केशव भट्ट
कोरोना में शुरूआत में जब लॉकडाउन 31 मार्च तक किया गया तो उन दिनों हर परिवार में हर किसी ने अपनी तीखी जीभ को दांतों के भीतर लॉकडाउन कर चमकीले नुकीले दांत दिखाने शुरू कर दिए. घर—परिवार में शुरूआती दिनों में सभी रामायण सीरियल को देख भक्ति में डूब घर को पवित्र मानने के मुगालते पालने लगे. लेकिन दांतों की भीतर दबी जीभ ज्यादा दिन तक इंतजार न कर सकी और उसने जो लावा उगला उसने जहर से भी ज्यादा घातक असर दिखाया. देवी—देवताओं का रूप कब शैतानी शक्लों में बदल गया पता ही नहीं चला. घर—घर की घटनाओं ने समाज में कई चित्र उकेर दिए.
लॉकडाउन में कई मानवीय पहलू देखने को मिले. हर कोई एक दूसरे की मदद को बिना फायदे के हांजिर होता दिखा. डॉक्टर, नर्स, पुलिस, पर्यावरण मित्र के सांथ ही अधिकारी—कर्मचारियों की टोलियां सभी टीम भावना से दिन—रात जुटे पड़े दिखे.
वहीं इन सबसे दूर कुछेक ऐसे सख्श भी रहे जो लॉकडाउन में गरीबों के लिए ‘सेंटाक्लॉज’ जैसे बन उठे. रेड क्रॉस के सचिव और पेशे से अध्यापक आलोक पांडे ने लॉकडाउन में अपने दो सांथियों को सांथ लेकर गरीब, बेसहारा लोगों को राशन बांटने की मुहिम शुरू की तो रेड क्रॉस से जुड़े सैकड़ों स्वयंसेवी भी उनके सांथ जुड़ते चले गए. अन्य लोग भी उनके काम की सराहाना कर उन्हें आर्थिक मदद करने के सांथ ही उनकी मुहिम में शामिल होने लगे. रेडक्रास से जुड़े और पेशे से पत्रकार जगदीश उपाध्याय उर्फ ‘जैक’ मुझे अकसर उनकी टीम के बारे में बताते थे कि, आज उस गांव गए आज इस गांव. इस पर मेरा भी मन हुवा कि एक बार ही सही इस टीम के सांथ जाके देखा तो जाए कि लोग इन्हें बेवकूफ बना फायदे उठाने में लगे हैं या वास्तव में वो इसके हकदार हैं. एक शाम जैक ने बताया कि कल उनकी टीम गोगिना जा रही है अभी उस क्षेत्र के कुछेक लोग छूट गए हैं और गोगिना से आगे कीमू गांव वालों को नीचे गोगिना में ही बुला रखा है.
मैंने ज्यादा नहीं सोचा और हां कर दी. लॉकडाउन के चलते बच्चे घर में थे तो उन्हें मैंने सुबह अपनी टीम के लिए पूरी—सब्जी के लिए मना लिया. सुबह बच्चों ने एक बैग में नाश्ता पैक कर मुझे पकड़ा दिया. गोगिना तक वाहन में जाना है के बात पर मैंने उच्च हिमालयी क्षेत्र का जरूरी सामान.. छाता—रेनकोट नहीं लिया. गोगिना जाने के लिए मेरे, आलोकदा, जैक समेत केएन कांडपाल, बसंत बल्लभ त्रिपाठी, मोनू तिवाड़ी उर्फ मोहमुदिन अहमद तिवाड़ी, हरीश दफौटी तथा अजीमजी प्रेमजी संस्थान से जुड़े बृजेश जोशी थे.
सुबह सातेक बजे का समय दिया गया था जो कि सभी के एकजुट होने तक आगे खिसक गया. तीन गाड़ियों में करीब पांच कुंतल राशन के कट्टे रात में ही लाद लिए गए थे. भराड़ी पहुंचे. कभी यहां का बाजार वाहनों की चिल्लपों और लोगों के शोर से पटा पड़ा रहता था आज ये आराम से सांस लेते महसूस हुवा. शामा की सड़क सुनसान मिली. सड़कें पिरूल से बिछी थी. इस बीच बारिश ने भी धरती के सांथ ही पेड़—पौंधों को धो—धाकर उसे चमका अपना काम कर दिया था.
