गिरीश नेगी
मध्य हिमालय क्षेत्र में आजीविका मुख्यतः कृषि पर आधारित है। यहाँ क्षेत्रफल का लगभग 15 प्रतिशत भाग ही कृषि के अंतर्गत आता है, जिसका केवल 10 प्रतिशत भाग सिंचित है। भू विभाजन की दृष्टि से इस क्षेत्र में औसतन केवल 0.8 हेक्टेयर भूमि ही 5-6 सदस्यों के परिवार के लिए उपलब्ध है, जो 0.01 से 0.058 हेक्टेयर आकार के 15-20 छोटे-छोटे सीढ़ीनुमा खेतों में पहाड़ी ढालों में दूर-दूर छितरी हुई है। अतः कृषि का वर्तमान स्वरूप यहाँ के स्थानीय लोगों की खाद्यान्न जरूरत की पूर्ति करने के लिए अपर्याप्त है। कृषि की उपयोगिता यहाँ दिन-प्रतिदिन सीमित होती जा रही है।
इस क्षेत्र में वार्षिक वर्षा (150-250 सेमी) का लगभग दो-तिहाई वर्षा ऋतु के दौरान प्राप्त होता है। यह क्षेत्र उत्तर भारत की कई महत्वपूर्ण नदियों का उद्गम स्थल है। हाल के दशकों में इन जल स्रोतों के जल प्रवाह में कमी आ गई है। कई बारहमासी जल स्रोत मौसमी हो गए हैं और कुछ सूख गए हैं। मिट्टी की उर्वरता एवं सिंचाई हेतु जल की अनुपलब्धता से कृषि पैदावार में उल्लेखनीय गिरावट आई है। फसली भूमि को अब अकृषि उपयोग एवं बिना जुताई के एवं फसल उगाये छोड़ा जा रहा है।
जल संसाधनों के उपयोग के लिए विकसित मजबूत सामुदायिक प्रबंधन की परम्परा अब समाप्तप्राय है, अतः जल संसाधनों के प्रबंधन की कई चुनौतियां उत्पन्न हो गई हैं। इनके समाधान के लिए यहाँ ‘पानी पंचायत’ जैसे प्रयोग किये जा रहे हैं। प्रस्तुत अध्ययन में मध्य हिमालय ़क्षेत्र के ग्रामीण क्षेत्रों के कृषक समुदायों में जल संरक्षण से संबंधित प्रचलित विभिन्न समृद्ध स्वदेशी विधियों का दस्तावेजीकरण किया गया हैं, जिसके लिये बुजुर्ग व्यक्तियों और महिलाओं सहित कई समुदाय और समूहों से लेखक द्वारा बातचीत की गई।
1. कृषि भूमि की सिचाई हेतु परम्परागत जल प्रबंधन:
इस विधि में प्रमुखतः नहर, जिन्हें स्थानीय भाषा में कूल या गूल कहा जाता है, द्वारा सिंचाई होती है। ये गूलें मिट्टी एवं पत्थर की बनी होती है, जिन्हें पहाड़ी ढाल के साथ-साथ एक खेत से दूसरे खेत में पहुँचाया जाता हैं। इनमें जल प्रवाह के लिए जलधारा को बडे़-बडे़ पत्थर रखकर मोड दिया जाता है और पानी के रिसाव को कीचड़ और घास से बंद कर दिया जाता है। संरचनात्मक शक्ति के लिये कभी-कभी कंटीली झाड़ियों या वृक्ष की शाखाओं को भारी पत्थरों के नीचे दबा दिया जाता है। यदि, कृषि भूमि जल धारा के स्तर से ऊपर है तो नींव में बड़े पत्थर और विपरीत संरचना के रिम के चारों ओर बड़े पत्थर रखकर धारा को 1-2 मीटर तक ऊंचा कर दिया जाता है, जिससे जल धारा द्वारा लाए गए रेत, कंकड़ और अन्य सामग्री तलहटी में जमा हो जाती है जो जल धारा के प्रवाह को निकटवर्ती नहर में मोड़ने के लिए उपयुक्त संरचना प्रदान करती हैं। जल धारा के प्रवाह को नहर में मोड़ने हेतु नाले की चैड़ाई में मजबूत लकड़ी के खंभों को क्षैतिज रूप में लंबवत् लगाया जाता है, जिसके अंदर से बड़े-बडे़ पत्थर, कंकड़ों