कुसुम रावत
यह कोई छः साल पुरानी बात होगी। मेरी एक कहानी गढ़वाल सभा की स्मारिका में छपी। उसका विमोचन टाऊन हाल देहरादून मेंथा। मैं वहां बहुत ज्यादा लोगों को जानती-पहचानती न थी। सो अकेले ही बैठी थी। मेरी कुर्सी के ठीक पीछे एक सज्जन आंखें मूंदे कुर्सी पर बैठे थे। उनकी गर्दन थोड़ी टेढ़ी जान पड़ी। गर्दन को उन्होंने अपनी लाठी से सहारा दिया था। उनका शांत चेहरा देख उनकी शारीरिक तकलीफ का अंदाजा नहीं लग रहा था। मैं देर से उनकी और उनके मित्रों की रोचक बातें सुन रही थी। यहबंदा कौन है? इसका मुझे कोई इल्म न था। लेकिन ये मैं समझगई थी कि ये जो कोई भी है, है तो कोई निराले अंदाज का ही परिंदा। खैर पुस्तक विमोचन हुआ। अचानक मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत उठकर जाने लगे। बाहर जाते वक्त उनकी नजर मेरी कुर्सी के पीछे बैठे उन्हीं सज्जन पर पड़ी। वो कदाचित रूके। मुख्यमंत्री जी ने उनको हाथ जोड़कर कहा डा. साहब नमस्कार। औपचारिक बातचीत के बाद वो बोले कि आप चंद्रकुंवर बर्त्वालकी रिस्पना नदी पर लिखी कविता मुझे दे दीजिए। मैं रिस्पना नदी को जीवित करते वक्त उसका शिलालेख लगवाऊंगा। मुख्यमंत्री जी बड़े अदब से इन सज्जन से हाथ मिलाकर चले गये। अब हैरान होने की बारी मेरी थी कि आखिर ये बंदा कौन है? भारी भीड़ में मुख्यमंत्री ने इनको खोजा और खुद अभिवादन कर कविता मांगी? आखिर क्यों इनसे चंद्रकुंवर बर्त्तवाल की कविता मांगी गई?थोड़ी देर में उच्च शिक्षा मंत्री डा. धन सिंह रावत को भी इन सज्जन को नमस्कार करते मैंने देखा। मैं हॉल में एक भी बंदे को न जानती थी तो किससे पूछती कि ये आखिर कौन हैं?
लेकिन विधि का विधान बड़ा विचित्र है। जैसे ही मैं बाहर निकली इन सज्जन ने मुझे आवाज देकर कहा क्या तुम कुसुम रावत हो? मैं सकपका गई कि अरे ये मुझे कैसे जानते हैं? मैं चुप रही तो मेरे संकोच को तोड़कर वो बोले कि मेरा नाम डा. योगम्बर सिंह बर्त्वाल है। ये मेरे साथी मनुजेन्द्र बहुगुणा हैं। हम दोनों युगवाणी पत्रिका के पुराने साथी हैं। कुछ समय से तुम्हारी कहानियां युगवाणी में पढ़ रहे हैं। तुम बहुत सुंदर लिखती हो। हम तुम्हारे लेखन के कायल हैं। तुम्हारे लेखन में एक अजीब आर्कषण है। पत्रिका में तुम्हारा छपा फोटो देखकर ही हमने तुमको पहचाना। तुम हमारी सीट के आगे बैठी थी। मैं सोच ही रहा था कि तुमको युगवाणी कार्यालय में बुलाकर मिलूंगा। वो काफी देर तक बतियाते रहे। मैं चुपचाप कभी उनकी बंद आंखें तो कभी लठ्ठी के सहारे टिका शरीर को देख रही थी तो कभी उनके ओजस्वी धाराप्रवाह शब्दों को सुन रही थी। उनका शरीर एक ओर था और गरदन दूसरी तरफ अजीब मुद्रा में तनी थी। पर चेहरे पर गर्दन की वजह से दर्द का कोई अहसास न था। वो नॉन स्टाप कुछ-कुछ मेरी अब तक की कहानियों पर टिप्पणी कर रहे थे। बात करते-करते बोले कि तुम्हें पढ़कर मैं तुम्हारे अंदर कुछ अध्यात्मिक ऊर्जा का पुट महसूस करता हूं। अचानक उन्होंने कोई ऐसी बात कही जो अक्सर मेरी गुरू माई जी के मुंह से मेरे लिए छूटती थी। मुझे लगा क्या यह कोई इनसाक्लोपीडिया हैं? लग रहा था कि उनके मुंह से जैसे साक्षात सरस्वती झर रही हो। मैं अवाक उनको देखती रही। मैं उनकी बंद आंखें देखकर तय नहीं कर पा रही थी कि क्या इनको आंखों से ठीक से दिखता भी होगा? मेरा फोन नंबर मांगकर वो चले गये। यह मेरा पहली मुलाकात थी युगवाणी के बहाने डा. बर्त्तवाल से। बात आई-गई हो गई। लेकिन यह डा. बर्त्तवाल मेरे दिमाग से नहीं निकले। एक दिन अचानक मैंने इनको घंटाघर में लठ्टी के सहारे भारी भीड़ में सड़क क्रास करते देखा। जिस तरह से अधखुली आंखों से लाठी सड़क पर बजाकर यह सड़क पार कर रहे थे वो भीड़ भाड़ वाले इलाके में भारी हिम्मत का काम था, वो भी गाड़ियों की रेलम-पेल के बीच। फिर एक दो बार मुझे ये यूं ही घंटाघर में अपने ही अंदाज में भोलेपन के साथ घूमते मिले। खैर बात तो मैंने नहीं कि पर डा. बर्त्वाल नाम का यह शख्स मेरे लिए एक अबूझपहेली बन गया कि आखिर ये हैं कौन?