झोपड़ा होते हुए शामा की बाजार में नौ बजे हम पहुंचे तो पीछे आ रहे सांथियों के लिए ‘आलोकदा’ ने गाड़ी खड़ी कर कुछेक दर्जन फल ले लिए. ‘आलोकदा’ को इस ‘दा’ उर्फ बड़े भाई के नाम से पुकारने पर उन्होंने हंसते हुए कहा कि आप क्यों अपनी उम्र कम करने में लगे हो, मैं तो आपका छोटा भाई हुवा. इस पर मैंने उन्हें मायानगरी के फिल्मस्टार गोविंदा की कहानी का हवाला दिया कि गोविंदा का असली नाम गोविंद अरुण आहूजा था. परिवार के सांथ ही मित्र उन्हें ‘ची ची’ बुलाते थे तो बाहर लोग उन्हें ‘विरार का छोकरा’ कहते थे. लेकिन आज अठावन साल हो जाने के बाद भी उन्हें बच्चे से लेकर बूढ़े भी गोविंदा ही कहते हैं. इस पर वो मुस्कुरा दिए. कुछेक देर इंतजार करने के बाद तय किया कि आगे कहीं रूक सांथियों का इंतजार करते हैं और वहीं पेट पूजा भी कर ली जाएगी.
गोगिना तक पहाड़ से चिपकती हुवी बलखाती सड़क है. शामा के बाद ये सड़क कई जगहों पर सिकुड़ी हुवी डरावनी भी है. सड़क की सिकुड़न में ठेकेदार भी पनप जाने वाले हुए. सड़क के नीचे किलोमीटरों तक गहरी खाई और उपर से झूलता हुवा गिरने को तैंयार बैठा पहाड़ आपको आत्मा—परमात्मा के साक्षात दर्शन करा देता है.
आगे रूकते हैं की चाह में हम लीती गांव में पहुंच गए. यहां से बाई ओर की सड़क आगे गोगिना और दाहिने ओर ढलान लिए बलखाती सड़क नीचे रामगंगा के किनारे तक फैले लीती ग्रामपंचायत तक है. गाड़ी किनारे खड़ी कर घाटियों में फैले लीती गांव की जो झलक दिखी उसे कुछेक छड़ों तक निहारते रहे. ढलानदार खेतों में आलू की फसलों के बीच में गेहूं की अधपकी फसल किसी चित्रकार की पेंटिंग की तरह खूबसूरत दिखी तो मैं सड़क से पैदल ही नीचे गांव की पगडंडी में उतरता चले गया. मेरे पीछे—पीछे आलोकदा भी अपना निकोन का कैमरा संभाले आते दिखे. सुना था कि यहां के आलू काफी स्वादिष्ट होते हैं जिससे उसकी मांग बहुत है. पहले शामा—लीती के आलू की ज्यादातर खपत सीधे ही दिल्ली में मदर डेयरी में हो जाती थी. अभी भी इनकी बहुत मांग हल्द्वानी मंडी के सांथ ही बागेश्वर में रहती है. वैसे यहां के आलू के स्वाद का खजाना जैविक खाद के सांथ ही यहां की ठंडी तासिर में हुवा. रसायनिक खादों का स्वाद यहां के खेतों ने चखा ही नहीं ठैरा. हरी घास—चारे की सेवा के बदले में दूध के सांथ ही गाय—भैंसें पर्याप्त मात्रा में खाद उगल देनी वाली हुवी. खेतों में महिलाओं के झुंड काम में तल्लीन दिखे. नीचे सड़क में पहुंचे. ये सड़क आगे नीचे लीती गांव के छोर तक जाती है. आलू के खेतों में जाने के लिए सड़क किनारे पर एक मकान के आंगन से गए तो दो बच्चियां खेल में मग्न थी. हमें देख कुछ पल के लिए वो चौंकी और फिर मुस्कुराते हुए अपनी दुनियां में चली गई. उनकी मॉं बाहर आई तो उन्होंने तस्दीक कर दी कि खेतों में जाने का यही रास्ता है. आगे पॉलीहाउस दिखे जिसके किनारे से जाकर देखा तो लंबे पसरे खेत में एक युवा जोड़ा तल्लीन हो आलू की गुड़ाई में लगा था. काफी देर बाद उनका ध्यान हमारी ओर गया तो उनसे आलू की पैदावार और उनके अन्य कामों के बारे में पूछा. बमुश्किल शर्माते हुए उन्होंने थोड़ा सा बताया कि, हां.. आलू अच्छा होता है अभी इसे उगेर लगा रहे हैं.. कह अपने काम में जुट गए. मैंने उसकी तल्लीनता भंग करते हुए पूछा, ‘आपका नाम..’ झुके हुए ही उसने सिर उप्पर किया और शर्माते हुए बोला, ‘तारा सिंह कोरंगा..’
