ्ग, मास्क और हैण्डसेनेटाइजर बेकार न साबित होते। केवल ख़ुशफ़हमी बनी हुई है कि हम ये सब अपना कर सुरक्षित हो रहे हैं। आए दिन एक-दूसरे की विरोधी रिसर्चें सामने आ रही हैं। आम आदमी को विज्ञान-तकनीक की गहराई ज़्यादा पता नहीं है, तो वह हर रिसर्च पर आँख मूँदकर विज्ञान के नाम पर भरोसा कर लेता है, जबकि दर्जनों शोध इधर ऐसे आए हैं, जो बुरी तरह से सन्देहास्पद हैं।
पहले के कई शोध ग़लत साबित होते हुए तो हम देख भी चुके हैं। जनवरी में कहा गया था कि गर्मी आते ही वायरस का फैलाव रुक जाएगा, पर हाल यह है कि यह और तेज़ फैल रहा है। जितनी दवाएँ कारगर बताई गईं, उनमें से ज़्यादातर फेल साबित हुईं। एक तरफ़ आए दिन वैक्सीन बनाने के दावे किए जा रहे हैं और दूसरी तरफ़ वैज्ञानिक कह रहे हैं कि कोरोना वायरस पिछले कुछ महीनों में कई बार अपने रूप बदल चुका है। मेडिकल वाली भाषा में कहें तो यह बार-बार ख़ुद को म्यूटेट कर रहा है। यह आरएनए वायरस है, इसलिए बार-बार म्यूटेट हो रहा है। अगर यह बात सच है तो यह भी समझना चाहिए कि इस तरह के वायरस के लिए वैक्सीन बना पाना सम्भव नहीं होता। वैक्सीन आ भी गई तो ज़्यादा काम नहीं करेगी, क्योंकि तब तक वायरस अपने रूप में बदलाव कर चुका होगा।
आज का हाल यह है कि ऐसे लोग भी पॉजिटिव पाए जा रहे हैं, जिन्होंने न कहीं की यात्रा की और न ही किसी से मिले। मास्क, हैण्डसेनेटाइजर की सावधानी बरतने में मुस्तैद तमाम लोग कोरोना पॉजिटिव मिल रहे हैं और डॉक्टर बताने में असमर्थ हैं कि ऐसा कैसे हो रहा है। दुनिया भर के मॉडल वायरस के आगे अन्ततः फेल साबित हुए हैं। हमारे देश में कुछ लोगों ने केरल मॉडल की बड़ी तारीफ़ की, पर मैंने केरल के बारे में जानना शुरू किया और लोगों से बात की तो बात कुछ की कुछ निकली। वहाँ की सरकार की मुस्तैदी ज़रा भी काम नहीं आई है। सङ्क्रमण वहाँ भी कम नहीं है, पर असल में केरल की जीवनशैली में कुछ ऐसी चीजें रही हैं, जिन्होंने वहाँ के लोगों की इम्युनिटी को इस वायरस से लड़ने के क़ाबिल बनाया। याद रखिए कि केरल के सन्दर्भ में केरल-आयुर्वेद एक मशहूर शब्द है और उसकी पहुँच वहाँ एलोपैथी अस्पतालों से ज़्यादा है। वहाँ की दिनचर्या में शामिल नारियल पानी के बारे में कहने की ज़रूरत नहीं है कि सङ्क्रमणजन्य ज्वर को क़ाबू करने में मदद करता है।
बातें फुटकर हैं, इसलिए फुटकर तौर पर मेडिकल जाँच के तरीक़े पर उठ रहे सवालों पर भी निगाह डाल लेनी चाहिए। आरटी-पीसीआर टेस्ट सन्देह के घेरे में है। तञ्जानिया का वाक़या ज़्यादा पुराना नहीं हुआ है। तञ्जानिया को आरटी-पीसीआर टेस्ट किट भेजी गई। वहाँ के राष्ट्रपति को इस किट पर सन्देह था तो उन्होंने बिना ज़ाहिर किए पपीता, केला, बिल्ली, कुत्ता, गधा वग़ैरह के नमूने मनुष्यों के नाम रखकर लैबोरेट्री में भेज दिए। दूसरे दिन रिपोर्ट आई तो पपीता, केला, बिल्ली, गधा भी आदमी की तरह कोरोना पॉजिटिव निकले। बहरहाल, उन्होंने टेस्ट किट बेरङ्ग वापस भेज दिए।
