“हमारा उत्तराखंड के डायनामिक मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी से निवेदन है कि आप उनके वोट की चिंता न करें, क्योंकि ये लोग बीजेपी को वोट देने वाले नहीं हैं। और जो पूरा का पूरा एक करोड़ उत्तराखंड का हिंदू है वह आपको आशीर्वाद देने खड़ा है और दिया भी है। उन सभी हिंदुओं की डिमांड को आप सुनिये। हिंदुओं की डिमांड है कि हम पवित्र उत्तराखंड को अपवित्र नहीं होने देंगे। जो इलीगल मजारें हैं, इलीगल मस्जिदें हैं उनको उखाड़ फेंकिए, ये ही आज के हिंदुओं की डिमांड है।” यह दक्षिण के राज्य तेलंगाना से उत्तरकाशी आये भाजपा के घोर सांप्रदायिक विधायक राजा सिंह उर्फ ‘टाइगर’ के भाषण का अंश है, जो उन्होंने 1 दिसंबर, 2024 को उत्तरकाशी में हिंदू संगठनों के आहूत ‘हिंदू महापंचायत’ में दिया था। उनका यह वक्तव्य न तो अनायास दिया गया है और न बहुत चौकाने वाला। राजा सिंह इस समय भाजपा की नफरत भरी राजनीति के ब्रांड एबेंसडर हैं। उन्हें इस तरह की ‘महापंचायतों’ में सांप्रदायिक उन्माद फैलाने के लिए जान बूझकर भेजा जाता है। उनका यह भाषण एक खास रणनीति के तहत दिया गया है, क्योंकि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ‘लैंड जेहाद’, ‘लव जेहाद’, ‘मस्जिद जेहाद’, ‘मजार जेहाद’ ‘थूक जेहाद’ जैसे जुमलों का अपने भाषाणों में लगातार प्रयोग कर रहे हैं। इस तरह के प्रयोग अब अपेक्षाकृत शांत माने जाने वाले इस पर्वतीय राज्य में सांप्रदायिक उन्माद की आग को सुलगाने के लिए माचिस की तीली का काम कर रहे हैं।
उत्तराखंड में दक्षिण से कई लोगों का आना रहा है, जिन्होंने यहां के समाज को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सत्तर के दशक में केरल से स्वामी मन्मथन गढ़वाल में आये उन्होंने यहां के शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए गढ़वाल विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए चले आंदोलन में न केवल नेतृत्वकारी की भूमिका निभाई, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। महिला सशक्तीकरण, शराबबंदी और बलि प्रथा को बंद कराने की उनकी पहल को लोग याद करते हैं। इसके बिल्कुल उलट भाजपा-संघ अब उन लोगों को उत्तराखंड में पोषित कर रही है, जो नफरत फैलाने और सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने के लिए कुख्यात हैं। इसे एक घटना या एक व्यक्ति के बयान के साथ नहीं, बल्कि पिछले पांच-सात सालों से उपजी उन घटनाओं के साथ देखा जाना जरूरी है, जिन्होंने एक खास रणनीति के तहत सांप्रदायिकता को अपनी राजनीति का हथियार बनाया है। उत्तरकाशी में 1 दिसंबर, 2024 को तथाकथित हिंदू संगठनों ने एक ‘हिंदू महापंचायत’ का आयोजन किया था। प्रशासन ने कुछ शर्तो के साथ इस महापंचायत को करने की अनुमति दी थी। इसकी वजह यह थी कि इससे पहले 24 अक्टूबर, 2014 को उत्तरकाशी में एक बड़ी महापंचायत का ऐलान किया गया था। सरकार और स्थानीय प्रशासन की शह पर इसे होने दिया गया। इस महापंचायत में जुटे हजारों लोगों ने उग्र प्रदर्शन किया। आपात्तिजनक नारे लगाये, पत्थरबाजी की। बाद में पुलिस को लाठी चार्ज करना पड़ा। मुख्यमंत्री और स्थानीय प्रशासन से इस महापंचायत को अनुमति न दिये जाने की अपीलों के बावजूद यह रैली की गई और इसमें जिस तरह का विषवमन किया गया वह उत्तराखंड के मुख्यमंत्री और भाजपा के सांप्रदायिक एजेंडे को बताने के लिए काफी है। हिंदू संगठन यहां बन रही उस मस्जिद का विरोध कर रहे थे, जो 1969 से वहां पर अस्तित्व में थी। प्रशासन ने भी इसे वैध माना था। बावजूद इसके मुख्यमंत्री और प्रशासन ने इस आग को भड़काने का काम किया। इस महापंचायत के माध्यम से वह पूरे प्रदेश में ‘देवभूमि’ को ‘अपवित्र’ होने और ‘विधर्मियों’ से बचाने का संदेश भी देना चाहते थे। एक हद तक वह अपने इन प्रयासों में सफल भी हुये हैं।