कई साल पहले रोजी—रोटी की तलाश में तारा जोशीमठ में एक होटल में काम पर लगा था. साल में दोएक बार घर आकर यहां की जरूरतें भी पूरी कर जाता था. कोराना महामारी के बाद अब इस बार होटल बंद हो गया तो घर आ अब वो खेती—बाड़ी में जुटा रहता है. मेहनती तो हुवा ही. वो उसके काम करने के ईमानदारी भरे अंदाज से दिख रहा था. तारा से विदा ले नीचे आल—गेहूं के खेतों से होते हुए सड़क में आ पहुंचे तो जैक और अन्य सांथी भी आते दिखे. दो वाहन वो नीचे ही ले आए थे. पीठ में घास का गठ्ठर लादे बूढ़ी आमा और मां—बेटी आते दिखे तो हम रास्ता छोड़ किनारे हो गए. पौ फटते ही वो घर से निकल गए होंगे. अब अपनी भूख के सांथ ही जानवरों को चारा देने की चिंता में उन्हें घर पहुंचने की जल्दी थी तो भारी वजन के बावजूद उनके कदमों में गजब की फुर्ती दिखी. वाहनों का मुंह वापस उप्पर की ओर कर लिया गया. नाती को गोद में लिए हरीश चन्द्रजी दिखे तो अभिवादन हुवा. साठ की सीढ़ी पार चुके कोरंगाजी अभी भी काफी मेहनत करते हैं. आलू, कीवी और लिलियम फूल के खासे उत्पादन पर उन्हें कई बार उद्यान विभाग सम्मान से नवाज चुका है. खेत समेत पॉलीहाउस में उनकी मेहनत खुद—ब—खुद अपनी कहानी बयां करती दिखी. वो संतुष्ट थे कि ओला तो गिरते रहता है लेकिन आलू की फसल को ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचा है. इस बार लॉकडाउन से उनके फूलों को बाजार नहीं मिल पाया, ये पीड़ा उनके चेहरे में महसूस हो रही थी. लिलियम के फूल के बारे में वो बताते चले गए. लिलियम फूल बेहद ही खूबसूरत फूल होता है. सजावट में सबसे ज्यादा काम आने पर ट्यूलिप के फूल के बाद लिलियम एक ऐसा फूल है जिसकी मांग सबसे अधिक होती है. जिसकी वजह से बाजार में इसकी अच्छी कीमत मिल जाती है. लेकिन इस बार शादी—बारात सब बंद हो गए तो अब ये सब यहीं महक रहे हैं. वैसे वो खुश थे कि बाहर रच—बस गए गांव के लोग वापस गांव में आकर मेहनत में जुट गए हैं.