आरटी-पीसीआर टेस्ट के बारे में निर्माता कम्पनी का ही स्पष्टीकरण है कि सौ में से एक-दो लोगों की रिपोर्ट ग़लत आ सकती है। इसका मतलब हुआ कि इससे जाँच करके दो प्रतिशत लोगों की जान को मुफ़्त में ही साँसत में डाल दिया जा रहा है। दूसरे अर्थ में यह भी कह सकते हैं कि भारत में अब तक की गई साठ लाख जाँचों में से क़रीब एक लाख बीस हज़ार लोगों की रिपोर्ट ग़लत आई होगी और सिर्फ़ इस ग़लत जाँच की वजह से इनकी साँस ऊपर-नीचे हो रही होगी। लेख पढ़ते-पढ़ते जाँचों की सङ्ख्या बढ़ गई होगी तो उस हिसाब से गुणा-गणित कर सकते हैं। कई मामलों में यह किट चालीस-पचास प्रतिशत तक ग़लत रिपोर्ट दे रही है। आए दिन निगेटिव को पॉजिटिव बता देने की ख़बरें मीडिया में हम देख ही रहे हैं। आख़िर सङ्क्रमितों की सही सङ्ख्या का अन्दाज़ा ऐसे टेस्ट के भरोसे कैसे लगाया जा सकता है?
सही या ग़लत टेस्ट रिपोर्टों की बात करते हुए यहीं पर अगर दुनिया भर में पॉजिटिव आने वालों के प्रतिशत पर ध्यान दें, तो इस देश में आज की तारीख़ में कम-से-कम दस-पन्द्रह करोड़ कोरोना पॉजिटिव होने चाहिए। यहाँ यह मज़ेदार बात भी याद रखिए कि भारत में एनफ्लूएञ्जा यानी टाइप-ए वायरस पॉजिटिव हर साल क़रीब एक करोड़ आँके जाते हैं, पर किसी आरटी-पीसीआर टाइप टेस्ट किट से जाँच की जाय तो यह सङ्ख्या भी दस-पन्द्रह करोड़ ही मिलेगी, क्योंकि बीमार होने से यहाँ मतलब नहीं है, पॉजिटिव मिलना ही काफ़ी है। साफ़ बात है कि जाँचों का दायरा जितना बढ़ेगा, सङ्क्रमितों की सङ्ख्या उतनी ही ज़्यादा निकलेगी। यों, भाँति-भाँति के वायरसों पर अलग-अलग जाँच किटें बन जाएँ तो हममें से जाने कितने लोग ख़तरनाक वायरसों के पॉजिटिव मिलेंगे। हमारे आसपास के वातावरण में हज़ारों-लाखों जीवाणु-विषाणु हमेशा मौजूद हैं और हमारी साँसों में घुलते रहते हैं। वे फ़ायदेमन्द भी हैं और नुक़सानदेह भी।
हमारा शीरीरिक तन्त्र कमज़ोर पड़ गया हो तो कोई वायरस असर दिखाने लगेगा, वरना तो वायरस, बैक्टीरिया हमारे सङ्गी-साथी ही हैं और प्रकृति ने उनसे लड़कर हमें मज़बूती देने के लिए ही उनकी मौजूदगी हमारे इर्दगिर्द बना रखी है। असल में बात पॉजिटिव-निगेटिव की नहीं, हमारी जीवनीशक्ति या रोग प्रतिरोधक शक्ति की होनी चाहिए। सूरज की रोशनी और साफ़ हवा संसार के सबसे बड़े एण्टीवायरल उपादान हैं, इसलिए हमें साफ़ हवा पर काम करना चाहिए। जितना हो सके, जङ्गल लगाने की बात सोचनी चाहिए। हवा-पानी से प्रदूषण समाप्त करने पर जोर देना चाहिए। आहार-विहार बेहतर बनाने की कार्ययोजना तैयार करने की बात करनी चाहिए।
