आदि गुरू शंकराचार्य द्वारा आठवीं शताब्दी के मध्य में बद्रीनाथ स्थित नारद कुंड में फेंकी गई विष्णु रूप भगवान शालिग्राम की मूर्ति को पुनः बद्रीनाथ मंदिर में स्थापित किए जाने के साथ ही श्री बदरीनाथ धाम के उत्तर स्थित चार धाम के रूप में मान्यता प्राप्त हुई .जहां की केरल के नंबूद्रीपाद ब्राह्मण को पुजारी के रूप में बतौर रावल नियुक्त किया गया . बहुत जल्द ही उत्तर के इस तीर्थ में अखिल भारतीय मान्यता प्राप्त कर ली और देश के कोने कोने से यात्रियों का यहां आना प्रारंभ हो गया .
नवी शताब्दी के 888 वर्ष में जब गढ़वाल के चांदपुर गढ़ी में भानु प्रताप राजा थे तो उन्हें ज्ञात हुआ कि राजस्थान / गुजरात की धारा नगरी के शक्ति संपन्न पंवार वंशीय राजकुमार कनक पाल भगवान बद्रीश की यात्रा को आ रहे हैं . उनके राजकीय अतिथ्य के लिए राजा भानु प्रताप ने अपना दल उनके स्वागत को हरिद्वार भेजा .चांदपुर गढ़ी के राजा के राजकीय आतिथ्य में राजकुमार कनक पाल की यात्रा प्रारंभ हुई. कनक पाल एक धर्म निष्ठ राजकुमार थे बद्रीनाथ में उनके द्वारा भगवान बद्रीनाथ से संवाद स्थापित किया बोन्दा बद्री कहलाए . वापसी में राजा भानु प्रताप ने अपनी एक मात्र पुत्री का पाणिग्रहण कनक पाल के साथ संपन्न किया और उनसे यहीं राज्य करने का आग्रह किया .कनक पाल ने तब अलग से त्रिहरी अपभ्रंश टिहरी राजवंश की स्थापना की और 1803 तक लगातार न केवल साम्राज्य किया बल्कि साम्राज्य का विस्तार भी किया . टिहरी साम्राज्य सुदूर कुमाऊं तक और दक्षिण में सहारनपुर तक फैल गया .
1803 में गोरखा युद्ध में उसे पराजय का सामना करना पड़ा तब राजा प्रद्युमन शाह मारे गए . सुदर्शन शाह को सेना ने सकुशल वापस निकाल लिया 1815 में अंग्रेजों की मदद से सुदर्शन शाह ने गोरखाओ से अपना खोया राज्य वापस ले लिया .लेकिन यहां टिहरी रियासत का विभाजन हुआ पूर्वी गढ़वाल जिसे ब्रिटिश गढ़वाल कहा गया कुमायूं का भाग तथा कालसी से से पश्चिम का क्षेत्र व देहरादून को संधि द्वारा अंग्रेजों को दे दिया .
ब्रिटिश काल सन् 1815 से पूर्व बद्रीनाथ धाम की पूजा अर्चना तथा आर्थिक प्रबंध टिहरी राजा द्वारा स्वयं देखे जाते थे . वह अपने राज्य को बद्रीश चर्या के रूप में ही प्रचारित करते थे .श्री बदरीनाथ धाम के प्रति राजा का यह समर्पण तथा पूर्वज कनक पाल की बद्रीश संवाद परम्परा उन्हें ‘बोंदा बद्री” बोलता बद्रीनाथ के रूप में स्थापित करती हैं . जब यह दुर्गम क्षेत्र था पुजारी रावल तथा स्थानीय लक्ष्मी मंदिर के पुजारी डिमरी परिवार पर राज प्रसाद की विशेष कृपा रही .