दरअसल, उत्तराखंड में पिछले एक दशक से सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने की साजिशें शुरू हो गई थी। जब से भाजपा देश और उत्तराखंड की राजनीति में ताकतवर हुई, उसने स्वयं और अपने आनुषांसिक संगठनों को इस काम पर लगा दिया। इसे कुछ घटनाओं से समझा जा सकता है। पौड़ी जनपद के एक छोटे से कस्बे सतपुली में जुलाई 2017 को पहली घटना प्रकाश में आई। यहां एक पंद्रह वर्षीय नाबालिक मुस्लिम लड़के ने फेसबुक पर केदारनाथ से संबंधित एक आपत्तिजनक पोस्ट सोशल मीडिया में डाली। इसकी प्रतिक्रिया में हिंदुवादी संगठनों के आह्वान पर लोगों ने उसके परिवार की दुकानों में तोड़फोड़ की। लड़के की गिरफ्तारी और उसे बाल सुधारगृह भेजे जाने पर भी उसके परिवार और वहां रह रहे मुस्लिम परिवारों को बख्शा नहीं गया। इसके बाद एक बड़ी घटना रुद्रप्रयाग जनपद के अगस्त्यमुनि में घटी। यहां अप्रेल, 2018 को एक फर्जी वीडियो के लीक होने से भारी सांप्रदायिक तनाव फैल गया। सोशल मीडिया में वायरल इस वीडियो में कथित तौर पर दावा किया गया कि इसमें एक मुस्लिम व्यक्ति ने हिंदू लड़की से बलात्कार किया है। इस वीडियों के वायरल होने के बाद मुस्लिम व्यापारियों की डेढ़ दर्जन से ज्यादा दुकानों को जला दिया गया। जांच के बाद यह वीडियो फर्जी पाया गया।
उत्तरकाशी के पुरोला की घटना तो पूरे देश में चर्चा का विषय बन गई। यहां 26 मई, 2023 को दो युवकों द्वारा एक 14 वर्षीय लड़की के अपहरण की अफवाह से सांप्रदायिक उन्माद भड़का। इस खबर के बाद पुरोला नफरतियों के निशाने पर आ गया। तथाकथित हिंदूवादी संगठन ‘देवभूमि रक्षा संगठन’ ने शहर में एक पोस्टर चस्पा कर दिया जिसमें लिखा था- ‘लव जिहादियों को सूचित किया जाता है कि 15 जून, 2023 तक होने वाली महापंचायत से पहले अपनी दुकानें खाली कर दें। अगर ऐसा नहीं हुआ तो आगे वक्त पर निर्भर करेगा।’ इस घटना के बाद मुसलमानों के घरों में हमला बोला गया। तोड़फोड़ की गई। बड़ी संख्या में मुस्लिम कारोबारियों को अपना काम छोड़कर भागना पड़ा। इस मामले में दो लोग नामजद थे, जिसमें एक का नाम जुबेद खान था, दूसरा जितेंद्र सैनी। लेकिन इस पूरे मामले में जुबेद का नाम ही लिया जाता रहा। कई हफ्ते जेल में रहने के बाद अदालत ने दोनों को बरी कर दिया।
चमोली जनपद के नंदाघाट में सितंबर, 2024 को भारी सांप्रदायिक तनाव शुरू हो गया। यहां आरोप था कि नाई की दुकान चलाने वाले एक मुस्लिम युवक ने नाबालिक लड़की से छेड़छाड़ की। लड़की के पिता के पुलिस से शिकायत करने के बाद यह युवक भाग गया। आरिफ खान नाम के इस युवक को पुलिस ने बिजनौर से गिरफ्तार भी कर लिया। इस घटना के बाद नंदानगर जैसा छोटा कस्बा पूरी तरह से सांप्रदायिकता की आग में झुलस गया। यहां के मुस्लिम परिवारों के घरों पर हमला बोला गया। अस्थाई मस्जिद को भी नुकसान पहुंचाया गया। हिंदू संगठनों ने जबरन तीन दिन तक बाजार बंद करवाये। इस घटना के विरोध में तो जिला मुख्यालय गोपेश्वर के रामलीला मैदान में ‘हनुमान चालीसा’ का पाठ भी किया गया। ‘हनुमान चालीसा’ सांप्रदायिक शक्तियों का नया हथियार है। चमोली जनपद की इस घटना के बाद रुद्रप्रयाग जिले के कई गांवों के बाहर में 8 सितंबर, 2024 को नोटिस लग गये जिनमें लिखा था- ‘गांव में गैर हिंदू/रोहींग्या मुसलमानों और फेरीवालों का गांव में व्यापार करना/घूमना वर्जित है।’ बाद में प्रशासन के हस्तक्षेप के बाद इस नोटिस की भाषा बदली गई और लिखा गया कि बाहरी लोगों का गांव में आना मना है। उल्लेखनीय यह है कि ये सभी नोटिस एक जैसे छपे थे और इस अभियान को ‘विश्व हिंदू परिषद’ का समर्थन प्राप्त था।