जो भी हो, सामान्य निष्कर्ष यही है कि यह वायरस उतना ख़तरनाक नहीं है, जितना कि बताया जा रहा है। अलबत्ता, इसका हमला हमारे श्वसन तन्त्र पर है तो उस हिसाब से बचने के उपाय भी ज़रूरी हैं। यह स्पष्ट हो चुका है कि यह मारक तभी बनता है जब मरीज़ पहले से किसी गम्भीर बीमारी से ग्रस्त रहा हो। कुछ कमज़ोर दिल वाले लोग डर की वजह से हिम्मत हार रहे हैं, तो वह अलग बात है। फिलहाल, ये कुछ उपाय आप याद रख सकते हैं, ताकि मुश्किल आए तो सामना कर पाएँ। मैंने ख़ुद इन उपायों को तमाम लोगों पर आज़माया है। सरकार तो मुझे कोरोना मरीज़ देने से रही, पर कई कोरोना मरीज़ फ़ोन वग़ैरह पर मुझसे सम्पर्क करते ही रहे हैं और इन्हीं उपायों से मैं उनको परेशानी से बाहर निकलने में मदद करता रहा हूँ।
1. आपके पास कोई दवा न हो, किसी दवा की जानकारी न हो और सङ्क्रमण के शिकार हो गए हों तो स्थिति की गम्भीरता के हिसाब से एक, दो या तीन दिन के उपवास पर आ जाइए। दिन भर गरम पानी पीजिए। मौसमी, सन्तरे का रस पीजिए या सीधे ये फल चूसिए। इन फलों की उपलब्धता न हो तो दिन में कई बार एक-एक गिलास करके नींबू-पानी-शहद लीजिए। उपलब्धता हो तो दिन भर में पाँच-छह गिलास नारियल पानी पीजिए। सामान्य स्थितियों में समस्या इतने भर से क़ाबू में आ जाएगी। बाद में धीरे-धीरे फल, सलाद से शुरू करके ठोस आहार पर आइए। उपवास में यह सावधानी हमेशा बरतनी चाहिए। आसपास प्राकृतिक चिकित्सा केन्द्र हो तो उसकी शरण में जाएँ, आपका मज़े में ठीक हो जाएँगे।
2. तुलसी, दालचीनी, सोंठ, मुलहठी, काली मिर्च और लौङ्ग का काढ़ा बनाकर (चाहें तो गुड़ मिला लें) चाय की तरह दिन में दो-तीन बार पिएँ। इन सारी चीज़ों में श्वसन तन्त्र को बल देने के अद्भुत गुण पाए गए हैं। इस नुस्ख़े को मैं बहुत पहले से बताता रहा हूँ और लोग इससे फ़ायदा भी महसूस करते रहे हैं। बाद में आयुष मन्त्रालय ने भी इस नुस्ख़े को अपनी एडवायजरी में शामिल किया। यह जानना दिलचस्प होगा कि सन् 1918 में जब स्पेनिश फ्लू फैला था तो रोग के प्रसार वाले कुछ इलाक़ों में दालचीनी की फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूरों में किसी को भी सङ्क्रमण नहीं हुआ। इस काढ़े की ताक़त और बढ़ानी हो तो इसमें पाँच चीज़ें और मिला सकते हैं। ये चीज़ें हैं—छोटी इलायची, बड़ी इलायची, पीपर, जावित्री और जायफल। बेहतर रहेगा कि सोंठ, काली मिर्च, पीपर और मुलहठी को बाक़ी चीज़ों की तुलना में दूनी मात्रा में मिलाएँ। मतलब यह कि शेष चीज़ें 1-1 ग्राम हों तो इन चारों की 2-2 ग्राम मात्रा लें। सबका चूर्ण बनाकर एक में मिलाकर किसी शीशी में रख लें। एक बार के लिए 2 से 5 ग्राम मात्रा पर्याप्त है। महामारी के इस समय इस काढ़ें को आप जादुई कह सकते हैं। जहाँ भी इसे दिया गया, मरीज़ हफ़्ते-दस दिन में पॉजिटिव से निगेटिव हो गए। आँतों में अल्सर हो, पित्त ज़्यादा बढ़ा हुआ हो, गर्भावस्था हो तो किसी वैद्य से सलाह लेकर इसे सेवन करें, तो बेहतर है।