1815 के बाद बद्रीनाथ धाम ब्रिटिश गढ़वाल के अंतर्गत आ गया तकनीकी रूप से राजा का यहां प्रबंध कठिन हो गया . ब्रिटिश सरकार ने 1810 के बंगाल रेगुलेटिंग एक्ट से इस मंदिर की व्यवस्था प्रारंभ की लेकिन अत्यधिक दूरी होने के कारण यह प्रबंध प्रभावी नहीं रहा . मंदिर के स्थानीय पुजारियों को लगातार संकट का सामना करना जिसमें तब भी टिहरी राजा मंदिर के पुजारी रावल और डिमरी संप्रदाय की लगातार मदद करते रहे . भावनात्मक रूप से मंदिर का प्रबंधन टिहरी राज दरबार से संचालित होता रहा .
1860 के बाद ब्रिटिश हुकूमत ने धार्मिक संस्थाओं के प्रबंधन से खुद को अलग कर लिया उसका लाभ बद्रीनाथ मंदिर को भी प्राप्त हुआ . अब टिहरी राज दरबार पुरानी परंपराओं के अनुसार बद्रीनाथ धाम की पूजा व्यवस्था और आर्थिकी का संचालन करने लगे .
सुदर्शन शाह के बाद प्रताप शाह ,कीर्ति शाह और नरेंद्र शाह राजा हुए इन सब राजकुमारों ने अपनी राजधानियां अलग-अलग कस्बो में क्रमशः प्रताप नगर, कीर्ति नगर और नरेंद्र नगर बसाई .लेकिन टिहरी राजवंश का भगवान बद्रीनाथ के प्रति परंपरागत समर्पण और परंपराओं का निर्वहन बना रहा . टिहरी रियासत बद्रीनाथ धाम का धार्मिक एवं आर्थिक प्रबंध लगातार देखती रही.
#मंदिरकाआर्थिकसंकट : हालांकि 1923 में अपनी रिपोर्ट में ट्रेल बद्रीनाथ मंदिर की ब्यवस्था हेतु कुमायूं के 226 गांव को मंदिर को उधार देने की बात करते हैं .लेकिन फिर भी जब 1924 में भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा .बद्रीनाथ धाम में यात्रियों की संख्या बहुत न्यून हो गई. तो रावल को भोजन का संकट खड़ा हो गया कोई सरकारी मदद ना थी .रावल ने वापस केरल जाने की धमकी दे दी ।तब पंडित घनश्याम डिमरी के नेतृत्व में स्थानीय पंडा समाज ने अंग्रेजों से बद्रीनाथ धाम का प्रबंध वापस टिहरी रियासत को करने की मांग की . तब से राजा ने प्रतिवर्ष ₹5000 की आर्थिक सहायता बद्रीनाथ धाम मंदिर को देना प्रारंभ की. 1928 में टिहरी में हिंदू एडॉर्मेंट कमेटी का गठन कर बद्रीनाथ मंदिर का प्रबंध देखा जाना प्रारंभ किया .
इस तंग आर्थिकी और जन दबाव का परिणाम यह हुआ पौडी़ के एक्सीलेंसी माल्कम हाल ने 6 सितंबर 1932 को बद्रीनाथ मंदिर का धार्मिक आर्थिक प्रबंध टिहरी राज दरबार को सुपुर्द करने का पत्र गवर्नर संयुक्त प्रांत को लिखा . जो स्वीकार कर लिया गया और बद्रीनाथ धाम का आर्थिक एवं धार्मिक प्रबंध पूर्व वत् टिहरी राजा को सौंप दिया गया. यहां बद्रीनाथ रिहाइश के सिविल अधिकार टिहरी राजा को नहीं दिए गए .
1948 के बाद उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा बद्रीनाथ धाम का प्रबंध स्वयं अपने हाथ में लिया लेकिन बद्रीनाथ मंदिर के धार्मिक प्रबंध, पूजा मुहूर्त और रावल की नियुक्ति के संबंध में टिहरी रियासत को प्राप्त अधिकारों को पूर्ववत संरक्षित रखा . फिर 1939 के मंदिर समिति नियम से “बदरीनाथ केदारनाथ मंदिर समिति ” का गठन किया गया . वर्तमान में जिसके अध्यक्ष श्री मोहन प्रसाद थपलियाल हैं . अब चार धाम देवस्थानम प्रबंध बोर्ड बन जाने के बाद बद्रीनाथ धाम की व्यवस्था कुछ नए रूप में देखने को मिलेगी लेकिन टिहरी राजवंश की परंपराएं बरकरार रहेंगी .