गढ़वाल में अक्टूबर, 2024 तक इस तरह की सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने वाली घटनायें होती रही हैं। टिहरी जनपद के कीर्तिनगर में एक नाबालिक के धर्मांतरण और अपहरण के मामले को लेकर हिंदू संगठनों ने मुस्लिमों की दुकानों में ताड़फोड़ की। चमोली जनपद के थराली में एक नाबालिक लड़की के साथ दुष्कर्म कर उसका अश्लील वीडियो सोशल मीडिया में वायरल करने वाले युवक की गिरफ्तारी के बावजूद इसे सांप्रदायिक रंग दिया गया। चमोली जनपद के ही गोचर में स्कूटी खड़ी करने को लेकर हुए विवाद को सांप्रदायिक रंग दिया गया। गोचर में मुसलमानों की दुकानों में ताड़फोड़ की गई।
उल्लेखनीय है कि इन सभी घटनाओं के बीच उत्तराखंड में बड़ी संख्या में ऐसी जनविरोधी काम हुए हैं, जिनमें भाजपा-संघ के पदाधिकारी शामिल हैं। पौड़ी जनपद के यमकेश्वर में 19 सितंबर 2022 को रिसार्ट में काम करने वाली युवती अंकिता की हत्या हो गई। अंकिता का हत्यारा संघ के पदाधिकारी और राज्य सरकार में राज्यमंत्री दर्जाधारी विनोद आर्य का बेटा पुलकित आर्य था। इस बहुचर्चित मामले में एक वीआईपी के होने की बात सामने आई है। बताया जाता है कि वह वीआईपी भी संघ-भाजपा का पदाधिकारी है, इसलिए सरकार उस पर लीपापोती करने में लगी है। उत्तराखंड के बहुचर्चित भर्ती घोटाले का मुख्य अभियुक्त भी भाजपा का पदाधिकारी और जिला पंचायत सदस्य हाकिम सिंह था। पिछले महीनों में उत्तराखंड में महिलाओं के साथ दुष्कर्म की दो घटनाएं हुई। इनमें पहली घटना अल्मोड़ा जनपद के सल्ट में हुई, जिसमें एक नाबालिक के साथ भाजपा के मंडल अध्यक्ष भगवत बोरा ने छेड़खानी की। दूसरी घटना नैनीताल जनपद के लालकुआं की थी जहां भाजपा के वरिष्ठ नेता और नैनीताल जिला दुग्ध संघ के अध्यक्ष मुकेश बोरा पर एक विधवा के साथ बलात्कार करने का आरोप लगा। हर घटना को सांप्रदायिक चश्मे से देखने वाली भाजपा इन दोनों मामलों में चुप रही। यहां तक कि लालकुआं में तो भाजपा महिला मोर्चा ने मुकेश बोरा के समर्थन में रैली तक निकाली।
पिछले कुछ सालों में घटी इन घटनाओं से समझा जा सकता है कि उत्तराखंड में किस तरह से हिंदू-मुस्लिम एजेंडे को भाजपा मजबूत कर रही है। भाजपा 2017 से लगातार दूसरी बार यहां सत्ता में है। वह जनता के मुद्दों पर काम करने की बजाए इसे हिंदुत्व की प्रयोगशाला बनाने में लगी है। इसके लिए वह लगातार यह स्थापित करने का यत्न करती है कि उत्तराखंड को मुस्लिमों से खतरा है। वह कभी जनसांख्यिकी के झूठे आंकडे़ प्रचारित करती है तो कभी हजारों मस्जिदों के बनने की खबरें। पिछले दिनों से ‘लैंड जेहाद’, ‘जव जेहाद’, ‘मस्जिद जेहाद’ आदि के नाम पर लोगों को डराया जा रहा है। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी अपने हर भाषण में इनका जिक्र भी करते हैं। अब उन्होंने ‘समान आचार संहिता’ लागू करने की घोषणा कर यह साबित करने की कोशिश की है कि इसके आने के बाद उत्तराखंड में मुसलमानों को ठिकाने लगाया जा सकता है। उत्तराखंड में मुसलमानों की जनसंख्या भी 2011 की जनगणना के समय 13 प्रतिशत के आसपास थी। इनमें ऊधमसिंहनगर, हरिद्वार, नैनीताल का मैदानी हिस्सा और देहरादून में मुस्लिम आबादी पहले से ही बड़ी संख्या में रहती है। उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों में अभी भी मुस्लिम आबादी अधिकतम डेढ़ प्रतिशत के आसपास है। कुछ जिलों में तो यह एक प्रतिशत से भी कम है। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने प्रदेश में ‘मजार जेहाद’ को खत्म करने के नाम पर जब वन विभाग से अवैध धार्मिक स्थलों का सर्वे कराया था तो उसमें 300 मंदिर, 35 मजारें और दो गुरुद्वारे मिले थे, लेकिन सरकार ने इस रिपोर्ट को दबा दिया और मजारों को तोड़े जाने के वीडियो सोशल मीडिया में वायरल कराये।
भाजपा के इस सांप्रदायिक एजेंडे के आलोक में उत्तराखंड में मुसलमानों मौजूदगी को समझना बहुत जरूरी हो जाता है। भाजपा-संघ के उस चरित्र को भी जो किसी न किसी बहाने सांप्रदायिकता के सूत्र ढूंढने लगते हैं। उन्होंने इसे पंचायत चुनावों से लेकर लोकसभा चुनावों तक बहुत तरीके से परोसा है। इसे पिछले पंचायत चुनावों में के एक उदाहरण से समझा जा सकता है। अल्मोड़ा जनपद के भिकियासैंण विकासखंड के दनपो गांव से फराह नाम की एक मुस्लिम महिला ने जब पंचायत का चुनाव लड़ा तो उसका पोस्टर सोशल मीडिया में इस तरीके प्रचारित किया गया कि इस नाम से ही भूकंप आ गया। पहाड़ दरकने लगा। चारों तरफ शोर मचा कि पहाड़ में अब मुसलमान ही ग्राम प्रधान बनेंगे। आशंका व्यक्त की गई कि देवभूमि ‘कलंकित’ होने वाली है। धर्म और समाज की ‘रक्षा’ के लिये बड़े-बड़े प्रवचनों वाली पोस्ट पढ़ी-लिखी गई। बहुत तरीके से बताया गया कि किस तरह से पूरा पहाड़ मुसलमानों की चपेट में आने वाला है। इन काल्पनिक खतरों से भाजपा और उन जैसी समझ वाले लोग पहाड़ विरोधी अपनी नीतियों पर उठने वाले विरोधी स्वरों को दबाना चाहते हैं। दनपो ग्रामसभा के अन्दर ही भतरौजखान भी आता है। दनपो गांव में सदियों से मुसलमान रहते हैं। उत्तराखंड के अन्य गांवों की तरह। यहां के समाज से वे सदियों से जुड़े रहे हैं, या कह सकते हैं यहां की संस्कृति में रह-बसे हैं। सामाजिक सरोकारों से जुड़े एडवोकेट चन्द्रशेखर करगेती इसी गांव के रहने वाले हैं। करगेती कहते हैं कि हमारे ग्राम सभा को एक तोक है रिंगाणी। यहीं मुस्लिम परिवार पीढ़ियों से बसे हैं। उन्होंने यहां की संस्कृति और भाषा को जिस तरह आत्मसात किया है वह अनूठा है। वे पहले हमारे गांवों में सुख-दुख में शामिल रहे हैं। एक परिवार था जब्बार भाई का। उन्होंने ही हमारे शादी-ब्याहों में मनोरंजन के लिये वाद्य बजाये। इन्हीं मुसलमानों की बहू है- फराह।
यह पहली बार नहीं हुआ था कि कोई मुस्लिम उत्तराखंड में पंचायत का चुनाव लड़ रहा हो। राज्य में पहले भी लगभग 11 मुस्लिम पंचायत सदस्य रह चुके हैं। उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों के लगभग 150 गांवों में मुस्लिम रहते हैं। ये आज आये मुसलमान नहीं हैं। सदियों से रहते हैं। पीढ़ियों से। राजाओं के जमाने से। शहरों में ही नहीं गांवों में भी। मुस्लिम ही नहीं सिक्ख और ईसाई भी बड़ी संख्या में हैं। पौड़ी जनपद में ही सिक्खों के एक दर्जन से ज्यादा गांव हैं। जिनमें गुलार, मंदोली, कुच्यारी, अदानी, बराथ आदि महत्वपूर्ण हैं। इन्हें ‘सिक्ख नेगी’ के नाम से जाना है। ये पगड़ी तो नहीं पहनते, लेकिन इनके गुरुद्वारे हैं। गढ़वाली क्षत्रियों से उनकी पुरानी रिश्तेदारियां हैं। इनमें से भी कई पंचायतों के प्रतिनिधि रहे हैं। प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी शीशराम पोखरियाल की बिरादरी गुरु रामराय की परंपरा को मानती है। उत्तराखंड में दो अंग्रेज भी ग्राम प्रधान रहे हैं। जिनमें पीटर फ्रैडरिक प्रमुख हैं जो भीमताल के जून स्टेट के ग्राम प्रधान रहे।