हमारे सांथी बसंत बल्लभ त्रिपाठीजी ने चेताया कि कीमू वालों को ग्यारह बजे का समय दिया है, देर हो रही है. त्रिपाठीजी रातिरकेठी में अध्यापक हैं और रेड क्रॉस को ही उन्होंने कीमू में छूट गए स्वावलंभी गरीब परिवारों के बारे में जानकारी दी कि इन्हें भी राशन किट की सख्त जरूरत है. मैं सड़क किनारे हरे मैदान, जिसे यहां कुथैय्या ताल कहते हैं को देख सोच रहा था कि तीन साल पहले जब यहां अंतराष्ट्रीय पर्यटन दिवस पर नैनीताल के सांसद भगददा आए थे तो यहां ग्रामीणों का मेला लगा था. बच्चे से लेकर बुजुर्ग भी झोड़े—चांचरी की धुन में इतने मस्त हो गए थे कि घंटों तक वो सभी नाचते ही रहे.
गांव के कुथैय्या ताल में लगे इस मेले में सड़क किनारे के खेतों में दर्जनों जमीनी दुकानें सजी थी. चटपटे आलू, चने, रंगीन मोटी जलेबी, रंग बिरंगे गुब्बारे. तात्कालीन सांसद भगतदा ने अपने चिरपरिचत ठेठ पहाड़ी अंदाज में बोलना शुरू किया तो उनके लटपटे किस्सों में सब ठहाके लगाते दिखे. उन्होंने इस क्षेत्र को विकसित करने का वादा किया और पर्यटन विभाग और चिनार संस्था के सहयोग से अंतर्राष्टीय पर्वत दिवस का शुभारंभ किया. घंटों तक कई सारी प्रतियोगिताएं चलने के बाद ढोल—दमाउ वालों ने अपने बेहतरीन करतब दिखाए. बाद में झोड़े—चांचरी में मेला अपने सबाब में आ चुका था. भगतदा कई सारे वादे कर चले तो हमने भी अपना रास्ता पकड़ लिया.
आज इस बार देखा तो गांव समृद्व सा महसूस हुवा. गांव में कई घरों के आगे अतिथियों के लिए ‘अतिथि देवो भव:’ को साकार करने के लिए होम स्टे के बोर्ड भी दिखे तो लगा कि, सदियों से हिमालयी क्षेत्रों के वाशिंदें तो हरदम हर किसी के लिए दिल से स्वागत करते आए हैं, फिर ये बोर्ड क्यों… फिर एहसास सा हुवा कि, ये बोर्ड सायद विभागीय मजबूरी के चलते रजिस्ट्रेशन के बाद लगाना पड़ा होगा.
जैक के जल्दी चलो, देर हो रही की आवाज पर मैं अपने कल्पना लोक से बाहर निकला और आलोकदा की गाड़ी में घुस गया. वाहनों का कारवां आगे निकला तो आलोकदा ने बातों ही बातों में बताया कि अभी कुछेक दिन पहले जब वो लोग धरमघर क्षेत्र में राशन किट बांट रहे थे कि तभी कुछेक लोग उन सबके पांव छूंते हुए कहने लगे कि, ‘आप ही सच में हम गरीबों के मसीहा निकले.. हम तो उम्मीद हार परेशां हो गए थे.. घर जा नहीं सकते हैं.. खर्चा कुछ जेब में हैं नहीं.. खाने के लिए भी तरस गए थे..’
रेड क्रॉस की टीम ये सब देख स्तब्ध हो गई. ये सब बाहर के मिस्त्री—मजदूर थे, जिनका रोजगार छिन गया था और कई दिनों की फाकामस्ती के बाद भी वो जिंदा थे. आलोकदा ने बताया कि बाद में फिर वो दोबारा उस क्षेत्र में जरूरतमंदों को राशन किट देने गए. सड़क किनारे एक जगह खुली जगह देख वहीं गाड़ी रोक ली. आलू—पूरी और अचार के नाश्ते को चटपट सभी ने अपने उदर में धकेल लिया तो आगे गोगिना की राह पकड़ी. आगे घुघुतीघोल तक सिकुड़ी हुवी सड़क में चुपचाप ही रहना उचित समझा. नीचे गहरी खाई और उप्पर से डरावने पहाड़ धमकी देते लग रहे थे. मौसम भी करवट बदलने लगा था. गोगिना से पहले रामगंगा के पार लंबा झरना दिखा तो कुछेक पल रूक उसे निहारने का लालच छोड़ नहीं पाए. झेलम नाम के इस झरने को यहां ‘झिल्मा छिड़’ कहते हैं.