#बद्रीनाथधाममेंटिहरीरियासतकीपरम्परा : बद्रीनाथ धाम के शीतकालीन कपाट बंद हो जाने के बाद प्रत्येक वर्ष बसंत पंचमी के दिन राजमहल नरेंद्र नगर में राजपुरोहित श्री संपूर्णानंद जोशी और श्री राम प्रसाद उनियाल सरस्वती की पूजा अर्चना करने के बाद शुभ मुहूर्त की गणना करते हैं .इसी दिन बद्रीनाथ मंदिर की पूजा अर्चना के लिए “गाडू घडा कलश “अर्थात तिल का तेल निकालने का मुहूर्त भी निकाला जाता है . बद्रीनाथ मंदिर समिति बसंत पंचमी के दिन इस कलश को राजमहल को सौंपती है . इस वर्ष कपाट खुलने का मुहूर्त 30 अप्रैल प्रातः 4:30 बजे का तय किया गया है . साथ ही.गाडू घडा कलश के लिए मुहूर्त 18 अप्रैल का तय है .
क्या है गाडू घडा कलश : महारानी तथा राजपरिवार व रियासत की लगभग सौ सुहागन महिलाओं के द्वारा सिल बट्टे पर पिस कर तिल का तेल निकाला जाता है .जिसे 25 .5 किलो के घडे में भरकर मंदिर समिति को सौंपा जाता है . महल में निकाले गए इस तिल के तेल से बद्रीनाथ धाम का दीप प्रज्वलित रहता है .इसी तिल से भगवान के विग्रह रूप में लेप भी किया जाता है .यह यात्रा राजमहल से बद्रीनाथ तक 7 दिन में पूरी होती है .इसे गाडू घडा़ कलश यात्रा कहते हैं .
नौटियाल हैं राजा के प्रतिनिधि : बद्रीनाथ धाम के कपाट खोलने में पहले राजा स्वयं मौजूद रहते थे लेकिन समय के साथ उनकी उपस्थिति कठिन हुई तो चांदपुर गढ़ी के पुरोहित परिवार नौटी जनपद चमोली के नौटियाल परिवार जिसमें वर्तमान में श्री शशि भूषण नौटियाल, कल्याण प्रसाद नौटियाल और हर्षवर्धन नौटियाल हैं. बारी बारी बद्रीनाथ मंदिर के कपाट खोलने में उपस्थित रहते हैं धार्मिक प्रबंधों की निगरानी करते हैं.
रावल की नियुक्ति : अब हालांकि रावल मंदिर समिति के कर्मचारी होते हैं लेकिन परंपरा से टिहरी के राजा रावल के परामर्श से उप रावल की नियुक्ति करते हैं.उप रावल ही रावल का उत्तराधिकारी होता है . रावल को हटा देने का अधिकार राजा के पास नहित था .इस परंपरा का वर्तमान में भी निर्वाह किया जा रहा है.
जोशी हैं राजपरिवार के ज्योतिष : श्री संपूर्णानंद जोशी उस जोशी परिवार की 16वीं पीढ़ी में हैं .जो दर असल पाटी नैनीताल जनपद के पांडेय है . इनके पूर्वज मेदनी शाह के समय टिहरी राजपरिवार से जुड़ गए , मेदनी शाह गंगा की धारा को मोड़ देने के लिए भी प्रसिद्ध हैं .जोशी की वंश परंपरा में फलित ज्योतिष के आश्चर्यजनक किस्से जुडे़ हैं . जो उनियाल परिवार के साथ मिलकर बद्रीनाथ के कपाट खोलने ,बंद करने के मुहूर्त निकालते हैं .
वर्तमान में श्री ईश्वरी नम्बूदरीपाद रावल और श्री भुबन उनियाल बद्रीनाथ मंदिर के धर्माधिकारी हैं .