एवं कीचड़ से लेप करके जल को रोक कर नहर में प्रवाहित किया जाता हैं। मुख्य सिंचाई नहर (गूल) को कई छोटी-छोटी गूलों में विभाजित किया जाता है, जो इसके नियंत्रण क्षेत्र में प्रत्येक खेत से जुड़ती हैं। एक कृषक के खेत से गुजरने वाली गूल दूसरे कृषक के समीपवर्ती खेतों तक पानी पहुंचाती है। जुताई और अन्य कृषि कार्यों के दौरान और खरपतवार आदि के कारण क्षतिग्रस्त गूल का रखरखाव संबंधित खेत के स्वामी द्वारा किया जाता है। इस प्रकार पीढ़ियों से बना हुआ गूलों का एक जाल कृषक समुदाय के द्वारा सिंचाई हेतु उपयोग किया जाता है। उल्लेखनीय है कि छोटी-छोटी गूलों का यह जाल हालांकि कानूनी रूप से वैध नहीं है, फिर भी सिंचाई के लिए आवश्यक सामाजिक सामंजस्य और एक-दूसरे पर निर्भरता के कारण कुशलता से काम करता है। वर्षा आधारित फसल वाले खेतों में, मिट्टी की नमी में कमी की पूर्ति के लिए वर्षा ही एकमात्र स्रोत है। पर्वतीय कृषक मृदा में नमी की समस्या से निपटने के लिए जल संरक्षण के उपायों जैसे, कम जुताई (आवृत्ति और गहराई) और सूखा प्रतिरोधी फसलों (जैसे- जौ, बाजरा, तिलहन और दलहन आदि) की खेती करते हैं, जिनके लिए पानी की आवश्यकता कम होती हैं। वर्षा और मिट्टी की नमी की सामान्य परिस्थितियों में वर्षा आधारित फसलों को दो बार और सिंचित फसलों को तीन बार जुताई के बाद बोया जाता है। हालांकि, मिट्टी में नमी की कमी और सूखे की स्थिति में, वर्षा आधारित फसल वाले खेतों में केवल एक ही बार जुताई की जाती है और जुताई को 10 सेमी से कम गहरा किया जाता है। फसलों की किस्मों एवं फसल चक्र को पर्वतीय कृषकों नें वर्षा के अनुसार परीक्षण द्वारा प्राप्त सफलता एवं असफलता के आधार पर लंबी अवधि के बाद चुना है।
2. तालाब द्वारा सिंचाई:
यह विधि सूक्ष्म जल स्रोतों से पानी के प्रवाह को संग्रहीत करने का एक सामान्य तरीका है। तालाबों का निर्माण छोटे तथा मौसमी/बारहमासी धाराओं पर किया जाता है, जिसमें पानी के ढाँचे की संरचना और गूलों के निर्माण एवं उनकी मरम्मत और रखरखाव के लिए संपूर्ण हितधारक समुदाय को शामिल किया जाता हैं। प्रत्येक व्यक्ति कृषक समुदाय द्वारा तय किए गए संचालन एवं रखरखाव के नियमों का पालन करता है। लोग तालाब निर्माण हेतु आवश्यक उपकरणों को लाते हैं और जल प्रवाह को अवरुद्ध करने के लिए एक कीचड़ और पत्थर की संरचना को बनाते हंै। इस तरह की जल संग्रह संरचना आमतौर पर 5-15 मीटर चैड़ी और 1-2 मीटर ऊंची होती हैं। बड़े पत्थर-बोल्डर नींव पर रखे जाते हैं। उसके बाद छोटे पत्थर और ऊपर से घास और कीचड़ डाला जाता हैं। तालाब के तल पर एक जल प्रवाह अवरोधक छोड़ दिया जाता है। जब जलाशय भर जाता है तो तल पर बने इस छेद को खोल दिया जाता है और सिंचाई के लिए पानी को नहर से जोड़ दिया जाता है। तालाब के जल की समाप्ति पर समुदाय का अगला कृषक अब तालाब के छेद को अवरुद्ध करता है और सिंचाई के लिए तालाब के पानी का उपयोग करता है। इस प्रकार का एक तालाब 0.1-0.25 हेक्टेयर फसल के खेतों की सिंचाई करने के लिए पर्याप्त है। ऐसे तालाबों का कृषि भूमि नियंत्रित क्षेत्र आमतौर पर 1-2 हेक्टेयर होता है। कभी-कभी कई छोटे तालाब जल धारा में निश्चित दूरी पर एक क्रम में बनाए जाते हैं, जिन्हें 1 हेक्टेयर से कम क्षेत्र वाले कृषक समुदाय के सदस्यों द्वारा साझा किया जाता है।