जहां तक मुसलमानों की बसासत का सवाल है, टिहरी जनपद की एक पूरी न्याय पंचायत मुस्लिम बाहुल्य गांवों की है। ब्लाक जाखणीधार के अंजलीसैंण क्षेत्र में मोली, अंधरेठी (कफलना), गौधांस, सुनाली, भंटवाड़ी, निराली, बोस्टा, चुनारकोटी, पहलगांव, निगवाली, मथमिंगवाली जैसे मुस्लिम बाहुल्य गांव हैं। टिहरी के ही खास पट्टी में मुसलमानों का गांव पुजारागांव है। टिहरी जनपद के चुरिण्डा गांव में चूड़ी बनाने वाले मुसलमान पीढ़ियों से रहते आये हैं। ये राजा के समय से यहां बसे थे। यहीं के होकर रह गये। यहीं के दुख-सुख में शामिल रहे। यहीं की संस्कृति में रच-बस भी गये। यहां से समय-समय पर पंचायत चुनावों में मुस्लिम प्रतिनिधि चुने जाते रहे हैं। रेहाना बेगम बास्टा ग्राम की ग्राम प्रधान रही। निंगवाली गांव से बसीर अहमद ग्राम प्रधान चुने गये। हर बार कई मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में होते हैं।
पौड़ी जनपद के कांडाखाल, पल्लगांव, रामगांव, जुड्डा बुंगधार, सिमली, मसोली, धरगांव आदि में 20वीं सदी के आरंभ में ही मुसलमान आ बसे थे। इनमें ज्यादातर गूजर थे। ये मालिनी नदी में भैंस चराते थे। अवसर पाकर गांवों में कृषि और पशुपालन करते। पौड़ी जनपद के कल्जीखाल विकासखंड के फल्द गांव में सदियों से मुसलमान रहते हैं। रुद्रप्रयाग के बसुकेदार के पास तीन गांव हैं डांगी, भीरी और बेडूबगड़ जहां सदियों से मुसलमान रहते हैं। गढ़वाल में मिरासी बड़ी संख्या में हैं। उन्होंने यहां की सांस्कृतिक थाती को आत्मसात किया। गढ़वाल में तो ‘सैद’ अथवा ‘सैयद’ की जागर भी लगती है। लोक के मर्मज्ञ केशव अनुरागी तो बड़े मनोयोग से सैद्वाली गाते थे- गढ़वाल में मिरासी बड़ी संख्या में हैं। उन्होंने यहां की सांस्कृतिक थाती को आत्मसात किया। गढ़वाल में तो ‘सैद’ अथवा ‘सैयद’ की जागर भी लगती है। लोक के मर्मज्ञ केशव अनुरागी तो बड़े मनोयोग से सैद्वाली गाते थे- ‘सल्लाम वालेकुम, सल्लाम वालेकुम/त्यारा मियाॅ रतनागाजी, सल्लाम वालेकुम/तेरी ओ बीबी फातिमा, सल्लाम वालेकुम/त्यारा बेगौड़ गाजिना, सल्लाम वालेकुम/तेरी ओ कलमा कुरान, सल्लाम वालेकुम/सल्लाम वालेकुम, सल्लाम वालेकुम।’
पिथौरागढ़ और चंपावत जिलों के दर्जनों गांवों गोठ में जो मस्जिद बनी है उसकी बनावट पहाड़ी घरों में बने पत्थरों की छत जैसी ही है। यहां भेक गांव के नसीम अहमद जो टनकपुर में शिक्षक हैं को लोगों ने पकड़कर छात्र संघ का चुनाव लड़ाया। वे आज भी यहां के सबसे लोकप्रिय नागरिकों में हैं। चंपावत के ही खूना मलख मुसलमानों का ऐसा गांव है जो लगभग 550 साल पुराना हैं। बताते हैं कि चंद राजाओं के समय में राजस्थान के जयपुर के पास पागलपुर गांव से मनिहार जाति के इन लोगों को लाया गया। यहां बसे मनिहार चंद राजाओं की रानियों के लिए चूड़ी बनाने का काम करते थे। यहां 550 वर्ष पुरानी मस्जिद है, जो पहाड़ी शैली में बनी है। अब 150 साल पहले नई मस्जिद बन गई है, उसे भी पहाड़ी शैली में ही बनाया गया है। देवलथल (उसेल) ब्राह्मणों का गांव है। यहां बड़ी संख्या में मुसलमान रहते हैं। पिथौरागढ़ जिले में ही सरयू किनारे मुसलमानों का एक गांव है- उमैर। पिथौरागढ़ के ही धरमघर में मुसलमानों का बहुत पुराना परिवार रहता है।