गोगिना पहुंचे तो कीमू वाले इंतजार करते दिखे. टीम के सभी लोग अपने काम में जुट गए और उन्हें राशन किट देते रहे. महिलाएं चुपचाप आकर अंगूठे के निशान लगा सामान लेने लगी. कुछेक ने साइन भी किए. तीसेक परिवारों को राशन किट दिए जा चुके थे. महिलाओं के चेहरों में एहसान के कुछ इस तरह के भाव थे कि, कभी हमारे वहां परेशानी में आओगे तो ताउम्र यहीं के बेटे जैसे होके रह जाओगे.
कीमू गांव यहां से तकरीबन पांचेक किलोमीटर की खड़ी पथरीली चढ़ाई वाले रास्ते को पार करने के बाद है. बीच में रामगंगा नदी है और उसके माथे पर नामिक गांव. बागेश्वर और पिथौरागढ़ जिले के इस क्षेत्र के ये अंतिम हिमालय की जड़ में बसे गांव हैं. गोगिना में भी अब कई घरों ने पर्यटकों के लिए होम स्टे बना लिए हैं. गांव के रास्ते में कई सारे बोर्ड भी दिखे.
बूंदाबादी होने लगी थी तो सभी से विदा ले वापसी की राह पकड़ी. मैं पैदल ही झरने को निहारते हुए आगे निकल गया था. कुछेक दूर आगे गोगिना गांव की ग्राम प्रधान ने चाय पिये बगैर जाने पर एतराज जताया तो उन्हींके दुकान की बैंचों में चाय की चुस्कियां लेते हुए रिमझिम बरसते हुए मेघों को देखते रहे. पता चला कि आजादी के बाद से इसी परिवार को गांव वाले ग्राम प्रधान की जिम्मेदारी सौंपते चले आ रहे हैं. इस बार घर की बहू शीतल रौतेला को ग्राम प्रधान की जिम्मेदारी सौंपी है. उन्होंने बताया कि कुछेक जरूरतमंदों को राशन की जरूरत है, इस पर कुछेक किट यहां भी दिए गए. वैसे वो खुद भी अपने स्तर से ग्रामीणों को सब्जियों के किट बांटने के काम में लगी थी.
दिन में सभी के भोजन की व्यवस्था आलोकदा ने अपने सांथी त्रिपाठी मास्टरजी को सौंप दी थी तो उन्होंने रातिरकेटी में अपने स्कूल के बगल में एक दुकान में ये व्यवस्था करवा दी थी. सड़क से रातिरकेटी गांव करीबन किलोमीटर भर तक दाएं—बांए फैला हुवा है. यहां भी कुछेक परिवारों के बुजुर्ग राशन की उम्मीद में रेड क्रॉस का इंतजार करते दिखे. सत्तर की उम्र पार कर चुके उन बुजुर्गों के चहरों में आत्मविश्वास भरा महसूस हुवा, लेकिन महामारी की इस मार से वो भी चपेट में आ ही गए थे. चुपचाप हो एक अम्मा ने अपना शॉल ही सड़क में बिछा दिया तो आलोकदा ने उन्हें राशन में एक किट मय बोरे समेत ही पकड़ा दिया. बारिश के सांथ ही ओले बरसने लगे तो हम सभी बंद दुकानों के छोटे से आंगनों की ओर भागे. तिरछी बारिश हम सभी को भिगौने पर आमदा थी. आधेएक घंटे बाद बारिश का जोर कुछ कम हुवा तो मैंने बृजेश की छाता का सहारा ले नीचे गांव की पगडंडी नापनी शुरू कर दी. बांकी तीनेक छाताओं में सिमटते हुए बांकी जनों ने भी गांव का उतार नापना शुरू कर दिया.