इसी प्रकार वर्षा जल की पहाड़ की ढाल पर एकत्र करने हेतु पहाड़ के ढलान वाले सिरे की ओर मिट्टी और पत्थर का तटबंध (खाल) बनाया जाता है। यह जल भंडार मुख्य रूप से मवेशियों द्वारा चराई और डेरा डाले जाने के दौरान उपयोग किया जाता है। इन खालों में एकत्र जल के रिसाव से पर्वत की तलहटी के जल स्रोतों में जल निर्वहन का लाभ होता है। उत्तराखंड में ऐसे चाल-खालों की एक समृद्ध परम्परा थी। इनमें से अधिकांश खाल अब रखरखाव और लोगों की भागीदारी न होने के कारण अदृश्य हो गए हैं।
3. सिंचाई की बारंबारता/सारिणी:
सामुदायिक गूलों में समुदाय के बुजुर्ग लोग फसलों हेतु, मौसम और पानी की उपलब्धता के आधार पर सिंचाई का क्रम तय करते हैं। सिंचाई के लिए सब्जी की फसलों को प्राथमिकता दी जाती है। यदि पानी का प्रवाह कम है, तो गूल के अन्तिम छोर से गूल के निकटवर्ती सिरे की ओर तो सिंचाई की जाती है। प्रत्येक खेत का मालिक कृषक सिंचाई के लिए अपनी बारी का इंतजार करता है। यह बारी दिन या रात के दौरान कभी भी आ सकती है। जब गूल में पानी अधिक उपलब्ध हो तो सिंचाई हेतु कोई निष्चित समय नहीं होता है। इस स्थिति में नहर के कई बिंदुओं पर सिंचाई के लिए पानी को मोड़ दिया जाता है। कभी-कभी, जब प्रवाह अत्यन्त अल्प हो जाता है तो मुख्य गूल में जल प्रवाह नही हो पाता। ऐसी स्थिति में जल को नहर के अंतर्गत ही भरने के लिए छोड़ दिया जाता है। एक बार जब यह गूल भर जाती है, तो जल की इस नाकेबंदी को अचानक हटा दिया जाता है। कभी-कभी एक से अधिक किसान एक समय में संग्रहीत पानी को साझा करते हैं।
4. सिंचाई जल की मात्रा:
किसान पारंपरिक ज्ञान के आधार पर फसलों की सिंचाई की मात्रा एवं बारंबारता तय करते हैं। धान के फसल में संपूर्ण अवधि के दौरान, सिचाई हेतु पानी की आपूर्ति उपलब्ध होने पर 7-8 बार सिंचाई की जाती है। सिंचाई प्रातःकाल या देर शाम को की जाती है, क्योंकि धूप के कारण दोपहर में पानी गर्म रहता है जिससे सिचाई करना फसल के लिए हानिकारक होता है। कभी-कभी जब प्रचुर मात्रा में पानी उपलब्ध होता है, तो पानी की छोटी धार धान के खेतों में पौधे के बढ़ती अवधि के दौरान (जुलाई-अगस्त) छोड़ दी जाती है और पानी की ताजगी बने रहने देने के लिए खेतों के कोने से एक जल मार्ग छोड़ दिया जाता है। ताजे पानी की यह निरंतर आपूर्ति धान के लिए फायदेमंद मानी जाती है। गेहूं के लिए 20-25 दिनों के अंतराल पर सिंचाई की जाती है एवं फसल की संपूर्ण अवधि में कुल 4-5 बार सिंचाई की जाती है। सर्दियों के दौरान हल्की सिंचाई की आवश्यकता होती है। इससे मिट्टी ठंडी हो जाती है और पानी के अतिप्रवाह से बचाने के लिए खेत को समान रूप से सिंचाई के लिए छोड दिया जाता है। कंद वाली फसलों जैसे आलू, प्याज, मूली, हल्दी, अदरक इत्यादि के लिए 20 दिनों के अंतराल पर सिंचाई की जाती है।
