ललित मौर्य
‘डाउन टू अर्थ’ से साभार
हम माने या न मानें प्रकृति से हमारे जुड़ाव की अंतिम कड़ी आदिवासी या वो मूल निवासी हैं, जो आज भी प्राकृतिक धरोहर को संजोए रखने में कामयाब रहे हैं। लेकिन कहीं न कहीं प्रकृति के इन संरक्षकों पर भी जलवायु परिवर्तन की तलवार लटक रही है। इन लोगों ने न केवल अपने समुदायों, संस्कृतियों और अपने जीवन के ढर्रे पर मंडराते खतरों का सामना करने की अपनी अविश्वसनीय क्षमता का प्रदर्शन किया है।
साथ ही पृथ्वी की स्थिरता को बनाए रखने में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। आज भी धरती के बचे 36 फीसदी बचे अनछुए जंगल उसके मूल निवासियों द्वारा ही संजो कर रखे गए हैं। आंकड़ों की मानें तो 90 देशों में करीब 47.6 करोड़ मूल निवासी रह रहे हैं, जो गरीबी और स्वास्थ्य सेवाओं से दूर हाशिए पर जीने को मजबूर हैं। इसके बावजूद प्रकृति से उनका गहरा नाता है।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक इन मूल निवासियों की जीवन प्रत्याशा अन्य लोगों की तुलना में औसतन 20 वर्ष तक कम है। इसके अलावा इनके बीच खराब स्वास्थ्य, विकलांगता और जीवन की गुणवत्ता में कमी का अनुभव करने की कहीं ज्यादा आशंका है।
हाशिए पर रह रहे यह मूल निवासी आज भी बुनियादी ढांचे से दूर हैं। इनकी स्थिति कितनी खराब है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अक्सर यह लोग अपनी अपनी जमीन और आसपास के प्राकृतिक संसाधनों पर भी अपने अधिकार का दावा नहीं कर सकते हैं।
होने को यह लोग वैश्विक आबादी का पांच फीसदी से भी कम हिस्सा हैं। लेकिन दुनिया के 15 फीसदी सबसे गरीब लोग इसी तबके से संबंध रखते हैं। हालांकि यह आर्थिक रूप से कमजोर जरूर हैं। लेकिन सांस्कृतिक रूप से जितना इन्होने कमाया है, उसकी कोई बराबरी नहीं है। इसकी झलक इनकी भाषाओं में देखी जा सकती है। यह मूल निवासी दुनिया की 7,000 भाषाएं बोलते हैं। साथ ही 5,000 अलग-अलग संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
आर्थिक रूप से कमजोर होने के बावजूद सांस्कृतिक रूप से धनवान हैं यह लोग
नहीं भूलना चाहिए की लम्बे समय से मूल निवासी पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों की रखवाली करते रहे हैं। इसके बदले में उन्होंने प्रकृति से उतना ही लिया है, जितने की उन्हें जरूरत है। शायद यह हम भूल चुके हैं। यही वजह है कि हमारी महत्वाकांक्षा हमारे ऊपर हावी हो चुकी है। इन लोगों का अपनी जमीन के साथ एक अनूठा बंधन है, जो उन्हें चाहे बड़ा हो या छोटा सभी जानवरों, पौधों का रक्षक बनाता है।
आंकड़े भी इसकी गवाही देते हैं। आज ये मूल निवासी दुनिया की 28 फीसदी भूमि का प्रबंधन कर रहे हैं। इनमें 40 फीसदी संरक्षित क्षेत्र कर प्राकृतिक परिदृश्य शामिल हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि दुनिया की करीब 80 फीसदी जैवविविधता उसी जमीन पर मौजूद है। इतना ही नहीं इन स्वदेशी और स्थानीय समुदायों की 65 फीसदी जमीन अभी भी इंसानी प्रभावों से अछूती है और 90 फीसदी हिस्सा अभी भी बेहतर स्थिति में हैं।
इसके बावजूद यह मूल निवासी आज जलवायु परिवर्तन, वन विनाश, खनन, औद्योगिकरण, भूमि उपयोग में आते बदलावों जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। वहीं जलवायु परिवर्तन के जिस खतरे का सामना यह कर रहे हैं उसके बढ़ने में उनकी भूमिका बेहद नगण्य है। हालांकि इसके बावजूद उन्होंने दुनिया को इस खतरे से बचाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इसके बावजूद यह लोग जलवायु से जुड़ी आपदाओं से असमान रूप से प्रभावित हो रहे हैं।