एक महीने बाद अचानक एक दिन डा. बर्त्वाल का फोन आया कि मैं तुमको मिलना चाहता हूं। बोले मैं तुम्हारे घर आ जाता हूं। उनकी शारीरिक अवस्था देख मैंने मना कर दिया। मैंने कहा मुझे अपना पता बता दीजिए मैं खुद आऊंगी। बिना किसी खास परिचय के कहीं आना-जाना मुझे बहुत पसंद नहीं है। ऐसा करते-करते काफी वक्त गुजर गया। डा. बर्त्वाल मुझे फोन कर याद दिलाते रहे। उनके घर जाने से पहले युगवाणी संपादक संजय कोठियाल से मैंने जानकारी ली। भाई जी बोलेयह डा. बर्त्वाल दून अस्पताल के पूर्व वरिश्ठ दृष्टि विज्ञानी हैं। युगवाणी के पुराने लेखक हैं। इनकी एक हजार खूबियां बताकर बोले कि तुमने युगवाणी में सालों ‘यायावर ययाति की पत्र’ श्रृंखला पढ़ी होगी। यह डा. बर्त्तवाल ही लिखते हैं। भाई जी से डा. बर्त्तवाल के बारे में यह जानकर मुझे मेरे हर उस सवाल का जवाब मिल गया, जो मैंने पहली बार उनको देखकर महसूस किया था कि इनको बोलते देखकर लगता है कि मानो इनके मुख से सरस्वती झर रही हो। क्योंकि युगवाणी में छपी यायावर ययाति की वह श्रृंखला साहित्य और पत्रकारिता जगत की अद्भुत कलाकृति है। उसका एक-एक पत्र अपने आप में उस बंदे और उस वक्त की समसामायिक हालतों का जीता जागता दस्तावेज है। फिर मैं मार्च 2019 मेंखुद डा. बर्त्तवाल के घर गई। उनका बेटा गौरव मुझे लेने रिस्पना पुल पर आया। उन्होंने दाल-भात भी खिलाया। अपने बारे में बहुत कुछ बताया। उनके घर में प्रवेष करते ही कई पत्थर की बड़ी-बड़ी मूर्तियां रखी थीं। मैंने पूछा तो डा. बर्त्तवाल ने प्रो. अवतार सिंह पंवार की बनाई उन हिमवंत कवि चंद्रकुंवर बर्त्तवाल की मूर्तियों के बहाने मुझे जो पूरे गढ़वाल का इतिहास, भूगोल, संस्कृति, अर्थव्यवस्था, सभ्यता, टिहरी राजवंश, कला, साहित्य, टिहरी रियासत, टिहरी बांध, नागपुर परगना, जौनपुर रवांईसमेत उत्तराखंड के किस कोने और गांव के बारे न जाने कहां-कहां और किस-किस मुल्क की बातें बताई। वो अपने सोफे में धंसे हुए बस बोले जा रहे थे और मैं चुपचाप उनको सुन रही थी। मैं उनकी जबरदस्त याददाश्त देख दंग थी कि ये तो पूरे के पूरे इनसाक्लोपीडिया हैं गढ़वाल के। गोया वो ऐसे हर विशय पर नॉन स्टॉप बोल रहे हैं जैसे कोई किसी जगह का आंखों देखा हाल बताता है।
मैंने मुख्यमंत्री जी द्वारा मांगी चंद्रकुंवर बर्त्तवाल की कविता के बारे में पूछा जिसने मेरा ध्यान डा. बर्त्तवाल की ओर खींचा था। उन्होंने मुझे चंद घंटों में हिमवंत कवि के जीवन के सब वृतांत ताजा कर दिये। मेरे कौतूहल का ठिकाना न रहा जब उन्होंने बताया कि वह कवि के ही परिवार के हैं। साथ ही कई सालों से यत्नपूर्वक हिमवंत कवि चंद्रकुंवर बर्त्तवाल के साहित्य को संजोने की कोषिष कर रहे हैं- चंद्रकुंवर बर्त्तवाल शोध संस्थान के बैनर तले। मैं थोड़ी देर के लिए आई थी और डा. बर्त्तवाल को सुनते-सुनते मुझे 5-6 घंटे हो गये थे। मैं इस चलते-फिरते अभिलेखागार नुमा अद्भुत बंदे से मिलकर अवाक थी। अब डा. बर्त्तवाल मेरे लिए खास हो गये। युगवाणी लेखक राजेश सकलानी ने बताया कि कुसम ये बंदा जितना बड़ा साहित्यकार है, उतना ही सह्दय इंसान भी है। इसका दिल लोगों के लिए धड़कता है। भाई जी ने कई कहानियां सुनाईं कैसे यह किसी की मदद के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। कैसे इन्होंने चंद्रकुंवर बर्त्तवाल शोध संस्थान स्थापित किया। और भी काफी कुछ! डा. बर्त्तवाल का मानवीय पक्ष सुनकर मेरा आर्कशण और बड़ा। उसके बाद मैंने कई समारोहों में इनका संबोधन सुना। मुझे ताज्जुब होता कि यह एक बंदा इतने विशयों पर कैसे इतनी गहरी पकड़ रखता है?
