सलीम मलिक
मानवाधिकार की रक्षा करने का दायित्व उत्तराखंड में जिस मानवाधिकार आयोग पर है, वह आयोग अपने पास आई शिकायतों का जल्द निपटारा तो करता है, लेकिन अपनी सालाना रिपोर्ट को सरकार के सामने से हिचकिचाता रहा है। हर साल की सालाना रिपोर्ट सरकार के सामने पेश किए जाने का नियम होने के बाद भी उत्तराखंड के मानवाधिकार आयोग ने अपनी स्थापना के कई सालों तक अपनी रिपोर्ट ही सरकार को नहीं सौंपी। काशीपुर निवासी एक सूचनाधिकार कार्यकर्ता एडवोकेट नदीमुद्दीन के दखल के बाद आयोग ने सात साल की रिपोर्ट सरकार को सौंपी भी तो राज्य में मानवाधिकार की हालत जानने के लिए यह रिपोर्ट कई साल की पशोपेश के बाद सार्वजनिक हो सकी। मानवाधिकार आयोग की इस रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड में राज्य मानवाधिकार आयोग के 2012 में गठन से लेकर 31 मार्च 2019 तक 7 वर्षोें की अवधि में कुल 10736 शिकायतें मिली हैं, जिसमें से 9686 शिकायतों का निपटारा आयोग द्वारा किया जा चुका है जबकि 1050 शिकायतें 31 मार्च 2019 को आयोग में लम्बित थीं।
आरटीआई एक्टिविस्ट एडवोकेट नदीम के कड़े प्रयासों से मानवाधिकार हनन के मामलों का हो पाया खुलासा कई बार सूचना मांगने पर उत्तराखंड मानवाधिकार आयोग ने 2012 से 2018 तक 7 वर्षों की अलग-अलग रिपोर्ट के स्थान पर एक रिपोर्ट 20 दिसम्बर 2018 को उत्तराखंड शासन के गृह विभाग को उपलब्ध करा दी… सलीम मलिक की रिपोर्ट देहरादून। मानवाधिकार की रक्षा करने का दायित्व उत्तराखंड में जिस मानवाधिकार आयोग पर है, वह आयोग अपने पास आई शिकायतों का जल्द निपटारा तो करता है, लेकिन अपनी सालाना रिपोर्ट को सरकार के सामने से हिचकिचाता रहा है। हर साल की सालाना रिपोर्ट सरकार के सामने पेश किए जाने का नियम होने के बाद भी उत्तराखंड के मानवाधिकार आयोग ने अपनी स्थापना के कई सालों तक अपनी रिपोर्ट ही सरकार को नहीं सौंपी। काशीपुर निवासी एक सूचनाधिकार कार्यकर्ता एडवोकेट नदीमुद्दीन के दखल के बाद आयोग ने सात साल की रिपोर्ट सरकार को सौंपी भी तो राज्य में मानवाधिकार की हालत जानने के लिए यह रिपोर्ट कई साल की पशोपेश के बाद सार्वजनिक हो सकी। मानवाधिकार आयोग की इस रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड में राज्य मानवाधिकार आयोग के 2012 में गठन से लेकर 31 मार्च 2019 तक 7 वर्षोें की अवधि में कुल 10736 शिकायतें मिली हैं, जिसमें से 9686 शिकायतों का निपटारा आयोग द्वारा किया जा चुका है जबकि 1050 शिकायतें 31 मार्च 2019 को आयोग में लम्बित थीं।