5. सूक्ष्म सिंचाई:
गर्मी के दिनों में पानी की कमी होने पर बेल वाली सब्जी के पौधो को विशेष रूप से छोटे गोलाकार गड्ढों में प्रत्यारोपित किया जाता है। मिर्च के बीजों का प्रत्यारोपण भोर में किया जाता है, ताकिं नाजुक रोपाई रात भर सूखी मिट्टी को सोखती रहे और अगले दिन धूप का सामना कर सके। प्रारंभिक एक सप्ताह तक रोजाना सुबह और शाम पौधों की जीवन रक्षक सूक्ष्म सिंचाई में एक लगभग 200 मिली. के बर्तन का उपयोग किया जाता है। इसके अलावा, आसपास उपलब्ध खरपतवार व झाड़ियों के पत्तेदार टहनियों को शुरुआती 2-3 दिनों के लिए नाजुक अंकुर को छाया प्रदान करने के लिए गड्ढे के चारों ओर रोपा व बिछाया जाता है। फूलगोभी, बैंगन और कई बेलदार सब्जियों आदि (जैसे लौकी, करेला, तुरई, चिचिण्डा, कद्दू,) के लिए यह उपाय किया जाता है।
खेतों के मृदा जल संरक्षण की परम्परागत विधियाँ
1. खेतों में मेंड़:
फसल की बुआई के समय खेतों को समतल करना एवं खेतों में ऊँचाई/चैड़ाई अनुसार मेंड़ो कों बनाना जल संरक्षण की एक सदियों पुरानी प्रथा है। सिंचित खेतों में हर बुआई एवं सिचाई के समय मेंड़ बनाए जाते हैं। आम तौर पर वे 15-20 सेमी ऊंचे होते हैं, जिससे खेत में भरने वाले पानी के ठहराव और भू कटाव के जोखिम से बचा जा सकें। मेंडें़ सामान्यतः मिट्टी की बनाई जाती है जो घास जमने से मजबूत होती जाती है एवं खेतों के किनारों की ओर बारिश एवं मिट्टी की ढलान/कटाव के दौरान मिट्टी को कस कर पकड़ के रखती हैं। खेत की लंबाई-चैडाई यदि अधिक हो एवं इसे समतल करना मुमकिन न हो तो एक ही खेत को मेंड़ों द्वारा 2-3 छोटे हिस्सों में बाटकर समतल किया जाता है, ताकिं पानी के प्रसार को सुनिश्चित किया जा सके। पहली मौसमी बाढ़ का पानी खेत के लिए अच्छा माना जाता है, क्योंकि यह कार्बनिक पदार्थ को साथ लाता है और खेत में महीन गाद जमा करता हैं जो मृदा की उर्वरा शक्ति को बढ़ाता हैं। यह प्रयोग ज्यादातर धान के खेतों में किया जाता है।
2. जुताई के तरीके:
खेतों में मिट्टी की नमी को संरक्षित करने के लिए जुताई के माध्यम से भी कई विधियों का पालन किया जाता है। सर्दियों की बारिश के तुरंत बाद, खेतों की जुताई की जाती है एवं पटले (भारी लकड़ी की आयताकार प्लेट) का उपयोग करके मिट्टी को बारीक करते हुए समतल किया जाता है, जिससे गहरी मिट्टी की परतों में नमी संरक्षित हो जाती है एवं बीज अंकुरण के अच्छे परिणाम प्राप्त होते है। कभी-कभी बारिश के अंत में फसल की कटाई के तत्काल बाद जुताई करके मिट्टी की नमी के साथ खरपतवार को अधिक भूमि की गहरी परतों में दफनाया जाता है। खरपतवार के सड़ने से मिट्टी की नमी और मिट्टी की उर्वरता दोनों बढ़ते हंै, जो फसल के अंकुरण