एक छाता के जिम्मे दो जनों का भार था, जैसे ही उसे अपने महत्वपूर्ण होने का एहसास हुवा तो बारिश—हवा के सांथ वो भी नाचने लगी. छाते को झूमता देख ओलों ने भी तबला बजाना शुरू किया तो मैं छाते की शरण छोड़ पगडंडी में दौड़ते हुए किसी ठिकाने को खोजने लगा. आगे गांव शुरू हुवा तो वहां बाखलियों की छतें भी आगे को इतनी बड़ी नहीं थी कि ओले—बारिश से बचा जा सके. उप्पर से पगडंडी खत्म होते ही गांव के भीतर इतने सारे चौराहे फूट पड़े कि समझ में नहीं आया कि जाना किधर को है. बारिश थमने का नाम नहीं ले रही थी, बमुश्किल गांव में एक बंद धूनी की छत के नीचे अपने को बचाया. कुछ पलों बाद बृजेश और कांडपालजी आए तो अनुमान लगाया कि गांव के नीचे जो टिन की छत है वही स्कूल है जहां हमें जाना है. मेघों का बरसना कम हुवा तो गांव की गलियों में घुमते हुए स्कूल के आंगन में पहुंचे. पहाड़ों के भौगोलिक परिस्थितियों के हिसाब से स्कूल का आंगन खासा मैदान की तरह बड़ा दिखा. स्कूल बंद था. स्कूल को पार कर बाहर निकले तो उप्पर से सांथियों की पुकार सुनाई पड़ी. हम तीनों पुराने स्कूल में आ गए थे नया स्कूल उप्पर ही था. वहां पहुंच एकलौती दुकान की छत में शरण मिली. भीगे बदन और सरसराती बर्फीली हवा में सभी के शरीर हिल—हिलकर, ‘मैं ठीक हूं..मैं ठीक हूं..’ जैसी आवाजें निकाल रहे थे. सभी इस उम्मीद में थे कि दुकान के चूल्हे के किनारे आग तापते हुए कपड़े भी सूख जाएंगे. लेकिन वहां चूल्हा ठंडा था और अंदर गैस—चूल्हा देख बृजेश से रहा नहीं गया तो उसने दुकानस्वामी से सगड़ी की आग की कल्पना करते हुए अपने हाथ रगड़ने शुरू किए तो एक भद्रजन तुरंत ही सगड़ी जलाने में जुट गए. दसेक मिनट में सगड़ी में लपटें उठी तो बारी—बारी से सभी ने अपनी ठंड की, सगड़ी में आहूति दे डाली. भोजन भी तैंयार हो चुका था. नीचे के दो कमरों में चटाई में कुकर—बर्तन रख दिए गए थे. आलथी—पालथी मारी तो थालियों में भात के सांथ ही बकरे का अ—शाकाहारी तरीदार मटन परोसा जाने लगा. ‘बाकरा माफ करिये, हमूल नी मार तूकें..’ मंत्रजाप के बाद त्रिपाठी मासाब को छोड़कर सभी ने भोजन किया.
ग्रामसभा रातिरकेठी के तोक जैंती के केठी गांव निवासी बसंत त्रिपाठीजी पांच साल से यहीं हाईस्कूल में अध्यापन के कार्य के सांथ ही पुरोहितगिरी करते हैं. सात्विक जीवन शैली जीने के आदी त्रिपाठीजी अपने सभी कार्य स्वयं करना ही पसंद करते हैं, जिससे गांव में हर कोई उन्हें तथागत् की तरह आदरभाव से नवाजता है.
बारिश थम चुकी थी. ऐसा लग रहा था जैसे कि, मेघों की नामिक—हीरामणी ग्लेशियरों के पास शीर्ष टेबल में बैठक शुरू हो गई थी कि आगे अब कब बरसना है. रातिरकेठी में दुकानस्वामी के वहां शुद्व ‘पहाड़ी घीं’ है कि बात पर सभी जन लाईन में लग गए. चारेक जनों को देने के बाद दुकानस्वामी की जल्द ही औरों के लिए घीं बना देने की बात पर बचे—खुचे जन मन मसोम कर रह गए.