धीरे-धीरे डा. बर्त्तवाल को और जाना। मेरे हिसाब सेडा. बर्त्वाल की कहानी गढ़वाल की एक महत्वपूर्ण जाति ‘बर्त्तवाल थोकदारों के विकास’ की रोमांचक कहानी है। आप भी सुनिए उनके ही शब्दों में उनकी जीवन यात्रा के कुछ अंश- मैं डा. योगम्बर सिंह बर्त्तवाल रडुवा गांव, नागपुर परगना चमोली का रहने वाला हूं। विश्व प्रसिद्ध हिमवंत कवि चंद्रकुंवर बर्त्वाल हमारे पुरखों में हैं। हम हिमालय के उस भूभाग के वासी हैं, जहां देवता अपनी अदम्य ऊर्जा के साथ आज भी विचरण करते हैं। क्यांकि मैं सोचता हूं कि हिमालय सिर्फ पहाड़, नदियां, चट्टान, घाटियां व ग्लेशियर नहीं है। बल्कि यह एक जीवंत ऊंर्जा है। वही जींवत ऊर्जा हिमवंत कवि चंद्रकुंवर बर्त्वाल की कविताओं में प्रकट हुई है। तभी तो 28 साल की अल्पायु में शरीर छोड़ने से पहले वह कालजयी रचनाओं का अनमोल उपहार दुनिया को दे गये। कवि की लिखी पातियां आज भी हमारी प्रज्ञा चक्षु व प्रज्ञा प्रहरी हैं। कवि के बारे मेंहिंदी के जाने-माने समीक्षकों का कहना है कि ‘हिमवंत कवि चंद्रकुंवर बर्त्वाल ने डा. नामवर सिंह और कविवर सुमित्रानंदन पंत को पीछे छोड़ दिया है। वह कविता की सॉनेटविधा के पहले कवि हैं। यदि चंद्रकुंवर बर्त्वाल भारत की जगह इंग्लैंड में पैदा होते तो वह जॉन कीट्स होते और जॉन कीट्स हिंदुस्तान में होते तो वह चंद्रकुंवर बर्त्तवाल होते।’ ऐसे चंद्रकुंवर बर्त्वाल के परिवार से होने के नाते हमारी सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारियां कुछ ज्यादा ही हैं। मैंने बचपन से ही अपने पिता को बात-बात पर चंद्रकुंवर की कविताओं को गुनगुनाते सुना था। जब मैं बड़ा हुआ तो पता चला कि हम बर्त्वाल थोकदार हैं। मैं सोचता था कि हम किसके थोकदार हैं और कैसे थोकदार हैं? धीरे-धीरे मैंने जाना कि हमारा क्या इतिहास है और हमारी जड़ें कहां हैं?डा. बर्त्तवाल ने बहुत विस्तार से मुझे अपने पुरखों की कहानी और इतिहास बताया। वह बोले हमभगवान तुंगनाथ के उपासक हैं। इस वजह से मैं अपने नाम के आगे डा. योगम्बर सिंह बर्त्वाल ‘तुंगनाथी’ लिखता हूं।हमारे वंष में उच्च कोटि के सैनिक, वैद्य, अध्यात्मिक शक्ति संपन्न लोग, कवि, लेखक, आर्यसमाजी, मानचित्रकार, अध्यापक, डाक्टर आदि हुए हैं।
इसी वंश में रडुवा गांव में मेरा जन्म सन् 1948 में हुआ। मेरे पिता विजय सिंह बर्त्वाल और मां श्रीमती कस्तूरा देवी थीं।पिता लोक साहित्य और जनइतिहास के बड़े जानकार थे। मेरी प्रारंभिक षिक्षा गांव के प्राईमरी स्कूल और जूनियर हाईस्कूल में इुई। मैंने हाईस्कूल राजकीय हायर सैंकेडरी नागनाथ से किया। इंटरमीडिएट परीक्षा 1966-68 में राजकीय इंटरमीडिएट कालेज गमसाली छिनका से दी। पढ़ाई पूरी कर मैंने दूरदर्शी विकास पुरुष राजनैतिज्ञ नरेंद्र सिंह भंडारी के लखनऊ से निकलने वाले साप्ताहिक समाचार पत्र ‘‘सरहदी’’ के प्रकाषन व संपादन में सहयोग दिया। नरेंद्र सिंह भंडारी जी के सानिध्य ने मेरे जीवन को एक नई दिशा और स्थायित्व दिया।सन्1970 में मेरी नियुक्ति भारत में क्षय रोग उन्मूलन अभियान के अन्तर्गत बी.सी.