और वृद्धि के लिए लाभदायक होता है। शरद ऋतु में गेहू की बुवाई से पूर्व कुछ कृषक गूल द्वारा सिचाई की उच्च मांग की प्रतिस्पर्धा से बचने के लिए खेतों को पानी से संतृप्त कर लेते हैं, जिससे मृदा की गहरी परतों में सिंचित हुआ जल गेहूँ के बीजों में अंकुरण हेतु मदद करता है। कुछ जगहों पर धान की नर्सरी के लिए बीज की बुआई गोलाकार तरीके से की जाती है। नर्सरी पौध बढ़ाने के लिए धान के बीजों के प्रसारण, बुवाई और लाइन बुवाई की तुलना में यह विधि अधिक जल संरक्षक है। इस विधि में गोलाई में बनाये गये कूलों की बाहरी रिंग के प्रवेश बिंदु पर छोड़ा गया जल प्रवाह पूरे क्षेत्र में एक गोलाकार तरीके से फैलता है। धान के बीजों को नर्सरी की तैयारी के लिए रात भर भिगोने से भी अच्छा अंकुरण प्राप्त करने और अंकुरण के लिए सिंचाई की मांग को कम करने के लिए किया जाता है। मृदा अपरदन को रोकने हेतु ढलवा खेतों की जुताई की ज्यामितिय विधि में पहली और दूसरी लाइन को एक दूसरे से सीधा किया जाता है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई भी मिट्टी बिना जुते न रह जाए।
3. अन्य परम्परागत विधियाँ:
मृदा जल संरक्षण एवं मृदा कटाव रोकने हेतु खरपतवार की पलवार (मलचिंग) भी एक अन्य परम्परागत विधि है। मवेशियों द्वारा छोडे गए गेहूं और सूखे चारे वाली घास के अवशेषों को नमी संरक्षण और मृदा उर्वरता सुधार के लिए पलवार के रूप में उपयोग किया जाता है। इस विधि से सर्दियों के दौरान कोमल बीजांकुरों को तथा मृदा की नमी के वाष्पीकरण से बचने और कोमल सब्जी के अंकुरों को गर्मी से सुरक्षा प्रदान की जाती है। इस विधि में सर्दियों के दौरान फूलगोभी, प्याज, मिर्च, बैंगन इत्यादि सब्जियों के बीज लगाना एक आम प्रथा है। पलवारों के उपयोग से हल्दी, अदरक और अरबी जैसी फसलों को भी लगाया जाता है। यह विधि गर्मियों में मिट्टी की नमी को वाष्पीकरण से बचाने एवं वर्षा ऋतु में मृदा अपरदन के माध्यम से मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने के लिए प्रयुक्त की जाती है। इसी प्रकार रिले फसल, मुख्य फसल की एक सहायक फसल के रूप में पौधों के बेहतर अंकुरण एवं वृद्धि को प्राप्त करने के लिए उपयोग में लायी जाती हैं। इस विधि में मुख्य फसलों के लम्बे पौधों के नीचे नमी और छाया का उपयोग करने का एक पारंपरिक तरीका है। धान की फसल की कटाई से एक सप्ताह पहले मसूर की बुवाई और परिपक्व मक्के की फसल की कतारों के बीच मूली की बुवाई करना रिले क्रॉपिंग के कुछ प्रमुख उदाहरण हैं।
4. मृदा उर्वरता प्रबंधन और स्व-स्थाने नमी संरक्षण:
इस विधि के अन्र्तगत स्थान विशेष के अनुसार कई परम्परागत विधियाँ प्रचलित है। (प) आसपास के जंगलों में चीड़ की पत्तियों का संग्रहण करके उन्हें फसल के खेतों में फैलाकर धान की बुवाई के समय ग्रीष्म ऋतु में जलाया जाता है। ज्वलनशील चीड़ की पत्तियां तेजी से जलती हैं। इसकी राख को मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने के लिए उपयोगी माना जाता है। इस आग से खरपतवारों के बीज एवं नुकसानदायक कीडे़-मकौड़े जल जाते हंै। चीड़ की पत्तियों के इस्तेमाल से जंगल की आग की गंभीर समस्या का प्रभाव कम होना इस प्रथा का एक और फायदा है। (पप) खरपतवार और फसल के अवशेषों एवं मवेशियों के चारा अवशेष के सूखने के बाद उन्हें खेतों में जला दिया जाता है। यह राख मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाने के लिए उपयोगी मानी जाती है और इसके मूल खंड और बीजों को जलाने के कारण खरपतवार को नियंत्रित किया जाता है। (पपप) फसल के खेतों में स्वस्थानी खाद की प्रथा में खरीफ की फसल की कटाई के बाद कुछ दिनों के लिए रात भर खेतों में मवेशियों का डेरा डालना शामिल है। इस प्रकार खेतों पर गोबर और मूत्र के जमा होने के बाद मवेशियों के झंुड को अन्य खेतों में स्थानांतरित किया जाता है। इस प्रक्रिया से, पशुपालन से लेकर खेतों तक के लिए पोषक तत्वों और परिवहन श्रम की हानि को बचाया जा सकता है।
जल प्लवन के निपटान के लिए परम्परागत प्रबंधन:
बहुत बार घाटी क्षेत्रों में ऊपरी पहाड़ों से प्रवाहित जल के भराव व रिसाव के कारण भूमि दलदली हो जाती है। अधिक नमी के कारण ऐसी भूमि में फसल उगाना मुश्किल हो जाता है। इस भूमि में धान की कुछ किस्में ही उगाई जाती हैं, जो पानी के ठहराव को सहन करती हैं। इस भूमि से जल की निकासी एवं मृदा को शुष्क करने हेतु इसकी गहरी खुदाई वसंत ऋतु के दौरान की जाती है और मिट्टी को फसल बुवाई हेतु उपयुक्त बनाया जाता है। मिट्टी में बची नमी के मध्यनजर उपयुक्त अंतराल पर फिर खुदाई की जाती हैं। गहरे गूल मेंड़ों के किनारे की ओर खोदे जाते हैं, जिनसे भूमि की उप-सतह का पानी रिसता है और कृषकों द्वारा समन्वित रूप से कृषि भूमि से सुरक्षित रूप से हटा दिया जाता है।
छत से वर्षा जल का संचयन:
वर्षा के दौरान छत से टपकने वाले जल को आंगन में नीचे बड़े-बड़े बर्तनों में एकत्र किया जाता है। आमतौर पर इस जल का उपयोग मवेशियों के पीने, कपड़े, बर्तन और घर के परिसर को धोने, शौचालय की सफाई और कभी-कभी पीने के लिए (छानकर या उबालकर) प्रयोग किया जाता है। परंपरागत रूप से, वर्षा जल के अतिप्रवाह को एक आंगन में निश्चित स्थान पर बने छिद्रों के माध्यम से निर्गम की व्यवस्था होती है, जो आसपास के बगीचे में खुलता है और किचन गार्डन की सिंचाई में उपयोगी होता है। हालांकि, देर से सही, सभी लोगों ने आंगन के एक कोने में इस अति प्रवाहित जल को एकत्र करने के लिए छत के शीर्ष के ढलान वाले किनारे के साथ टिन/रबर के प्लास्टिक गटर को एक सीमेंट की टंकी/ड्रम वाले भण्डारक में पानी को एकत्र करना शुरू कर दिया है। इस पानी को विभिन्न घरेलू उपयोगों में लाया जाता है। कभी-कभी लकड़ी के लॉग में खोखला करके इसे छत के नीचे वर्षा जल को एकत्र करने हेतु रखा जाता है, जिसे मवेशियों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है।