मासाब त्रिपाठीजी के सांथ ही अन्य सभी से विदा ले उप्पर की चढ़ाई नापनी शुरू कर दी. बारिश थम चुकी थी तो गांव धुला—धुला सा लग रहा था. गांव की गलियों में गुजरते हुए देखा कि बारिश के थमने के तुरंत बाद ही गांव में चहल कदमी बड़ गई. महिलाएं खेतों में काम में लग गई थी. आगे एक किनारे वद्व लोहार की दुकान में रोजमर्रा काम आने वाले औजारों को चीड़ की छालों में लाल होने के बाद उन्हें सही तरीके से ढ़ालने में बूढ़े कारीगर का घन मजबूती से उस औजार पर पड़ रहा था. दिखने में वो वृद्व थे लेकिन उनकी बाजूओं में किसी नौजवान से ज्यादा हुनर भरा पड़ा था.
जब इस गांव में आ रहे थे तो बारिश—ओलों से हम सब सिर्फ रास्ते को देख बचते—बचाते चल—भाग रहे थे. अभी उप्पर से देखा तो सीढ़नुमा खेतों का सा ढलान लिए हुए गांव काफी समृद्व लग रहा था. सड़क में पहुंचे तो आगे मल्खाडूंगरचा में भी चारेक परिवार इंतजार करते मिले. गाड़ी में इत्तेफाक से चार ही किट बचे थे. उन्हें राशन किट देकर वापसी के लिए, पहाड़ों के सीने से चिपकती—डराती सड़क की राह फिर से पकड़ी.
रस्तेभर ‘आलोदा’ से बतियाते हुए पता चला कि रेड क्रॉस के स्वयंसेवियों ने अभी तक बागेश्वर जिले के 250 से ज्यादा गांवों में कोरोना के प्रति जागरूकता अभियान चलाने के सांथ ही साढ़े छह लाख रूपयों की लागत से ज्यादा के तेरह सौ किट खाद्यान्न जरूरतमंदों तक पहुंचा दिया है. मल्ला दानपुर के रामगंगा घाटी में बसे कीमू, गोगिना, कापड़ी, रातिरकेटी समेत दर्जनों गांवों तक पहुंचने के लिए खतरनाक सड़कों के सांथ ही बेवक्त खराब मौसम में भी कई किलोमीटर पैदल चल जरूरतमंद 72 परिवारों को भी राशन किट देकर मदद पहुंचा चुके हैं. रेड क्रॉस के मानवीय पहलू को देख अजीम जी प्रेमजी संस्था ने भी रेड क्रॉस को खाद्यान्न के 300 किटों से मदद कर दी है.
‘गाड़ी कितने किलोमीटर चल चुकी होगी अभी तक..’ पूछने पर आलोकदा ने मुस्कुराते हुए बताया, ‘मेरी गाड़ी तो चारेक हजार किलोमीटर चल चुकी है और मोनू तिवाड़ी की साढ़े तीन हजार तक.. अभी आगे पता नहीं कितना चलेगी..’ मैं सोच रहा था कि, कुछेक साल पहले जब हम पांच मित्र बागेश्वर से लेह—लद्वाख होते हुए श्रीनगर से वापस आए तो करीबन बाइस सौ किलोमीटर तक का ये सफर रहा था. और ये कोरोना योद्वा तो इस हिसाब से दो बार लद्वाख की यात्रा कर चुके हैं और आगे इनका सफर अभी थमा नहीं है.
बहरहाल्! जिंदगी में जिंदगी जीने के हर किसी के अपने तरीके होते आए हैं, जिन्हें सदियों से समाज में हर कोई दोहरी नजर से देखते आए हैं. लेकिन! ये सच ही है कि, कोई कुछ भी कहता रहे, ‘जिंदादिल लोग अपना रास्ता खुद तैंयार कर लेते हैं..’