जी. प्रविज्ञ के पद पर हुई। मैंने उत्तरकाशी जनपद में 1970 से 1981 तक सेवाएं दीं। मैंने क्षय रोग उन्मूलन हेतु गांव-गांव भ्रमण किया। मैं अपनी नौकरी बड़ी ईमानदारी व कर्तव्यनिष्ठा से करता था। मैंने काम के दौरान पूरा जौनपुर, रवांई, जौनसार और भाबर का चप्पा-चप्पा छान मारा। कुछ तो मेरा काम के प्रति समर्पण भाव था कि किसी तरह से मैं दूर-दराज के इलाकों में पहुंचकर लोगों को क्षय रोग से मुक्ति में अपनी सेवा दे सकूं और दूसरा मेरे मन में उस सुंदर इलाके को जानने की उत्कंठा थी। मैं जब पलटकर देखता हूं तो लगता है इन्हीं सालों की मेरी सेवा ने मुझे साहित्य की ओर मोड़ा। इस दौरान के अनुभवों ने मुझे एक साहित्यकार के तौर पर परिपक्व किया। मैंने चमोली की नीति माणा घाटी से मंदाकनी घाटी, अलकनंदा घाटी, भिलंगना घाटी, भागीरथी घाटी, यमुना घाटी, टौंस घाटी से लेकर पावर घाटी के जुब्बल कोट खाई के 1500 गांवों का पैदल भ्रमण किया। इन सालों में मैंने टिहरी गढ़वाल, उत्तरकाशी, चमोली और हिमाचल प्रदेश के रीति रिवाजों, रहन सहन, खेती बाड़ी, खान पान, जन जीवन, परंपराओं, धार्मिक परंपरओं, इतिहास भूगोल, अर्थव्यवस्था, संस्कृति और सभ्यता, शिक्षा दीक्षा, आजीविका के तौर तरीकों व साधनों और राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक विकास के बारे में वहां के परिवेश, पर्यावरण व परिस्थितियों का खाका व महीन ताना-बाना बारीकी से समझा। मेरा संवेदनषील और खोजी मन यहां की खुबसूरत वादियों व उत्तुंग शिखरों में यहां के भोले-भाले लोगों का सानिध्य पाकर अंदर से गदगद होता गया। मैं जितना खाली और रीते मन से यहां आया था, जाते वक्त मैं उतना ही परिपक्व और अंदर से भरा पूरा था। यह मेरे जीवन के सबसे सुंदर दिन थे-ठीक उसी तरह से जैसी खुबसूरती खुद में रवाईं, जौनसार, जौनपुर, चमोली और महासू की वादियां में है। यहां के सीधे-साधे लोगों की सरलता ने मेरे मन में सेवा की भावना को और कूट-कूटकर भर दिया था।
कुसुम जैसे-जैसे मेरा मन स्थानीय ज्ञान संपदा के अकूत भंडार से भरता गया वैसे-वैसे मेरी कलम ने तेज गति से चलना शुरू किया। मैंने इस दौरान इन क्षेत्रों की सामाजिक, राजनैतिक, पर्यावरणीय और अन्य समसामायिक मुद्दों पर पत्र-पत्रिकाओं में खूब लिखा। इसी बीच जून 1970 में बड़कोट क्षेत्र में बड़ी भयंकर महामारी फैली। उसकी रोकथाम में मैंने अपना सर्वस्व झोंक दिया। सेवा का यह अनुभव मेरे जीवन के यादगार दिनों का एक खुबसूरत पन्ना है। मेरे कामों को स्थानीय लोगों ने सराहा। मैं बहुत संतुष्ट था कि मुझसे लोगों के जीवन को बचाने के लिए जो हो सकता था वह सबकुछ अपने सीमित संसाधनों और योग्यता के बूते मैं कर पाया। बाद में इस घटनाक्रम पर मैंने एक लेख ‘रवांई महामारी के 33 दिन’ लिखा। यह लेख से कहीं ज्यादा एक भावुक करने वाला संस्मरण था। इस बीच मैंने हरकीदून, मांझीबन, जुब्बल, कोटखाई, लाखामंडल, केदारकांठा आदि स्थानीय महत्व के विशयों पर भी कलम चलाई। इत्तफाकन मेरे लिखे विषयों को पत्र-पत्रिकाओं में खूब जगह मिली। यहां रहकर मेरी ऐतिहासिक विषयों और घटनाक्रमों के बारे में जानकारी पुख्ता होती गई। मैंने लाखामंडल और तिलाड़ीकांड समेत कई ऐतिहासिक घटनाक्रमों पर भी अपनी कलम चलाई।