अपशिष्ट जल का उपयोग: (1). छोटे से आंगन वाला स्टेप वेल (पीने के लिए सीपेज के पानी को पुनः प्राप्त करने के लिए लगभग 1-2 मीटर गहरी संरचना वाला नौला) लगभग 1 मीटर ऊँचे पत्थर के दिवार से घिरा होता है, तांकि पशु-पक्षी पानी को गंदा न करें। इसके बजाय दीवार के आधार पर एक आउटलेट छोड़ दिया जाता है, जिसके माध्यम से पानी अच्छी तरह से बहता है और तालाब पर खुलता है, जहाँ आने वाले मवेशियों के उपयोग के लिए पानी संचित रहता है। (2). सामुदायिक नल से आने वाले अपशिष्ट जल/रिसाव को पास में खोदी गई तलैया में संग्रहीत किया जाता है, जिसका उपयोग इसके इर्द-गिर्द किचन गार्डन फसलों की सिंचाई के लिए किया जाता है। (3). रसोईघरों से उत्पन्न अपशिष्ट जल को किचन गार्डन में नाली द्वारा डाला जाता है। इस जल में उपस्थित बर्तन साफ करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली राख को पौंधांे हेतु उर्वरक माना जाता है।
पारंपरिक ज्ञान आमतौर पर किसी क्षेत्र के लिए स्वदेशी होते हैं और पारिस्थितिकी परिवर्तन, समय की गतिशीलता और जैविक संरक्षण की प्रक्रियाओं की मौलिक समझ व अनुभव के आधार पर परिपक्व होते रहते हैं। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में विशुद्ध पारंपरिक प्रथाओं का हस्तान्तरण पूर्व अनुभवों एवं गुण-दोष के आधार पर विचार करने के लिए होता है। मध्य हिमालय के ग्रामीण कृषक स्थानीय मिट्टी और फसलों के लिए सिंचाई आवश्यकताओं के बारे में ज्ञान का खजाना संजोये हुए हैं। उनके पास अक्सर व्यावहारिक डिजाइन और अनुभव होता है, जिसे सरकारी सिंचाई योजना के निर्माण के समय अनिवार्य रूप से शामिल किया जाना चाहिए। सामुदायिक भागीदारी के माध्यम से जल प्रबंधन पर समृद्ध विरासत के इस लुप्तप्रायः ज्ञान के लिए अब जनचेतना चिंताजनक स्थिति में दिखाई देती है। आधुनिक तकनीक पर आधारित जल प्रबंधन का चलन अक्सर लागत प्रभावी साबित नहीं होता हैं और पहाड़ के वातावरण की गतिशील प्रकृति का सामना करने के लिए अप्र्याप्त होता हैं। इस तरह की तकनीक की सामाजिक स्वीकृति भी कभी-कभी बाधा बन जाती है। हालाँकि, लोग आधुनिक तकनीकी विकास के साथ स्वदेशी प्रथाओं को उन्नत करना जारी चाहते हैं, जिसके अंतर्गत वे काम करते हैं। वे उन्हें जैव-भौतिक वातावरण में प्रभावी और व्यवहार्य बनाते हैं। इसलिए, नीति निर्माताओं और कार्यक्रम कार्यान्वयनकर्ताओं की विचार प्रक्रिया में मध्य हिमालयी क्षेत्र में मिट्टी और जल संरक्षण कार्यक्रमों में महत्वपूर्ण और प्रारंभिक बिंदुओं के रूप में जगह मिलना आवश्यक हो गया है। पुनः जलवायु परिवर्तन के मध्यनजर जल संसाधन में आ रही कमी एवं अनिश्चितता का भी ध्यान रखना पड़ेगा। इस क्षेत्र में पारम्परिक कृषि में पानी के बेहतर वैज्ञानिक प्रबंधन के लिये पारंपरिक ज्ञान प्रणाली का एक प्रभावी मूल्यांकन करने और आधुनिक तकनीकी को इस परम्परागत ज्ञान से और अधिक कैसे विकसित किया जा सकता है, इस पर सोचने की जरूरत है।