संजीव भगत
उत्तराखंड में सरकार सड़क के किनारे ढाबा, रेस्टोरेंट से लेकर छोटे – छोटे दुकानदारों को अतिक्रमण के नाम पर उजाड़ने में तुली हुई है । न्यायालय के आदेश पर प्रदेश में एक साथ यह यह कार्यवाई की जा रही है । सड़क के किनारे की दुकानों, आवासीय भवनों कच्चे पक्के निमार्ण को चिन्हित किया जा रहा है । अधिकांश ग्रामीण क्षेत्र के दुकानदार इस वक्त इस अतिक्रमण हटाओ अभियान की चपेट में हैं । पूरे ग्रामीण और छोटे कस्बे इस अतिक्रमण हटाओ अभियान की चपेट में आ रहे हैं ।
पूरे प्रदेश के तेरह जिलों में लगभग पच्चीस हजार से ज्यादा दुकानें और आवासीय भवन सरकार के इस अभियान की चपेट में आ सकते हैं । इन ढाबों, रेस्टोरेंट व दुकानों के मालिक व काम करने वाले लगभग एक लाख लोग और इनके परिवार पर इसका सीधा असर होगा । इन सब लोगों का रोजगार सीधे छीन सकता है ।
कई लोगों ने रोजगार के लिए बैकों से उधार लिया है ।उनका क्या होगा ? इन व्यवसायियों के पास बिजली, पानी के कनेक्शन हैं, फूड लाइसेंस हैं, वे किसी न किसी कानून के तहत तो व्यापार कर रहे होगें । इन छोटे व्यापारियों से जिला पंचायत और नगर पालिका टैक्स वसूलती है । कुछ व्यापारी तो GST भी अदा करते हैं । सरकार इन्हें कैसे उजाड़ सकती है ?
पहाड़ी जिलों में सड़क के किनारे दुकान या ढाबा खोलना रोजगार का सबसे बड़ा साधन है । सरकार रोजगार के इसी साधन पर डाका डाल रही है ।
आज के दौर में सरकारी और फौज की नौकरियां लगभग समाप्त हो चुकी हैं । ऐसे समय में स्थानीय लोगों को अन्य रोजगार मिल पाना लगभग असंभव है । इससे पहाड़ में पलायन बढ़ेगा और पहाड़ के गांव खाली होगें । पहाडो में सडकें ही इस प्रकार बनायी जाती हैं कि सड़क से बहुत दूर दुकानें खोल पाना नामुमकिन होता है । इसलिए अधिकांश दुकानें और मकान सड़क के पास ही बनाये जाते हैं । पहाडी जिलों की अधिकांश जमीन वन भूमि है । यहां लगभग 71% वन भूमि 10% वन पंचायत कि जमीनें है । समतल और अधिकांश नाप जमीन मैदानी जिलों में है । ऐसी हालत में पहाडों में खेती, बागान, व्यापार के लिए 10% से भी कम जमीन उपलब्ध है इसीलिए यहां के लिए लोग सैकड़ो साल से वन भूमि में रहकर ही गुजर-बसर कर रहे हैं । वन गुर्जरों से लेकर बिन्दुखत्ता, दमुआंढूगां, चिडिय़ापुर वन क्षेत्रों में लाखों लोग बरसों से रहते आ रहे हैं । उत्तराखण्ड में भू-कानून आज भी स्पष्ट नहीं हैं । जो लोग इन जगहों पर रहकर अपनी रोजी रोटी कमा रहे हैं उनमें से अधिकांश उत्तराखण्ड के मूल निवासी हैं । प्राचीन काल में सभ्यताएं नदियों के किनारे ही आबाद होती थी । आज के विकासशील युग सारे बसासतें और व्यापार सडकों के किनारे ही होता है । दूरस्थ सड़क विहीन ग्रामीण क्षेत्रों से भी पलायन नजदीक सड़क के किनारे सुगम स्थानों पर हो रहा है ।
पयर्टन व चारधाम यात्रा के लिहाज से भी ये बसासतें यात्रियों व पर्यटकों को सर छिपाने की जगह, भोजन ,पानी उपलब्ध करा कर उनकी यात्रा को आसान बनाती है। उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में जमीन की पैमाइश ही विवादास्पद रही है, नाप भूमि के साथ नजूल, रोखड और बंजर भूमि, बेनाप भी होती है । जमीन की हिस्सेदारी, जो बहुत छोटी – छोटी होती है । चकबन्दी न होने कारण जमीनों का स्वामित्व भी हमेशा स्पष्ट नहीं रहता । इन सब कारणों से सड़कों के किनारे बसने वाले लोग अपनी जमीनें का स्वामित्व भी प्रमाणित नहीं कर पाते ।
सरकार को इस अतिक्रमण विरोधी अभियान को तुरन्त रोकना चाहिए । सरकार सड़क के किनारे वर्षों से रोजगार चला रहे लोगों के लिए वैकल्पिक व्यवस्था भी करनी चाहिए। साथ ही जो लोग जिस भी जमीन पर काबिज हैं उन्हे लम्बे समय को लीज अथवा पट्टा जारी करना चाहिए। इस विषय में सरकार जनहित में कानून भी बना सकती है। सरकार चाहे तो भविष्य में अतिक्रमण रोकने के लिए भी कोई कानून बना सकती है ।
जब रोजी-रोटी पर संकट आता है तो इंसान का आक्रोशित होना स्वभाविक है । लोग अपने तरीके से अपना दुख और परेशानी का साझा कर रहे हैं । अभी यह आक्रोश सभाओं और जनप्रतिनिधियों, ब्लाक प्रमुख, विधायकों के सामने प्रकट हो रहा है । भविष्य यह आक्रोश चारदीवारी से बाहर निकल कर सड़क पर भी दिखाई देगा । पिछले पांच – छः साल से व्यापार में मंदी हावी है । नोटबंदी, GST और कोरोना के कारण कई लोगों के हाथों से काम पहले ही छिन चुका है । इस अभियान से छोटे व्यापारी भुखमरी की कगार पर पहुँच जाएंगे ।
तानाशाह सरकारों के खिलाफ आंदोलन ही सबसे बड़ा हथियार है । सभी लोग इस आंदोलन के लिए तैयार हो रहे हैं । कई जगह जोरदार विरोध शुरू हो चुका है ।