इस्लाम हुसैन
कां छू तुमर पहाड़/गौं ?
पहाड़ के दो अनजाने लोग जब मिलते हैं तो यह सवाल उठता है “कां छू तुमर पहाड़/गौं ?” (तुम्हारा गांव या पहाड़ कहां है?) अपने खास नाम के कारण मेरे सामने भी यह सवाल अक्सर आता रहता है, कुछ जिज्ञासा से, कुछ स्वागत के लहजे में और कहीं कहीं आशंकित रूप से,
कुछ अपनी प्रवृत्ति के कारण कुछ अपनी सामाजिक गतिविधियों के कारण और फिर अपनी बेटियों के कारण (एक उत्तर के सुदूर पर्वतीय क्षेत्र में है तो दूसरी दक्षिण भारत के आधुनिक शहर में) मुझे मुल्क में घूमने का अक्सर मौका मिलता रहता है। तबियत ठीक रहे तो मैं पत्नी सहित कहीं सफ़र में रहता हूं, अपने इस सफ़र में मुझे अलग अलग तरह के लोगों से मिलने का मौका मिलता रहता है।
उनमें स्वाभाविक रूप से पहाड़ के लोग भी मिलते हैं, थोड़ी सी बातचीत में ही बात निकल के आती है, आप कहां के हो? फिर जिला कहां हैं पहाड़ कहां है, पट्टी कौन सी है/ गांव कहां है वगैरह वगैरह ….
अधिकतर मामलों में रेल यात्रा, बस यात्रा या फिर कहीं यूंही टकरा जाने पर जब यह सवाल मासूमियत से पूछा जाता है, तो मैं बताता हूं मैं पहाड़ी मुशई हूं ।……..तो वे एक क्षण के लिए चौंकते हैं फिर मुस्कुराकर बात आगे बढ़ाते हैं। कुछ देर बाद वो भूल जाते हैं कि मैं मुसलमान हूं, केवल पहाड़ीपना रह जाता है।
महानगरों के स्टार होटलों से लेकर ढाबों में काम करने वाले पहाड़ी स्टाफ/लड़कों को मैं तुरंत पहचान लेता हूं, कहां के हो ?…. पूछने पर जैसे ही वह अपने को उत्तराखण्ड का बताते हैं, मैं फिर उनसे जिला, पट्टी और गांव पूछता हूं। वह आश्चर्य से मुझे देखकर जवाब देते हैं, इस चक्कर में मेरा परिचय हिमाचली, कश्मीरी, नेपाली और पूर्वोत्तर के लोगों से भी होता रहता है (वह दिलचस्प प्रकरण फिर कभी )
उनके गढ़वाल के किसी इलाके का बताने पर या कुमाऊं के किसी इलाके का बताने पर मेरे पास उनसे आत्मीयता दिखाने का प्रर्याप्त माध्यम होता है, सौभाग्य से जहां मेरा जन्म स्थान रानीखेत है, मेरे पिता का जन्म और बचपना अल्मोड़ा में बीता था। वहीं मेरी पत्नी श्रीमती रीता जी का जन्म स्थान पौड़ी है, उनका बचपना पहाड़ों में घूमते हुए बीता, उनके पिता अंग्रेजों के जमाने के जेलर जो ठहरे। फिर हमारी बड़ी बेटी हनी का ग्रेजुएशन श्रीनगर का है।
कुमाऊं वालों को रानीखेत में जन्म और अल्मोड़ा में घर और ददिहाल और काठगोदाम में रहने की बात बताकर और गढ़वाल वालों को पत्नी का जन्म स्थान पौड़ी बताकर और पढ़े लिखे लोगों को अपनी बेटी के गढ़वाल में शिक्षा लेने की बात बताकर मैने न जाने कितने अवसरों पर बातचीत को हमवार और खुशगवार किया है।
