आलोक प्रभाकर
जल समाधि ले चुकी पुरानी टिहरी की होली के बारे में नयी पीढ़ी को शायद ही पता होगा कि वहां की परम्परागत होली की रंगत किस कदर छटा बिखेरती थी और पूरा नगर किस तरह होली की रंगीनियों में डूब जाया करता था।
टिहरी नगर के रियासतकालीन जमाने में यहां अष्टमी के दिन से ही होली प्रारम्भ हो जाती थी। राज्य-ज्योतिषी के लग्न के अनुसार अष्टमी की सुबह से ही होली का माहौल बनने लगता था। रियासत के कर्मचारी और शहर के प्रमुख नागरिक सफेद पोशाक पहनकर राजमहल से बाहर निकल पड़ते थे। सब लोग जय-जयकार करते हुए शहर के सभी मन्दिरों पर रंग चढ़ाते थे। रघुनाथ मन्दिर, बद्रीनाथ मन्दिर और अन्य देवमन्दिरों में देवपूजन कर होली का रंग चढ़ाया जाता था। इसके बाद लोग आपस में एक-दूसरे पर रंग मलते थे। राजा और प्रजा द्वारा एक-दूसरे पर सूखा रंग मलने की प्रथा थी।
इन दिनों होली की शानदार महफिलें जमती थीं। होली की महफिल पुराने दरबार में महारानी गुलेरिया के महल के सामने शामियाना लगाकर आयोजित की जाती थी। होली दरबार में सब लोग सफेद पगड़ी, सफेद अचकन और चूड़ीदार पायजामा पहनकर भाग लेते थे। होली का दरबार नवमी से लगता था। हिन्दू, मुसलमान, ईसाई सभी धर्मो के लोग होली के इस रंगभरे उत्सव में शामिल होते थे।
महफिल में सबसे पहले पान, सुपारी, मिश्री, इलायची आदि पेश की जाती थी। उसके बाद वजीर महाराजा के ऊपर कोरा रंग डालता था। इसके बाद रंग की पिचकारियां चलने लगतीं, जो करीब दो घंटे तक जारी रहती थीं। किस्म-किस्म के रंग टेसू, ढाक, किनगोड़ और अन्य लकड़ियों को उबालकर बनाए जाते थे। लाल, पीले और जामुनी रंग अधिक प्रयोग किए जाते थे। होली का दरोगा कई दिन पहले से ही रंगों को बनाने की तैयारियां कर लेता था। रंगों को पीतल की बाल्टियों और टबों में भर कर महफिल में बैठे हुए लोगों के सामने कुछ पिचकारियों के साथ रख दिया जाता था। महाराजा के सामने रंग से भरा चांदी का टब होता था।
इधर रंग का यह मन-भावन खेल चलता रहता, तो उधर राधा, छुड़की और नारदेई जैसी नर्तकियां भी दरबार में हाजिर होतीं। उनके नाच-गाने का कार्यक्रम भी साथ-साथ चलता रहता था। सारंगी की धुन, तबले की धिन-धिन और घुंघरुओं की झन-झन झंकार माहौल की रौनक में चार चांद लगा देती। महाराजा के होली खेल कर खड़े हो जाने पर होली का दरबार खत्म हो जाता। होली दरबार की सुनहरी याद को समेट कर सब अपने-अपने घरों को लौट जाते और नहा-धोकर अपने काम धन्धों में लग जाते। होली पर्व की रातों में दावतें होतीं, अष्टमी से लेकर पूर्णिमा तक पूरा वातावरण होलिकामय ही रहता। दफ्तरों, स्कूलों में छुट्टी का सा माहौल हो जाता था। सब लोग होली खेलने में ही लगे रहते थे।
फागुन-पूर्णिमा की रात को ‘सेमल के तप्पड़‘ में होलिका दहन का कार्यक्रम होता था। महाराजा होलिका की पूजा करके होलिका दहन करते और फिर उसकी परिक्रमा करते। होलिका दहन के लिए चीड़ की एक लकड़ी को बीच में गाड़कर उसके चारों और परिक्रमा की जाती। परिक्रमा के बाद फिर सब अपने-अपने घरों को लौट जात थे।
होलिका दहन के बाद उस स्थान पर पुलिस का पहरा लगता और दूसरे दिन जब होलिका की आग ठण्डी होकर शांत हो जाती तो सबसे पहले वहां की राख महाराज के महल में भेजी जाती। उसके बाद ही इस राख को दूसरे लोग अपने घरों में ले जाते। ऐसी मान्यता थी कि इस राख को लगाने से बच्चों के तमाम रोग दूर हो जाते हैं। लोग इस राख को पूरे साल तक अपने घरों में रखे रहते थे।
होलिका दहन के दूसरे दिन राख की होली खेली जाती, जिसे ‘छरोली‘ कहा जाता था। पूरे टिहरी शहर में अच्छा खासा हो-हल्ला मच जाता था। होली का उत्सव समाप्त होने पर लोग घर लौटकर नहाते और आम के बौर को चखते, इस तरह हफ्ते भर चलने वाले इस रंगीन होली पर्व का अवसान हो जाता था। लोग अगले साल की होली इन्तजार करते।
आज की होली इन सबसे परे है। नागरिकों ने स्वयं को होली के इस रंगीन उल्लास से अलग कर दिया है। लोग अपने घरों, कन्दराओं में कैद होकर होली के इस हुडदंग से बचा रहे हैं। हम सबने होली के इस उल्लास को एक तरह से कब्र में दफना दिया हैं। लोग होली के हुड़दंग को ही उल्लास मानकर अपनी खुशी जाहिर कर रहे हैं।