इस दौरान मैंने लंबगांव, टिहरी गढ़वाल की लालघाटी समेत कई दूर दराज के इलाकों में भ्रमण किया। मैं महासू देवता के क्षेत्र, दुर्योधन, कर्ण, लवकुश कुंड, राम मंदिर, कलाट गांव की गुफा जैसी पौराणिक महत्व की जगहों पर खूब घूमा और इन ऐतिहासिक महत्व की जगहों को मैंने अपने लेखों में पिरोने की कोशिश की। कलाट गुफा बहुत ही ऐतिहासिक महत्व की जगह है और इसका वर्णन श्री मद्भागवत के अंतिम अध्याय के 27,30,31 वें श्लोक में किया गया है। इस दौरान मेरे अंदर की लेखकीय प्रवृति पूरी तरह हिल्लोरें मार रही थी। यहां के सुरम्य वातावरण ने मुझे लिखने के लिए एक ऐसे उर्वरा खेत की भूमि दी जिस पर मेरे बंजर मन का मयूर अनायास ही नाच उठा। मैं ईष्वर का बार-बार शुक्रिया अदा करता हूं कि उसने मुझे जीवन के ये बेहतरीन साल उपहार में दिये जिन्होंने मुझे हमेशा-हमेशा के लिए अंदर से भिगो दिया। इस अवधि में मैंने एक कविता संग्रह लिखा जिसे अभी प्रकाशित होना है। साथ ही ‘अपराजिता’ नाम से एक कहानी संग्रह मेरी इसी अवधि की देन है। इस कहानी संग्रह की कुछ दिलचस्प कहानियां चांदी के रूपये, अपराजिता, यक्षमा, मोतिया प्रकाषित हुई हैंं। बाकी मैंने पांडुलिपि रूप में अभी प्रकाशन हेतु सालां से रखी हैं।
उत्तराखंड राज्य आंदोलन के समय डा. बर्त्तवाल देहरादून से प्रकाशित होने वाले दैनिक हिमालय दर्पण में नियमित एक स्तंभ ‘मंगसीरू उत्तराखंड में’ नाम से लिखते थे। बाद में उसका संकलन ‘मंगसीरू उत्तराखंड में’ नाम से प्रकाशित हुआ। यह एक बेहतरीन किताब है। पुस्तक का कथ्य बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक का कालखंड है, जिसमें उत्तराखंड का समवेत जनमानस उद्धेलित, आक्रोशित और अपने हिस्से की विकास की धूप का मांगने को संघर्शरत है। लेखक ने अपनी पूर्णता में इस कालखंड को जिया है इसलिए यह एक कालजयी दस्तावेज का आभास भी देता है। मंगसीरू आम उत्तराखंडी का प्रतीक है। जिसकी जिजीविषा कभी नहीं मरती। वह अपनी अस्मिता से खिलवाड़ बरदाश्त नहीं करता और भोले के कैलाश की भांति दृढ़ और प्रज्ञावान भी है। इसकी हर कहानी बड़ी लाजवाब है। इन कहानियों में समय के हिसाब से पुरानी कहानियों और किस्सों को वर्तमान राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक हालतों के साथ बड़ी ही खुबसूरती से मंगसीरू नामक काल्पनिक पात्र के माध्यम से पिरोया गया है।
डा. बर्तव्वाल की दूसरी पुस्तक ‘यायावरययाति के पत्र’ ने मुझे बहुत प्रभावित किया। यायावार ययाति नाम से युगवाणी पत्रिका में बरसों लेखक ने देश के प्रमुख राजनेताओं, चिंतकों, विचारकों, लेखकों को लगभग 60 पत्र लिखकर आम जनता की पीड़ा, शब्दों व उस काल खंड की सभी परिस्थितियों को सार्वजनिक किया। इस पुस्तक के बारे में काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी के प्रो.वशिष्ठ अनूप का कहना है कि उत्तराखंड में प्राचीन काल से अब तक संस्कृत, अंग्रेजी व हिंदी में अनेक पौराणिक, ऐतिहासिक एवं साहित्यिक गं्रथों की रचना हुई है। पत्रकारिता में अनेक उत्कृष्ट पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ है। इस कड़ी में ‘यायावर ययाति के पत्र’ पुस्तक रूप में पाठकों के सामने आई है। यह संकलन नई विधा का दस्तावेज है।
यहां उल्लेखनीय है कि डा. बर्त्तवाल मुख्यमंत्री तिवारी जी के नजदीकी लोगों में रहे हैं। नजदीकियां होने पर भी वह अपने पत्रकारिता धर्म से नहीं चूके। मैंने जब डा. बर्त्वाल से इस प्रकरण पर पूछा तो वह मुस्कराकर बोले मुझे तलब किया गया पुस्तक छपने से पहले ही। मैंने अपना सत्य निर्भीकता से रखा। तिवारी जी ने सुना। मैं पुस्तक के विमोचन हेतु तिवारी जी को न्यौता देने गया। तिवारी जी ने कहा अरे तुम पुस्तक का विमोचन बाहर क्यों करते हो? मेरे यहां ही करो। क्यों और कहां से तुम अपने 250-300 