ना बोले अलबेली छिनार
घूंघट वाली ना बोलै ।।
स्योंनिया की छवि न्यारी भावै।
ता पर डंडिया प्यारो ।। छिनार.
कपलिया की छवि न्यारी भावै।
ता पर बिंदिया प्यारो ।। छिनार.
अंखिया की छवि न्यारी भावै ।
ता पर सुरमा प्यारो ।। छिनार.
नकिया की छवि न्यारी भावै।
ता पर व्यसना प्यारो ।। छिनार.
गलिया की छवि न्यारी भावै।
ता पर हंसिया प्यारो ।। छिनार.
कनोलिया की छवि न्यारी भावै ।
ता पर पटका प्यारो ।। छिनार.
जंघिया की छवि न्यारी भावै।
ता पर लहंगा प्यारो ।। छिनार.
ना बोले अलबेली छिनार
घूंघट वाली ना बोलै ।।
दधि लूटी मटकिया फूटी,
वृंदावन मोहन दधि लूटी।।
कहां तेरो हार कहां नकवेसर।
कहां मोतियन की लड़ लूटी।। वृंदा
गल मेरो हार नकिया नकवेसर।
इक मोतियन की लड़ लूटी।। वृंदा
काहे को हार कहां नकवेसर।
काहे की तेरी लड़ लूटी।। वृंदा०
रूपि को हार सोने को नकवेसर। मोतियन की मेरी लड़ लूटी।। वृंदा
का भर हार ,का भर नकवेसर।
कै माले तेरी लड़ लूटी।। वृंदा०
दिल भर हार, मनन नकवेसर।
अनमोलै मेरी लड़ लूटी।। वृंदा०
वृंदावन मोहन दधि लूटी।।
गई-गई असुर तेरी नार
मन्दोदरि सिया मिलन गई बागा में ।।
थाली भरकर भोजन लाई। लंकापति की नार।।
मन्दोदरि
ले हो सीता भोजन पावो। तुम लंका की नार।।
मन्दोदरि
ना हम तुम्हरो भोजन पावें। ना हम लंका नार।।
मन्दोदरि
थाली भरकर लड्डू लायी। गडुवा भरकर नीर।।
मन्दोदरि
कौन राजा की सुता कहावे। कौन राजा घर व्याह।। मन्दोदरि
जनक राजा की सुता कहावें।। राम राजा घर व्याह।। मन्दोदरि
कौन राजा की प्रिया हो तुम। लंका केहि विधि आय।। मन्दोदरि
रामचन्द्र की प्रिया कहाऊँ।रावण लंका लाय ।।
मन्दोदरि
तू तो सत की सीता कहावे। अधम असुर घघर आय।। मन्दोदरि
जो मैं होऊँ सत की सीता। होय असुर कुल नाश।
मन्दोदरि सिया मिलन गयी बागा में।।
बलम तुम क्यों ना मिले रघुनन्दन से।
तीन लोक के हर्ता कर्ता।
आये तेरे द्वार।। बलम
कबन्ध अहिल्या गणिका अजामिल। कियो सकल उद्धार ।। बलम
दुर्योधन के मेवा त्यागे।
साग विदुर घघर खाय ।। बलम
जूठे फल शबरी के खाये।
बहु विधि प्रेम लगाय ।। बलम
प्रेम के वश अर्जुन रथ हाँको।
भूल गये ठकुराई ।। बलम
राजसूय युधिष्ठिर कीन्हो।
ता में जूठ उठाय ।। बलम
ऐसी प्रीति करी सीता पर।
लंका होय लड़ाई ।। बलम
शेष शारदा जाय बखानें।
वे दोनों पार न पाय।।
बलम तुम क्यों ना मिले रघुनन्दन से।
घर-घर खेलें फागय
बालम मस्त महीना फागुन को।
अच्छा हो रे बालम
टेसू जो फूले बन-बन में,
लागल परम सुहाय।
बालम मस्त महीना।
अच्छा हां रे
बालम कोयल जो
बोले बन-बन में,
मीठे शब्द सुनाय।
बालम मस्त महीना।
अच्छा हां रे बालम
मोर जो नाचे बन-बन में,
नाचत मन में लजाय।
बालम मस्त महीना………
घर-घर खेले फाग।
बालम मस्त महीना फागुन को।
रत बसंत में अपनी उमंग सूं
पी ढूंढन में निकसी घर सूं
रत बसंत में – – –
मिले तो लाल गिरवा लगा लूं
पाग बंद हाऊं पीली सरसों
रत बसंत में – – –
रंग ही सब्ज नरगिसी यां का
कहे शौक रंग, रंग वा का
रत बसंत में – – –
इन भेदन को कोई न जाने
वाकिफ हूं मैं वा की जरसों
रत बसंत में – – –
(ये बादशाह बहादुरशाह जफर
की रचना है)
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह
नाम नबी की रतन चढी, बूँद पड़ी इल्लल्लाह
रंग-रंगीली उही खिलावे, जो सखी होवे फ़ना-फी-अल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह
अलस्तु बिरब्बिकुम पीतम बोले, सभ सखियाँ ने घूंघट खोले
क़ालू बला ही यूँ कर बोले, ला-इलाहा-इल्लल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह
सिबगतुल्लाह की भर पिचकारी, अल्लाहुस-समद पिया मुंह पर मारी
नूर नबी डा हक से जारी, नूर मोहम्मद सल्लल्लाह
बुला शाह दी धूम मची है, ला-इलाहा-इल्लल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह
–बुल्लेशाह (18वीं सदी के पंजाबी संत एवं कवि)
जनता जनार्दन द्वारा
‘नैनीताल समाचार’ की तरफ से
एक प्रेम पाती, कुंवर जी के नाम।
रंग-भंग से सरोबार होली की इस
तरंग में क्षमा याचना सहित – चशेति
’रंग धरै’ मुलुक में खेलें होली’
‘रंग धरै’ मुलुक में खेलें होली।
‘रंग धरै’ मुलुक में खेलें होली।।
राज महल में कान्हा कुंवर जी
सड़कों पर नित, जनता भोली
‘रंग धरै’ मुलुक में खेलें होली।
मगन रहें अफसर-नेता सब
तरस रही बस,जनता भोली
‘रंग धरै’ मुलुक में खेलें होली।
लोग-बाग सब निकसि गए हैं
बांजि पड़ि गयीं घर पन श्खोलीश्
‘रंग धरै’ मुलुक में खेलें होली।
हरे-भरे डाने श्हराश् गए अब
लुटि गयीं सब रौखड़…रौली
‘रंग धरै’ मुलुक में खेलें होली।
धरम -भाव, निज ग्यान बखारें
पग-पग पर नित भगतन टोली
‘रंग धरै’ मुलुक में खेलें होली।
‘नीक’ दिन नहीं आये अब तक
पर, कर दी…..आँख-मिचैली
‘रंग धरै’ मुलुक में खेलें होली।
मीठी तान मुरलिया में उलझाकर
बस, तुम करत रहे……ठिठोली
‘रंग धरै’ मुलुक में खेलें होली।
राम-रहीम सब मिलि फाग रचावें
भर दो तनिक अब,पिरेम-रंग की झोली
‘रंग धरै’ मुलुक में खेलें होली।
‘रंग धरै’ मुलुक में खेलें होली।
(श्री धर मुकुट खेलें होरी…की तर्ज पर)