किसी प्रवासी युवा का आत्मीय रुप से हालचाल पूछते समय उसके चेहरे पर आए बदलाव उसके अपने गांव पहाड़ की यादों में पहुंचाने का काम करते हैं, कितने ही लोग एक लम्हे के लिए खो से जाते थे, और मैं उनकी बात करने के ढंग और लौटती आत्मीयता से सराबोर हो जाता था। जरा कल्पना करें लम्बे समय से किसी महानगर में संघर्षरत पहाड़ से बिछुड़े हुए किसी युवा को पहाड़ का एक मुशई पुचकारता हो, जिसके लिए उस युवा को कोई धार्मिक बाधा न हो, बातचीत में संघर्ष के लिए डटे रहने का हौसला देता हो। तब वह युवा क्या सोचता होगा? मैंने ऐसे बहुत से लम्हें जिए हैं, उनमें अनजान से पहाड़ी युवाओं का अपनापन देखा है, जिसमें मुलाकात के थोड़े से वक़्त में ही वे अपने तईं मुझे इज़्ज़त देने की भरपूर कोशिश करते देखे गए।
स्टार होटलों में आयोजित होने वाले बड़े आयोजन में उसके पहाड़ी स्टाफ के लिए एक गर्व करने का मौका मिला है कि इस वीवीआईपी कार्यक्रम में उनके पहाड़ का एक आदमी भी शामिल है। तब मेरा मुशई होना निरपेक्ष हो जाता था।
बहुत से मौकों पर खाने के दौरान होटल का उत्तराखंडी स्टाफ मेरा बहुत ख्याल करते, गो-कि मैं परहेज से खाना खाता हूं, फिर भी उनकी इस रहमदिली को मैंने हमेशा इज़्ज़त दी , एक होटल के स्टाफ ने तो मुझे अगली बार में पहाड़ी खाना खिलाने की दावत भी दे दी।
यह अचकचाहट और उलझन भी है, मैं कई बार उन लोगों द्वारा पीलीभीत, मेरठ और बरेली का मान लिया जाता हूं जिनके पुरखे महाराष्ट्र,गुजरात और गंगा यमुना के मैदानों से पहाड़ में आए थे, अगर मैं भी बाहर से आया हूं तो भी इंसानियत के नाते पूछने का किसी को क्या हक बनने वाला हुआ ?
इस सवाल का सामना करते करते मैंने भी इसी हथियार को अपनाना आरम्भ कर दिया जिससे कि वह सभी आशंकाओं और पूर्वाग्रहों को दफ़न कर सकूं जो लोग गैर जरूरी ढंग से उठाते रहते है।
यदि यह सवाल प्रदेश में कहीं दुर्भावना से पूछा जाता है, जो कि बातचीत आरम्भ होते ही पता चल जाता है, तो मैं सीधे सीधे इसे अपने ऊपर हमला मानता हूं। मैं पलट कर पूछता हूं तुम्हारा पहाड़ कौन सा है ? क्योंकि यह सवाल ज्यादातर वह लोग करते हैं जो दूसरे को नुक्सान पहुंचाने की नीयत रखते हैं। इस मामले में मुझे कर्नल मथुरालाल साह (स्वर्गीय) की याद आती है जो कहा करते थे, कि कुछ शहरी और भभरिए पहाड़ को चाटते रहते हैं।
नगरों और महानगरों के सुविधा भोगी पहाड़ की भी सुविधाएं लेने के लिए पहाड़ी बने रहने वाले शहरी और भभरिए (उत्तराखंड के भाबर में रहने वालों के लिए बोला जाने वाला शब्द स्थाई प्रवासियों के लिए व्यंग्य में प्रयुक्त ) अक्सर दुर्भावना और पूर्वाग्रहों से पीड़ित होकर अकारण, ऐसे सवाल करते हैं। भले ही स्वयं का पहाड़ से नाता कबका कट चुका हो। अब तो वार्षिक पूजा के लिए एक-दो रातों का पहाड़ प्रवास भी उन्हें काटने लगता है। महानगरों में बनी हुई पहाड़ियों की कालोनियां इसकी गवाह हैं।
ऐसे लोगों के सवालों पर मैं सीधा जवाब देता हूं यह मुशई इतना पहाड़ी हैं, जितने तुम कभी नहीं हो सकते, क्योंकि अब तो तुम्हारी पीढ़ियां मैदानी शहरों की गलियों में रहने के लिए अभिशप्त हो चुकी हैं। (जारी)