अल्मोड़ा के भंडरगांव, बग्वालीपोखर, कुंवाली, मजखाली, रियूनी, सोमेश्वर, चनौदा, बचखनिया (चैखुटिया), द्वारसौं आदि गांवों में बड़ी संख्या में मुसलमान सदियों से रह रहे हैं। चैबटिया की रामलीला तो बिना मुख्तार भाई के संभव ही नहीं थी। अल्मोड़ा जनपद के सल्ट विकासखंड का एक गांव है बेसरबगड़ जहां मुसलमान रहते हैं। यहां की एक महिला मल्लिका बेगम को गांव के लोगों ने निर्विरोध प्रधान बनाया। देहरादून के रास्ते में मुजफ्फरनगर के पास एक होटल मिलेगा- चीतल। यह होटल रियूनी के मुसलमान परिवार का है। इस परिवार का यहां के सांस्कृतिक-सामाजिक जीवन में बहुत योगदान रहा है। अल्मोड़ा जनपद की गगास घाटी के भंडरगांव और बग्वालीपोखर बाजार में बड़ी संख्या में मुसलमान सदियों से रहते आये हैं। यहां हैदर और हामीद के परिवार यहां की संस्कृति का हिस्सा रहे हैं। कुंवाली में मुस्लिमों का एक गांव है- रौला खरक। इस गांव में भी पहले से ही मुसलमान रहते आये हैं।
चमोली जनपद के नन्दप्रयाग क्षेत्र में मुसलमान बहुत पहले से रहते हैं। कोलड़ा जैसे पुराने मुस्लिम गांव यहां हैं। इन मुसलमानों ने यात्रा सीजन में यात्रियों की व्यवस्था का जिम्मा भी संभाला। यहां के मुसलमानों ने यहां हिन्दू तीर्थ यात्रियों के लिये एक धर्मशाला का निर्माण भी कराया। यह समझना बहुत जरूरी है कि मुस्लिमों का उत्तराखंड की सांस्कृतिक थाती को सींचने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। रानीखेत के नियाज अहमद, अल्मोड़ा के गरीबुल्ला और हल्द्वानी के जगदीश-कासिम की व्यावसायिक पार्टनरशिप को कौन भुला सकता है। पहाड़ की कई रामलीलायें ऐसी हैं जिनकी मुसलमानों के बिना हम कल्पना ही नहीं कर सकते। सुप्रसिद्ध रंगकर्मी जहूर आलम, डा. अहसान बक्श, लोक के चितेरे लोकधर्मी शमशाद पिथौरागढ़ी, चित्रकार सलीम जैसी बहुत प्रतिभाएं हैं जिन पर उत्तराखंड नाज करती है।
इतिहासकार डाॅ. अनवर अंसारी ने लिखा है- ‘यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि इस्लाम स्वीकार कर लेने के पश्चात भी स्थानीय मुसलमान स्थानीय पंरपराओं से अलग नहीं हो पाये। जिस प्रकार महाराष्ट्र के मोमिन बोरा याज्ञवल्क्य स्मृति के भूमि बंटवारे को आधार मानते हैं या ‘मक्का’ के समान ‘पढरपुर’ की यात्रा करते हैं, लगभग उसी प्रकार धर्मान्तरित उत्तराखंडी मुसलमान अपने पडोसी हिन्दुओं के समान सभी देवी-देवताओं की पूजा करते हैं और मनौती मनाते हैं। मस्जिद से मुक्ति पाने के लिये पर्वतीय लोग देवी-देवताओं की शरण में जाते हैं। प्रथम विश्व युद्ध के पहले तक गढ़वाल के ग्रामीण मुसलमानों के पुरोहित ब्राह्मण ही हुआ करते थे।’
पिछले साल पौड़ी के नगरपालिका अध्यक्ष, पूर्व विधायक और राज्य आंदोलनकारी यशपाल बेनाम की बेटी की शादी के कार्ड से ‘संस्कृति के दरोगाओं’ में हा-हाकार मचा गया। संस्कृति के ठकेदारों ने इस शादी को ‘देवभूमि’ को कलंकित करने वाला बताया। बेनाम की बेटी ने उच्च शिक्षा के दौरान बीटेक के अपने साथी मुस्लिम युवक से प्यार किया और अब शादी करने का फैसला लिया है। युवक अमेठी का रहने वाला था। दोनों परिवारों को इस शादी से कोई एतराज नहीं था। इस शादी को लेकर जिस तरह की बयानबाजी या प्रतिक्रियाएं हुई वह बताती हैं कि धर्म, क्षेत्र और जाति के नाम पर नफरत फैलाने