लोगों की चाय का खर्च उठाओगे यायावर! पुस्तक का विमोचन तिवारी जी के लॉन में हुआ। उन्होंने सबको खाना खिलाया और खुद पुस्तक की 10 प्रतियां खरीदीं। इस पुस्तक के प्रकाशक युगवाणी संपादक संजय कोठियाल डा. बर्त्तवाल को याद कर कहते हैं कि ‘इन पत्रां की खूबी थी कि जिस महानुभाव के लिए पत्र लिखा जाता था वह व्यक्ति भी पढ़कर सन्न रह जाता था कि आखिर इतनी जानकारियां उसके बारे में कहां से हासिल हुईं। पत्रों की खूबी है कि हल्के-फुल्के व्यंग में गंभीर बात कहना और उसकी पूरी पोट पट््टी खोल देना। श्री बर्त्वाल की ख्याति महज यायावर ययाति के रूप में नहीं थी, बल्कि वह हम पढ़ने-लिखने वालों के लिए एक डिक्शनरी, इनसाइक्लोपीडिया, संदर्भ व्यक्ति या यूं कहो तो चलता फिरता अभिलेखागार थे। पहाड़े के नदी-नालों, खड््डे-खालों, गांव-चौपालों और लोग-बागों की तमाम सामाजिक-राजनैतिक जानकारी उनको कंठस्थ थीं। हम जब कभी फंसते तो हमारे पास डा. बर्त्वाल के अलावा कोई और विकल्प नहीं होता था। 25 सालों में लिखी गई चिठियों का एक पुस्तक के तौर पर प्रकाशन युगवाणी के लिए गौरव की बात है। स्व. विश्वम्भर दत्त चंदोला, भैरव दत्त धूलिया, बदरीदत्त पांडे और आचार्य गोपेश्वर कोठियाल की पंरपरा को आगे बढ़ाने वाले इस सषक्त हस्ताक्षर को युगवाणी कभी नहीं भूल सकती।
डा. बर्त्वाल के लेख व पत्र युगवाणी, पर्वतवाणी, शैलोदय, जय उत्तराखंड वीर, उत्तरांचल, उत्तराखंड शक्ति, पीयूष, पर्वतजन, लोकगंगा, नया जमाना, सरहदी, दिनमान जैसी पत्रिकाओं व अखबारों में छपती रहीं। साथ ही सरकारी प्रकाशनों देवभूमि दर्शन और उत्तरांचल दर्शन में भी इनको खूब जगह मिली। इन्होंने एम.ए. राजनीति षास्त्र तथा एल.एल.बी. श्रीनगर गढ़वाल से किया। सेवा के दौरान ही 1972 में डा. बर्त्तवाल ने भारतीय पत्रकारिता विद्यापीठ नई दिल्ली से पत्रकारिता का डिप्लोमा लिया। यह डिप्लोमा करने वाले वह उत्तराखंड के पहले व्यक्ति थे। इस कालेज के प्रधानाचार्य बांके बिहारी भटनागर थे, जो प्रेमचंद्र की पत्रिका ‘सरस्वती’ के संपादक रहे थे। इस विद्यापीठ में पढ़ाने केन्द्रीय रेलमंत्री डा. राम सुलभ सिंह, कानून मंत्री राजा दिनेश सिंह, लोक सभा सदस्य सेठ गोविंद दास विजिटिंग प्रोफेसर के तौर पर आते थे। उन्हीं लोगों से पत्रकारिता के गुर सीखकर डा. बर्त्वाल ने आम पत्रकारों से हटकर एक नई विधा में लेखन की षुरूआत की होगी। दृष्टि विज्ञान में पढ़ाई करते हुए डा. बर्त्वाल को इंस्टीट््यूट ऑफ आप्टोमैटरी में ओ.डी. की उपाधि मिली। दृष्टि विज्ञानी के तौर पर डा.बर्त्तवाल ने अनगिनित लोगों को नेत्रदान हेतु प्रेरित करके गुप्त सेवा की। यह ऑप्टोमैट्रिस्ट एसोशिएसन उ.प्र. के उपाध्यक्ष, उत्तराखंड बनने के बाद अध्यक्ष और बाद में इसके संरक्षक भी रहे।
डा. बर्त्वाल सेवाकाल में सिहत्य, कला, संस्कृति, इतिहास, पत्रकारिता से घनिष्ट तौर पर जुड़े रहे। यायावत ययाति सिर्फ अपनी लेखनी के लिए ही नहीं बल्कि गुपचुप सेवा के लिए भी याद किये जायेंगे। लेखक राजेष सकलानी ने उनके बारे में लिखा है कि ‘मुझे याद है यायावर तुम किसी स्वास्थ्य कार्यक्रम के दौरान पुरोला से 80 किमी. दूर सुन्दर गांव खरना के कुछ कुष्ठ रोगियों को दवा बांटने पैदल गये थे। वहां एक गरीब कुष्ठ रोगी दंपति और चंखा सिंह की खराब हालत देखकर तुम कई दिन उनकी झोपड़ी में रहे। तुम्हारे बाकी साथी तुम्हें वहां