मानवाधिकार आयोग का उत्तराखंड मानवाधिकार आयोग का गठन 19 जुलाई 2011 को हुआ था। राज्य सरकार द्वारा गठित आयोग का काम था कि यह प्रदेश में मानवाधिकार हनन के मामलों का रिकार्ड तैयार करे और वार्षिक रूप से इसकी रिपोर्ट राज्य सरकार के पेश करें। मानवाधिकार हनन के मामलों को रोकने के लिए आयोग को सरकार से सिफारिश करने का भी अधिकार देते हुए यह भी प्रावधान किया गया था कि आयोग हर साल अपनी रिपोर्ट सरकार को देगा। इस वार्षिक रिपोर्ट को सरकार हर वर्ष विधानसभा के पटल पर भी रखेगी। लेकिन जब गठन के बाद से ही आयोग ने राज्य सरकार को कोई रिपोर्ट नहीं दी तो विधानसभा में यह रिपोर्ट कहां से रखी जाती? सालाना रिपोर्ट को दबाए जाने की वजह से आयोग की आलोचना भी होने लगी थी, जबकि उत्तराखंड में मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम 1993 के तहत जुलाई 2011 में गठित हुए राज्य मानवाधिकार आयोग का अधिनियम की धारा 28 (1) के तहत कर्तव्य है कि प्रत्येक वर्ष के समाप्त होने के बाद पूरे वर्ष के लेखा-जोखा , उसे प्राप्त मानवाधिकार हनन की शिकायतों की जांच तथा प्रदेश में मानवाधिकार संरक्षण के लिये सिफारिशों का उल्लेख करते हुये वार्षिक रिपोर्ट राज्य सरकार को प्रेषित करे। आवश्यकता होने पर विशेष रिपोर्ट प्रस्तुत करने का भी प्रावधान है। अधिनियम की धारा 28(2) के अन्तर्गत इस रिपोर्ट को विधानसभा के पटल पर रखना राज्य सरकार का कर्तव्य है।
सरकार को भी सूचना अधिकार कार्यकर्ता की पहल पर मिली रिपोर्ट इस मामले में काशीपुर के सूचना अधिकार कार्यकर्ता एडवोकेट नदीमुद्दीन ने सूचना अधिकार के तहत साल 2018 में आयोग से पूछा था कि गठन के बाद से अब तक आयोग ने कितनी वार्षिक रिपोर्ट सरकार को सौंपी है? तो पता चला कि आयोग के गठन से लेकर (18 सितम्बर 2018) तब तक आयोग ने सरकार को कोई रिपोर्ट ही नहीं दी है। उस समय इस मामले के सुर्खियों में आने के बाद आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष जस्टिस जगदीश भल्ला ने तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत को वर्ष 2012 से लेकर 2018 तक की रिपोर्ट सौंपी थी। अपने गठन के बाद आयोग द्वारा प्रदेश सरकार को सौंपी गयी यह पहली रिपोर्ट थी, जिसमें विभिन्न सरकारी एजेंसियों खासकर पुलिस द्वारा प्रदेश में मानवाधिकार के उल्लंघन के मामलों का उल्लेख हुआ था।
साढ़े तीन साल की प्रतीक्षा के बाद मिली रिपोर्ट काशीपुर निवासी सूचना अधिकार कार्यकर्ता नदीमउद्दीन ने अपने सूचना प्रार्थना पत्र से उत्तराखंड मानव अधिकार आयोेग की सरकार को प्रस्तुत वार्षिक/विशेष रिपोर्टों, इस पर कार्यवाही तथा उन्हें विधानसभा के समक्ष रखने सम्बन्धी सूचनायें मांगी थी। इसके उत्तर में पहले तो लोक सूचना अधिकारी ने अतिरिक्त शुल्क रुपये 260 की मांग की, लेकिन जब इस शुल्क का भुगतान प्रेषित कर दिया गया तो आयोग की वार्षिक रिपोर्ट/विशेष रिपोर्ट के सुरक्षा एवं गोपनीयता के दृष्टिगत दिया जाना संभव नहीं है लिखते हुुये उपलब्ध कराने से इंकार कर दिया। इस पर नदीम ने उत्तराखंड सूचना आयोग को द्वितीय अपील की। उत्तराखंड सूचना आयोग के सूचना आयुक्त विपिन चन्द्र की पीठ द्वारा गृह विभाग के अधिकारियों को विभागीय कार्यवाही व क्षतिपूर्ति दिलाने का नोटिस देने के बाद साढ़े तीन साल से सरकार के पास दबी मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट मात्र 2 माह में कार्यवाही पूर्ण करके विधानसभा के समक्ष रखी गयी और उसकी प्रतियां नदीम को भी उपलब्ध करायी गयी।