जलवायु में आता यह बदलाव मूल निवासियों को कई तरीकों से प्रभावित कर रहा है। एक तरफ जहां यह पारिस्थितिकी तंत्र को बदल रहा है। नतीजन बाढ़, सूखा, भीषण गर्मी, तूफान जैसी आपदाएं बढ़ रही हैं। वहीं दूसरी तरफ यह उनकी पारंपरिक आजीविका और खाद्य सुरक्षा को कमजोर कर रहा है। यह उन प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट कर रहा है जो उनके लिए न केवल आर्थिक बल्कि आध्यात्मिक और सांस्कृतिक रूप से भी बेहद महत्वपूर्ण हैं।
देखा जाए तो मूल निवासियों का यह पारम्परिक ज्ञान, सांस्कृतिक प्रथाएं और आध्यात्मिक विश्वास, जो पीढ़ियों से चले आ रहे हैं, इन आपदाओं का सामना करने के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं।
इसी को ध्यान में रखते हुए वर्ल्ड बैंक ने मूल निवासियों के साथ मिलकर एक फ्रेमवर्क की रुपरेखा तैयार की है, जो दर्शाती है कि जलवायु में आते बदलावों से जुड़े इन खतरों का सामना कैसे किया जाए और कैसे इन चुनौतियों से उबरने की क्षमता को बेहतर बनाया जा सकता है।
इस बारे में जारी अपनी रिपोर्ट में वर्ल्ड बैंक ने तीन महाद्वीपों और 16 देशों के मूल निवासियों/ आदिवासियों के अनुभवों, लोक कथाओं के आधार पर एक रुपरेखा तैयार की है। जो यह दर्शाती है कि जलवायु परिवर्तन जैसे इस खतरे का कैसे सामना किया जा सकता है और कैसे इन चुनौतियों से उबरने की क्षमता को बेहतर किया जा सकता है। यह इस समस्या से निपटने के लिए मूल निवासियों द्वारा बनाए आवश्यक सिद्धांतों और कारकों को रेखांकित करता है।
इसमें शामिल प्रमुख कारकों में भूमि और संसाधनों तक सुरक्षित पहुंच और अधिकार, स्वदेशी शासन प्रणाली और पारंपरिक खाद्य के साथ जीविका और अर्थव्यवस्था शामिल हैं।
हमें यह समझना होगा कि हवा उस पेड़ को नहीं तोड़ती जो उसके अनुरूप झुकना जानता है। कहीं न कहीं यह बात मूल निवासियों और आदिवासियों पर भी निर्भर होती है, जो प्रकृति में इतना रच बस गए हैं कि वो उनमें आने वाले हर बदलावों को अपना कर उसके अच्छे या बुरे सभी पहलु के साथ रहकर जीवन बेहतर बना सकते हैं।
कहीं न कहीं यह उनके पुरखों का दिया ज्ञान है जिसके भरोसे वो इस तरह की आपदाओं का सामना करने के न केवल काबिल बने हैं, बल्कि उससे उबरे भी हैं। कैरिबियन तट पर आई ऐसी ही एक घटना का जिक्र करते हुए मिस्किटो समुदाय के एक नेता ने रिपोर्ट में कहा है कि, कैरिबियन तट पर जब श्रेणी पांच का तूफान आया तो उसने मूल निवासियों के कई समुदायों को नष्ट कर दिया।
वो याद करते हुए कहते हैं कि, “मैं सिर्फ अपने घरों के टुकड़े देख सकता था, जो लकड़ी के टुकड़ों में तब्दील हो गए थे।“ हालांकि इस तबाही के बावजूद वो इन लोगों के पुरखों का दिया ज्ञान ही था जिसकी वजह से इस तरह की आपदा में भी किसी की जान नहीं गई। हैरानी की बात है कि जहां आधुनिक उपकरण फेल हो जाते हैं वहां यह समुदाय मछलियों के असमान्य व्यवहार और दुर्लभ प्रजातियों की मौजूदगी जैसे संकेतों की मदद से तूफान के आने की भविष्यवाणी कर सका था।
पारंपरिक ज्ञान और अपने पर्यावरण की गहरी समझ ने मिस्किटो नेताओं की अपने समुदाय को तैयार करने और जीवन बचाने में मदद की। वो बताते हैं कि “पारंपरिक ज्ञान ने हमारे प्रोटोकॉल को मजबूत किया है।”
