पुरुषोत्तम शर्मा
दिल्ली में किसानों के ऐतिहासिक पड़ाव के साथ ही देश भर में उठ खड़े हुए वर्तमान किसान आंदोलन के साथ देश के दलितों, भूमिहीनों और गरीबों का वैसा जुड़ाव नहीं दिख रहा है, जैसा कि होना चाहिए। तो क्या इस आंदोलन के एजेंडे में सिर्फ किसानों की मांगें ही हैं? क्या तीन कृषि कानूनों का देश के गरीबों, दलितों, भूमिहीनों के जीवन से कुछ भी लेना देना नहीं है?
ऐसे ज्यादातर संगठन जो खुद को दलितों, भूमिहीनों, गरीबों का प्रतिनिधि बताते हैं, ज्यादातर की यही समझ है। उनके अनुसार यह उन किसानों का ही आंदोलन है, जो ग्रामीण जीवन में उनका आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न करते हैं। इस लिए इन संगठनों की इस आंदोलन से एक दूरी भी दिखती है। जन आन्दोलन की ताकतों का एक हिस्सा ऐसा भी है, जो किसान आंदोलन का सक्रिय समर्थन तो करता है, पर इन मांगों को अपने सामाजिक व वर्गीय आधार से बाहर का मानता है। इस लिए उनकी भागीदारी प्रतीकात्मक ही रह जा रही है। वे अपने सामाजिक आधार की व्यापक गोलबंदी इस आंदोलन में नहीं कर पा रहे हैं।
इस सवाल के हल की तलास के लिए हमें भारतीय ग्रामीण जीवन की संरचना में आए बदलावों पर निगाह डालनी होगी। वर्ष 2000 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की शर्तों के भारतीय कृषि क्षेत्र में लागू होने के बाद भारत की खेती घाटे का सौदा होने लगी थी। क्योंकि उस सरकार ने डब्ल्यूटीओ के दबाव में कृषि जिंसों के आयात पर लगे मात्रात्मक प्रतिबंध हटा दिए और कृषि जिंसों के लिये वायदा कारोबार के दरवाजे खोल दिये। इससे एक तरफ भारी सब्सिडी पर आधारित अमेरिका यूरोप जैसे देशों के सस्ते कृषि उत्पाद भारत में आने लगे। दूसरी तरफ वायदा कारोबारी फसल के बाजार में आने पर फसल का भाव गिराने लगे। किसानों का आलू, प्याज, टमाटर जैसी फसलों को बाजार में भाव न मिलने के बाद सड़कों में फेंकने या खेत में ही सड़ा देने का दौर वहीं से शुरू हुआ।
वर्ष 2005 आते-आते इस घाटे की खेती से कर्ज में डूबे लगभग चार लाख किसान अब तक भारत में आत्महत्या कर चुके हैं। घाटे की इस खेती ने युवा पीढ़ी को खेती से विमुख करना शुरू किया। धीरे-धीरे सीमांत व मध्यम किसानों के एक हिस्से ने खेती को बटाई या ठेके पर देकर रोजगार के अन्य अवसरों की तलाश शुरू की। आज हमारी खेती का लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा बटाई या ठेके पर होता है। पंजाब जैसे हरित क्रांति के प्रदेश से लेकर बिहार उड़ीसा जैसे अति पिछड़े प्रदेशों तक खेती बटाई या ठेके पर हो रही है। बिहार में तो 60 प्रतिशत से ज्यादा खेती अब बटाई पर होती है।
आखिर सीमांत व मध्यम किसानों की इस खेती को बटाई या ठेके पर लेने वाला कौन सा सामाजिक तबका है? आज अगर आप ग्रामीण संरचना का अध्ययन करें तो गांव के गरीब किसानों, दलितों व भूमिहीनों का एक हिस्सा जो कल तक खेत मजदूर था, आज का बटाईदार किसान बन गया है। क्योंकि वह अपने पारिवारिक श्रम को लगाकर इस घाटे की खेती को बचाए हुए है। कारण कि खेती होने पर अगर मुनाफा न भी हो, तो परिवार के खाने के लिए अन्न और एक-दो दुधारू पशु को पालने के लिए उस खेती से चारे की व्यवस्था हो जाती है। इससे उस बटाईदार किसान परिवार को गांव में टिकने का आधार मिल जाता है।
अब अगर नए कृषि कानूनों के लागू होने के बाद कांट्रेक्ट खेती के लिए खेती में बड़ी कंपनियों का पदार्पण होता है, तो जाहिर है कि जमीनों को अपने उत्पादन के लिए हथियाने वाली वो कंपनियां शुरू में खेती के ठेके का ऊंचा भाव लगा देंगी। ऐसे में जमीन के मालिक भी ज्यादा मुनाफे के लिए खेती को गांव के बटाईदारों से छुड़ा कर कंपनियों को दे देंगे। इस तरह अगर देखें तो कांट्रेक्ट खेती कानून के माध्यम से खेती व जमीन से सबसे पहले बेदखल होने वाला यही आज का बटाईदार व ठेका खेती करने वाला किसान होगा। जिनकी बहुतायत भूमिहीन व दलित परिवारों से है। जबकि खेत के मालिक किसान को कंपनियों के जाल में फंसने व खेत खोने में ज्यादा समय लगेगा।
इसके साथ ही जैसे ही ज्यादा से ज्यादा जमीनें कांट्रेक्ट खेती के लिए कारपोरेट के अधीन हो जाएंगी, तो वे खेती में मानव श्रम की जगह आधुनिक मशीनों का प्रयोग ज्यादा करने लगेंगे। उसके बाद छोटी जोतों में हो रही खेती में लगने वाले ज्यादा मानव श्रम की जरूरत उस खेती में नहीं रह जाएगी, और अब तक इस खेती में मिल रहे रोजगार में भी भारी कमी आ जाएगी। यह ग्रामीण जीवन में पलायन को और तीब्र कर देगा। तथा पहले से ही बेरोजगारी की मार झेल रहे गरीबों की कतार और लम्बी हो जाएगी।
‘विप्लवी किसान संदेश’ पत्रिका से साभार