वालों का एक ऐसा समाज खड़ा हो गया है जो न केवल झूठा और जाहिल है, बल्कि समाज में जहर घोलने वाला भी है। उत्तराखंड को ‘देवभूमि’ बताकर और ‘हिन्दुत्व’ का चोला ओढ़कर जो कृत्य कुछ नफरती लोग कर रहे हैं उनसे सावधान रहने की जरूरत है। इनका अपना न कोई धर्म है और न संवेदनाएं। जो मुस्लिमों के साथ शादी और उनके ‘देवभूमि’ में आने को खतरा बताते हैं वे यह भूल जाते हैं कि पिछले दिनों उत्तराखंड को बर्बाद करने वाले जो भी कृत्य हुए हैं उनमें एक भी मुस्लिम नहीं है। अंकिता हत्याकांड, दलित युवक जगदीश की हत्या, हेलंग में महिलाओं की घास छीनना, भर्ती घोटाला, विधानसभा में अपनों को नियुक्तियां देना, उत्तराखंड की जमीनों का सौदा करने जैसे कांडों में तथाकथित ‘राष्ट्रभक्त’ और ‘धर्म के ठेकेदार’ शामिल रहे हैं।
ज्यादा पीछे भी न जायें तो ‘देवभूमि’ में दलितों के साथ जो हो रहा है वह इन समाज के ठेकेदारों का आइना दिखाता है। जो लोग दूसरे धर्म में बेटी की शादी को ‘नाक कटना’ मानते रहे हैं, वह दलितों के साथ हो रही घटनाओं पर चुप्पी साधते हैं। अल्मोड़ा जनपद के भिकियासैंण में दलित युवक जगदीश की इसलिए हत्या कर दी कि उसने एक सवर्ण लड़की से शादी की। वह भी तब जब लड़की का परिवार लंबे समय से लकड़ी को प्रताडित कर रहा था। जगदीश ने उसे सहारा दिया। बागेश्वर में सवर्ण शिक्षक ने एक दलित का सिर इसलिए काट दिया कि उसने सवर्ण की चक्की में हाथ लगा दिया। टिहरी के श्रीकोट गांव में एक दलित की हत्या इसलिए कर दी कि वह एक बारात में सवर्णों के साथ कुर्सी पर बैठ गया था। चंपावत में रमेश नामक युवक की हत्या इसलिए कर दी थी कि उसने सवर्णो की शादी में अपने हाथ से खाना निकाला। चंपावत जिले के सूखीढांग में सवर्ण बच्चों ने दलित भोजनमाता के हाथ से मिड-डे मील खाने से इंकार कर दिया था। यहां तक कि नैनीताल जिले के ओखलकांडा में कोविड के दौरान क्वारंटाइन सेंटर में सवर्ण युवकों ने दलित के हाथ से खाने से मना कर दिया था। चंपावत जिले के चैकी गांव में एक कथावाचक गौरव पांडे ने अपनी दलित प्रेमिका की उसी के दुपट्टे से गला घोंटकर हत्या कर दी। इस तरह के जातिवादी अहंकार में डूबा समाज अगर ‘हिन्दुओं’ के अस्तित्व पर होने वाले खतरों से इतना आशंकित है तो उसे पहले अपने गरेबान में झांकना चाहिए।
खैर, हिन्दू-मुस्लिम के इस एजेंडे के पीछे इनकी जो भी कुटिल राजनीति हो, लेकिन उत्तराखंड में सदियों से हिन्दू-मुस्लिम लोगों के बीच विवाह भी होते रहे हैं। कुछ तो ऐसे विवाह हैं जो इन कथित संस्कृति के ठेकेदारों को आइना दिखाते हैं। इनमें एक चर्चित जोड़ा है लोकधर्मी मोहन उप्रेती और नईमा खान का। इन दोनों ने उस जमाने में प्रेम विवाह किया जब अल्मोड़ा जैसे पंरपरागत उच्चकुलीन ब्राह्मणों के लिए डूब मरने जैसा कृत्य था। इतिहास गवाह है कि मोहन-नईमा की जोड़ी ने उत्तराखंड की लोक थाती के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया। उत्तराखंड की लोकगाथाओं ‘राजुला मालूशाही’, ‘अजुआ बफौल’, ‘गोरीधना’ का नाट्य रूपांतरण कर इन दोनों ने लोक विधाओं के लिए ऐतिहासिक योगदान दिया। उन्होंने रामलीलाओं में चैपाइयां गाईं। ‘गौरा’ नाटक में विरह गीत गाये। यह जानना भी कम दिलचस्प नहीं है कि नईमा जी का परिवार अल्मोड़ा के सभ्रांत मुस्लिम परिवार था। उनके दादा नियाज मुहम्मद म्युनिसिपल बोर्ड में कमिश्नर थे। उनके नाम पर ही अल्मोड़ा के एक मुहल्ले का नाम नियाजगंज है। नईमा जी के पिता शब्बीर मुहम्मद खान ने एक इसाई महिला से शादी की थी।