3. गिलोय या गुडुची तीनों दोषों, यानी कफ-पित्त-वात से पैदा होने वाले सभी तरह के सामान्य ज्वर को क़ाबू करने के लिए बहुत पुराना आज़माया हुआ उपाय है। इसका काढ़ा बनाकर सवेरे-शाम ले सकते हैं। जब भी लें तो कम-से-कम इक्कीस दिनों तक ज़रूर लें। इक्कीस दिन को कोई अन्धविश्वास न समझें। इसका मज़ेदार विज्ञान है, पर अलग से चर्चा का विषय है।
4. श्वसन तन्त्र को मजबूती देने के लिए गरम दूध में हल्दी मिलाकर रात में सोने से पहले पी सकते हैं। इसके बजाय दिन में एकाध बार पानी में थोड़ा-सा हल्दी चूर्ण मिलाकर भी ले सकते हैं।
5. दिन में तीन-चार टमाटर खाएँ या दो-तीन मौसमी चूसें, तो शरीर को आवश्यक विटामिन-सी मिल जाएगी और इम्युनिटी मज़बूत करने में मदद मिलेगी।
6. एक महत्त्वपूर्ण शोध यह है कि जिसके शरीर में ऑक्सीजन का स्तर अच्छा होगा, कोरोना वायरस उसको ज़्यादा नुक़सान नहीं पहुँचा पाएगा। ऑक्सीजन का स्तर बरक़रार रखने के लिए सबसे अच्छा तरीक़ा नियमित प्राणायाम करना है। भस्त्रिका, कपालभाति, अनुलोम-विलोम और शीतली-शीतकारी प्राणायाम सवेरे खुले में बैठकर ज़रूर कीजिए। दस-पन्द्रह मिनट से लेकर आधे घण्टे तक कीजिए। सर्दी का समय हो तो शीतली-शीतकारी मत कीजिए।
7. सङ्क्रमण से बचने के लिए आर्सेनिक अल्बम-30 (Arsenic Album-30) हफ़्ते भर सवेरे-दोपहर-शाम तीन बार लीजिए, फिर कुछ दिनों तक रोज़ सवेरे दिन में एक बार ले सकते हैं। जो लोग पूरी तरह स्वस्थ हैं, वे केवल तीन दिनों तक दवा ले लेंगे तो उनके शरीर में इतने भर से ही कोरोना-जैसे लक्षणों से लड़ने की इम्युनिटी विकसित हो जाएगी। एकाध महीने बाद चाहें तो इसी तरह तीन दिन फिर से दवा ले सकते हैं। याद रखिए गोलियाँ हों तो दवा जीभ पर रखकर चूसनी है और द्रव रूप हो तो दो-तीन बूँद जीभ पर टपका लेनी है। दवा लेने के आधे घण्टे पहले या आधे घण्टे बाद तक पानी के अलावा कुछ भी खाना-पीना नहीं है। सङ्क्रमण हो गया हो तो भी यह दवा काम आएगी, पर लक्षणों पर ध्यान देना ज़रूरी है। इसके मरीज़ को बार-बार प्यास लगती है, पर घूँट-दो घूँट से ज़्यादा पानी नहीं पीता। घबराहट होती है। पानी पीते ही उल्टी हो जाने की प्रवृत्ति भी हो सकती है। सूखी खाँसी तो ख़ैर हो ही सकती है। इन लक्षणों के आधार पर दवा लेंगे तो आसानी से ठीक हो जाएँगे।
8. कैम्फर-1 एम (Camphora-1M) भी इसी तरह ले सकते हैं। यह भी इम्युनिटी बढ़ाएगी। जिन इलाक़ों में कोरोना मरीज़ों में दस्त लगने के हैजा-जैसे लक्षण हों, वहाँ के लिए यह इलाज में भी रामबाण की तरह असर दिखाएगी। इसके मरीज़ के शरीर की त्वचा ठण्डी महसूस होती है। बावजूद इसके वह खिड़की-दरवाज़े खुले रखना चाहता है, ठण्डी हवा चाहता है।