कई बार सूचना मांगने पर उत्तराखंड मानवाधिकार आयोग ने 2012 से 2018 तक 7 वर्षों की अलग-अलग रिपोर्ट के स्थान पर एक रिपोर्ट सरकार को 20 दिसम्बर 2018 को उत्तराखंड शासन के गृह विभाग को उपलब्ध करा दी, लेकिन उसके द्वारा इसे विधानसभा के समक्ष रखने की कार्यवाही उत्तराखंड सूचना आयोग के आदेश पर ही की। आखिकार 2012-2018 व 2018-19 की वार्षिक रिपोर्ट विधानसभा के जून 2022 के सत्र में पटल पर रख दी गयी। गृह विभाग के अधिकारियों ने 40 माह में जो कार्यवाही नहीं की थी, वह उत्तराखंड सूचना आयोग के विभागीय कार्यवाही के नोटिस के बाद मात्र दो माह में ही पूर्ण कर ली। सूचना आयोग ने गृह विभाग के अधिकारियों की कार्यशैली सुधार के लिये चेतावनी जारी करने के आदेश भी किये हैं। मैदानी जिलों में हुआ सबसे ज्यादा मानवाधिकारों का हनन उत्तराखंड सूचना आयोग के आदेश के बाद शासन द्वारा मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट विधानसभा के समक्ष रखने के बाद उसकी सूचना अधिकार कार्यकर्ता नदीम उद्दीन को उपलब्ध करायी गयी प्रतियों में दिये गये आंकड़ों से पता चलता है कि राज्य के मैदानी हिस्से मानवाधिकार उल्लंघन के लिए पर्वतीय क्षेत्र से कहीं आगे हैं। अस्सी फीसदी से अधिक शिकायतें आयोग को केवल मैदानी क्षेत्र से मिलने की दो ही वजह हो सकती हैं। या तो मानवाधिकार हनन वास्तव में मैदान में ज्यादा ही है या फिर सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों के मामले आयोग की चौखट तक पहुंच ही नहीं पाए। आयोग को मिली शिकायतों में सर्वाधिक 3291 शिकायतें उत्तराखंड की राजधानी देहरादून जिले से मिली। दूसरे स्थान पर 3262 शिकायतों के साथ तराई का उधमसिंहनगर जिला रहा तो 1819 शिकायतों के साथ हरिद्वार जिला तीसरे पायदान पर है। कुछ इस तरह हुआ हर साल मानवाधिकार का हनन आरटीआई एक्टिविस्ट नदीम को उपलब्ध वर्ष 2018-19 की रिपोर्ट के आंकड़ों के अनुसार उत्तराखंड मानवाधिकार आयोग को वर्ष 2012-13 से 2018-19 तक कुल प्राप्त 10736 शिकायतों में 2012 में 39, वर्ष 2013 में 877, वर्ष 2014 में 1095, वर्ष 2015 में 1680, वर्ष 2016 में 2116, वर्ष 2017 में 2240, वर्ष 2018 में 2201, वर्ष 2019 में 31 मार्च तक 487 शिकायतें प्राप्त हुई हैं। जिलेवार स्थिति रही कुछ इस तरह आयोग को जिलावार प्राप्त शिकायतों में 2012 से मार्च 2019 तक की अवधि में अल्मोड़ा जिले से 137, बागेश्वर जिले से 54, चमोली से 134, चम्पावत से 200, देहरादून जिले से सर्वाधिक 3291, हरिद्वार जिले से 1819 , नैनीताल जिले से 932, पौड़ी से 306, पिथौरागढ़ जिले से 199, रूद्रप्रयाग जिसे से 58, टिहरी जिले से 234, उधमसिंह नगर जिले से 3262 तथा उत्तरकाशी जिले से 110 शिकायतें प्राप्त हुई है।