अकेला छोड़ गये। पर तुमने मानवता की सर्वोच्च पराकाष्ठा को शिरोधार्य मानकर उनके साथ रहना मंजूर किया। उनके लिए खाना पीना बनाया। तुम वहीं खा पीकर सो जाते। वो भी ऐसे हालत में जब सारा गांव वाले इन लोगों को अकेले छोड़कर छानियों में चला गया था। तुमने आवाज मारकर पूछा था कि क्या कोई गांव में है? उनके हाथ कुष्ठ रोग की तीव्रता से मुड़े थे। वो अपनी पतीली भी पकड़ नहीं सकते थे। बारिष के कारण उनके चूल्हों की आग बुझ चुकी थी। उनके पास आग नहीं थी। परिवार दो दिन से भूखा था। तुम सच में यायावर हो मेरे यार तुमने अपने झोले से स्प्रिट लैंप, चाय-चीनी निकाली। आग जलाई। कड़ी ठंड में उनको चाय पिलाई। कहीं से सूखी लकड़ी जमा की। रोटी बनाकर खिलाई। उनको दवा दी। उनकी ही झोपड़ी में उन्हीं के कंबल में सो गये। कुछ दिन बाद उनको जरूरी हिदायतें देकर तुम दूसरे गांव की तरफ चल पड़े- चंखा सिंह और उस दंपति को आंसुओं की बहती धार के बीच हमेशा-हमेशा के लिए ईश्वर के मन में अपनी सर्वोच्च जगह बनाकर। तुम कमाल के हो मेरे दोस्त!यायावर ययाति मैं सोचता हूं यदि नेहरू जी की पंचवर्षीय योजनाओं को तुम्हारी तरह सभी सरकारी कर्मचारियों ने ऐसे ही चलाई होतीं तो सरकारी महकमा कभी असफल नहीं होता। ऐसी सैकड़ों घटनाएं हम जानते हैं जब तुम लोगों की जिंदगी बचाने को अधिकारियों से मिलते हो।
डा. बर्त्तवाल नौकरी ही नहीं करते थे, बल्कि इन्होंने इस दौरान अनेक विषयों को विस्तार दिया। ललित लेखन, यात्रा वृतांत, पत्रविधा में लेखन, हिमवंत काव्य विषयक लेखन, दृश्टि विकास, कला एवं संस्कृति पर लेखन के साथ आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से इनके आलेखों का प्रसारण होता रहा। मेरी पहली मुलाकात तक डा. बर्त्तवाल की 7 किताबें प्रकाषित हो चुकी थीं। यथा- लो विजन एंड डिवाईसेस, रोल ऑफ ऑप्टोमैट्रिस्ट इन प्रिवेंशसन ऑफ ब्लांईडनेस, चंद्रकुंवर बर्त्तवाल का जीवन दर्शन, नेत्रदान, मंगसीरू उत्तराखंड में, यायावर ययाति के पत्र, हिमवंत काव्य उन्नयन शंभु प्रसाद बहुगुणा।
नियति के विचित्र संयोग के चलते 2020 में एक दिन डा. बर्त्तवाल मेरे घर आए कि मेरी 40 साल की साधना को लिपिबद्ध करने का काम तुम्हें पूरा करना है। यह काम 30 सालों से अधूरा पड़ा है। मैं जानता हूं तुम ही इसे कर सकती हो। मेरे साफ मना करने पर भी कि मैं हिंदी जगत से नहीं हूं। मेरे लिए संभव न होगा। सिर्फ आपकी जिदद और मेरे घर के एक 6 साल के बालक विभु रावत के षब्दों- तुम बहुत बुरी हो। देखो वह कितनी बार बोल रहे हैं। उनकी गर्दन में तकलीफ है। वह हमारे घर बार-बार आकर तुमको कहते हैं। उन्होंने हमको चंद्रकुंवर जी की किताब का उपहार दिया है, ने मुझे मजबूर किया। बाद में मैंने डा. बर्त्तवाल की दो अंतिम अति महत्वपूर्ण पुस्तकों ‘विकास पुरूष नरेंद्र सिंह भंडारी’ और ‘चंद्रकुवंर बर्त्तवाल संपूर्ण काव्य साहित्य’ की फ्रूफ रीडिंग एवं संपादन का बेहद कठिन कार्य किया। इस दौरान डा बर्त्तवाल को और नजदीक से जानने का मौका मिला। ऐसे भी मौके आये कि उनसे कई मुद्दों पर सैद्वांतिक मतभेद हुआ। डा. बर्त्तवाल के अंदर एक खूबी थी कि वह अपनी गलती मानकर स्वीकार कर आगे बढ़ने की पहल करते। मुझे उनके इस गुण ने बहुत प्रभावित किया। डा. बर्त्तवाल ने मुझसे अपनी आने वाली कई पुस्तकों पर चर्चा कर उन पर काम करने का वायदा लिया था। पर क्या मालूम था कि अचानक 28 अगस्त 2023 को वह अचानक एक कहानी बनकर प्रकाशित होंगे। वह अक्सर कहते थे जब मैं नहीं रहूंगा तो तुम तो जरूर मुझपर कहानी लिखोगी।