इस तूफान के दौरान उन्होंने महिलाओं और बच्चों को मैंग्रोव के जंगलों में भेज दिया और सुरक्षा के लिए उन्हें मैंग्रोव की जड़ों से बंधी डोंगियों में लेटा दिया। वहीं पुरुष पीछे रह गए, और उन्होंने खुद को ताड़ के पेड़ों से सुरक्षित कर लिया ताकि जो कुछ भी बचाया जा सकता है उसे बचाया जा सके। इन प्रथाओं ने उन्हें तूफानी हवाओं का सामना करने और बह जाने से बचने में मदद की।
इसी तरह आपदाओं के बाद दोबारा उजड़े हुओं को बसाना मिलजुल कर काम करने की सांस्कृतिक प्रथाओं के मूल्यों पर निर्भर है। इतना ही नहीं उन्होंने घरों को दोबारा बनाने के लिए स्थानीय संसाधनों, संस्कृति और अनुकूल डिजाइनों का उपयोग किया जो उनके आसपास के माहौल के अनुकूल थे।
मिस्किटो नेता के मुताबिक यह लचीलापन मूल निवासियों की अपनी जमीन, परंपराओं, स्थानीय संसाधनों को उपयोग करने की क्षमता को दर्शाता है। इसमें उनके पूर्वजों से मिला ज्ञान उनकी मदद करता है। उनकी परम्पराएं जहां उन्हें आपस में जोड़े रखती हैं। वहीं कुशल नेतृत्व, स्वयं निर्णय लेने की क्षमता, बनाए गए नियम और बाहरी लोगों से ली गई मदद उन्हें कठिन से कठिन समय का सामना करने के काबिल बनाती है।
अब सवाल यह है कि जलवायु परिवर्तन इन लोगों को अपना आसान शिकार क्यों बना रहा है। हमें समझना होगा कि यह लोग अपनी जमीन और प्रकृति से बेहद गहराई से जुड़े हैं। अक्सर सेवाओं और बुनियादी ढांचे तक उनकी पहुंच सीमित होती है।
जलवायु परिवर्तन के खिलाफ जंग में अहम भूमिका निभा सकता है इनका ज्ञान
समय के साथ जलवायु में आते बदलावों और उनके दुष्प्रभाव कहीं ज्यादा हावी और गंभीर होते जा रहे हैं। ऐसे में इनका सामना करने की मूल निवासियों की क्षमता को बेहतर बनाना बेहद जरूरी है। कहीं न कहीं पर्यावरण के बारे में उनका अनूठा ज्ञान और अनुभव सभी को जलवायु में आते बदलावों का सामना करने के लिए तैयार कर सकता है और उसका सामना करने के लिए बेहतर रणनीतियां बनाने में मदद कर सकता है।
जलवायु में आते बदलावों के प्रति मूल निवासियों को समर्थ बनाए के लिए यह फ्रेमवर्क उन नीतियों और कार्यक्रमों का मार्गदर्शन करता है, जो प्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूप से उनके सशक्त बने रहने की क्षमता को कमजोर या मजबूत कर सकते हैं। वर्ल्ड बैंक ने अपने मिशन को एक ऐसे ग्रह के साथ भी जोड़ा है जो रहने योग्य हो। कहीं न कहीं यह मूल निवासियों के मूल्यों के साथ बेहतर मेल खाता है। ऐसे में यह गरीबी और असमानता के साथ ग्रह की स्थिरता पर भी जोर देता है।
इतना ही नहीं यह फ्रेमवर्क प्रकृति को बचाने और जलवायु से जुड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए मूल निवासियों के साथ मिलकर काम करने की बात करता है।
जब कुछ एकदम शांत हो, कोई पक्षी न चहचहा या हिल रहा हो, और आकाश या हवा अलग लग रही हो, तो हम कहते हैं, “कुछ होने वाला है।
स्वदेशी महिला नेता क्यू’ इक्ची
देखा जाए तो जिस तरह से ये मूल निवासी/ आदिवासी इन आपदाओं का सामना करके भी लम्बे समय बचे हुए हैं, उनके इस लम्बे इतिहास से हम सभी बहुत कुछ सीख सकते हैं। हम सभी जलवायु संबंधी चुनौतियों से जूझ रहे हैं। इससे बचने के लिए हमें सभी लोगों के अनुभवों और समाधानों की आवश्यकता है।
मूल निवासियों ने जिस तरह से संसाधनों के आभाव में भी इन चुनौतियों का सामना किया है वो काबिले तारीफ है। उनका ज्ञान पर आधारित यह ढांचा हमें सभी के फायदेमंद हो सकता है। जो भविष्य में साथ मिलकर काम करने की राह प्रशस्त कर सकता है।