9. एनफ्लूएञ्जीनम-30 (Influenzinum-30) तथा एकोनाइट-30 (Aconite-30) की दो-दो बूँदें जीभ पर टपका लें। दिन में एक बार कई दिनों तक रोज़ ले सकते हैं। केवल चार-छह दिन लेंगे तो भी कोई दिक़्क़त नहीं है। सङ्क्रमण से बचाने के अलावा यह नुस्ख़ा इलाज के समय भी काम आ सकता है। जब भी लगे कि रोग का अचानक आक्रमण हुआ है, सिरदर्द, छींकें, गले में खराश वग़ैरह शुरू हो गए हैं तो किसी भी बीमारी में इस नुस्ख़े को याद कर सकते हैं।
10. बुख़ार हो, देर-देर में ठण्डे पानी की प्यास लगे, बिना हिलेडुले चुपचाप लेटे रहने का मन हो, सिरदर्द एक-सा लगातार बना रहे तो ब्रायोनिया-30 (Bryonia-30) चार-चार घण्टे पर लीजिए। तरीक़ा वही है कि गोली हो तो चार-चार गोली जीभ पर रखकर चूसें और द्रव रूप में दवा हो तो दो बूँद जीभ पर टपका लें।
11. जब साहस जवाब देने लगे मरीज़ हतोत्साहित होने लगे, कमज़ोरी के साथ कँपकँपी हो, सोते रहने की इच्छा हो और रोगी ऊँघता रहे तो जेल्सीमियम-30 (Gelsemium-30) को याद कीजिए। भय, चिन्ता या हड़बड़ी वग़ैरह के चलते दस्त लगने की प्रकृति हो तो भी जेल्सीमियम काम करेगी, भले ही बीमारी कोई और भी हो। इसकी खाँसी में घड़घड़ाहट होती है। इसका बुख़ार बहुत तेज़ नहीं होता।
12. अगर कभी ऐसा लगे कि लक्षण आर्सेनिक के हैं, फिर भी आर्सेनिक से उतना फ़ायदा नहीं मिल रहा तो आप आर्सेनिकम आयोडेटम-6 (Arsenicum Iodatum-6) ले सकते हैं। इसके लक्षण आमतौर पर आर्सेनिक अल्बम से तीव्र होते हैं। जेल्सीमियम के साथ आर्सेनिकम आयोडेटम (आर्स आयोड) को पर्याय क्रम से देने पर बीमारी और आसानी से क़ाबू में आ सकती है। पर्याय क्रम का मतलब है कि जेल्सीमियम देने के दो घण्टे बाद आर्सेनिकम आयोडेटम दीजिए। अगले दो घण्टे बाद फिर जेल्सीमियम दीजिए।
13. अन्त में एक बात पर विशेष ध्यान रखिए। ऐसे माहौल में हो सकता है कि कोई मरीज़ मानसिक रूप से इतना हताश हो जाए कि उसके मन में लगातार मर जाने का डर बना रहे। मानसिक लक्षण अगर गहरा हो तो सिर्फ़ इसी आधार पर होम्योपैथी दवा का चुनाव किया जा सकता है। मरने का डर एकोनाइट, आर्सेनिक और जेल्सीमियम तीनों में है। इसके अलावा बाक़ी के लक्षण जिस दवा से ज़्यादा मेल खाएँ, उस दवा को आँख मूँद कर दे दीजिए, चमत्कार हो सकता है।
यों, इन दवाओं के लक्षण सैकड़ों में हैं, पर यहाँ मैं सिर्फ़ कोरोना में सम्भावित लक्षणों के हिसाब से इनके बारे में बता रहा हूँ। मुझे लगता है कि इन उपायों को समझदारी से अपनाएँगे तो आपको किसी अस्पताल या डॉक्टर की शरण में जाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।