यायावर ययाति! आप कुछ जल्दी ही चले गये। अभी तो आपको मेरे साथ बहुत काम काम करना था। आपकी लंबी चौड़ी योजना मेरे दिलो दिमाग में कैद है, जिसका जिक्र आप हर 6-7 दिन में आने वाले फोन पर करते थे। अस्पताल जाने से पहले की रात आपने रात 9 बजे फोन किया। उस रात आप बहुत उदास थे। बार-बार मिलकर हमेशा की तरह अपनी कथा-व्यथा सुनाने का आग्रह कर रहे थे। पिछले एक साल से आपसे मुलाकात नहीं हुई थी। मैंने अगले दिन मिलने को कहा तो तेज बारिश के चलते मिल न सकी। उस रात आप फोन पर रोये। क्यों? अगले दिन आपके अस्पताल जाने की खबर ने मुझे हिला दिया। फिर आई खबर आपकी अपने अजीज कवि चंद्रकुंवर के लोक में पहुंचने की। हम सन्न रह गये। यायावर ययाति सभी को एक दिन जाना ही होता है। इसलिए मैं आपके लिए शोक के बजाय आपके साथ बहुत कम समय में मिले महत्वपूर्ण और सार्थक वक्त को याद करना चाहूंगी। आपने मुझे चंद्रकुंवर सरीखे कई महान चरित्रों से मिलाकर बड़ा उपकार किया। आपने कवि चंद्रकुंवर बर्त्तवाल नामक दिव्य पुरूष को रोशन करने को जो हो सकता है वह किया। यह एक बड़ी साहात्यिक साधना है। इसका मूल्यांकन अभी होना बाकी है।
यायावर ययाति तुम्हारे इस निस्वार्थ और अप्रतिम साहित्यिक योगदान को महसूसकर मैं निश्चित तौर पर कह सकती हूं कि जबतक हिमवंत कवि चंद्रकुंवर बर्त्ववाल जिंदा है, उनकी कविताओं के स्वर ब्रहमांड में गूंजेंगे तब तक यायावर ययाति तुम भी कभी दुनिया की नजरों से ओझल नहीं होंगे। तुमने अपनी नेकनीयती से ही अनजाने में अपने को अमर बना दिया है यायावर ययाति, क्योंकि चंद्रकुंवर बर्त्वाल सरीखी प्रतिभाएं मरती नहीं हैं।यायावर! शायद इस नेक काम हेतु भी तुम ही नियति का चुनाव थे? मैं आपकी आभारी हूं कि अपनी दो महत्वपूर्ण पुस्तकों के संपादन का सहयात्री बनाकर आपने मुझे चंद्रकुंवर के बहाने जीवन का एक पाथेय दिया। इस पर फिर कभी बात करूंगी। मैं आपको बार-बार कहती थी- भाई जी प्लीज अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखो।क्योंकि आपका यह नेक जीवन बहुत काम का है। आपने मुझसे अपनी आत्मकथा लिखने को कहा था कि कुसुम यह तो तुम ही लिखोगी। मैं न आपको गहराई से जानती थी, न पहचानती थी पर आपकी जिद््द ने आप जैसे नेक बंदे पर थोडे आखर लिखवाकर मुझे हमेशा के लिए अपना ऋणी बना दिया है। आप जैसे नेक बंदे पर लिखना मेरे लिए फख्र की बात है यायावर ययाति! पर मुझे ताउम्र अफसोस रहेगा कि ऐसी क्या कथा-व्यथा थी आपके मन में जो आप पिछले कई महीनों से सिर्फ मुझसे ही लगाना चाहते थे। इसके बारे में किसी को कुछ पता नहीं और क्यूं आपने आखरी फोन काल पर आंसू गिराये? आपके परिजनों से मेरी बात हुई पर किसी को कुछ पता नहीं? खैर आपसे एक बहुत छोटी मगर अर्थपूर्ण मुलाकात के लिए आपका आभार। मैं आपकी कहानी पत्र-पत्रिकाओं में छपे यह वादा मैं पूरा कर रही हूं। अब तो आप जरूर मुस्करा रहे होंगे कहीं बादलों के बीच। आपके कहे छूटे कामों में बर्त्तवाल परिवार को जो भी सहयोग बन पड़ेगा मैं वह जरूर करूंगी यह मेरा आपसे वादा है भाई जी! विभु ने सही कहा था कि आपने चंद्रकुंवर जी से मिलाकर हम पर उपकार ही किया है।
अद्भुत दैवीय प्रतिभा के धनी यायावर ययाति आपको मेरा विनम्र नमस्कार!