उत्तराखंड के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, शैक्षिक और पर्यावरणीय चेतना के लिए हम सरला बहन को कैसे भूल सकते हैं। इंग्लैंड में पैदा हुई कैथरीन किस तरह सब पहाड़ियों की सरला बहन बन गई पता ही नहीं चला। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सरला बहन खांटी गांधीवादी थी। उन्होंने आजादी के आंदोलन में न केवल भागीदारी की, बल्कि पूरी बैरोरो घाटी में आजादी के दीवानों के परिवारों को संरक्षण भी दिया। आजादी के बाद उन्होंने महिला शिक्षा और स्वावलंबन के लिए जो काम किया वह अद्भुत है। ग्रामीण लड़कियों की शिक्षा और उनमें आत्मविश्वास जगाने के लिए कौसानी में ‘लक्ष्मी आश्रम’ की स्थापना की, जो आज भी बालिकाओं को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में काम कर रहा है। नशे के खिलाफ जनजागरण, पर्यावरण की सुरक्षा, स्थानीय संसाधनों को बचाने, यहां की भाषा-संस्कृति के लिए उनका अद्वितीय योगदान है। कौसानी से लेकर धरमघर और पूरे पहाड़ में सरला बहन के पहाड़ प्रेम के दस्तावेज मौजूद हैं।
उत्तराखंड की एक ऐसी शख्सियत जिसका नाम लेते ही ‘देवभूमि’ में हर कालखंड में उबाल आता रहा है। अपने बच्चों को विदेशों की भूमि में बड़े पदों पर देखने की ख्वाइश करने वाला समाज, अपनों को विदेशी भूमि में प्रधानमंत्री तो छोड़ो किसी शहर का अदना सा पार्षद बनने पर अखबारों के पहले पेज पर नाम आने से उछलने वाले लोग इस महिला का नाम आते ही उबल पड़ते हैं। इस महिला का नाम है- आइरीन पंत। पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली की पत्नी। जिन्हें पाकिस्तान में गुल-ए-राणा के नाम से जाना गया। अल्मोड़ा के उच्चकुलीन ब्राह्मण पंतों के खानदान की जिनके दादा तारादत्त पंत ने 1874 में इसाई धर्म स्वीकार कर लिया था। विभाजन के बाद वह पाकिस्तान गई। लियाकत अली मंत्रिमंडल में अल्पसंख्यक और महिला मामलों की मंत्री बनीं। कराची विश्वविद्यालय की पहली महिला कुलपति और सिंध प्रांत की पहली महिला गवर्नर बनी। पाकिस्तान के लिए तीन देशों की राजदूत रहीं। आइरीन पंत का जिक्र इसलिए कि जब उनके दादा तारादत्त ने इसाई धर्म अपनाया तो अल्मोड़ा के उच्चकुलीन ब्राहम्णों ने उनके लिए ‘घटाश्राद्ध’ की रीति से उन्हें मृत घोषित कर दिया था। उनकी तीसरी पीढ़ी ने इस्लाम कबूल कर लिया। आइरीन को तो पाकिस्तान का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘निशान-ए-इम्तियाज’ और ‘मादरे पाकिस्तान’ का खिताब भी मिला।
खैर, कभी लाहौर, क्वेटा, रावलपिंडी, पेशावर जैसे शहरों में रहकर अपनी सांस्कृतिक-राजनीतिक चेतना को विकसित कर इतिहास के पड़ाव गढ़ने वाले उत्तराखंड के लोग धर्म और जातीयता में इतने बौरा जायेंगे ये तो पेशावर विद्रोह के नायक वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली ने सोचा भी नहीं होगा। उस इतिहास पुरुष ने जिसने निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से इंकार कर भारतीय इतिहास में सद्भाव की इबारत लिखी। दुनिया को बताया कि धर्म से बड़ी मानवता है, जनता के सरोकार हैं। आजादी के बाद जब सीमान्त गांधी अब्दुल गफ्फार खान भारत आये तो नेहरू जी ने उनसे कहा- ‘हमें अच्छा लगा कि आप मिलने आये।’ गफ्फार खान ने कहा- ‘मैं आपसे नहीं चन्द्रसिंह गढ़वाली से मिलने आया हूं।’ वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली की विरासत प्रेम की है नफरत की नहीं।